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दलित रंगमंच और आंबेडकर

दलित रंगमंच आंबेडकरी विचारधारा का ‘कैलिडियोस्कोप’ है जो कई रंग-रूप-आकार के साथ अपना सौष्ठव बनाए रखता है। इसने शोषण के विरुद्ध विद्रोह को समग्रता दी है। साथ ही बदलते परिवेश में चुनौतियों का स्वीकार कर, अपने आप को सिद्ध कर अपनी प्रासंगिकता का विस्तार किया है। डा. सतीश पावड़े का विश्लेषण :

डॉ. आंबेडकर के विचार कई रूपों में फले-फुले हैं, जिनमें एक है – ‘दलित रंगमंच’। दलित साहित्य की ही तरह भारतीय रंगमंच की यह धारा भी मराठी क्षेत्र से फूटी। या इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ‘भारतीय दलित रंगमंच’ की आधारशिला ‘मराठी दलित रंगमंच’ ने रखी, जो पहले-पहल मराठी में काम कर रहे दलित रंगमंच कर्मियों की देन था।

दलित लेखक, निर्देशक और रंग कलाकार संजय जीवने अपने साथियों के साथ नुक्कड़ नाटक करते हुए

आज महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि पूरे देश में डॉ आंबेडकर के जीवन और कृतित्व से प्रेरणा प्राप्त कर दलित रंगमंच आकार ले रहा है। मराठी से शुरू हुई दलित रंगमंच की यात्रा आज महाराष्ट्र से प्रारंभ होकर मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, बिहार, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब, गोवा आदि राज्यों तक पहुंच चुकी है| यह रंगमंच अपनी वैश्विक सोच पर बल देता तथा जाति, वर्ण, नस्ल, वंश के आधार पर अमरिका–अफ़्रीका के शोषित नीग्रो समाज, ‘ब्लैक थिएटर’ से अपना नाता स्थापित करता है।

डॉ. आंबेडकर के ‘व्यक्तित्व और कृतित्व’ की अमिट छाप दलित रंगमंच पर साफ तौर से देखी जा सकती है। अमरिका में जो काम ‘वाल्तेयर’ ने किया वही काम भारत में आंबेडकर ने किया है। अमेरिका में ‘गार्वे’ मुवमेंट के जनक मारकस गार्वे के नीग्रो समाज के चिंतन को, तथा डा. आंबेडकर के दलित समाज के चिंतन को जोड़कर देखा जा सकता है। अमेरिका में जो काम कई क्रांतिकारी विद्रोहियों ने किया, वही कार्य भारत में दलित समाज के लिए अकेले डॉ. आंबेडकर ने किया है। बुकर टी.वाशिंग्टन, डबल्यू ई. बी. डयुबाईस जैसे लेखक, चिंतक की भारत में कमी थी, जो  आंबेडकर ने पूरी की। बाबासाहेब की प्रेरणा से, उनके चिंतक को उनके दर्शन को, उनके विद्रोही तेवर को, उनकी चेतना को दलित रंगमंच ने गंभीर प्रतिबध्दता के साथ प्रस्तुत किया और दलित रंगमंच को अपनी विशेष पहचान उपलब्ध करा दी। इस रंगमंच द्वारा दलित समाज ने अपने अस्तित्व, अपनी अस्मिता, अपना आत्मसम्मान खोजने का प्रयास किया है। यह उनके संघर्ष का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है।

हाशिये पर स्थित दलितों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रश्नों को डॉ. आंबेडकर ने पूरे समाज के समक्ष पूरी मजबूती के साथ रखा। बुद्ध धम्म जैसा विज्ञानवादी, विवेकवादी धम्म, जीवनशैली, आचार शैली, विचारशैली के रुप में प्रस्तुत की। ‘पढो, संगठित हो तथा संघर्ष करो’, ‘प्रज्ञा, शील, करुणा’, ‘स्वतंत्र, समता, बंधुता एवं न्याय’ की मांग, ‘गुलामों को उनकी गुलामी का एहसास करा दो, वह अपने आप विद्रोह कर उठेगा’, ‘अत्त दीप भवः’, ‘शिक्षा शेरणी का दूध है’ आदि उद्घोषों के माध्यम से डॉ. आंबेडकर ने दलित समाज को दिशा दी, और विद्रोह के लिए वैचारिक धरातल भी उपलब्ध करवाया। हिंदू धर्म का त्याग डा. आंबेडकर ने क्यों किया, इसकी वजह और इस संबंध में उनका चिंतन हम ‘दलित रंगमंच’ के प्रथम माने जानेवाले नाटक ’युगयात्रा’ (म.भि.चिटणीस) में देख सकते है। आंबेडकर की देखरेख और दिशा निर्देशन में ही म.भि.चिटणीस ने  यह नाटक रचा था। डॉ. आंबेडकर का व्यक्तित्व तथा कृतित्व और वेचारिकी परिप्रेक्ष्य इस नाटक में भलीभाँति देखा जा सकता है। आंबेडकरी दर्शन का, चिंतन का एक ‘प्रमेय नाटक’ भी इसे कहा जा सकता है।

अंधार पाहिलेला माणूस – डॉ. सतीश पावडे

कुल मिलाकर आंबेडकरी दलित रंगमंच, दलित समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक पुनर्रचना की प्रक्रिया को गति प्रदान करनेवाला एक सशक्त माध्यम है। आंबेडकरी जलसा, आंबेडकरी लोकनाट्य , आंबेडकरी नुक्कड नाटक से प्रारंभ होकर यह प्रक्रिया अब मुकम्मिल तौर पर आंबेडकरी रंगमंच के रूप में  स्थापित हो चुकी है। यह ‘रंगमंच’ आंबेडकर को एक व्यक्ति नही बल्कि एक संस्था, एक दर्शन, एक चिंतन के रुप में स्थापित करता है।

आंबेडकर ने जातिभेद, नस्लभेद, वर्णभेद, वंशभेद, अस्पृश्यता आदि का धिक्कार किया। चार्तुवर्ण का निषेध किया। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक शोषण का प्रतिरोध किया। समतामूलक समाज निर्माण का कार्य किया। दलित समाज को शिक्षित, सुशिक्षित, संस्कारयुक्त बनाने का कार्य किया। साथ ही शुद्रों का नया इतिहास खोज निकाला। इसके लिए सामाजिक समता हेतु विविध आंदोलनों को अंजाम दिया। राजनैतिक अधिकारों की चेतना दी। दलितों को विद्रोही तेवर दिए। यथास्थितिवाद से गतिवाद की और अग्रसार करने में उनकी अहम भूमिका रही। इस क्रम में उन्होंने सांस्कृतिक धरोहरों को पु्नर्स्थापित किया। उनके इन सभी क्रांतिकारी कार्यों की झलक आप दलित रंगमंच के नाटकों में देख सकते हैं।

आंबेडकरी विचारधारा का एक रंगमंचीय विमर्श भी हम दलित रंगमंच के माध्यम से देख सकते है। ‘विश्व के वांशिक – जातीय आशय’ को देखने- जाँचने और परखने की दृष्टि यह डिस्कोर्स हमें देता है। आंबेडकरी दृष्टि अपने कथ्य और तथ्य को, आशय और बिंब को अपने रंगचिन्हों में परिवर्तित करती है और आंबेडकरी चिंतन तथादर्शन के  रंगमंचीय प्रतिमान का निर्माण करती है।

डा. सत्यवान राव दलित रंगमंच के विद्रोही व परिवर्तनवादी तेवर  का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि “दलित थियेटर ने पारंपरिक थियेटर के बरक्स नयी प्रकृति और स्वरूप वाले थियेटर को जन्म दिया है जो पारंपरिक थियेटर के मॉडल के विपरीत है।”

दलित रंगमंच ने आंबेडकरवादी आशय , कथ्य और तथ्य को अभिव्यक्त करने के लिए परंपरागत शैली और शिल्प को भी चुनौती दी है। संस्कृत शास्त्रीय शैली के बजाय भारतीय लोकशैली को अपनाया है। परंपरागत नायकों के बजाय अपने नायक खड़े किए। अपना रंगतंत्र इजाद किया। अपनी आवाज बुलंद की और दलित रंगमंच को परिवर्तन के आंदोलनों का हथियार बनाया है।

दलित रंगमंच की भूमिका को स्पष्ट करते हुये प्रसिद्ध दलित नाटककार भि. शि. शिंदे कहते हैं – “दलित थियेटर का मुख्य उद्देश्य समान प्रकार की चुनौतियों और समस्याओं से पीड़ित सभी लोगों को मानवता और आत्मसम्मान के एक छतरी के नीचे लाना है।” इस प्रकार  मानवता और आत्मसम्मान के आवाज को दलित रंगमंच बुलंद करता है। मानवमुक्ति की लड़ाई लड़ता है क्योंकि यह रंगमंच आंबेडकरी चेतना के प्रति प्रतिबद्ध है। डॉ. यशवंत मनोहर कहते हैं – “दलित थियेटर का ढांचा महान आंबेडकर और जोती राव फुले के विचारों और प्रेरणा से इस आधार पर गढ़ा गया है ताकि पीड़ित लोगों को पीड़ाओं से मुक्ति मिल सके।”

प्रबोधन की परंपरा बुद्ध ,चार्वाक कबीर से होकर जोती राव फुले तक और फुले से लेकर डॉ. आंबेडकर तक पहुंचती है। आंबेडकर का दर्शन और चिंतन इसी प्रबोधन परंपरा की फलश्रुति है। अपने गुरुओं की श्रेणी में डा. आंबेडकर ने बुद्ध-कबीर-फुले को रखा है। उनका चिंतन समग्रता का चिंतन है। पुनर्निर्माण और पुनर्रचना का चिंतन है, जिसका पालन दलित रंगमंच भी करता है। मराठी  में भि. शि. शिंदे, दत्ता भगत, डॉ. गंगाधर पानतावणे, रामनाथ चव्हाण, प्रकाश त्रिभुवन, बाबुराव गायकवाड, प्रेमानंद गज्वी, संपत जाधव, अविनाश डोलस, कमलाकर डहाट, रुस्तम अचलखांब, दादाकांत धनविजय, प्रभाकर दुपारे, भगवान हिरे, एम. जी. वाघ, टेक्सास गायकवाड, शिल्पा मुंब्रिसकर, अमर रामटेके, संजय जीवने, संजय पवार आदि दलित नाटककारों ने आंबेडकरी दर्शन को भली-भांति समझा और उसे अपने नाटकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया। डॉ. जनार्दन वाघमारे, डा. गंगाधर पानतावणे, डॉ. यशवंत मनोहर, ताराचन्द्र खांडेकर, प्रो. रा. ग. जाधव, डॉ. शरणकुमार सिंबाले, प्रो. प्रभाकर बागले आदि आलोचकों ने दलित रंगमंच की समीक्षा कर आंबेडकरी साहित्यशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र और नाट्यशास्त्र की संभावनाओं को अभिव्यक्त किया। आंबेडकरी प्रेरणा और प्रस्तुति की समीक्षा की। रंगमंच के प्रतिमानों को विश्लेषित किया।

आंबेडकरी चिंतन और दर्शन की प्रासंगिकता को उसके समकालीनता को अभिव्यक्त करने का प्रयास दलित रंगमंच निरंतर कर रहा है। आंबेडकरी चिंतन और दर्शन की मूल्य व्यवस्था हमेशा उसका आधार रही है। समय के साथ आवश्यक परिवर्तनों का स्वीकार कर अपने प्रकृति में कई बदलाव यह थिएटर कर रहा है। आशय, विषय, शिल्प, शैली, भाषा, कथावस्तु तथा प्रकटीकरण की शैलियों में बदलाव आता जा रहा है। रंगतंत्र के प्रयोगों में भी बदलाव देखा जा सकता है। दलितत्व की परिकल्पना को अधिक व्यापक किया जा रहा है। भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में दलितत्व की मूल्य व्यवस्था का मूल्यांकन किया जा रहा है। पुराने मिथकों में आधुनिक संदर्भ खोजे जा रहे हैं। लोकनाट्य शैली में आशय को विस्तृत तथा व्यापक बनाया जा रहा है। आदर्शों की पुर्नस्थापना भी की जा रही है।

इस परिप्रेक्ष्य में काळोखाच्या गर्भात (भि. शि. शिंदे), वाटा पळवाटा, खेळीया, अश्मक (दत्ता भगत), पांढरा बुधवार, किरवंत, जय जय रघुवीर समर्थ, देवनवरी  (प्रेमानंद गज्वी) ,थांबा रामराज्य येत आहे (प्रकाश त्रिभुवन), झुबंर विदूषक (प्रभाकर दुपारे) चक्रांत, कामरेड जोशी (अमर रामटेके), पुन्हा एकदा नव्याने (भगवान हीरे), पैदागीर, रापि (संजय जिवने), झाडाझडती (शिल्पा मुंब्रिसकर), जाता नाही जात (सिद्धार्थ तांबे), तृष्णा पार (फ.मु. शिंदे), कैफियत, गावकी (रुस्तूम अचलखांब), आग्या बेंताल (जॉनी मेश्राम), शिवाजी अंडरग्राऊंड व्हाया भीमनगर मोहल्ला (राजकुमार तांगडे), स्त्री 1980 (कमल अडिकने), स्मारक(कुमार देशमुख), कालचक्र (हेमचंद्रजा), सुंबरान (रामदास कांबळे), आगट (अशोक बुरबुरे), उचक्का (लक्ष्मण गायकवाड), बली अडगुल (गुण शेखरण), कोर्ट मार्शल (स्वदेश दीपक), अमली(ऋषिकेश सुलभ), महाभोज (मन्नु भंडारी), सुनो शेफाली (कुसुम कुमार), कैम्पस (वामन तावड़े), धादान्त खैरलांजी (प्रज्ञा पवार) आदि मराठी-हिन्दी नाटकों का अलगपन  परखा जा सकता है। आंबेडकरी दर्शन की केमेस्ट्री इन नाटकों में कई प्रयोगधर्मी प्रयासों के माध्यम से दिखाई देती है। जिसने दलित रंगमंच की सीमाओं का विस्तार किया है।

धादांत खैरलांजी – प्रज्ञा दया पवार

आंबेडकर का कार्य तथा विचार बहुआयामी है। दलित समाज के सर्वांगीण विकास के साथ मानवता का कल्याण भी वे चाहते हैं। जाति प्रश्न को वे जाति प्रथा की समाप्ति के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। उनका यह चिंतन 1954 में नामदेव व्हटकर द्वारा लिखे ‘वाट चुकली’ इस नाटक से अभिव्यक्त होता है। इस नाटक में अस्पृश्यता निवारण के प्रश्न को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। आंबेडकर की शिक्षा तथा अंतरजातीय विवाह की भूमिका भि. शि. चिटणीस का नाटक ‘युगयात्रा‘ स्पष्ट रूप से रेखांकित करता है। दलित नाटक के संदर्भ में डा. आंबेडकर की परिकल्पना को इस नाटक ने प्रत्यक्ष रुप में साकार किया है। अस्पृश्यता, पानी प्रश्न और दलित अस्मिता का ताना-बाना कारंडे गुरुजी के ‘नवी वाट’  नाटक ने बुना है। दलित-सवर्ण संघर्ष पर प्रांरभिक दौर में कई नाटक लिखे गये। परंतु एक किसान के ‘दलितत्व’ पर आंबेडकरी प्रेरणा से सृजित अण्णाभाऊ साठे का नाटक  ‘इनामदार’ ग्रामीण परिवेश का यथार्थ प्रस्तुत करता है। किसान भी दलित ही हैं। उसके कर्जमुक्ति का संग्राम इस नाटक में प्रस्तुत किया गया है।

समता-स्वतंत्रता का विचार दत्ता भगत अपने ‘एकटी’ जैसे नाटक में प्रस्तुत करते हैं। अंधश्रध्दा को कमलाकर डहाट ने अपने ‘नरबलि’  नाटक में विषय बनाया है। दास प्रथा के विरुद्ध एल्गार हेमचंद्रजा के ‘सूर्यास्त’ नाटक ने आवाज बुलंद की। बंधुआ मजदूरों के प्रश्नों को कमलाकर डहाट ‘हत्याकांड’ नाटक के माध्यम से हशिए पर लाए। वहीं दलित एकता पर भि.शि. शिंदे द्वारा ‘कालोखाच्या गर्भात’ तथा औधोगिकरण का परिप्रेक्ष्य हेमचंद्रजा द्वारा ‘आपण सारेच उभे झाले पाहिजे’, इसके अतिरिक्त देवदासी के भीषण प्रश्न पर स्त्री को एक दलित के रुप में पहचान देने वाला प्रेमानंद गज्वी द्वारा लिखित नाटक देवनवरी आदि नाटक आंबेडकरी चिंतन के ज्वलंत प्रस्फुटन हैं। व्यापक होता दलितत्व और मानव का मुक्तिसंग्राम इन नाटकों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ। बाबासाहेब की ‘पढो, संगठित हो और संघर्ष करो’ इन तीन सूत्रो का दर्शन प्रकाश त्रिभुवन का ‘थांबा रामराज्य येत आहे’ नाटक प्रस्तुत करता है। ‘गुलाम को उसके गुलामी का एहसास करा दो वह विद्रोह कर उठेगा’, बाबासाहेब की यह वाणी प्रेमानंद गज्वी अपने ‘तनमाजोरी’ नाटक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। बंधुवा मजदुरों के विद्रोह की कथा इस नाटक में प्रभावी ढंग से बतायी गयी है। स्त्री के दोहरे शोषण को बाबासाहेब के हिंदू कोड बिल के आधार पर शिल्पा मुंब्रीसकर अपने नाटकों द्वारा समाज के समक्ष मुख्य विषय के रुप में पेश करती हैं। आंबेडकरवादी स्त्री विमर्श की उद्घोषणा उनके ‘झाडा झड़ती’ तथा ‘बायाच्या जल्माची नाटके’ आदि नाटक करते हैं। साथ ही अंधविश्वास, नशाखोरी आदि सामाजिक प्रश्न भी इस नाटकों मे प्रखर रूप से रखे गए हैं। पढ़ो, संगठित हो, संघर्ष करो तथा स्वातंत्र्य-समता-बंधुता और न्याय की डा. आंबेडकर की विचारधारा बाबुराव कांबले ने अपने ‘न्याय’ इस नाटक द्वारा प्रस्तुत किया है। मार्क्सवाद या आंबेडकरवाद के संघर्ष को अमर रामटेके ने अपने ‘कामरेड जोशी’ नाटक द्वारा बखूबी से प्रस्तुत किया गया। जबकि फुले-आंबेडकरी समाज की एकरूपता का दर्शन रामनाथ चव्हाण अपने ‘बामनवाड़ा’ नाटक द्वारा कराते हैं। प्रेमचंद गज्वी का नाटक ‘किरवंत’ ‘दलितत्व’ के परिप्रेक्ष्य को विस्तारित करते हैं। भगवान हिरे ‘पुन्हा एकदा नव्याने’ इस नाटक के माध्यम से दलितत्व के वैश्विक आशय को प्रयोगधर्मिता के साथ व्यक्त कर दैविक सत्ता को चुनौती देते हैं।

डा. आंबेडकर के विचारों की विरासत और आंबेडकरी चिंतन-दर्शन का आकलन कर उसकी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति करने का प्रयास दलित रंगमंच कर रहा है। नाटक के विषय जीवंत एवं ज्वलंत हैं। विद्रोह के साथ आत्म चिंतन भी उसमें दिखाई देता है। आंबेडकरी मूवमेंट का प्रतिबिंब हम दलित रंगमंच के नाटकों मे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं| डा. आंबेडकर ही मूल रूप से दलित रंगमंच की संजीवनी हैं। प्रिज्म की तरह आंबेडकरी दर्शन-चिंतन का प्रक्षेपण दलित रंगमंच ने किया है। दलित रंगमंच आंबेडकरी विचारधारा का ‘कैलिडियोस्कोप’ है जो कई रंग-रूप-आकार के साथ अपना सौष्ठव बनाए रखता है। शोषण के विरुद्ध विद्रोह को समग्रता दी है। साथ ही बदलते परिवेश में चुनौतियों का स्वीकार कर, अपने आप को सिद्ध कर अपनी प्रासंगिकता को मुखर करने की शक्ति भी यही  विचारधारा दलित रंगमंच को दे रही है।

आधार ग्रंथ सूची

दलित रंगभूमी अणि नाटक- बबन भाग्यवंत, चिन्मय प्रकाशन, औरंगाबाद,प्र.आ.2008

दलित नाटक आणि रंगभूमी—डॉ ईश्वर नंदपुरे, पिपंळापुरे एन्ड क. पब्लिशर्स, नागपूर. प्र.आ 1997

बुध्दाचा ग्लोबल  क्रांति  सिद्धांत- डॉ.यशवंत मनोहर,बहुजन साहित्य  प्रसार केंद्र. नागपूर. प्र. आ. 2013

अमेरिकन निग्रो साहित्य आणि संस्कृति-डॉ जनार्दन वाघमारे,लोक वाड़:मय गृह प्रा.लि मुंबई,प्र.आ. 1978

द क्वेस्ट फॉर ब्लैक आइडेंटिटी – डा जर्नादन वाघमारे, सुगवा प्रकाशन, पूणे, प्रथम संस्करण 2002

दलित  साहित्य का सौंदर्यशास्त्र –डॉ शरण कुमार लिंबाले-वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,प.सं 2005

कृष्णवर्णीय नाट्यत्रयी संपादक-प्रा.त्र्यंबक महाजन,प्रा.प्रभाकर बागले, प्रतिमा प्रकाशन, पूणे. प्र.आ. 2009

दलित नाट्य वाङमय- यशवंत राऊत, गोदा प्रकाशन, औरंगाबाद, प्र.आ.2011

दलित कविता  अणि अमेरिकन ब्लॅक पोएट्री-डॉ ऋषिकेश कांबळे,गोदा प्रकाशन, औरंगाबाद, प्र.आ.2013.

दलित साहित्यःसिध्दांत अणि स्वरुप-डॉ यशवंत मनोहर, प्रबोधन प्रकाशन, औरंगाबाद, प्र.आ. 1978

दलित रंगभूमी- डॉ. मधुकर मोकाशी, स्नेहवर्धन प्रकाशन, पूणे. प्र.आ.2000

आंबेडकरी विचार अणि साहित्य-अविनाश डोळस, साकेत  प्रकाशन, औरंगाबाद. प्र.आ.1993


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। डॉ. आम्बेडकर के बहुआयामी व्यक्तित्व व कृतित्व पर केंद्रित पुस्तक फारवर्ड प्रेस बुक्स से शीघ्र प्रकाश्य है। अपनी प्रति की अग्रिम बुकिंग के लिए फारवर्ड प्रेस बुक्स के वितरक द मार्जिनालाज्ड प्रकाशन, इग्नू रोड, दिल्ली से संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911

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लेखक के बारे में

सतीश पावड़े

सतीश पावड़े महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के परफार्मिंग आर्ट विभाग में सहायक अध्यापक हैं

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