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अपने फ़ैसलों से चौंकाना नीतीश की खासियत

यह भी संभव है कि नीतीश यह भांप चुके हों कि वर्ष 2019 भी मोदी मैजिक का है। ऐसे में बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने में ही भलाई है और यह इस बार लालू प्रसाद के सहारे मुमकिन नहीं है। राष्ट्रपति का चुनाव तो महज एक बहाना है

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजनीति के प्रचलित सिद्धांतों के विपरीत जाकर फ़ैसला लेने के माहिर खिलाड़ी हैं। राजनीतिक अनुकुलनशीलता के मामले में अब तक कई कीर्तिमान स्थापित करने वाले नीतीश ने एक बार फ़िर सभी को

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का पटना एयरपोर्ट पर स्वागत करते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और तत्कालीन राज्यपाल(वर्तमान में एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार) रामनाथ कोविन्द

चौंकाया है। जनता दल यूनाईटेड के राष्ट्रीय महासचिव के सी त्यागी ने इसकी अधिकारिक घोषणा कर दी है कि राष्ट्रपति चुनाव को लेकर उनकी पार्टी इस बार भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ी है। इसके लिए जो वजह त्यागी द्वारा बतायी गयी है उसके मुताबिक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति के पद के लिये सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हैं। उन्होंने अपने अधिकारिक बयान में श्री कोविन्द के दलित होने को लेकर कोई बात नहीं की है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इस निर्णय का महागठबंधन पर कोई असर नहीं पडेगा।

 

कोविन्द पर लग रहा “संघी” दलित होने का आरोप

वहीं एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविन्द पर विपक्ष के नेता संघ से जुड़े होने का आरोप लगा रहे हैं। विपक्षी खेमे के महत्वपूर्ण घटक दल राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज झाके मुताबिक रामनाथ कोविन्द का संबंध आरएसएस से रहा है और उन्हें आगे कर भाजपा राष्ट्रपति चुनाव में भी जातिवाद कर रही है। उन्होंने कहा कि एक ओर भाजपा बाबा साहब आंबेडकर का अपमान करती है और उनके संविधान के बदले गोलवलकर का संविधान लागू करना चाहती है। उन्होंने कहा कि एक तरफ़ सहारनपुर में दलितों के खिलाफ़ हिंसा तो दूसरी ओर रामनाथ कोविन्द को दलित बताकर दलितों के आंदोलन को दबाना चाहती है।

कोविन्द पर “संघी दलित” होने का आरोप महज विपक्षी एजेंडा नहीं है। गुजरात दंगे के समय चुप्पी से लेकर वर्ष 2010 में दलित इसाइयों और दलित मुसलमानों को “एलियन” यानी दूसरे ग्रहों का निवासी कहकर उनका उपहास करने तक, कोविन्द की छवि आरएसएस समर्थक की रही है। यहां तक कि 12 वर्षों तक राज्यसभा सांसद के रुप में अपने राजनीतिक कैरियर में कोविन्द ने केवल 7 बार दलितों और आदिवासियों के सवाल पर राज्यसभा के अंदर सवाल उठाया। उनके 98 फ़ीसदी सवाल दलितों और आदिवासियों से जुड़े नहीं थे।

 

तीसरी बार नीतीश ने किया समाजवाद से किनारा

10 मई 2009 को पंजाब के लुधियाना में एक चुनावी कार्यक्रम के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। तब श्री कुमार एनडीए के साथ थे

1 मार्च 1951 को बिहार के नालंदा जिले के हरनौत प्रखंड के कल्याणबिगहा नामक गांव में जन्मे नीतीश कुमार ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बिहार की राजधानी पटना  (वर्तमान में वर्ष 2009 में हुए परिसीमन के बाद पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र) के बख्तियारपुर में हुई। इससे पहले बख्तियारपुर बाढ लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा था जो नीतीश कुमार की राजनीति के लिहाज से पहली कर्मभूमि साबित हुई। पहली बार वे 1985 में बख्तियारपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक के रुप में निर्वाचित हुए और 1989 तक रहे। वर्ष 1989 में ही वे पहली बार बाढ लोकसभा से निर्वाचित हुए और इस अवधि तक ओबीसी का प्रतिनिधित्व करने वाले लालू प्रसाद के बाद दूसरे सबसे प्रभावशाली नेता बन चुके थे। जन नायक कर्पूरी ठाकुर( जन्म 24 जनवरी 1924, मृत्यु 17 फ़रवरी 1988) के निधन के बाद जनता दल पूरी तरह से लालू प्रसाद के नियंत्रण में आ गयी थी। तब नीतीश उनके छोटे भाई के रुप में उनके साथ थे। इसका इनाम भी उन्हें मिला। वे केंद्र में पहली बार वी पी सिंह सरकार में कृषि एवं सहकारिता राज्यमंत्री बनाये गये। बाद में जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुए और त्रिशंकु परिणाम सामने आये तब नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद का साथ दिया था। लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने और इसमें बड़ी भूमिका नीतीश कुमार की थी। नीतीश कुमार को भी इसका लाभ मिला और वर्ष 1991 में लालू प्रसाद ने उन्हें फ़िर से बाढ संसदीय क्षेत्र से जिताने में सहायता की। इतना ही नहीं लालू ने उन्हें लोकसभा में जनता दल का उपनेता भी मनोनीत करवाया।

 

दुलारचंद यादव के कारण लालू से पहली बार अलग हुए थे नीतीश

लेकिन वर्ष 1993 में नीतीश कुमार ने पाला बदला। पाला बदलने की वजह दुलारचंद यादव नामक एक कुख्यात अपराधी था जो बाढ की राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जाता था। उससे हुई अनबन के कारण नीतीश ने लालू से खुद को अलग किया और अपनी राजनीति शुरु की। समाजवादी होने के तथाकथित पहचान के बावजूद वर्ष 1995 में उन्होंने भाकपा माले के साथ गठबंधन करने का प्रयास किया और लालू प्रसाद को परास्त करने का उनका सपना अधूरा रह गया। वे अपनी सीट तक नहीं जीत सके। यहीं से नीतीश ने प्रचलित राजनीति के विपरीत जाकर भाजपा का साथ दिया और इसका फ़ौरी लाभ यह मिला कि वे 1996 के लोकसभा चुनाव में तीसरी बार विजयी हुए।

 

जातिगत जनगणना और संसद में आरक्षण पर अलग राय

लालू प्रसाद को दूसरी बार कथित तौर पर राजनीतिक धोखा नीतीश कुमार ने तब दिया जब सामाजिक जातिगत जनगणना के सवाल पर खुद को अलग किया। यह तब हुआ जब नीतीश वर्ष 2013-14 में भाजपा से अलग होकर राजद के सहारे अप्रत्यक्ष रुप से सरकार में थे। तब मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी थे जो आजकल भाजपा के साथ जुड़े हैं। नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर खुद को तो अलग किया ही, साथ ही संसद व विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण के सवाल पर कोटा के अंदर कोटे के मु्द्दे पर भी लालू प्रसाद से अलग राय रखी। तीसरी बार नीतीश कुमार ने अब जाकर लालू को सीधे तौर पर धोखा दिया है। राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए को समर्थन देकर उन्होंने पूरे यूपीए को बिखरने पर मजबूर कर दिया है जो वर्ष 2019 के पहले एक मजबूत ताकत के रुप में उभरने का प्रयास कर रही थी।

 

राजद चलेगा अपनी सेक्यूलर राह : मनोज झा

वर्ष 1992 में एक बैठक के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और साथ में शरद यादव व नीतीश कुमार

राष्ट्रीय जनता दल अपने जन्म और शैशव काल से ही धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी धारा की पैरोकारी करता रहा है। राजद के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज झा ने बताया कि हमने विपक्ष के दलों के साथ सामूहिक चर्चा में इसी पक्ष को रखा। आज जो मुल्क के हालात हैं जहां सहारनपुर की घटना पर हुकुमत आपराधिक चुप्पी साध लेती है, जहां मंदसौर के बाद सत्ता के कान पर जूँ नहीं रेंगती और जहां रोहित वेमुला का सभ्यता के नाम खुदकुशी के खत भूला दिया जाता है, जहां एक सत्ता प्रेरित हिंसक भीड़ किसी का भी कत्ल कर देती है, ऐसे हालात में राष्ट्रपति भवन में ऐसा व्यक्ति चाहिए जिसमें कतार में खड़े आखिरी इंसान को भी भरोसा हो कि वो किसी भी कीमत पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करेंगे और नागपुर वाले संघ के विधान को संविधान के ऊपर हावी नहीं होने देंगे।

 

नीतीश के अलग जाने का मतलब

बहरहाल निश्चित तौर पर राजद और जदयू के बीच दूरियों की यह एक नई शुरुआत है। बड़ी वजह यह भी संभावित है कि केंद्र सरकार ने महज सुशील कुमार मोदी (भाजपा के वरिष्ठ नेता) के आरोपों के आधार पर लालू प्रसाद एवं उनके परिजनों को नये विवादों में घसीटा है, नीतीश इसी बहाने खुद को पाक साफ़ साबित करना चाहते हैं। अलबत्ता यह भी संभव है कि नीतीश यह भांप चुके हों कि वर्ष 2019 भी मोदी मैजिक का है। ऐसे में बिहार का मुख्यमंत्री बने रहने में ही भलाई है और यह इस बार लालू प्रसाद के सहारे मुमकिन नहीं है। राष्ट्रपति पद का चुनाव तो महज एक बहाना है।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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