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असहिष्णुता बढ़ा रहा है क्रिकेट

भद्रजनों का खेल क्रिकेट अब पूरी तरह से बाजार का महत्वपूर्ण घटक बन चुका है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के मामले में यह केवल बाजार का हिस्सा नहीं है बल्कि राजनीतिक हथियार भी बन चुका है। असहिष्णु होते भारतीय जनमानस की नयी खतरनाक सोच को साझा कर रहे हैँ अभय कुमार :

बीते 18 जून को चैंपियन्स ट्रॉफी का फाइनल मैच चिर प्रतिद्वंद्वी भारत और पाकिस्तान के बीच खेला गया था। इस मैच् में पाकिस्तान ने भारत को 180 रनों से हराकर खिताब पर कब्जा कर लिया था। सीमा पर घुसपैठ, आतंकवाद और कश्मीर के सवाल पर लंबसे समय से चल रहे रस्साकशी के बीच खेले गये इस फाइनल मैच में मिली हार भाारतीय समर्थकों को जहां एक ओर निरश कर गया तो दूसरी ओर देश के कई हिस्सों में इसका दूसरा पक्ष भी सामने आया। सांप्रदायिक ताकतें इसे मुद्दा बनाने में सफल रहीं। देश के कई हिस्सों में इसी नाम पर समाज में वैमनस्यता फैलाने का प्रयास किया गया।

राजनीति का शिकार क्रिकेट : ‘पाकिस्तानी आतंकवादी नहीं होते’ का पोस्टर दिखाता एक पाकिस्तानी प्रशंसक

मसलन यह मामला केवल खेल में मिली हार तक सीमित नहीं रही। फाइनल मैच के फ़ौरन बाद दर्जनों मुसलमानों के ऊपर मुक़दमे ठोक दिए गए और बड़ी संख्या में लोगों को गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया गया। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व समाचार साधनों से मिली जानकारी के मुताबिक अब तक कम से कम 17 लोगों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया जा चुका है। जिन राज्यों में ये मामले मुख्य तौर पर सामने आये हैं उनमें उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और केरल आदि शामिल हैं। विडम्बना देखिये कि इन प्रदेशों में “लेफ्ट” और “राईट” दोनों विचारधाराओं की सरकारें हैं। इल्ज़ाम सब पर तकरीबन एक जैसे ही थे कि उन्होंने पाकिस्तानी टीम की जीत का “जश्न” मनाया और न सिर्फ पटाखे छोड़े बल्कि इस्लाम और पाकिस्तान-हिमायती नारे भी बुलंद किये।

सवाल यह कि क्या यह ‘क्रैकडाउन’ राजनीति से प्रेरित नहीं है? जब अंग्रेजी के मशहूर अख़बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ (जून 23, 2017) ने मध्यप्रदेश के बुरहानपुर केस के “शिकायतकर्ता” लक्ष्मण कोली से इस बारे में पूछा तब उसने साफ कहा कि यह सब उसने पुलिस के दबाव में किया था: “मैंने पुलिस को शिकायत नहीं की थी… मैंने (पाकिस्तान और इस्लाम समर्थक) कोई नारे नहीं सुने और ना ही मैंने पटाखे छोड़ने की शिकायत की थी। जब सोमवार को मैं पुलिस थाने गया था तब पुलिस ने मुझे गवाह बना दिया। मैं बयान देने के लिए तैयार हूँ मगर मेरा बयान सिर्फ अदालत में जज के सामने होगा। मुझे डर है कि पुलिस मुझे परेशान करेगी।”

चैंपियंस ट्रॉफी के शुरूआती में जब पाकिस्तान की टीम भारत से हार गयी तब सोशल मीडिया पर ऐसे उड़ाया गया था मजाक

मैच से पहले सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली गयी। ज़ुबान और लहजा भी भड़काऊ था-“बाप (भारत) बेटे (पाकिस्तान) की औकात बता देगा।” क्या इस तरह की हरकत किसी भी लोकतंत्र के लिए शोभनीय है? ‘क्या किसी टीम के खेल की तारीफ के लिए नागरिकों को ग़द्दार-ए-वतन कहना चाहिए? क्या आप ने सुना है कि इंग्लैंड में बसे भारतीयों को कभी सचिन, धोनी या कोहली की बैटिंग पर ताली बजाने के लिए वहां की पुलिस ने कभी गिरफ्तार किया हो?

अब फाइनल मैच को ही ले लीजिये। जब भारत के शीर्ष बल्लेबाज़ जल्दी-जल्दी पवेलियन लौट रहे थे तो एक शख्स ने पूर्वी ज़ुबान में हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा कि “रमज़ान में हरवा दिए हो न इंडिया को।” रमज़ान का भारत की हार से क्या सम्बन्ध है? असल में उसकी टिप्पणी मेरे साथ बैठे कुछ मुस्लिम दोस्तों के ऊपर भी था। मगर उसे क्या ख़बर कि वही पास बैठा बरेली का एक मुस्लिम साथी अभी भी भारत की जीत को लेकर आशावान था और अपने मोबाइल पर तब भी मैच देख रहा था जब कई समर्थकों ने भारत के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद टीवी-सेट बंद कर दिया।

इसी तरह की बेतुकी बात शारजाह टूर्नामेंट के दौरान सालों पहले सुनने को मिलती थी जब कुछ तंग-नज़र लोग यह कहते थे कि भारत पाकिस्तान से मैच इसलिए हार जाता था क्योंकि यह मैच अक्सर जुमा के दिन आयोजित होता था। जुमा से भारत की हार का क्या रिश्ता है? उनको कौन समझाए कि जुमा के दिन मैच इसलिए आयोजित किया जाता था ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक मैच देखने आयें और मोटी कमाई की जा सके।

चरम पर असहिष्णुता : पूर्व कप्तान सह वर्तमान भारतीय टीम के वरिष्ठ सदस्य महेंद्र सिंह धोनी ने जब पाकिस्तानी कप्तान सरफराज अहमद के बेटे को गोद लिया तब भारत में लोगों ने इसके लिए आलोचनायें की। सोशल मीडिया पर अपशब्द तक किये गये इस्तेमाल

इस तरह के प्रोपगंडा से 36-साल के ऑटो-रिक्शा ड्राईवर अबरार भी परेशान था। “अगर इंडिया फाइनल हार गयी तो इसमें मुसलमानों का क्या कुसूर है?” अबरार की झल्लाहट न सिर्फ उनकी आवाज़ बल्कि गाड़ी़ के शीशे में दिख रहे चेहरे से भी साफ दिख रही थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दादरी के निवासी अबरार दिल्ली में रोजाना ऑटो चलाते हैं और यह सब बातें मुझे उनकी गाड़ी में सवारी के दौरान कुछ दिन पहले सुनने को मिला। अबरार ने आगे कहा कि “पाकिस्तान इसलिए जीता कि उसने मेहनत बहुत की थी। इस जीत में मुसलमान कहाँ से आ गये!”. हिन्दुस्तानी मुसलमानों को पाकिस्तान से जोड़ना फिरकापरस्त ताकतों की पुरानी साजिश रही है। पचास साल पहले हिंदुत्व के एक बड़े विचारक ने अपनी एक किताब में हिन्दुस्तानी मुसलमानों को पाकिस्तानी “एजेंट” तक कह डाला और उन्हें देश की सुरक्षा के लिए आंतरिक खतरा बताया।

सांप्रदायिक विमर्श की तासीर देखिये कि जबतक पाकिस्तान को आप बुरा भला न कहे तब तक आप “सच्चे” देशभक्त नहीं हो सकते है। अगर आप मुसलमान हैं तो पाकिस्तान के खिलाफ आप को कुछ ज्यादा ही तल्खी का इज़हार करना होना। इस विमर्श ने नयी नस्ल के ज़ेहन और दिमाग तक को पूर्वाग्रह से ग्रसित कर दिया है। कुछ महीने पहले जब मैं अपने गाँव में बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहा था और एक बार मजाक-मजाक में यूँ ही बोल गया कि मैं पाकिस्तानी बॉलर हूँ तो उनमें से एक बच्चे ने मेरी गेंद को बड़ी जोर से मारा और कहा “जा पाकिस्तानी गेंद उठा”। इस बच्चे की हिकारत भरे लहजे ने मुझे झकझोड़़ दिया। इसी तरह एक दफा मैं उनमें से कुछ बच्चों को पढ़ा रहा था और यूँ ही पूछ डाला कि आप पढ़-लिख कर क्या बनना चाहेंगे तो एक का जवाब था- “सेना में भर्ती होना है” और “देश के दुश्मनों को मार गिराना है”। जब पूछा कि देश के “दुश्मन” कौन हैं तो उसने जवाब देने में थोड़ा सा भी वक़्त नहीं लिया – ‘पाकिस्तान’।

क्या पाकिस्तान हमारे मुल्क की सारी परेशानियों और समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है? क्या यह हकीक़त नहीं हैं कि जितने लोग भारत-पाकिस्तान युद्ध में नहीं मरे उससे कहीं ज्यादा लोग ग़रीबी, भुखमरी, और इलाज के अभाव की वजह से मौत का शिकार हुए हैं? भगवा कट्टरपंथी अपनी राजनीतिक सुविधा के चलते पाकिस्तान, मुसलमान और इस्लाम के खुले फर्क को मिटा देते हैं। उन्हें कौन समझाए कि दुनिया में पाकिस्तान समेत 50 से ज्यादा मुस्लिम-बहुल देश हैं और उनमें समय-समय पर साझेदारी और विरोध दोनों देखने को मिलता है। उसी तरह धर्म के बुनियाद पर पाकिस्तान से हिन्दुस्तानी मुसलमानों को जोड़ना भी ग़लत है। क्या यह सही नहीं है कि एक बड़ी तादाद में हिन्दुस्तानी मुसलमानों ने पाकिस्तान के क़याम का कड़ा विरोध किया था? क्या भारत की सबसे बड़ी धार्मिक और सामाजिक मुस्लिम संगठन में से एक जमियत-ए-उलेमा-ए-हिन्द ने जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग का विरोध नहीं किया और तहरीक-इ-आज़ादी में कांग्रेस का समर्थन नहीं किया था? मगर इन सारे पहलुओं पर जानबूझ कर पर्दापोशी की जा रही है जिसके दूरगामी परिणाम देश के लोकतंत्र और सामाजिक सद्भाव के लिए नुकसानदायक होंगे।


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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