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सहारनपुर दंगा : पहली बार दलितों से खौफ़जदा हुए सवर्ण

आज एक हद तक संपत्ति और ज्ञान से लैस दलित समाज का एक हिस्सा डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में संपत्ति पाकर सवर्णों से स्वतंत्र और ज्ञान पाकर अपने हितों के प्रति सजग हो गया है, जरूरत पड़ने पर वह हथियार जुटाने में भी जुट सकता है। इसकी एक बानगी सहारनपुर में दिखी है। डा सिद्धार्थ कर रहे हैं बदले हालात पर मंथन

बीते 5 मई को सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में दलितों पर राजपूतों का दिल-दहला देने वाला बर्बर अत्याचार, दलितों पर सवर्णों के भयानक अत्याचारों के हजारों वर्षों के सिलसिले की एक और कड़ी थी। पुलिस द्वारा इस अत्याचार पर मूकदर्शक बने रहना,

बीते 21 मई को भीम आर्मी के आह्वान पर दिल्ली के जंतर मंतर पर हजारों की संख्या में जुटे लोग

इससे भी आगे बढ़कर इस कुकृत्य में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष मदद करना भी कोई नई बात नहीं थी, यह आजादी के बाद से ही पुलिस या अन्य सशस्त्र बल करते रहे हैं। शासन-प्रशासन और मीडिया का सवर्णों के प्रति बेशर्मी से खड़े होना भी कोई अनोखी बात नहीं थी। यह सब कुछ देखने की आदत सी बन गई है। यह बात भी बिल्कुल नई नहीं थी कि अपने दलित भाई-बहनों के प्रति निर्मम अत्याचार के विरोध में दलित समाज 9 मई को सड़कों पर उतर आया, और तीखा असन्तोष, आक्रोश, प्रतिवाद और प्रतिरोध प्रकट किया। यह प्रक्रिया स्पष्ट तौर से खैरलांजी से ही दिखाई दे रही है, जहां हजारों की संख्या में दलित नौजवान, महिलाएं आदि सड़कों पर उतर आए, कई दिनों तक तोड़-फोड़, आगजनी और जाम का सिललिला चलता रहा, सार्वजनिक वाहनों को आग लगाई गई, बड़े पैमाने पर पुलिस से भिड़ंत हुई। यह चीज रोहित बेमुला और ऊना के मामले में भी दिखाई दी। यह सब कुछ सहारनपुर में भी हुआ। लेकिन सहारनपुर में दलितों की तरफ से बिल्कुल एक नई तरह की कार्रवाई भी दिखाई दी, जो शायद दलितों की तरफ से पूरे उत्तर भारत में पहली बार हुई है। यह प्रतिरोधात्मक कार्रवाई क्यों और किन परिस्थितियों में हुए एवं इसके दूरगामी संकेत क्या हैं, चिंतन करना आवश्यक है।

पहले ऐसा तो होता था कि दलितों पर सवर्णों ने अत्याचार किया और स्वतः स्फूर्त तरीके से कुछ दलितों ने भी प्रतिरोध का साहस किया। लेकिन सहारनपुर में पहली बार 9 मई को साफ तौर पर यह दिखा कि दलित नौजवानों ने प्रतीकात्मक तरीके से पुरजोर विरोध किया। भगवा रंग का जो अंगोछा वे अपनी शान और पहचान के लिए लगाए फिरते थे, वह उनके जान का जंजाल बन गया, अधिकांश ने डर के मारे अंगोछे फेंक दिए। गाड़ियों पर ‘राणा’ या ‘दी ग्रेट’ राजपूत लिखकर तथाकथित उंची जाति का होने के जिस दंभ का प्रदर्शन वे करते थे, उस दिन उनकों यह समझ में नहीं आ रहा था कि उसका वे क्या करें, अपनी-अपनी गाड़ियाँ खड़ी करके भागे।

कुछ घटनाएं तो ऐसी भी हुईं कि दलित नौजवानों के झुंड़ को देखकर अपने आप को दलित साबित करने के लिए सवर्ण, खास करके राजपूत जय भीम नारा लगाने लगे, आंबेडकर जिंदाबाद बोलने लगे। पहली बार सवर्णों के दिल में यह खौफ समाया कि दलित सीधे उन पर हमला बोल कर अपने तथा अपने समुदाय पर हुए अत्याचार का प्रतिकार कर सकते हैं, जिस तरह हजारों साल से दलितों के मान-सम्मान को सवर्ण रौंदते आए हैं, अब उनका भी मान-सम्मान खतरे में पड़ सकता है।

अब ऐसा नहीं रह गया है कि वे जैसे चाहें दलितों के साथ बर्ताव करते रहें और दलित चुपचाप सह लेंगे, या शासन-प्रशासन से न्याय की बाट जोहेंगे। सहारनपुर और उसके बाद 21 मई को जंतर-मंतर पर जुटान ने साबित किया कि अब दलित युवा जाति के आधार पर होने वाले अत्याचारों पर चुप नहीं बैठने वाले हैं।

21 मई को जंतर मंतर पर आयोजित जनसभा को संबोधित करते भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर

दलितों के प्रतिरोध का असर दिखने भी लगा है। सवर्ण दलितों को उनकी ‘औकात’ बताने की फिराक में हैं। उन पर हमले की तैयारी कर रहे हैं। इसका प्रमाण उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की शब्बीरपुर की यात्रा के दौरान जनसभा से लौट रहे दलितों पर राजपूतों के हमले में दिखा, लेकिन दूसरी तरफ यह भी उतना ही सच है कि वे भीतर-भीतर खौफ में हैं। उन्हें भय है कि दलित भी उन पर हमला बोल सकते हैं। यह डर और खौफ शब्बीरपुर की घटना के बाद, खास करके 9 मई के बाद दलित नौजवानों ने सवर्णों के दिल में भर ही दिया है। सवर्णों के दिलों में यह खौफ पैदा करने में भीम आर्मी और उसके संस्थापक चंद्रशेखर की महत्वपूर्ण भूमिका है।

इस पूरे संदर्भ में दो अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं- पहला यह कि आखिर दलितों ने अपने साथ होने वाले अन्याय का प्रतिकार खुद ही करने का निर्णय क्यों लिया। क्या उन्हें न्याय दिलाने के लिए स्थापित सरकारी संस्थाओं और एजेंसियों पर भरोसा नहीं रह गया है? साथ ही क्या उनके हितों की नुमाइंदगी का दावा करने वाली पार्टियों और संगठनों पर से उनका भरोसा उठने लगा है? दूसरा अहम प्रश्न यह कि किस मानसिक और भौतिक स्थिति ने दलितों को इस स्थिति में पहुंचाया कि उनके अन्दर यह आत्मविश्वास पैदा हुआ है कि वे खुद ही अपने प्रति होने वाले अन्यायों का सीधा प्रतिरोध, प्रतिकार और प्रतिवाद कर सकते हैं?

जब हम पहले प्रश्न के उत्तर की पड़ताल में जाते हैं, तो पाते हैं कि न्याय दिलाने वाली भारत में दो मह्त्वपूर्ण संस्थागत संरचनायें हैं। पहली पुलिस तथा दूसरी न्यायपालिका। जब एक बार विधायिका कानून बना देती है, तो उस कानून के आधार पर न्याय मिलेगा या नहीं, यह सब कुछ पुलिस और न्यायपालिका पर निर्भर करता है। यह सच है कि दलितों को उत्पीड़न और अत्याचार से बचाने के लिए बहुत सारे कानून बने हैं। लेकिन 70 सालों का आजादी का इतिहास यह बताता है कि ज्यादातर यह कानून कागज की शोभा ही बढ़ाते रहे हैं। दलितों को अन्याय व उत्पीड़न से बचाने वाली प्राथमिक एजेंसी पुलिस प्रशासन की बु्नियाद में ही दलितों के प्रति पूर्वाग्रह है।

पहले तो पुलिस दलितों पर होने वाले अत्याचार पर मूकदर्शक बनी रहती है, या अप्रत्यक्ष तौर पर सहयोग करती है, जैसा कि शब्बीरपुर में स्पष्ट तौर पर दिखाई दिया। दूसरे प्रथम सूचना की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं करती या करती है तो अपेक्षित संवेदनशीलता से अनुसंधान नहीं किये जाने के कारण अभियुक्तगण अदालत में आमतौर पर छूट जाते हैं। अदालत में सरकारी अधिवक्ता (लोक अभियोजक) मामले को इतने कमजोर तरीके से पेश करते हैं कि रही सही कसर भी पूरी हो जाती है। इसके अनेक प्रमाण मौजूद हैं। खासकर बिहार में दलितों-पिछड़ों के विभिन्न नरसंहारों के आरोपियों को अदालतों से मिली रिहाई इसके बेहतर उदाहरण हैं। महाराष्ट्र के खैरलांजी में भी कमोबेश यही हुआ।

शब्बीरपुर में भी फ़िर से यही कहानी दुहराई जा रही है। दलितों पर बर्बर अत्याचार करने वाले अपराधी अभी आजाद घूम रहे हैं, जबकि भीम आर्मी के चंद्रशेखर और अन्य लोगों को दुर्दांत अपराधी की तरह पुलिस और ब्राह्मणवादी कार्पोंरेट मीडिया पेश कर रही है। आश्चर्य तो तब हुआ पुलिस ने चंद्रशेखर की गिरफ़्तारी के लिए 12 हजार रुपये का इनाम घोषित किया।

पिछले 20-25 वर्षों का इतिहास यह भी बताता है कि दलितों के हितों की दावेदारी के नाम पर राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने वाली पार्टी बसपा भी दलितों को न्याय दिलाने और दलितों पर अत्याचारों को रोकने में असफल रही है।

इससे दलित समाज इस निष्कर्ष की ओर बढ़ रहा है कि न्याय खुद ही हासिल करना होगा और इसका परिणाम भी भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। शब्बीरपुर का घटनाक्रम यही बताता है। भीम आर्मी के निर्माण में भी यह बात परिलक्षित होती है। दलित नौजवानों के इस निर्णय और उसे व्यवहार में उतारने के चलते ही सवर्णों में खौफ पैदा हुआ है।

पिछले साल सहारनपुर के घड़कौली गाँव के दलितों ने गाँव के प्रवेश स्थान पर एक बोर्ड लगाया जिसमें द ग्रेट चमार लिखा गया

दूसरा प्रश्न यह कि आखिर दलित समाज, खासकर नौजवानों की मानसिक स्थिति में क्या परिवर्तन आया है कि उन्होंने यह रास्ता क्यों चुना है और कौन सी भौतिक परिस्थितियों ने इसमें मदद पहुंचाई हैं। इस प्रश्न की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि दलित नौजवानों की एक पीढ़ी सामने आई है, जिसमें सहज स्वीकृत तरीके सवर्णों से अपने को दोयम दर्जे का मानने का संस्कार नहीं है। वे किसी भी तरह से अपने को सवर्णों से कमतर नहीं मानते हैं। भले ही हालात के चलते मजबूरीवश कुछ मामलों में गैर-बराबरी स्वीकार कर लेते हों, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोगों की तरह उनकी जेहन में सवर्णों को जाति के आधार पर श्रेष्ठ या महान मानने का कोई भाव नहीं है। यह दोनों अर्थो में शिक्षित पीढ़ी है, पहला तो यह इनमें से बड़े हिस्से के पास हाईस्कूल से ऊपर की औपचारिक शिक्षा है। इनमें से बहुत सारे युवा स्नातक या इससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त हैं।

भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर और विनय रतन सिंह दोनों उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। देश-दुनिया के हालातों से भी परिचित हैं। इनके पास आंबेडकर के विचारों की ताकत भी है। इनके भीतर पूरी स्थिति के प्रति एक गहरा आक्रोश है। ये उन परिवारों से आए हैं, जिनकी भौतिक स्थिति तुलनात्मक तौर पर बेहतर है। हर दिन का भोजन कैसे जुटाएं इसकी चिन्ता से ये एक हद तक मुक्त हैं। भविष्य की अनिश्चितता और सम्मानजनक रोजगार की चिन्ता भले ही इन्हें परेशान कर रही हो। इनमें से बहुत सारे ऐसे पिताओं के पुत्र हैं, जो सरकारी नौकरियों में रहे हैं या हैं। खुद चंद्रशेखर के पिता शिक्षक थे। इन नौजवानों में बहुत सारे ऐसे भी हैं जिनके परिवारों के पास थोड़ी-बहुत खेती है। चंद्रशेखर के परिवार में 12-13 बीघे के आस-पास खेती है। अर्थात सवर्णों का जैसे को तैसा का प्रतिवाद करने की कोशिश करने वाले दलित नौजवानों के पास एक ऐसी चेतना और भौतिक जमीन है कि वे न्याय के लिए अनन्तकाल तक इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। न तो झूठे आश्वासनों पर भरोसा करने वाले हैं। इसी मनोभाव ने उन्हें जैसे को तैसा का जवाब देने के लिए प्रेरित किया और कर रहा है, और इसी जवाब ने सवर्णों के दिलों में पहली बार दलितों का खौफ पैदा किया है।

बीते 5 मई को सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में राजपूत दंगाइयों ने उत्पात मचाया था. चमार परिवार के एक जले हुए घर का दृश्य

फिलहाल तो लग रहा है कि डॉं. भीमराव आंबेडकर ने भारत में शूद्रों के विद्रोह न कर पाने का जो कारण बताया था, वह कारण समाप्त नहीं तो कमजोर जरूर हुआ है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘जाति का उच्छेद’ में लिखा कि “ शूद्रों को संपत्ति जुटाने से रोका गया, क्योंकि उन्हें (ब्राहमणवादी व्यवस्था के संस्थापकों और पोषकों को) लगा कि कहीं ऐसा न हो जाए कि वे तीनों वर्गों से स्वतंत्र हो जाएं। उन्हें ज्ञान पाने से रोका गया, क्योंकि कहीं ऐसा न हो जाए कि वे अपने हितों के बारे में सजग हो जाएं, उनके हथियार रखने पर रोक लगाई गई, क्योंकि उन्हें लगा कि कहीं वे व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह न कर दें।”  आज दलितों के एक हिस्से के पास ही सही, संपत्ति और ज्ञान दोनों आ गया है, जिसके पास संपत्ति और ज्ञान होता है, वह संघर्ष के हथियार जुटा ही लेता है। आज एक हद तक संपत्ति और ज्ञान से लैस दलित समाज का एक हिस्सा डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में संपत्ति पाकर सवर्णों से स्वतंत्र और ज्ञान पाकर अपने हितों के प्रति सजग हो गया है, जरूरत पड़ने पर वह हथियार जुटाने में भी जुट सकता है। इसकी एक बानगी सहारनपुर में दिखी है, अगर समय रहते जतीय अत्याचार और अन्याय को रोकने का कोई कारगर उपाय नहीं किया गया, तो इसे एक आम परिघटना बनने से कोई रोक नहीं पायेगा।


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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