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दसाईं नाच : आर्य आक्रमण के प्रतिरोध का प्रतीक

आर्यों के देव-दानव युद्ध के समानांतर ही मूलनिवासियों और बाहरी आर्यों के बीच संघर्ष की कई कहानियां मिथकीय रुप में मौजूद हैं। आदिवासियों ने अपने संघर्षों को आज भी जिंदा रखा है जो उनके प्रतिरोध क्षमता का प्रमाण है। दसाईं नाच और हुदूड़ दुरगा की कहानी इसी सांस्कृतिक प्रतिरोध का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है

आदिवासियों के लिहाज से हुदूड़ दुरगा और दसाईं नाच का खास महत्व है। लोक कथाओं के अनुसार हुदूड़ दुरगा बहुत ही शक्तिशाली व्यक्ति थे। इसलिए उन्हें हुदूड़ दुरगा नाम दिया गया था। कहावत है कि जब हुदूड़ दुरगा ने एक पत्थर को पैरों से कुचला तो लोगों ने कहा, “हुदुडिया दुरगा गुडगू धीरीम रापूत गेत”। मतलब हुदुडिया दुरगा तुमने पत्थर कुचलकर तोड़ दिया। यहां गुडगू धीरी का मतलब एक सील नुमा पत्थर जो बहुत कठोर होता है और इसे गांव-देहातों में मसाला पीसने के काम मे लाया जाता है। तभी से उनका नाम हुदूड़ दुरगा दिया गया। संथाल लोग, जो वर्तमान में भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाकों के अलावा झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम में रहते हैं, उन्हें ‘मयसा’ नाम से बुलाते हैं और नेपाल जैसे जगहों में दसाई भवानी के नाम से पूजे जाते हैं। वैसे तो संथाल लोग अपने आप को खेरवाल कहते हैं या सिर्फ “होड़ होपोन” (होड़ यानी मानव और होपोन मतलब बच्चा) बोलते हैं। मेरे ख्याल से यह संथाल शब्द बाद के समय में दिया गया है। हुदूड़ दुरगा का यह नाम उनके पराक्रम और व्यक्तित्व के लिए दिया गया था।

वैसे एक कहावत यह भी है कि वे पहले चरवाहा थे। बाद में उनके काम और पराक्रम की वजह से उन्हें देश परगना का पद दिया गया। यहां देश परगना का मतलब क्षेत्र का सर्वोच्च पद। खेरवाल लोगों के अनुसार राज्य व्यवस्था में ग्राम स्तर के लिए माझी हड़ाम (ग्राम प्रधान) होता है और उनके सहयोगी रूप में गोडेत, जोग माझी होता है। पूजा स्थल में पूजा करने के लिए नायके (पुजारी) और सहयोगी कुडाम नायके होता है। ऐसे ही बहुत से पद होते है। पहले ग्राम, फिर कई ग्राम, फिर समग्र ग्राम में जो उच्च पद देश परगना कहलाता है। जैसे प्रधानमंत्री, जो हर राजनैतिक फैसलों के लिये जिम्मेवार होता है। शुरुआती दौर में वे पशुओं को पालतू बनाने का तरीका सिखाते थे। यह सारी जानकारी उनके मृत्यु के पीछे प्रचलित कहानी से पता चलता है –

जब बाहरी लोग (दिकू) सूरा नाई (नदी) के किनारे आये तो खेरवाल लोगों में हड़कंप मचा और उन्होंने उसी नदी के दूसरे किनारे पर पत्ते का कुम्बा (झोपड़ी) बनाया ताकि उनपर (दिकू) पर नजर रखी जा सके। वे दिखने में चरक (सफेद) थे।

कहानी के अनुसार बाहरी (दिकू) और खेरवाल लोगों के बीच कई बार युद्ध हुआ। हर बार बाहरी लोगों को हार का सामना करना पड़ता था। अन्ततः वे एक औरत के पास गए जिसके पास दो लड़कियां थीं। ये दोनों को देह व्यापार में संलिप्त थीं। छोटी वाली लड़की बालिग नहीं थी इसीलिए वह देह व्यापार नहीं करती थी। लेकिन उस औरत की बड़ी लड़की इस काम में थी, जो दिखने में बहुत खूबसूरत थी। एक दिन बाहरी लोगों के मुखिया ने वहां उस लड़की से हुदूड़ दुरगा को मारने के लिए मदद मांगी और बदले में मुंहमांगा इनाम देने की बात की। योजना के अनुसार एक दिन वही लड़की नदी के इस पार जहां खेरवाल लोग रहते थे, मुर्छित अवस्था में मिली। तब पास के कुम्बा (झोपड़ी) में रहने वाले लोग उसे उठाकर गांव ले गये। वहां लोगों ने उसे वापस भेजने के लिए कहा। वहीं कुछ लोगों ने उसे जान से मार देने की बात कही। परंतु तिरला होपोन यानी लड़की होने की वजह से उसे छोड़ दिया। वह बहुत चरक (सफेद) गोरी थी। इसीलिए गांव वालों को लगा कि यह तो अपने समुदाय की नहीं है, जरूर गुप्तचर होगी। जब सभी लोग फैसला नहीं कर पाए तो उन्होंने परगना हड़ाम (हुदूड़ दुरगा) को इसकी जानकारी दी, जो उस वक्त पशुओं को पालतू बनाने का तरीका कुछ लड़कों को सिखा रहे थे। जब वे आये तो उन्होंने फैसला सुनाया कि कुनाम चांदो होलो यानी पूर्णिमा के दिन आरेल महा हिलोअ (नौ दिन बाद) वापस भेज दिया जाएगा। संथाल गणना पद्धति के अनुसार (1 – मित, 2 – बार, 3 – पे, 4 – पून, 5 – मोरहूं, 6 – तूरुय, 7 – ऐयाय, 8 – ईरोल, 9 – आरेल, 10 – गेल) तब तक यह हमारे साथ रहेगी। तबसे वह गोरी लड़की हुदूड़ दुरगा के घर में रहने लगी। कहावत है कि हुडूम दुरगा जिस घर में रहते थे, उसमें चार कमरे थे। जिसमें से एक में वे खुद और दो अन्य कमरों में कुछ लड़के (शायद वे उनके सहपाठी/सहयोगी होंगे) जबकि चौथे कमरे में एक लड़की रहती थी। उसी लड़की के साथ वह (दिकु, बाहरी) चरक लड़की भी रहने लगी। उस दिन के बाद दूसरे रोज उस समुदाय के लोग शिकार करने गये थे। शिकार में एक सुअर लाया गया था (सामूहिक शिकार परंपरा आज भी संथाल, खड़िया, हो, मुण्डा लोगों में प्रचलित है)। उसके बाद पूरे गांव मं प्रीतिभोज भी हुआ, जिस दौरान उस दिन हुडूम दुरगा ने नशा किया था जो अक्सर आदिवासियों में सामूहिक भोज के समय होता है। उसी हालत में जब वह घर गये तो वह चरक लड़की भी उनके पीछे चली गई और जहां वे सोये थे। वहां वह उनके बगल में सो गई। नशे की वजह से हुदूड़ ने ज्यादा विरोध नहीं किया और इस दौरान उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध स्थापित हुआ। बाद में यह संबंध प्रेम संबंध में तब्दील हो गया।

हुदूड़ दुरगा (मयसा) की प्रतिमा पर श्रद्धांजलि अर्पित करते संथाल आदिवासी

एक दिन जब हुदूड़ दुरगा ने उस लड़की को जंगल में मिलने के लिये बुलाया। वहां दोनों के बीच प्रेम संबंध के वक्त लड़की ने हुदूड़ दुरगा के मुंह में जहरीले पत्ते का रस डाल दिया। उसी रस की वजह से हुदूड़ दुरगा मारे गये। हुदूड़ दुरगा को मारने के बाद उस लड़की ने हुदूड़ का तीर-धनुष लेकर उसमें उसी सुअर की चर्बी को तीर में लगाकर चलाया। ऐसा उसने अपने समुदाय के लोगों को खबर देने के लिए किया। जैसे ही बाहरी लोगों हुदूड़ दुरगा के मारे जाने की सूचना मिली, उन्होंने खेरवाल लोगों पर आक्रमण कर दिया। खेरवाल लोगों के घरों को जला दिया गया। पुरुषों को चुन-चुनकर मार दिया गया। केवल औरतों और बच्चों को छोड़ दिया गया। अंत में जब सभी खेरवाल लोग चाई चाम्पा छोड़ रहे थे तब दुख में गीत गाकर शोक मना रहे थे।

चाई गाड़, चम्पा गाड़, लिलि बीची

बादली कुमंडा लीखान (लेकान) गोड़होन,

चाई चाम्पा गाड़, बादली कमंडा गोड़होन

दामगै बोन बागियात कान

मतलब चाई, चाम्पा जैसे सुन्दर गढ़ बादली कयंडा जैसे विकसीत जगह (गढ़) को छोड़ के जा रहे हैं।

चेते तेदाअः चीतानाम गुअरीज कान

चेते तेदाअः वोहयाअ लाला माह कान

लेवा तेदाअः चीतानाम गुअरीज कान

दहे तेदाअ वोहयाम ला ला माह कान

मतलब एक चीत (छीता) नाम की लड़की को कहा जाता है कि तुम क्यों घर के दीवारों और फर्श को लीप रही हो। हे लड़का (वोयल – भाई) क्यूं जमीन की साफ सफाई कर रहे हो।

कुछ पूर्वजों का कहना है कि वे (पुरुष) लोग लड़की का रुप (भेष) बनाकर घर से निकलते थे। उनके हाथों में जो डंडा था वह वास्तव में धनुष था और तीर को वे भूआंग में रखा जाता था, यही भूआंग आज दसाईं नाच में व्यवहार होता है। उसी भूआंग के नाम से ही भूआंग नामक गुरु का नाम पड़ा। उसी ने दसाईं नाच की शुरुआत की है। कहा जाता है कि उन बाहरी लोगों से युद्ध में जाने से पहले एक अखाड़ा (सभा) होता था जहां पूजा पाठ करने और स्त्री भेष के रुप में युद्ध पर जाते थे। इसी क्रम में सरसुती नाई (नदी) किनारे बुदी नाम का व्यक्ति मिला जो बाद में संथालों में कमरु गुरु के नाम से जाना जाने लगा।

वह बहुत विद्वान था। उन्होंने दसाईं नाच के द्वारा लोगों तक इतिहास और परम्परा को फैलाने को कहा। शुरुआती दौर में गीतों के जरिए लोगों तक इतिहास और परम्परा के बारे में जानकारी दी जाती रही, किंतु बाद के काल में ये गीत बदलते चले गये।

हुदूड़ दुरगा (मयसा) के याद में दसाईं नाच करते संथाल आदिवासी। इसे शोक का नाच कहा जाता है

दसाईं ऐनेच (नाच) – यह आश्विन मास के 11वें दिन (दुरगा पूजा के ठीक पहले प्रथमी) से शुरु होता है। सभी दसाईं नाच वाले लड़के प्रथमी के दिन निकलते हैं और दशमी के दिन घर वापस आते हैं। पूरे दस दिनों तक ये घूम-घूमकर गांवों में नाचते हैं, जिसमें गीत भी गाया जाता है। इनका पोशाक मुख्य रूप से साड़ी होता है। साड़ी को धोती की तरह पहनते हैं। पगड़ी में साड़ी ही लगाते हैं। उस पगड़ी में माराअ पिचार (मोर पंख) लगाया जाता है।

यहां दसाईं ऐनेच (नाच) दसाईं महीना (संथाल के अनुसार) अर्थात अश्विन-कार्तिक माह में होता है इसमें जाने से पहले यानी दसाईं दाड़न (घुमना) करने से पहले पूजा होती है, जिसे नेपाल के लोग दासाई भवानी के नाम से पूजते हैं।


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लेखक के बारे में

जगदीश टुडू

झारखण्ड की संथाल (खेरवाल) परिवार में जन्मे जगदीश टुडू भारतीय रेल में लोको पायलट के पद पर कार्यरत हैं

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