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अस्मितामूलक साहित्य और अन्य पिछडा वर्ग

अभिजात्यवादी साहित्यिक दृष्टि के कारण प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा कबीर और तुलसी के लोकजागरण में फर्क नहीं कर पाए, जबकि डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह को दोनों में पर्याप्त फर्क दिखाई देता है। ओबीसी साहित्य दृष्टि के अनुसार तुलसीदास शोषक शक्तियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं तो कबीर शोषितों के। तुलसी वर्णाश्रमी संस्कृति के पोषक हैं तो कबीर श्रमण संस्कृति के। बता रहे हैं अरुण कुमार :

पिछले कुछ वर्षों में  हिंदी साहित्य में पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों, और स्त्रियों की उपस्थिति बढ़ी है। जिसके कारण इन वर्गों से  संबंधित समस्याओं से साहित्य के सरोकार भी बढ़े हैं। साहित्यिक दुनिया में चलने वाले विमर्शों में विभिन्न अस्मिताओं को अभिव्यक्त करनेवाले साहित्य को ‘अस्मितामूलक साहित्य’ की संज्ञा दी गई है तो वहीं इसे दूसरे शब्दों में ‘बहुजन साहित्य’ भी कहा गया है।

हिंदी साहित्य में विभिन्न अस्मिताओं यथा ओबीसी, दलित, स्त्री औऱ आदिवासी से आनेवाले साहित्यकारों की रचना दृष्टि में पर्याप्त अंतर है, साथ ही इसके मूल्यांकन की दृष्टि भी अलग है। विभिन्न अस्मिताओं की साहित्यिक और आलोचनात्मक दृष्टि का व्यापक अध्ययन के लिए डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की सद्यप्रकाशित पुस्तक ‘हिंदी का अस्मितामूलक साहित्य और अस्मिताकार’ काफी महत्वपूर्ण है। डॉ. सिंह प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक भी हैं, इसलिए भाषा विज्ञान से मिलकर उनकी साहित्य दृष्टि काफी महत्वपूर्ण हो जाती है।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार हैं। हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य की प्रवृत्तियां आरंभ से विद्यमान रही हैं, लेकिन सवर्ण समाज के आलोचकों ने जानबूझकर इसकी अनदेखी की। साथ ही वैसे ओबीसी साहित्यकार और आलोचक जिन्हें अभिजात्य साहित्य में कुछ प्रतिष्ठा प्राप्त है, वे भी सार्वजनिक तौर पर ‘ओबीसी साहित्य’ के अस्तित्व को सिरे से नकार देते हैं। इस संदर्भ में डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की तारीफ करनी होगी, जिन्होंने ‘ओबीसी साहित्य की सैद्धांतिकी’ का निर्माण किया, जिसके आधार पर ‘ओबीसी साहित्य’ के प्रवृत्तियों को समझने की दृष्टि मिलती है। आज ‘ओबीसी साहित्य’ अकादमिक विमर्शों में आया है तो इसका श्रेय डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह और फारवर्ड प्रेस की संपादकीय टीम  को है।

आज ओबीसी साहित्य की अवधारणा को लेकर बहसें तेज हैं। सबसे पहले तो इसके आस्तित्व को नकारा गया है, लेकिन डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह व फारवर्ड प्रेस के अन्य लेखकों  के तर्कों के आधार पर अब ओबीसी साहित्य के अस्तित्व को स्वीकार किया जाने लगा है।अब इसके नामकरण पर विमर्श हो रहा है, होना भी चाहिए। जैसे-जैसे ओबीसी साहित्य पर विमर्श तेज होंगी वैसे वैसे इसके नामकरण और प्रवृत्तियों की पहचान की समस्याओं का भी समाधान हो जाएगा।

इस किताब में ओबीसी साहित्य की प्रवृत्तियों पर विचार करते हुए डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा है –  “ब्राह्मणवाद का विरोध समतामूलक समाज की स्थापना, सामंती ताकतों का खात्मा, सामाजिक एवं धार्मिक बाह्याडंबरों का खंडन, आर्थिक समानता की स्थापना जैसे साहित्यिक स्वर ओबीसी साहित्य की विशेषता हैं।” इसके अलावा ओबीसी साहित्य की अन्य विशेषताएं भी हैं जो अभिजात्य साहित्य से इसे अलग करती हैं। अभिजात्य साहित्य और मोटे तौर पर दलित साहित्य में अपेक्षाकृत समाज का अल्पसंख्यक सबका ही स्थान पाता है, जबकि ओबीसी साहित्य में बहुसंख्यक। प्रायः अभिजात्य साहित्य और दलित साहित्य में समाज का बहुसंख्यक तबका ओबीसी अनुपस्थित रहता है। लेकिन ओबीसी साहित्य में रेणु के शब्दों में कहें तो “बारहों बरन के लोग” और उनकी समस्याओं का चित्रण होता है। अभिजात्य साहित्य में प्रकृति भोग को बढ़ाने वाली उपादान के रूप में उपस्थित होती है तो पर ओबीसी साहित्य में मनुष्य के जीवन संघर्षों के साथ चलती है। अभिजात्य साहित्य यदि लोकमंगल की कामना करता है तो उसका दायरा सवर्ण समाज तक ही सिमटा होता है, लेकिन इस संदर्भ में ओबीसी का दायरा काफी विस्तृत होता है।

मगही साहित्य अकादमी, गया के तत्वावधान में बीते 10 जुलाई 2017 को पटना में बिहार सरकार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण और विधि मंत्री कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा द्वारा डा. रामप्रसाद सिंह साहित्य पुरस्कार, 2017 ग्रहण करते प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह

ये विशेषताएं हिंदी साहित्य में आरंभ से अब तक मौजूद हैं लेकिन सवर्ण आलोचकों ने इनकी अनदेखी की। डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इनकी पहचान भर की है। कबीर का उदाहरण हमारे सामने है। अभिजात्यवादी आलोचना दृष्टि के कारण कबीर को एक भक्त कवि माना जाता रहा है, जबकि ओबीसी आलोचना दृष्टि उन्हें एक बड़े समाज सुधारक के रुप में स्थापित करती है। अपने लेख ‘ओबीसी साहित्य और कबीर’ में डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते हैं “कबीर का नवीन बौद्धिक आंदोलन ना तो भक्ति आंदोलन है और ना ही लोकजागरण है, बल्कि यह ओबीसी नवजागरण का दूसरा चरण है। इसकी पहली कड़ी बुद्ध हैं। इसलिए कबीर पर बौद्ध मत का सर्वाधिक प्रभाव है।”

अभिजात्यवादी साहित्यिक दृष्टि के कारण प्रख्यात आलोचक रामविलास शर्मा कबीर और तुलसी के लोकजागरण में फर्क नहीं कर पाए, जबकि डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह को दोनों में पर्याप्त फर्क दिखाई देता है। ओबीसी साहित्य दृष्टि के अनुसार तुलसीदास शोषक शक्तियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं तो कबीर शोषितों के। तुलसी वर्णाश्रमी संस्कृति के पोषक हैं तो कबीर श्रमण संस्कृति के। दरअसल ओबीसी साहित्य की दृष्टि देश की सबसे बड़ी आबादी की दृष्टि से साहित्य को समझने की बात करती है। इस दृष्टि से देखने पर हिंदी साहित्य के केंद्र में बैठे कई साहित्यकार हाशिए पर चले जाएंगे तो कई हाशिए से केंद्र में स्थापित हो जाएंगे। साहित्य के कई मानदंड ध्वस्त होंगे तो नए मानदंड भी बनेंगे। इस पुस्तक के माध्यम से डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने ओबीसी साहित्य दृष्टि विकसित करने की कोशिश की है।

पुस्तक में ओबीसी साहित्य विमर्श के आधार पर दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्रीवादी साहित्य को देखने की दृष्टि मिलती है, जिसमें भाषा विज्ञान की भी पर्याप्त सहायता ली गई है। ‘अस्मिताकार वाले खंड में ओबीसी विचारकों,  राजनेताओं, साहित्यकार और पत्रकारों पर लेख संग्रहित है, जिनका ओबीसी आलोचना दृष्टि से विश्लेषण किया गया है। अर्जक संघ के माध्यम से पूरे उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन के नेता दार्शनिक और साहित्यकार महामना रामस्वरूप वर्मा के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। जननायक कर्पूरी ठाकुर पर अपने लेख में वे बताते हैं कि जननायक किस तरह से राजनीति का सामाजिक परिवर्तन के एक औजार के रुप में इस्तेमाल करते हैं। राजेंद्र यादव भाषा वैज्ञानिक नहीं थे, लेकिन हंस के अपने संपादकीय में वे भाषा विज्ञान के आधार पर अच्छी टिप्पणी करते थे। राजेंद्र प्रसाद सिंह ने कई उदाहरणों के माध्यम से राजेंद्र यादव की भाषा वैज्ञानिक वाली छवि प्रस्तुत करते हैं। इस पुस्तक का अंतिम लेख युवा पत्रकार व आलोचक  और बिहार की मीडिया संस्थानों में वंचित वर्गो की भागीदारी विषयक शोध के लिए प्रसिद्ध प्रमोद रंजन पर है। प्रमोद रंजन के संपादकीय में ही फारवर्ड प्रेस ने लगातार पांच (बहुजन साहित्य) विशेषांक प्रकाशित कर ओबीसी साहित्य और सिद्धांत को स्थापित किया। राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते हैं कि प्रमोद रंजन ने ‘बहुजनों की लोकपरंपरा, मिथक और लोकगाथाओं से लेकर बहुजन राजनीति एवं साहित्य के विषय पर बखूबी कलम चलाई है। बहरहाल,  साहित्य और राजनीति के अध्येताओं के लिए यह पुस्तक काफी उपयोगी साबित होगी।

पुस्तक  :  हिंदी का अस्मितामूलक साहित्य और अस्मिताकार

लेखक :  राजेंद्र प्रसाद सिंह

प्रथम संस्करण : 2016, प्रकाशक  : अमन प्रकाशन, कानपुर 

फोन : 0512  2543480, मोबाइल : 9839218516  

मूल्य  :  200 रुपए  


बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए फॉरवर्ड प्रेस की किताब बहुजन साहित्य की प्रस्तावना, देखें। यह हिंदी के अतरिक्‍त अंग्रेजी में भी उपलब्‍ध है। प्रकाशकद मार्जिनलाइज्ड, दिल्‍ली, फ़ोन : +919968527911

ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी Amazon और Flipkart पर उपलब्ध हैं।

लेखक के बारे में

अरुण कुमार

अरूण कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से 'हिन्दी उपन्यासों में ग्रामीण यथार्थ' विषय पर पीएचडी की है तथा इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साईंस एंड रिसर्च (आईसीएसएसआर), नई दिल्‍ली में सीनियर फेलो रहे हैं। संपर्क (मोबाइल) : +918178055172

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