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राम के बाद निशाने पर कृष्ण

जहां मुलायम सिंह यादव का कहना था कि सरकार, लोगों को गीता के बारे में शिक्षित करने की दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही है, वहीं शरद यादव ने फरमाया, 'मेरे साथियों ने (गीता के बारे में) जो कुछ कहा, उससे मैं पूर्णत: सहमत हूं। मुझे उसे दोहराने की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही है। सरकार को इस गतिरोध को दूर करने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए'

सन् 2011 के दिसंबर में, रूस की एक जिला अदालत के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत करते हुए यह मांग की गई थी कि ‘गीता’ को एक अतिवादी पुस्तक घोषित किया जाए। इस खबर ने भारतीय संसद में तूफान मचा दिया। चाहे वे हिन्दुत्व के झंडाबरदार हों या धर्मनिरपेक्षतावादी अथवा समाजवादी-सभी भौंचक्का रह गए। जैसी कि उम्मीद थी, तीन यादवों-लालू, मुलायम और शरद ने ‘गीता’ का जमकर बचाव किया।

लालू प्रसाद यादव दहाड़े-‘गीता, भगवान कृष्ण की कृति है, उन कृष्ण की, जिन्हें देवाधिदेव शिव ने अपने से उच्चतर माना था और बदले में, कृष्ण ने भी भगवान शिव को अपने से ऊंचा दर्जा दिया था। गीता का अपमान, भगवान कृष्ण का अपमान है। इसे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। हम इस अपमान का बदला लेंगे।

जहां मुलायम सिंह यादव का कहना था कि सरकार, लोगों को गीता के बारे में शिक्षित करने की दिशा में पर्याप्त प्रयास नहीं कर रही है, वहीं शरद यादव ने फरमाया, ‘मेरे साथियों ने (गीता के बारे में) जो कुछ कहा, उससे मैं पूर्णत: सहमत हूं। मुझे उसे दोहराने की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही है। सरकार को इस गतिरोध को दूर करने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए।’

इन तीनों यादव कुलभूषणों के, गीता के बचाव में उठ खड़े होने से, संघ परिवार के रणनीतिकारों को यह विश्वास हो गया होगा कि वे सही दिशा में जा रहे हैं। उस समय, संघ परिवार अपने हिंदुत्व को एक नया कलेवर देने के काम में जुटा हुआ था। ‘गए राम, आए कृष्ण’ (देखिए, फारवर्ड प्रेस, फरवरी 2012 में प्रमोद रंजन की आवरणकथा), वह फार्मूला था जिसे उन्होंने ओबीसी वोटों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तैयार किया था। बिहार और उत्तरप्रदेश के ओबीसी, विशेषकर यादव, अपने समुदाय के नेताओं और उनकी पार्टियों के प्रति वफादार रहते आए हैं। सन् 2004 के चुनाव में, भाजपा की अनापेक्षित हार के बाद, संघ के रणनीतिकारों ने यह तय किया कि वे क्षत्रिय राम को त्यागकर, कृष्ण को गले लगाएंगे। यादवों की मान्यता है कि वे कृष्ण के वंशज हैं। संघ परिवार ने यह भी तय किया कि अयोध्या के रामजन्मभूमि मुद्दे को पीछे कर, मथुरा की कृष्णजन्मभूमि पर स्थित एक ईदगाह को हटाने की मांग को लेकर एक आंदोलन खड़ा किया जाएगा।

सन् 2007 के गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले, नरेंद्र मोदी, पार्टी के कई अनाधिकारिक विज्ञापनों में कृष्ण के रूप में नजर आने लगे। यही कुछ सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में भी किया गया। कांग्रेस ने इसका विरोध तो किया परंतु बहुत मद्धम स्वर में। सन् 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिए जाने के बाद, मोदी ने कृष्ण का दामन और कसके थाम लिया। बिहार में, जहां यादव आबादी का लगभग 12 प्रतिशत है, आम सभाओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘कृष्ण के उत्तराधिकारी यदुवंशियों को किसी प्रकार की कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। उनकी फिक्र करने के लिए मैं हूं। कृष्ण, मथुरा से द्वारका आए थे। मैं आप लोगों की सेवा करने के लिए द्वारका से यहां आया हूं। आप चिंतामुक्त हो जाइए।’ मणिपुर की राजधानी इम्फाल में बोलते हुए उन्होंने कहा कि ‘भगवान कृष्ण ने उत्तरपूर्वी भारत की एक महिला से शादी की थी। रुक्मिणी यहीं की थीं और कृष्ण, गुजरात में रहते थे।’ उस वक्त मीडिया में कथित मोदी लहर छाई हुई थी। यह कहना आसान था कि यह लहर केवल शहरी क्षेत्रों तक सीमित है या यह कि यह एक और इंडिया शाइनिंग अभियान है, जो कि फ्लॉप शो साबित होगा। परंतु बहुत कम लोग यह देख पा रहे थे कि इस लहर को उत्तरप्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में किस मिथकीय अंतर्धारा से ताकत मिल रही थी (राजनीतिक संदेश पहुंचाने की इस विधा को डॉग विस्लिंग कहते हैं अर्थात् यह संदेश केवल उन्हीं को सुनाई देता है, जिनके लिए उसे भेजा जाता है। अन्य लोगों के कान इसके प्रति बहरे होते हैं)। तीनों यादव भी इस मिथकीय अंतर्धारा को नहीं देख सके और जब तक वे उसे समझ पाते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। लालू ने 2013 के अंतिम छह महीनों का अधिकांश समय जेल में बिताया। उन्हें चारा घोटाले से संबंधित एक मामले में पांच वर्ष की सजा सुनाई गई थी। रांची की जेल में बंद लालू असहाय होकर देखते रहे और मोदी ने उनके समर्थकों को अपने पाले में ले लिया। यही कारण है कि वे ज्यों ही जेल से छूटे, मोदी पर टूट पड़े। लालू ने कहा-‘द्वारका, कृष्ण की जन्मभूमि है और हमारी है। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था और जेल से निकलने के बाद उन्होंने कंस और उसके साथियों का अंत कर दिया था।’

उनके जदयू के साथी शरद यादव और बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी कृष्ण के नाम पर वोट पाने की मोदी की कवायद की जमकर खिल्ली उड़ाई। उन्होंने यदुवंशियों (यादवों) का संबंध गुजरात के द्वारका से जोडऩे पर भी आपत्ति जताई। शरद यादव ने कहा-‘पहले उन्होंने भगवान राम को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बनाने की कोशिश की और अब वे भगवान कृष्ण के मामले में भी ऐसा ही कर रहे हैं।’

परंतु 16 मई को वोटों की गिनती शुरू होने के बाद, तीनों यादवों को यह समझ में आया कि उनके लाखों समर्थक मोदी के कृष्ण रूप पर मोहित हो गए हैं। लालू के राजद को बिहार की 40 सीटों में से सिर्फ 4 मिलीं। शरद यादव और नीतीश कुमार की सत्ताधारी जद यू को 2 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को केवल 5 सीटों पर जीत हासिल हुई और ये सभी सीटें उनके परिवारजनों ने जीतीं।

दूसरी ओर, द्वारका से भाजपा के कृष्ण, अपने ओबीसी रथ पर सवार हो, प्रधानमंत्री की गद्दी संभालने दिल्ली रवाना हो रहे थे। उस समय शायद तीनों यादवों को ढाई साल पहले का वह दिन याद आया होगा जब वेे, उन पर झपटने के लिए तैयार बैठी भाजपा, के हाथों खिलौना बन गए थे।

 

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2014 अंक में प्रकाशित)


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अनिल अल्पाह

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