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लव और हेट के रिश्ते को निभाते लालू और नीतीश

बिहारी राजनीति के इन दो शिखर पुरूषों का एक फर्क यह है कि जहां लालू स्वतः स्फूर्त स्थितियों की उपज रहे हैं वही नीतीश कुमार ने यह मुकाम सचेत राजनीतिक प्रयासों से हासिल किया है। लालू ने बैकवर्डों के सर्वमान्य नेता से अपनी यात्रा शुरू की, राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोरी और आखिर में महज एक जाति के नेता के रूप में सिमट कर रह गए वहीं नीतीश एक जाति के नेता से शुरू कर राष्ट्रीय अपील के साथ बिहार के ‘आइकॉन’ बन गए हैं। महेंद्र सुमन का विश्लेषण :

केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा लालू यादव और उनके परिवार के ठिकानों पर छापेमारी और नीतीश कुमार की चुप्पी या कहें तो तटस्थ रवैये ने इस कयास को बल दिया है कि इन बड़े-छोटे भाइयों की दोस्ती अब खत्म होने को है। वैसे भी बिहारी राजनीति में लम्बे समय तक विपरीत ध्रुव बने रहे ये दोनों शख्सियत महागठबंधन में जब एक साथ आए तो पहले दिन से ही उनके अलग हो जाने की भविष्यवाणी की जाती रही है।

आखिर क्या चीज है जो इन दोनों शख्सियतों के संबंधों और टकरावों  को परिभाषित करती है। बिहार में इन दोनों के लिए सबसे पॉपुलर शब्द हैं – बड़े भाई और छोटे भाई। गोतियाई रिश्ते, जिसमें लव और हेट समान रूप से भरे  होते  हैं, को व्यक्त करनेवाले ये शब्द दोनों शख्सियतों के संबंधों और टकरावों को सबसे सटीक ढंग से परिभाषित करते  हैं। इस रिश्ते में गले मिलाना और आमने-सामने खड़े हो जाना आम बात है।आप इन गोतियाई रिश्तों- लव और हेट का विभिन्न क्षेत्रों में यहाँ तक कि पड़ोसी देश के साथ संबंधों में  भी झलक देख सकते हैं।

न सिर्फ लालू-नीतीश बल्कि आज के बिहार के लगभग तमाम बड़े राजनेताओं की जडें बिहार के  ’74 आन्दोलन में मिलती हैं। यह उनके बीच के संबंधों को विशिष्ट आयाम प्रदान करती है। लोहियावादी राजनीति और फिर मंडल आन्दोलन के हमसफ़र रहे लालू-नीतीश के रिश्तों को तो यह और विशिष्ट बनाती है। यही कारण कि कई राजनीतिक विश्लेषक नीतिश कुमार को लालू का प्रतिकार नहीं बल्कि उनका विस्तार मानते हैं।

नीतीश कुमार के उभार के मूल कारण हैं – सामाजिक न्याय, विकास और बिहारी अस्मिता जैसे राजनीतिक एजेंडों का अत्यंत ही कुशलता पूर्वक समन्वय। यह अनूठा समन्वय जाहिरा तौर पर कई भ्रम उपस्थित करता है। लेकिन, वास्तव में  नीतीश लालू के प्रतिकार में नहीं, बल्कि उनके एक विशिष्ट ‘विस्तार’ के रूप में राजनीतिक रंगमंच पर सामने आते हैं और ठीक यही कारण है कि वह बिहार में, जो कि बुनियादी रूप से जाति चेतना से लैस एक गतिशील समाज है, लालू के उत्तराधिकारी बनने में सफल हुए।

इसके विपरीत, कई विश्लेषक नीतिश कुमार को लालू का प्रतिकार मानते हैं। ऐसे विश्लेषकों की कमी नहीं जो लालू को नायक और नीतीश को खलनायक मानते हों; या फिर इसके उलट मानते हों। अगर हम एकतरफा दृष्टि की बजाय व्यापक दृष्टि अपनाये तो लालू-नीतीश के संबंधों, में छिपे लव और हेट के तत्वों को उनके ऐतिहासिक वैचारिक-राजनीतिक सन्दर्भ में ज्यादा ठीक से समझ पायेंगे।

बिहारी राजनीति के इन दो शिखर पुरूषों का एक फर्क यह है कि जहां लालू स्वतः स्फूर्त स्थितियों की उपज रहे हैं वही नीतीश कुमार ने यह मुकाम सचेत राजनीतिक प्रयासों से हासिल किया है। लालू ने बैकवर्डों के सर्वमान्य नेता से अपनी यात्रा शुरू की, राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोरी और आखिर में महज एक जाति के नेता के रूप में सिमट कर रह गए वहीं नीतीश एक जाति के नेता से शुरू कर राष्ट्रीय अपील के साथ बिहार के ‘आइकॉन’ बन गए हैं। बिहार की जातीय राजनीति का यह तकाजा  है कि अगर आपने बैकवर्डों के सर्वमान्य नेता होने की हैसियत खो दी है तो अपनी जाति के नेता भी शायद ही रह पाएं और यदि आपमें किसी खास जाति के समथर्न से राजनीति करने की काबिलियत नहीं होती तो आज ‘आइकॉन’ का जो दर्जा मिला है, वह नसीब नहीं होता।

लालू यादव पर उनकी शैली भारी पड़ रही है तो नीतीश कुमार पर उनकी  इमेज। दोनों को मोटे तौर पर सामाजिक न्याय का  क्रमशः ‘रैडिकल’ और ‘मॉडरेट’ नेता कहा जा सकता है।

आंचलिक क्षत्रपों में अगर कोई सबसे कम स्वपनविलासी और सबसे कुशल रणनीतिकार है तो वह हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार।हालाँकि उनकी रणनीति कभी अर्श पर तो कभी फर्श पर उठाती-बिठाती रही है। महागठबंधन और एनडीए में उनके रहने-जाने को लेकर कयास लगाये जा रहे हैं। उनका एनडीए में चले जाना उतना ही सहज और स्वाभाविक है जितना कि महागठबंधन में उनका आना और रहना सहज और स्वाभाविक है। सहजता और स्वाभाविकता कोई निरपेक्ष चीजें नहीं हैं, यह खास राजनीतिक परिप्रेक्ष्य एवं सन्दर्भ पर निर्भर करती है।

बहरहाल, नीतीश की यह खास  स्थिति है कि वह बिहारी राजनीति के दो विपरीत ध्रुवों- महागठबंधन और एनडीए  के ‘लव बनाम हेट’ के बीच हैं, यह स्थिति उनकी ताकत और कमजोरी दोनों है। उनके राजनीतिक अस्तित्व की यह शर्त है कि मौके की नजाकत के हिसाब से इस ‘लव बनाम हेट’ का वह कितना कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हैं।

किसी आंचलिक दल का क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य एवं सन्दर्भ होता है जबकि राष्ट्रीय दल का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य एवं सन्दर्भ। लिहाजा इन दोनों के साथ गठबंधन के अपने-अपने मायने  हैं। उदारहण के लिए, नीतीश का राष्ट्रीय राजनीति में एक किरदार के रूप में उभरना लालू के बेटों की शीर्ष पर ताजपोशी के लिए अनुकूलता प्रदान करता है, वही नीतीश का बिहार में केन्द्रित होना भाजपा को अनुकूलता प्रदान करता है। क्योंकि आख़िरकार भाजपा की पहली प्राथमिकता दिल्ली है तब बिहार।

नीतीश बखूबी जानते हैं कि आनेवाले दिनों में बिहार में उन्हें चुनौती लालू के राजकुमारों से मिलेगी जो भावी बादशाह होने के लिए प्रशिक्षित हो रहे हैं। एनडीए में भले ही उनका कद छोटा हो जाए, फिलवक्त उनकी बादशाहत को शायद ही कोई चुनौती मिले।

हल के वर्षों में भाजपा का जो असाधारण उभार है और उनकी जो वैचारिक मुखरता है, उसमें देशभर में एनडीए का कोई दल सहज नहीं है। कोई सवाल ही नहीं है कि नीतीश वहां पहले की तरह सहजता और ताकत का उपभोग करेंगे। जाहिर है कि अगर नीतीश एनडीए में जाने का मन बना रहे हैं, तो वह हेट का चुनाव कर रहे हैं।

बहरहाल, बिहार की राजनीतिक स्थिति घटनाओं से परिपूर्ण हो गई है और राजनीतिक अस्थिरता के एक नए दौर के पुख्ता संकेत मिल रहे है। ऐसे उथल-पुथल भरे दौर में कई संभावनाएं एक साथ खुलती हैं। बड़े भाई और छोटे भाई के बीच ‘लव और हेट’ का रिश्ता एक दिलचस्प मोड़ पर पहुंच चुका  है। अब तो इसमें बेटों-भतीजों की भी इंट्री मिल गई है।


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लेखक के बारे में

महेंद्र सुमन

80 के दशक में क्रांतिकारी आंदोलन में शामिल रहे महेंद्र सुमन मूलतः एक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं। साथ ही, समसामयिक विषयों पर सक्रिय लेखन। संप्रति, पटना से प्रकाशित होनेवाली सामाजिक न्याय की बहुचर्चित त्रैमासिक साबाल्टर्न की संपादकीय टीम के एक प्रमुख सदस्य

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