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भिखारी ठाकुर के लौंडा नाच के सौ साल का जश्न

भिखारी ठाकुर अपना नाटक लिखते नहीं बल्कि खेलते थे। उनके नाटकों के चरित्र सामाजिक परिदृश्य के मुताबिक अपना संवाद बोलते थे। यही उनके नाटकों की खासियत होती थी। लोग उनके नाटक को बार-बार देखना चाहते थे

भिखारी ठाकुर की तस्वीर : पलायन और स्त्री विमर्श को उन्होंने बनाया था अपना मुख्य विषय

बीते 10 जुलाई को जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कन्वेंश्वन सेंटर का सभागार उस समय तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा जब करीब 92 वर्षों के उम्रदराज रामचंद्र मांझी स्त्री वेश में मंच पर आये। सभी अपने आसन पर खडे होकर उनका स्वागत कर रहे थे और मंच पर पहले से विराजमान संगीत कलाकार बिदेिसया की धुन बजाकर माहौल में चार चांद लगा रहे थे। मौका था बिहार के शेक्सपीयर कहे जाने वाले  भिखारी ठाकुर(जन्म : 18 दिसंबर 1887, मृत्यु : 10 जुलाई 1971) की 46वीं पुण्यतिथि और लौंडा नाच के 100 वर्ष पूरे होने का। इस मौके पर सरिता साज ने भिखारी ठाकुर के कई नाटकों के गीतों की प्रस्तुति देकर माहौल को संगीतमय बना दिया। इस क्रम में उन्होंने बिदेसिया से लेकर बेटीबेचवा तक के गीतों को अपने खास अंदाज में गाये।

समारोह में लोगों का उत्साह चरम पर तब पहुंचा जब लबार यानी मसखरा के रूप में मंच पर आये जैनेंद्र दोस्त ने अपने भोजपुरिया अंदाज में रामचंद्र मांझी के आने की उद्घोषणा की। करीब डेढ घंटे तक के अपने एकल प्रदर्शन के दौरान श्री मांझी ने भिखारी ठाकुर के साथ अपने जुडाव से लेकर वर्तमान में लौंडा नाच के अस्तित्व के बारे में खुलकर बात की। खांटी भोजपुरी में उनका संवाद जेएनयू के विद्यार्थियों को प्रोत्साहित कर रहा था। इस दौरान उन्होंने कई गीत भी गाये और लौंडा नाच का प्रदर्शन किया। इस दौरान उन्होंने बताया कि वे करीब 11 साल के थे जब उन्होंने भिखारी ठाकुर की नाच मंडली में खुद काे शामिल किया था।

जेएनयू में मनायी गयी बिहार के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर की 46वीं पुण्यतिथि और लौंडा नाच के सौ साल का जश्न

भिखारी ठाकुर की लोकप्रियता की चर्चा करते हुए श्री मांझी ने कहा कि कलकत्ता में आयोजन के दौरान वहां के मिल मालिकों ने वहां की पुलिस से शिकायत की थी कि बिदेसिया के कारण उनकी फैक्ट्रियों में ताले लग जा रहे हैं। उनकी शिकायत यह होती थी कि बिदेसिया देखने के बाद मजदूर अगले ही दिन अपने घर वापस चले जाते हैं। मिल मालिकों की शिकायत पर वहां के एक पुलिस पदाधिकारी ने भिखारी ठाकुर से कहा कि वे थाने में बिदेसिया का मंचन करें। थाना परिसर में ही चौकी लगाकर मंचन किया गया और नाटक खत्म होने के बाद उक्त पुलिस पदाधिकारी की आंखों में आंसू थे और लगभग रोते हुए उसने कहा कि वह स्वयं अपने मुलुक (अपने राज्य) जा रहा है। श्री मांझी के मुताबिक वह पदाधिकारी बिहार का रहने वाला था।

करीब 92 वर्ष के रामचंद्र मांझी ने करीब डेढ़ घंटे तक दर्शकों को किया मंत्रमुग्ध

भिखारी ठाकुर अपना नाटक लिखते नहीं बल्कि खेलते थे। उनके नाटकों के चरित्र सामाजिक परिदृश्य के मुताबिक अपना संवाद बोलते थे। यही उनके नाटकों की खासियत होती थी। लोग उनके नाटक को बार-बार देखना चाहते थे। रामचंद्र मांझी ने इस बीच अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी खुलकर बात की। उन्होंने कहा कि नाच के प्रति वे इस कदर समर्पित थे कि अपनी शादी के दिन भी वे नाच कर आये थे और शादी के अगले ही दिन नाचने चले गये थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि उन दिनों कई फिल्मों में काम भी किया था और सुरैया, मधुबाला और साधना आदि के साथ नृत्य भी किया था।

छपरा के खैरा प्रखंड अंतर्गत तुजारपुर गांव के रामचंद्र मांझी ने सुरैया, मधुबाला और साधना सहित कई अभिनेत्रियों के साथ नृत्य किया था

रामचंद्र मांझी ने भिखारी ठाकुर के साथ बम्बइया फिल्मकारों द्वारा की गयी ठगी का जिक्र भी किया। उन्होंने बताया कि बिदेिसया भिखारी ठाकुर की सबसे लोकप्रिय कृति थी। साठ के दशक में बंबई के एक बाबू ने बक्सर में सिनेमा हॉल चलाने वाले एक सज्जन के यहां भिखारी ठाकुर को बुलवाया और बिदेसिया नाच देखा। बाद में छपरा कोर्ट में एग्रीमेंट भी किया गया लेकिन फिल्म में कहानी बदल दी गयी और भिखारी ठाकुर को फिल्म के अंत में केवल एक गाना गाते हुए दिखाया गया। ध्यातव्य है कि वर्ष 1963 में बिदेसिया नामक एक फिल्म आयी थी जिसके निर्देशक एस एन त्रिपाठी और निर्माता बच्चू भाई शाह थे। फिल्म में मुख्य भूमिकायें सुजीत कुमार, पद्मा खन्ना और कुमारी नाज आदि ने निभायी थी। इस फिल्म का प्रचार भी यह कहकर किया गया था कि यह भिखारी ठाकुर के बिदेसिया पर आधारित है और वे स्वयं भी इसमें नाटक खेलेंगे। लेकिन फिल्म बनाने वालों ने उनके साथ छल किया।

भिखारी ठाकुर रंग मंडल प्रशिक्षण एवं शोध केंद्र, छपरा की सरिता साज ने गाये बिदेसिया के गीत

दर्शकों के साथ समानांतर गायन, नाच और संवाद के क्रम में रामचंद्र मांझी ने यह भी बताया कि वैसे तो उन्होंने जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी आदि के समक्ष भी नाटक खेला। यहां तक कि राजीव गांधी ने भी एक बार उनका नाच देखा था। लेकिन राजनेताओं में सबसे अधिक लालू प्रसाद ने उनके इस कला को सराहा। अपने खास अंदाज में श्री प्रसाद को मालिक बताते हुए श्री मांझी ने कहा कि उन्होंने कहा था – रामचंद्र जी, आप जबतक जियें, भिखारी ठाकुर को जिंदा रखें।

इन सबसे पहले कार्यक्रम की शुरूआत एक परिचर्चा के साथ हुई जिसकी अध्यक्षता जेएनयू के प्रोफेसर एस एन मालाकार ने की। अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा कि भिखारी ठाकुर को ऊपर से नहीं बल्कि जमीन से देखने की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि यह महज संयोग नहीं है कि 1914-1918 में प्रथम विश्व युद्ध हुआ और विश्व की सबसे बडी क्रांति हुई, उन दिनों ही भिखारी ठाकुर ने वंचितों के संघर्ष को सांस्कृतिक तरीके से दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। वहीं जामिया के प्रोफेसर चंद्रदेव यादव ने अपने संबोधन में कहा – “ भिखारी ठाकुर के नाटकों में राम मुखर रूप से दिखते हैं।” हालांकि भिखारी ठाकुर की रचनाओं में राम बार-बार जरूर आते हैं लेकिन उनका मुख्य विषय धर्म के बजाय कुरीतियों पर प्रहार करना रहा।

 

बहरहाल राष्ट्रीय नाट्य अकादमी के डॉ. सुमन ने अपने संबोधन में भिखारी ठाकुर को हमेशा जीवंत रंगकर्मी करार दिया। परिचर्चा का संचालन भिखारी ठाकुर रंग मंडल प्रशिक्षण एवं शोध केंद्र, छपरा (बिहार) के संस्थापक सह युवा रंगकर्मी जैनेंद्र दोस्त ने किया।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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