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पिछड़े वर्गों के लिए नया आयोग : इरादे कितने नेक?

ओबीसी का मुद्दा एक बार फिर वहीं पहुंचा दिया गया है, जहां से वह शुरू हुआ था। आरएसएस, आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करना चाहता है और एनसीईएसबीसी का प्रस्तावित संस्थागत ढांचा इसी दिशा में एक कदम हो सकता है। इसके अध्यक्ष के रूप में आरएसएस, कल्याण सिंह या शिवराज सिंह चौहान जैसे मोटी बुद्धि वाले किसी ओबीसी नेता को चुन सकता है, जो उसके आदेश का आंख बंद कर पालन करे

मोहन भागवत, आरएसएस प्रमुख जिन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात कही

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इस वर्ष संसद के बजट सत्र के दौरान एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक का उद्धेश्य, वर्तमान राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम को रद्द कर उसके स्थान पर शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीईएसबीसी) की स्थापना करना है। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 388 में एक नया उपखंड जोड़ा जाना है। इस विधेयक को लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया परंतु राज्यसभा में विपक्ष के कड़े विरोध के बाद इसे संसद की एक प्रवर समिति को सौंप दिया गया है। अतः इस विधेयक के केन्द्रीय मंत्रिमंडल और लोकसभा द्वारा पारित स्वरूप पर मेरी टिप्पणियां पूरी तरह तथ्यात्मक नहीं होंगी परंतु हम इस निर्णय के संभावित राजनीतिक उद्धेश्यों का आकलन और एनसीईएसबीसी की स्थापना और उसके प्रस्तावित कर्तव्यों के इस देश के पीड़ित ओबीसी से जुड़े मुद्दों पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने का प्रयास तो कर ही सकते हैं। मैं इस मुद्दे की पड़ताल निम्न बिंदुओं के आधार पर करूंगा :

  1. क्या यह ओबीसी की वर्तमान और पुरानी समस्याओं के समाधान में मदद करेगा, या इसका उद्धेश्य शुद्ध राजनीतिक है और इसे इसलिए लाया गया है ताकि देश के बड़े और महत्वपूर्ण राज्यों में जिन खतरों का सामना भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार कर रही है, उनका मुकाबला किया जा सके।
  2. ओबीसी सूचियों में जातियों के समावेश/अपवर्जन का वह मॉडल, जो 1992 के इंदिरा साहनी प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर आधारित था, का स्थान संविधान के अनुच्छेद 388 में जोड़े जाने वाले नए उपखंड में प्रस्तावित प्रावधानों के लेने का क्या प्रभाव पड़ेगा?
  3. ‘शिकायत निवारण‘ और समावेश/अपवर्जन के उस संकर मॉडल, जिसका उपयोग संविधान के अनुच्छेद 388 में एक उपखंड जोड़े जाने के बाद से अस्त्तिव में आए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और उत्तरप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग की 1993 में स्थापना के बाद से किया जा रहा है, का क्या अनुभव रहा है? इन दोनों को ओबीसी व एससी के कल्याण, मुक्ति और सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दों को सुलझाने में किस हद तक सफलता मिली है और इनकी क्या कमियां रही हैं?
  4. भाजपा सहित विभिन्न राजनैतिक दलों का ओबीसी और उनसे जुड़े मुद्दों पर क्या रूख रहा है।
  5. सकारात्मक कार्यवाही के दूसरे दौर के इंतजार में ओबीसी के वर्तमान और लंबित मुद्दे

ओबीसी के समक्ष वर्तमान में छह मुख्य समस्याएं हैं :

एक, इंदिरा साहनी निर्णय में उच्चतम न्यायालय की विशेष संवैधानिक पीठ ने यह स्पष्ट निर्देश दिए थे कि इन आयोगों के सदस्य विशेषज्ञ होने चाहिए। अतः, केवल जानेमाने विशेषज्ञों, जिनमें समाजविज्ञानी, प्रशासक, न्यायाधीश और राजनीतिज्ञ शामिल हैं, को इन आयोगों का पूर्णकालिक सदस्य नियुक्त किया जाना था। इन आयोगों को पर्याप्त अधीनस्थ मानव संसाधन उपलब्ध करवाया जाना था ताकि वे अपना काम ठीक ढंग से करने के लिए शोध आदि करवा सकें (इंदिरा साहनीः खंड 847)। इन आयोगों को तत्काल ऑक्सीजन की जरूरत है। विभिन्न राज्यों के पिछड़ा वर्ग आयोगों की संरचना और कार्यप्रणाली में समानता नहीं है। कुछ का गठन राज्य विधानमंडलों द्वारा पारित अधिनियमों के माध्यम से किया गया है तो कुछ अन्य केवल सरकार के आदेश से अस्तित्व में आए हैं। उनके कार्यकाल, शक्तियां, वित्तपोषण और कार्यों और जिम्मेदारियों में भी बहुत अंतर हैं। कुछ का अस्तित्व तो केवल कागज पर है। इन संस्थाओं के लिए स्थायी और पर्याप्त बजट का प्रावधान किया जाना चाहिए था ताकि वे अपना कार्य (गोपनीय कार्य सहित) ठीक से कर सकें और उस विभाग के रहमोकरम पर न रहें, जिसके प्रशासनिक नियंत्रण में वे काम कर रहे हैं। इन संस्थाओं को उनके समक्ष प्रस्तुत याचिकाओं आदि के निपटारे में पूर्ण पारदर्शिता बरतनी थी, जो कि उन्होंने 1994 से ही नहीं बरती। उनकी सिफारिशों और उनके आधार पर जारी सरकारी अधिसूचनाओं की प्रतिलिपियां न तो याचिकाकर्ताओं को उपलब्ध करवाई जाती हैं और ना ही इन आयोगों की वेबसाईटों पर प्रकाशित होती हैं। इन आयोगों के सदस्य शायद ही कभी दूरदराज के क्षेत्रों का दौरा कर मूक ओबीसी की आवाज सुनने का प्रयास करते हों। किसी जाति को ओबीसी में शामिल करने की इनकी सिफारिशों पर निर्णय लेने और फिर इस संबंध में अधिसूचनाएं जारी करने में केन्द्र और राज्य सरकारें बहुत लंबा समय लगा देती हैं। संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) के अंतर्गत उन्हें निर्धारित लाभ न दिए जाने के संबंध में याचिकाकर्ताओं की शिकायतों का निवारण करते समय, जो सिफारिशें/निर्णय इन आयोगों द्वारा दिए जा रहे हैं, उनका पालन सरकारों द्वारा नहीं किया जा रहा है, जबकि इंदिरा साहनी प्रकरण में अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने ऐसा करना अनिवार्य घोषित किया था। कुछ राज्यों में सरकारों ने इन आयोगों की सिफारिश के बगैर ही कई जातियों का ओबीसी की सूची में शामिल कर दिया।

हिंसक प्रदर्शन में तब्दील हुआ आरक्षण के लिए जाटों का प्रदर्शन

दो, इंदिरा साहनी निर्णय में यह सिफारिश की गई थी कि ओबीसी की केन्द्रीय और राज्य सूचियों का हर दस वर्षों में पुनरीक्षण किया जाना चाहिए। ऐसा पुनरीक्षण सन् 2002 में किया जाना था और केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग और राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों से यह कार्य करने के लिए कहा था। इस कठिन काम को करने के लिए न तो इन आयोगों के पास पर्याप्त संसाधन थे और ना ही विशेषज्ञता। इसलिए, उन्होंने यह कार्य करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। तब से लेकर आज तक ओबीसी सूचियों में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों की सिफारिशों पर कुछ नई जातियां जोड़ी तो गईं हैं परंतु किसी भी राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने वर्तमान सूचियों में से किसी जाति को हटाए जाने की सिफारिश नहीं की है। इन सूचियों में कई विसंगतियां हैं। कई राज्यों में घुमंतु और विमुक्त जनजातियां न तो एससी, न एसटी और ना ही ओबीसी की सूची में शामिल हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इनमें से कई ओबीसी घोषित किए जाने की पात्र हैं। दूसरी ओर, कई वर्चस्वशाली समुदाय जिनका कई प्रमुख राज्यों में समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति में बोलबाला है, अब भी ओबीसी घोषित हैं। दक्षिणी राज्यों में तो हालत यह है कि आबादी के 70 प्रतिशत से अधिक हिस्से को ओबीसी घोषित कर दिया गया है। इस तरह की किसी भी कार्यवाही के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए था। इस प्रक्रिया के अंतर्गत समुचित आंकड़ों के आधार पर सभी उपलब्ध विकल्पों का आकलन करते हुए सुविचारित निर्णय लिया जाना चाहिए। विनिर्देश के सिद्धांत के अनुसार, इस तरह की विसंगतियों को ठीक करने के लिए समुदाय/जाति आधारित जनगणना आवश्यक है। ओबीसी सूचियों में परिशुद्धता व सुस्पष्टता के अभाव के चलते, अनुच्छेद 15(4) व 16(4) में विनिर्दिष्ट लाभ, सबसे कमजोर और सबसे जरूरतमंद समुदायों, जिन्हें अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी) कहा जाता है, को नहीं मिल पा रहे हैं। इन वर्गों तक लाभ पहुंचाने के लिए यह आवश्यक है कि ओबीसी सूचियों का उपविभाजन किया जाए और लाभों का, पिछड़ेपन के अनुपात में मिलना सुनिश्चित किया जाए। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने मई 2011 में इस आशय की सिफारिश की थी। इसका अनुमोदन नवंबर 2012 में योजना आयोग के ओबीसी से संबद्ध एक उपसमूह ने किया था। इस उपसमूह ने कहा था कि ओबीसी सूची की जातियों को पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में बांटा जाना चाहिए। यह एक महत्वपूर्ण सुझाव था, जिससे लाभों का जरूरतमंदों तक पहुंचना सुनिश्चित किया जा सकता था परंतु इस पर राज्य और केन्द्र सरकारों की प्रतिक्रिया ठंडी रही। वे इसे अपने नीतिगत उद्धेश्यों में शामिल करने के लिए तैयार नहीं थीं। संभवतः उन्हें यह भय था कि वर्चस्वशाली ओबीसी जातियां इसका कड़ा विरोध करेंगी क्योंकि इससे 27 प्रतिशत आरक्षण में उनका हिस्सा, कुल ओबीसी जनसंख्या में उनके प्रतिनिधित्व तक सीमित हो जाएगा। कई राज्यों में ओबीसी सूचियों का उपविभाजन किया जा चुका है परंतु केन्द्र सरकार ऐसा करने से बचती आई है क्योंकि उसे यह आशंका है कि इसकी विपरीत प्रतिक्रिया हो सकती है।

ओबीसी जातियों को उपविभाजित करने के मुद्दे में एक और आयाम जोड़ा रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफारिशों ने। सन् 2010 और 2011 में यूपीए-2 सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी हुई थी और मनमोहन सिंह सरकार यह चाहती थी कि सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछडे़ अल्पसंख्यक वर्गों, विशेषकर मुसलमानों, को कांग्रेस से जोड़ने के लिए पार्टी उन्हें आरक्षण प्रदान करने के अपने चुनावी वायदे को जल्द से जल्द पूरा करे। नवंबर 2011 में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय ने 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे के अंदर अल्पसंख्यकों के लिए 8.4 प्रतिशत उपकोटे का निर्धारण करने का प्रस्ताव किया, जिसमें से छह प्रतिशत मुसलमानों के लिए होता। अंततः केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने 22 दिसंबर 2011 को आयोजित अपनी बैठक में मुसलमानों के लिए 4.5 प्रतिशत उपकोटे को मंजूरी दी। इस निर्णय का मुख्य उद्धेश्य 2012 में उत्तरप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में लाभ प्राप्त करना था। यूपीए-2 ने यही जुआ सन् 2014 के आम चुनाव के ठीक पहले भी खेला। इस निर्णय ने समाजवादी पार्टी जैसे राजनैतिक दलों को मुसीबत में डाल दिया क्योंकि इससे उनके दो वोट बैंक – मुसलमान और ओबीसी यादव – आमने सामने आ गए। चूंकि उत्तरप्रदेश में उस समय ओबीसी में कांग्रेस का कोई आधार नहीं था इसलिए कांग्रेस इस बात के लिए तैयार थी कि अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने से उसे कुछ ओबीसी मत खोने पड़ सकते हैं। चूंकि ओबीसी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान लागू होता है इसलिए सरकार को यह उम्मीद थी कि मुसलमानों, जो सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं, का एक बड़ा वर्ग इससे लाभान्वित होगा। ओबीसी के भीतर, अल्पसंख्यकों के लिए 4.5 प्रतिशत कोटे के निर्धारण से ईसाई, सिक्ख व उन अन्य गैर-हिंदू जातियों को भी लाभ होता, जो ओबीसी में शामिल नहीं थे। यह एक तथ्य है कि अधिकांश मुसलमान सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हैं। नौ राज्यों ने पहले ही ओबीसी के अंतर्गत मुसलमानों के लिए उपकोटा निर्धारित कर दिया है परंतु इस संबंध में इन सभी राज्यों में व्यवस्थाएं अलग-अलग हैं। जहां केरल में सभी मुसलमानों को पिछड़ा वर्ग माना गया है, वहीं कुछ अन्य राज्यों में इस उपकोटे का लाभ मुसलमानों की चिन्हित पिछड़ी जातियों को ही दिया जाता है। मुस्लिम जातियों को ओबीसी में शामिल करना एक संवेदनशील राजनैतिक मुददा है और तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों में इस निर्णय को न्यायालयों में चुनौती भी दी गई है।

हार्दिक पटेल ने किया पाटीदार आन्दोलन का नेतृत्व

कई राज्यों में ओबीसी सूची में से अपात्र जातियों को हटाए जाने की जरूरत है। फिर, असम के चाय बागान मजदूरों और राजस्थान के गुज्जरों को ओबीसी घोषित किए जाने का मुददा भी गर्म है। चाय बागानों के मजदूर अपने मूल राज्यों (ओडिसा व झारखंड) में एसटी घोषित हैं परंतु असम, जहां वे प्रवासी मजदूर हैं, में उन्हें ओबीसी घोषित किया गया है। इस मुददे पर कम से कम तीन बार हिंसा और खूनखराबा हो चुका है। इस अशांति और हिंसा के लिए कांग्रेस और असम गण परिषद दोनों की सरकारें जिम्मेदार हैं। नरेन्द्र मोदी की एनडीए सरकार ने इसी साल कुछ समय पूर्व, इस विसंगति को ठीक किया। जहां तक राजस्थान के गुज्जरों का सवाल है, इसमें कोई संदेह नहीं कि कुछ इलाकों में वे एक चरवाहा समुदाय हैं। तीन हिंसक संघर्षों के बाद भी गुज्जरों को वह नहीं मिल सका है, जिसके वे हकदार हैं। दूसरी ओर, राजस्थान में मीणाओं को एसटी का दर्जा दिया गया है। स्वाधीनता के बाद के 68 वर्षों में मीणा समुदाय में जिस तरह के परिवर्तन आए हैं, उनके चलते यह संदेहास्पद है कि उन्हें यह दर्जा मिलते रहना चाहिए। परंतु अपनी राजनैतिक ताकत के कारण वे अभी भी एसटी की सूची में बने हुए हैं। महाराष्ट्र में मराठों, हरियाणा में जाटों और गुजरात में पाटीदारों ने अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाकर अपनी जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करवा लिया। यह इस तथ्य के बावजूद कि इन जातियों का इन राज्यों की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में बोलबाला है। हालांकि इन निर्णयों को न्यायपालिका ने अवैध घोषित कर दिया।

यह कहा जा रहा था कि ओबीसी की सूची में संशोधन, जाति-आधारित जनगणना के परिणामों के आधार पर किया जाएगा। यूपीए-2 सरकार ने संसद को दिए अपने इस आश्वासन को पूरा नहीं किया कि वह 2011 की जनगणना के साथ जाति-आधारित जनगणना भी करवाएगी। बाद में, दबाव बढ़ने पर उसने ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा करवाए जाने वाले बीपीएल सर्वेक्षण के साथ जाति-आधारित जनगणना करवाने का निर्णय लिया। जदयू के शीर्ष नेता और राज्यसभा सदस्य शरद यादव ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ (12 जुलाई 2011) में प्रकाशित अपने एक लेख में संसद को दिए गए आश्वासन को पूरा न करने के लिए केन्द्र सरकार की तीखी आलोचना की। उन्होंने यह भी बताया कि बीपीएल सर्वेक्षण के दौरान ओबीसी की गिनती करने में किस तरह की कार्यपद्धात्मक समस्याएं आएंगी। उनका तर्क था कि बीपीएल सर्वेक्षण में देश की पूरी आबादी शामिल नहीं होगी। इसके अंतर्गत विभिन्न जातियों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के संबंध में आंकड़े एकत्रित किए जाएंगे। परंतु इन आंकड़ों से यह पता नहीं चल सकेगा कि आरक्षण का विभिन्न जातियों पर क्या प्रभाव पड़ा है। यूपीए-2 सरकार ने अंततः यह सर्वेक्षण करवाया, परंतु अत्यंत अनमने ढंग से। सन् 2011 में इसकी प्रक्रिया शुरू हुई और जुलाई 2015 तक चलती रही। अब नरेन्द्र मोदी की एनडीए-2 सरकार ने एक और अड़ंगा लगाते हुए इस सर्वेक्षण के परिणामों को सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया है।

तीन, सतीश देशपांडे और अबू सलेह शरीफ जैसे समाजविज्ञानियों ने अपने विस्तृत अध्ययनों में भारत में पिछड़े समुदायों व ऊँची जातियों की स्थिति में भारी अंतर पर प्रकाश डाला है। इससे भारतीय समाज के लंबवत विभाजन का पता चलता है, परंतु, इसके साथ ही पिछड़े वर्गों और उपवर्गों के क्षैतिज अंतरों की व्याख्या भी की जानी चाहिए। देश के विभिन्न भागों में तेजी से सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हो रहे हैं। इन परिवर्तनों ने पिछड़े समुदायों के साथ-साथ ऊँची जातियों/वर्गो की सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक स्थिति को भी प्रभावित किया है। इसलिए यह आवश्यक है कि समय-समय पर सभी समुदायों की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए और इसके आधार पर विकास की समावेशी और सकारात्मक नीतियां बनाई जाएं। यूपीए सरकार के दौर में समान अवसर आयोग के गठन की बात कई बार की गई। उस समय अमिताभ कुंडु की अध्यक्षता वाली एक समिति ने इस कार्य को सुगम बनाने के लिए विभिन्नता सूचकांक भी तैयार किया था। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ऐसे सर्वेक्षण करता आ रहा है जिनमें एससी-एसटी व ओबीसी समुदायों का विशिष्टतः अध्ययन शामिल है और इनसे सरकार द्वारा विकास के लिए उठाए गए कदमों की अपर्याप्तता सामने आई है।

ओबीसी नेतागण : एच डी देवगौड़ा, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव, लालू प्रसाद यादव

इसके अतिरिक्त, यह जरूरी है कि केन्द्र व राज्य सरकारों को यह पता चले कि उनके द्वारा शुरू किए गए विभिन्न कार्यक्रमों और योजनाओं से पिछड़े समुदायों (एसी, एसटी, ओबीसी, घुमन्तु, विमुक्त और अर्ध घुमन्तु) की मुक्ति और सशक्तिकरण में कितनी मदद मिली है। इस तरह का लंबवत और क्षैतिज आकलन न केवल पिछड़े समुदायों के संबंध में वरन ऊँची जातियों के संदर्भ में भी किया जाना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि विभिन्न सरकारों ने स्वतंत्रता के बाद से विकास की जो नीतियां और कार्यक्रम लागू किए हैं, उनसे विभिन्न समुदायों को किस प्रकार का तुलनात्मक लाभ मिला है। इसकी जरूरत इसलिए भी है ताकि पिछड़े और अगड़े समुदायों की तुलनात्मक स्थितियों का आकलन किया जा सके। जहां तत्कालीन योजना आयोग ने कभी ओबीसी की स्थिति में सुधार लाने के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित नहीं की, वहीं केन्द्र सरकार के मानव संसाधन विकास व रेलवे जैसे मंत्रालय और उत्तरप्रदेश, राजस्थान और बिहार की राज्य सरकारें ऊँची जातियों के ‘आर्थिक दृष्टि से कमजोर‘ वर्गों के हितार्थ योजनाओं के लिए भारी धनराशि आवंटित कर रही हैं। इंदिरा साहनी प्रकरण के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने ऐसा करना असंवैधानिक करार दिया था। उच्चतम न्यायालय की फटकार के बावजूद, केन्द्र में आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ वर्गों के लिए आयोग अस्तित्व में बना हुआ है और कई राज्य सरकारों ने इन वर्गों को कई सुविधाएं उपलब्ध करवाई हैं जिनमें शैक्षणिक संस्थानों व नौकरियों में आरक्षण शामिल है। अकादमिक दुनिया के वे महानुभाव, जो मंडल आयोग की कार्यपद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाते आए हैं, ने इस आयोग की कार्यपद्धति की समीक्षा करने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि यह आयोग ऊँची जातियों के लिए है।

चार, ओबीसी को संविधान के अनुच्छेद 15(4) व 16(4) के तहत आरक्षण, एक लंबी और कठिन जमीनी और कानूनी लड़ाई के बाद मिल सका है। सत्ता में जमी ऊँची जातियों ने यह सुनिश्चित किया कि ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था ठीक से लागू न हो सके। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि इस संबंध में उचित और पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध न हो सकें। यही कारण है कि केन्द्रीय और राज्य स्तरों पर आरक्षण के संबंध में सही आंकड़े जानना असंभव है। जब मंडल आयोग अपनी रपट के लिए जानकारियां जुटा रहा था तब उसे संविधान के अनुच्छेद 16(4) (राज्य के अधीन सेवाओं में प्रतिनिधित्व) के संबंध में अधूरे आंकड़े भेजे गए थे। सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय की वार्षिक रपटों में इन आंकड़ों का कोई जिक्र नहीं होता। इस संदर्भ में राज्य सरकारें भी केन्द्र की नकल कर रही हैं। चेन्नई के एक आरटीआई कार्यकर्ता ई. मुरलीधरन ने केन्द्र सरकार के अधीन संस्थानों में ओबीसी कर्मचारियों के संबंध में जानकारी मांगी। एक लंबे इंतजार के बाद, सितंबर 2010 में उन्हें जानकारी दी गई परंतु अधूरी। छह मंत्रालयों और अनेक सरकारी संस्थानों ने जानकारी उपलब्ध नहीं करवाई। उपलब्ध करवाई गई जानकारी अद्यतन भी नहीं थी।

पांच, बहुत कम लोगों ने आरक्षण को छोड़कर, अन्य मसलों पर मंडल आयोग की सिफारिशों पर निष्पक्षता और निरपेक्षता से विचार किया है। यही बात दसवीं पंचवर्षीय योजना के ओबीसी कार्यसमूह की सिफारिशों के बारे में सही है। इस कार्यसमूह, जिसका मैं भी सदस्य था, ने ऐसे कदम उठाए जाने की सिफारिश की थी, जिनसे ओबीसी को कौशल विकास के जरिए अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया जा सके। केन्द्रीय और राज्य पिछड़ा वर्ग वित्त व विकास निगमों, जो कि अत्यंत अदक्ष हैं, को बहुत कम धनराशि आवंटित की जा रही है, विशेषकर उस बड़ी ओबीसी आबादी के संदर्भ में, जिसे उन्हें वित्तपोषण उपलब्ध करवाना है।

मराठों के लिए आरक्षण की मांग को लेकर महाराष्ट्र सरकार ने राज्य पिछड़ा आयोग से विचार माँगा है

छह, तमिलनाडु की डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कषगम), उत्तरप्रदेश की सपा (समाजवादी पार्टी) और बिहार की राजद (राष्ट्रीय जनता दल) जैसे ओबीसी के राजनैतिक संगठन अपने-अपने सुप्रीमो की पारिवारिक संपत्ति बन गए हैं। वे ओबीसी को सशक्त करने की बात भर करते हैं परंतु जमीनी स्तर पर उनके लिए कुछ नहीं करते। अतः ओबीसी समुदायों को राजनीति के क्षेत्र में उन्हें जो सफलताएं लंबे संघर्ष के बाद मिली हैं, उन्हें बरकरार रखने के लिए नए रास्ते ढूंढने होंगे। सतीश देशपांडे और योगेन्द्र यादव का कहना है कि आरक्षण राजनीति के अगले दौर में वे समुदाय, जिन्हें आरक्षण का लाभ मिला है, और वे, जो इससे वंचित रहे हैं, आमने-सामने होंगे। यह राजनीति भी पहचान-आधारित होगी परंतु इसमें यादव गैर-यादवों से भिड़ेंगे, आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ वर्ग ओबीसी के सामने होंगे, दलित और अति पिछड़े एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होंगे और जाट और गैर-जाटों के बीच संघर्ष होगा। इस सिलसिले में नीतीश कुमार ने बिहार में जो राजनैतिक मॉडल बनाया है, वह अन्य ओबीसी राजनेताओं के लिए अनुकरणीय है। इसमें शामिल है राज्य की कानून और व्यवस्था की स्थिति को सुधारना, सुशासन देने का प्रयास और पिछड़े (पसमांदा) मुसलमानों, गैर-यादव अति पिछड़ी जातियों और गैर-पासवान अनुसूचित जातियों का गठबंधन बनाना। अन्य ओबीसी नेताओं, जिनमें मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान के अशोक गहलोत शामिल हैं, ने ऊँची जातियों और ओबीसी के हितों के टकराव से उत्पन्न होने वाले राजनैतिक द्वंद्व का हल कुशलतापूर्वक निकाला। परंतु वे भी दलितों के सशक्तिकरण से जुड़े मुद्दों का समाधानकारक निवारण नहीं कर सके।

ओबीसी सूचियों में जातियों के समावेश/अपवर्जन का वह मॉडल, जो 1992 के इंदिरा साहनी प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर आधारित था, का स्थान संविधान के अनुच्छेद 388 में जोड़े जाने वाले नए उपखंड में प्रस्तावित प्रावधानों के लेने का क्या प्रभाव पड़ेगा?

इंदिरा साहनी प्रकरण में पिछड़ा वर्ग आयोग के जिस मॉडल, का प्रस्ताव किया गया था, उसमें इस आयोग का कार्यों में केवल समावेश और अपवर्जन के जरिए ओबीसी सूचियों में परिवर्तन के लिए सिफारिशें करना, इनमें शामिल जातियों को सूचीबद्ध करना और उनकी अनुसूचियां जारी करना शामिल था। इसके विपरीत, मोदी सरकार का मॉडल, जिसे मैं संकर मॉडल कहता हूं, में शिकायतों के आधार पर समावेश/अपवर्जन का कार्य इन आयोगों द्वारा किया जाना है। यह कार्य ठीक वैसा ही है, जैसा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के लिए सन् 1990 में संविधान के अनुच्छेद 338 के अधीन और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के लिए अनुच्छेद 338(ए) के तहत निर्धारित किया गया है। मोदी सरकार द्वारा एनसीईएसबीसी के गठन के संबंध में जारी प्रेस विज्ञप्ति, जितना जाहिर करती है, उससे ज्यादा छुपाती है। मोदी सरकार के इस निर्णय की उच्चतम न्यायालय की प्रसिद्ध वकील इंदिरा जयसिंह (जिनके साथ मुझे सन् 1990 के दशक में इंदिरा साहनी प्रकरण में काम करने का सौभाग्य मिला था) की व्याख्या से मैं सहमत हूं। उनका यह कहना है कि एनसीईएसबीसी एक स्थायी आयोग होगा और वह जाति से इतर अन्य कारकों के आधार पर भी वंचित समूहों के ओबीसी सूची में समावेश की सिफारिश कर सकेगा। मेरी यह पक्की मान्यता है कि इस निर्णय द्वारा मोदी सरकार, मुख्यतः, मेरे मित्र सतीश देशपांडे के शब्दों में ‘‘आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ उस बेबस रोष, जो महत्वाकांक्षाओं के जन्म लेने परंतु उनके पूरा न होने से उपजा है‘‘ से निर्मित राजनैतिक संकट का मुकाबला करने के लिए किया गया है। इस तरह का रोष हरियाणा में जाटों, गुजरात में पाटीदारों और महाराष्ट्र में मराठाओं में देखा जा सकता है। देशपांडे का तर्क यह है कि ‘‘संभवतः, ये राज्य-केन्द्रित आंदोलन एक कहीं अधिक गहरे वैश्विक संकट की ओर इशारा करते हैं। यह वैश्विक संकट, राजनीतिज्ञों की इस भाषा से उपजा है जिससे ऐसा लगता है कि मानो अर्थव्यवस्था मानव निर्मित न होकर कोई प्राकृतिक शक्ति हो।‘‘ गुजरात, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और ओडिसा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मोदी सरकार को यह डर है कि विपक्ष एक होकर, तीन सालों के उसके कार्यकाल में सरकार की चुनावी वायदों को पूरा करने में असफलता को मुद्दा बनाकर विकास के उसके दावों की हवा निकाल सकता है।

(1) राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की क्रमशः संविधान के अनुच्छेद 388 व 388ए के अंतर्गत स्थापना के बाद से उनके कार्यकलापों का व (2) ‘शिकायत निवारण‘ और समावेश/अपवर्जन के उस संकर मॉडल, जिसका उपयोग उत्तरप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग 1993 में अपनी स्थापना के बाद से करता आ रहा है, का क्या अनुभव रहा है?

एनसीईएसबीसी के संबंध में प्रेस विज्ञप्ति में मोदी सरकार द्वारा किए गए दावों के विपरीत, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग (और अनुसूचित जनजाति आयोग के मामले में इसके कुछ क्षेत्रीय कार्यालय) मुख्यतः अर्ध-न्यायिक संस्थाएं हैं और इनका काम केवल संबंधित समुदायों की शिकायतों पर शोर मचाना भर रह गया है। उनसे सरकार ने कभी इन समुदायों की स्थिति में सुधार लाने या उनके सशक्तिकरण के लिए किए जा सकने वाले उपायों के संबंध में कोई सलाह नहीं ली। इन आयोगों ने कभी संबंधित समूहों के वास्तविक सशक्तिकरण के लिए कोई सिफारिश नहीं की। उन्हें न्यायिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं और उनके अर्ध-न्यायिक अधिकारों का उपयोग वे केवल उन्हें मिली सूचनाओं या जानकारियों के आधार पर संबंधित पक्षों को नोटिस जारी करने के लिए करते हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें उनकी रपटों/सिफारिशों पर शायद ही कभी कोई कार्यवाही करती हैं। मेरे विचार में सन् 1990 के पहले तक की अनुसूचित जाति व जनजाति आयुक्त की व्यवस्था इन आयोगों से बेहतर थी। आयुक्त के पद पर सबसे लंबे समय तक नियुक्त रहे एलएम श्रीकांत ने उनके उत्तराधिकारी पीएल पूनिया से कहीं बेहतर कार्य किया। उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पीसी वर्मा, जो तत्समय इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में उत्तरप्रदेश सरकार के स्थायी वकील थे और मैंने सन् 1993 में उत्तरप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन से संबंधित विधेयक को तैयार करते समय उन्हीं प्रावधानों का उपयोग किया, जो संविधान के अनुच्छेद 338 में हैं। उत्तरप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के पहले कार्यकाल (1993-1996), जब आयोग में केवल चार या पांच सदस्य थे, का अनुभव बहुत अच्छा रहा था। बाद में हम लोग ओबीसी प्रमाणपत्र जारी करने और सूचीकरण के काम में इतने व्यस्त हो गए कि हमारे पास शिकायतें सुनने के लिए वक्त ही नहीं बचा। परंतु फिर भी हमने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें राज्य सरकार को कीं। मायावती सरकार (2007-2012) और अखिलेश यादव सरकार (2012-2017) के कार्यकालों में उत्तरप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग उपहास का पात्र बन गया। मायावती ने इसके सदस्यों की संख्या 17 कर दी और अखिलेश यादव ने 27। मायावती ने आयोग के सदस्यों का इस्तेमाल, देश के अन्य राज्यों में बसपा का आधार बढ़ाने के लिए किया। वैसे भी इसके सदस्य इतने अक्षम थे कि वे सूचीकरण का काम भी ठीक से नहीं कर सकते थे। मायावती के कार्यकाल में यह आरोप भी लगा कि आयोग के सदस्यों ने कुछ अपात्र जातियों के ओबीसी सूची में समावेश की सिफारिश करने के लिए पैसे भी लिए और मजे की बात तो यह है कि इन सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार भी नहीं किया। वे ऐसे मामलों की सुनवाई करने लगे जो सामान्यतः जिलों के कार्यकारी मजिस्ट्रेटों के कार्यक्षेत्र में आते हैं। परंतु जिला और उसके ऊपर के स्तर की नौकरशाही ने इनकी सुनवाईयों को कभी गंभीरता से नहीं लिया।

अखिलेश यादव सरकार ने तो राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को मजाक बना दिया था। इसके 27 में से 17 सदस्य यादव थे और आयोग के मेरे एक सहयोगी ने अप्रैल 2017 में मुझे बताया कि सभी सदस्य हर महीने की एक निश्चित तारीख को इकट्ठा होते थे और उनके लिए निर्धारित एक हाल में मवेशियों की तरह पसर जाते थे। वे अपना टीएडीए प्राप्त करते और बिना कोई काम किए अपने-अपने घर वापिस चले जाते। उत्तरप्रदेश मॉडल से यह स्पष्ट हो गया कि इस तरह के आयोगों में विशेषज्ञों की नियुक्ति का कितना महत्व है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी सरकार भी हर उपलब्ध पद पर संघ के सदस्यों की नियुक्ति करना चाहती है। ऐसे में यह अपेक्षा करना व्यर्थ होगा कि प्रस्तावित आयोग कोई भी उल्लेखनीय कार्य कर सकेगा।

यह स्पष्ट नहीं है कि मोदी सरकार, वर्तमान राज्य पिछड़ा वर्ग आयोगों को क्या भूमिका देना चाहती है। यह कयास लगाया जा रहा है कि ओबीसी सूची से जातियों को हटाने/जोड़ने का काम केवल केन्द्रीय आयोग का होगा और राज्य आयोगों से ये शक्ति ले ली जाएगी। अगर ऐसा होता है तो राज्य आयोगों की तो कोई जरूरत ही नहीं रह जाएगी। एनसीएससी की तरह एनएसईबीसी भी उनका काम करेगा।

भाजपा सहित विभिन्न राजनैतिक दलों का ओबीसी और उनसे जुड़े मुद्दों पर क्या रूख रहा है?

मेरे एक शोधपत्र, जिसका शीर्षक ‘‘शासक राजनैतिक दलों ने ओबीसी के साथ क्या किया‘‘, है और जो मेरी दो पुस्तकों में शामिल है, में मैंने इस मुद्दे की विस्तार से व्याख्या की है। इस मामले में तीन विभिन्न प्रकार के राजनैतिक दलों के काम करने के तीन अलग-अलग मॉडल हैं। कांग्रेस का अलग, भाजपा का अलग और ओबीसी की तथाकथित क्षेत्रीय पार्टियों का अलग।

रजनी कोठारी के शब्दों में ओबीसी ‘‘कांग्रेस तंत्र‘‘ का हिस्सा नहीं थे। उन्हें न के बराबर प्रतिनिधित्व प्राप्त था और उनके मुद्दों को नजरअंदाज किया जाता था। नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह सरकारों का इससे कोई लेनादेना नहीं था कि ओबीसी का रूख क्या है और वे किन समस्याओं से जूझ रहे हैं। इसके बाद भी, जिन ओबीसी ने कांग्रेस के इस अपमानजनक व्यवहार को बिना विरोध के सहा, उनके सामने सत्ता के कुछ टुकड़े फेंक दिए गए। उदाहरण के लिए, उत्तरप्रदेश के बालमुकुंद वर्मा, केन्द्र सरकार में उपमंत्री बनाए गए। मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि की गई और बोनस का प्रावधान भी किया गया। मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बोनस का प्रावधान समाप्त कर दिया है और अपनी सत्ता के तीन वर्षों में न्यूनतम समर्थन मूल्य में बहुत कम वृद्धि की है। भाजपा का मॉडल, ओबीसी के यूज एंड थ्रो तक सीमित है। पहले राम मंदिर आंदोलन में उनका उपयोग किया गया, उसके बाद बाबरी मस्जिद को ढहाने में और फिर गुजरात के कत्लेआम में। गुजरात में सड़कों पर भयावह हिंसा करने के लिए ओबीसी का इस्तेमाल किया गया। और यही अब गोरक्षा अभियान और मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक हिंसा में किया जा रहा है। इन अभियानों के जरिए संसद और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के पहले मतदाताओं को ध्रुवीकृत किया जाता रहा है। उत्तरप्रदेश में लोध (ओबीसी) मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पहले बाबरी मस्जिद के ध्वंस को सुगम बनाना पड़ा और बाद में उसकी पूरी जिम्मेदारी भी लेनी पड़ी। जिन लोगों ने इसकी योजना बनाई और उसे अंजाम दिया – जो कि सभी ऊँची जातियों के थे – को कोई राजनैतिक नुकसान नहीं उठाना पड़ा। मध्यप्रदेश में उमा भारती को राममंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए पुरस्कृत करते हुए कुछ समय तक मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। फिर उन्हें हटाकर एक अन्य ओबीसी बाबूलाल गौर को यह जिम्मेदारी दी गई। गौर को भी जल्दी ही बाहर का रास्ता दिखला दिया गया और उनके स्थान पर शिवराज सिंह चौहान को लाया गया। शिवराज सिंह, आरएसएस के आदर्श ओबीसी डमी हैं। वे आरएसएस प्रचारकों की व्यापमं जैसे घोटालों और राज्य की खनिज संपदा को लूटकर कुबेरपति बनने में मदद कर रहे हैं। जहां तक देश के विभिन्न भागों में सक्रिय ओबीसी राजनैतिक दलों का प्रश्न है, उनका प्रदर्शन मिश्रित रहा है। ओडिशा में नवीन पटनायक की लंबी पारी में ओबीसी की भूमिका बहुत कम रही है। जहां तक द्रविड़ पार्टी डीएमके का सवाल है, उसके मॉडल में केवल चंद शक्तिशाली और बड़ी आबादी वाली ओबीसी जातियों को साथ लिया जाना है। अब तो वहां पर एक जाति की कई पार्टियां भी बन गई हैं जिनमें पीएमके और डीएमडीके शामिल हैं। तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों पर अत्याचार अब ब्राम्हण नहीं कर रहे हैं बल्कि वर्चस्वशाली ओबीसी जातियां कर रही हैं। तमिल लेखक पेरूमल मुरूगन को अपनी ही जाति के राजनेताओं के दबाव में लेखन कार्य बंद करना पड़ा। केरल में ओबीसी (इड़िवा) मुख्यमंत्री को कांग्रेस और भाजपा के अलावा अपनी ही सीपीएम के हाथों अपमान झेलना पड़ा।

उत्तरप्रदेश और बिहार में क्रमशः मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के नेतृत्व वाली ओबीसी पार्टियों ने ओबीसी मतों की सहायता से सत्ता पाई और फिर सरकारी खजाने को खुलकर लूटा। यादवों के अलावा अन्य ओबीसी जातियों को जरा सा भी फायदा नहीं होने दिया गया। अखिलेश यादव सरकार के कार्यकाल में उत्तरप्रदेश में सभी प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों को यह निर्देश थे कि वे किसी भी हालत में किसी कुर्मी द्वारा बताया गया कोई काम न करें। ओबीसी का मुद्दा एक बार फिर वहीं पहुंचा दिया गया है, जहां से वह शुरू हुआ था। आरएसएस, आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करना चाहता है और एनसीईएसबीसी का प्रस्तावित संस्थागत ढांचा, इसी दिशा में एक कदम हो सकता है। इसके अध्यक्ष के रूप में आरएसएस, कल्याण या शिवराज सिंह चौहान जैसे मोटी बुद्धि वाले किसी ओबीसी नेता को चुन सकता है, जो उसके आदेश का आंख बंद कर पालन करे।


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लेखक के बारे में

हरनाम सिंह वर्मा

हरनाम सिंह वर्मा समाजविज्ञानी व योजनाकार हैं और देश के प्रतिष्ठित शोध, शैक्षणिक व योजना संस्थानों में काम कर चुके हैं। उन्होंने इंदिरा साहनी प्रकरण में उत्तरप्रदेश सरकार की मदद की थी। वे उत्तरप्रदेश क्रीमी लेयर कमेटी, उत्तरप्रदेश पर्सनटेज फिक्सेशन कमेटी, उत्तरप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग, तत्कालीन योजना आयोग के ‘दसवीं पंचवर्षीय योजना में ओबीसी के सशक्तिकरण‘ पर कार्य समूह और योजना आयोग के आंकलन व पर्यवेक्षण प्राधिकरण के सदस्य रहे हैं। वे विश्व बैंक, यूनिसेफ और यूनेस्को की अनेक परियोजनाओं में परामर्शदाता रहे हैं। उन्होंने ओबीसी पर तीन पुस्तकों का लेखन/संपादन किया है

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