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किस कोटि के दलित हैं महामहिम कोविंद?

दलित समुदाय की भलाई को लेकर रामनाथ कोविंद की दृष्टि बहुत आशाजनक नहीं लगती। विभिन्न अवसरों पर उनके बयान अपने समाज की समस्याओं के प्रति उनकी बेहद साधारण समझ के प्रतीक हैं। मौजूदा भारत में दलितों की स्थिति पर सुखदेव थोराट के शोध को खारिज करते हुए रामनाथ कोविंद ने कहा था कि खुले तौर पर दलितों के साथ होने वाले भेदभाव में तेज़ी से गिरावट आई है, लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि सर्वत्र परिवर्तन के दौर में दलितों/अल्पसंख्यकों के साथ होने वाला भेदभाव दिखाई तो कम देता है, लेकिन उसका स्वरूप और ज्यादा खतरनाक होता जा रहा है। राष्ट्रपति चुनाव के बाद भारतीय राजनीति में दलित राजनीति का विश्लेषण कर रहे हैं तेजपाल सिंह तेज :

20 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आ गए और दलितों की राजनीति के चलते देश को एक नया दलित राष्ट्रपति मिल गया लेकिन क्या इससे दलितों को कोई ख़ास फ़ायदा होगा? एक दलित के राष्ट्रपति बनने से दलितों को कोई फ़ायदा होगा, ऐसा तो नहीं लगता। हाँ, एक दलित के राष्ट्रपति बनाए जाने से सत्तासीन राजनीतिक दल को दलितों के वोट हासिल करने में मदद जरूर मिलेगी।

रामनाथ कोविंद को मिठाई खिलाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

रामनाथ कोविन्द जी से पहले के. आर. नारायणन जी राष्ट्रपति बने थे। वे प्रथम दलित राष्ट्रपति थे, जो विदेश सेवा से थे और भारत के राजनयिक भी रह चुके थे। इतना ही नहीं वो एक जानेमाने शिक्षाविद भी थे। उल्लेखनीय है कि नारायणन भारत की विश्वप्रसिद्ध यूनिवर्सिटी जवाहर लाल नेहरू यूनीवर्सिटी के वाइस चांसलर भी रहे थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में कुछ अलग करने की यानी अपनी आजादी बनाए रखने की काफी कोशिशें की थी लेकिन वे भी कोई खास उदाहरण नहीं पेश कर पाए। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि नारायणन एक जाने-माने व्यक्तित्व थे। इसके ठीक उलट नवनिर्वाचित दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द जी को कोई सार्वाजनिक रूप से जानता तक भी नहीं। उनका वजूद अगर है तो महज भाजपा के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में रहा है। उनकी इसी सक्रियता का उन्हें इनाम भी मिलता रहा है।

स्मरण रहे कि जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के बीच वैचारिक मतभेद रहे थे। कारण ये था कि देश आजाद होने के बाद दोनों ही बिना किसी जनमत के  सत्ता पर काबिज हुए थे। दोनों की विचारधारा में खासा अंतर था।  दोनों के बीच का अंतर्द्वंद्व यहाँ तक था कि संविधान पर हस्ताक्षर करते समय जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के स्थान पर हस्ताक्षर कर दिए। फलत:  राजेंद्र प्रसाद ने खुन्नस में नेहरू के हस्ताक्षरों के ऊपरी हिस्से पर दो बार हस्ताक्षर किए थे। दरअसल नेहरू राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में देखना नहीं चाहते थे लेकिन अन्य लोगों के दबाव में राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति बनाना पड़ा था। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को दस वर्षों तक राष्ट्रपति तो बनाए रखा किंतु कभी भी उनकी कोई बात नहीं मानी।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के निर्वाचन को छोड़ दिया जाए तो उनके बाद के सभी राष्ट्रपतियों का निर्वाचन सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों की मर्जी पर निर्भर रहा है और डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम के अलावा सभी  राष्ट्रपति राजनीतिज्ञ/राजनेता ही रहे हैं। ज्ञात हो कि राष्ट्रपति के पद मुक्त होने के बाद उनका क्या होगा, वह भी तो सरकार को ही तय करना होता है। यह भी एक कारण है कि किसी भी राष्ट्रपति के लिए सरकार से लड़ाई मोल लेना आसान नहीं होता। उल्लेखनीय है कि नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच के विवादों के चलते राजेन्द्र प्रसाद को पद मुक्त होने के बाद रहने को मकान तक नहीं दिया गया था।

आमतौर पर देखा गया है कि जब-जब दलित आन्दोलन ने जोर पकड़ा, तो उसे दबाने के लिए किसी दलित को, जब-जब मुस्लिम आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो तो उसे दबाने के लिए किसी मुसलमान को, जब-जब सिख आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो तो उसे दबाने के लिए किसी सिख को और जब-जब महिला आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो तो उसे दबाने के लिए किसी महिला को राष्ट्रपति बनाया जाता रहा है। राष्ट्रपति के हालिया चुनाव में भाजपा द्वारा एक दलित को राष्ट्रपति बनाया जाना इस बात का एक पुख्ता प्रमाण है। आज जब देश में जगह-जगह देशभक्ति के नाम पर, गौरक्षा के नाम पर, लव जिहाद के नाम पर, राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलमान और दलितों पर सरकार के सहयोगी घटकों द्वारा नाना प्रकार के किए जा अत्याचारों के विरोध में दलितों में उभरा आक्रोश साफ देखने को मिल रहा है। राज्य सभा में इस मामले को लेकर सरकार पर तीखे प्रहार किए जा रहे हैं। लेकिन इससे दलितों को तो कुछ लाभ मिलने वाला नहीं है। यह बात अलग है कि दलित किसी काल्पनिक लाभ के सपने सजाएं तो सजाएं। दलित राष्ट्रपति बनाए जाने से यह बात किसी हद तक तय है कि दलित भाजपा की इस राजनीति के शिकार हो सकते हैं।

वर्ष 2016 में एक कार्यक्रम के दौरान लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत करते रामनाथ कोविंद (फाइल फोटो)

दलित समुदाय की भलाई को लेकर रामनाथ कोविंद की दृष्टि बहुत आशाजनक नहीं लगती। विभिन्न अवसरों पर उनके बयान अपने समाज की समस्याओं के प्रति उनकी बेहद साधारण समझ के प्रतीक हैं। मौजूदा भारत में दलितों की स्थिति पर सुखदेव थोराट के शोध को खारिज करते हुए रामनाथ कोविंद ने कहा था कि खुले तौर पर दलितों के साथ होने वाले भेदभाव में तेज़ी से गिरावट आई है, लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि सर्वत्र परिवर्तन के दौर में दलितों/अल्पसंख्यकों के साथ होने वाला भेदभाव दिखाई तो कम देता है, लेकिन उसका स्वरूप और ज्यादा खतरनाक होता जा रहा है। भाजपा  की विचारधारा के अनुरूप, कोविंद मानते हैं कि भेदभाव का आधार जातिगत नहीं, बल्कि आर्थिक है। वह इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि दलितों की आर्थिक विपन्नता भी घनघोर जातिगत भेदभाव का ही नतीजा है। मैं उनके ज्ञान और अध्ययन पर कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहा हूँ किंतु आज ऐसी अनेक रिपोर्टस मिल जाएंगी, जिनमें दलित समाज और खासकर दलित महिलाओं के साथ होने वाले शोषण और उत्पीड़न का विस्तार से ब्यौरा मिल जाता है। फिर रामनाथ कोविन्द द्वारा ऐसी रिपोर्टस का खंडन करना कैसे उचित माना जा सकता है?  ये उनके अंतर्ज्ञान की कमजोर कड़ी ही लगता है। उनकी यह धारणा उनके  अपने विवेचन पर नहीं, अपितु उनका ज्ञान तथाकथित ऊँची जातियों के नजरिये से वास्तविकता को देखने से पैदा हुए ज्ञान पर  आधारित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह एक खास मानसिकता वाले  राजनीतिक दल और संगठन से जुड़े रहे हैं। अब यह कतिपय संभव नहीं लगता है कि जो व्यक्ति कल तक  बीजेपी का सक्रिय सदस्य रहे हैं और उसकी हर बात का समर्थन करते रहे हैं,, राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी सोच बदल जाएगी?

संयोगवश इस बार जो एक नई और गम्भीर बात होने जा रही है, वह है कि इस बार राष्ट्रपति  और उप राष्ट्रपति दोनों ही सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी – भाजपा के ही नेता होंगे। यह पहली बार है, इससे पूर्व राष्ट्रपति सत्तारूढ़ दल का तो उप राष्ट्रपति विपक्षी दलों का होता था। मामला गंभीर इसलिए है कि ऐसा होने पर सत्तारूढ़ दल खुलकर कबड्डी खेल सकता है। ऐसे में किसी भी अनहोनी का होना कोई अचरज की बात न होगा।

खैर! दलित ख़ुश होंगे कि उनके समुदाय से कोई राष्ट्रपति बना लेकिन इससे दलितों का कोई फ़ायदा पहुँचेगा ऐसा नहीं हो सकता। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि नवनिर्वाचित महामहिम रामनाथ कोविंद जी पता नहीं कि किस किस्म के दलित हैं जिन्हें दलित वर्ग से आये प्रथम दलित, प्रबुद्ध और शिक्षविद राष्ट्रपति के. आर. नारायणन और संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर का नाम उस समय याद नही आया, जब वो अपने प्रथम सम्बोधन में पूर्व चार राष्ट्रपतियों की वंदना कर रहे थे। लगता है कि ये उसी प्रकार के दलित सिद्ध होंगे जैसे कि राम विलास पासवान, रामदास आठवले, रामराज (आज के उदितराज )और भी कई ‘राम’ । इनके नाम के साथ भी तो ‘राम’ लगा है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि रामनाथ कोविंद जी के राष्ट्रपति बनने के बाद दलितों का उतना ही भला होगा, जितना जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद के राष्ट्रपति बनने पर मुसलमान आबादी का भला हुआ।

यह सर्वमान्य तथ्य हो सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज के हाशियाकृत तबकों का यथायोग्य प्रतिनिधित्व होना जरूरी है किंतु यह भी सोचना होगा कि हाशियाकृत तबकों का प्रतिनिधित्व गरीब, निरीह और वंचित वर्गों को वास्तविक लाभ पहुँचाने और जमीनी विकास प्रदान करने वाला हो, दिखावटी और सजावटी मात्र न हो ।


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लेखक के बारे में

तेजपाल सिंह तेज

लेखक तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि ( कविता संग्रह), रुन-झुन, चल मेरे घोड़े आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र) और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादन कर रहे हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित।

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