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प्रकृति पर केंद्रित हैं असुरों की परंपराएं व गीत

सरहुल पर्व के मौके पर एक गीत में असुर जाति के आदिम आदिवासी जंगल में आग लगने पर चींटियों के मारे जाने पर शोक मनाते हैं। उनका यह गीत उन सभी के लिए संदेश मात्र है जो उन्हें उनकी जाति यानी असुर की अपमानजनक तरीके से व्याख्या करते हैं। बता रहे हैं सुरेश जगन्नाथम :

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के विभिन्न इलाकों में रहने वाले असुर मूल रूप से किसान हैं। उनके त्यौहार और परंपरायें कृषि से संबंधित हैं जिनके केंद्र में प्रकृति होती है। वे बोंगा में विश्‍वास रखते हैं जो उनके सबसे प्रमुख देवता हैं। इसी तरह मरंग बोंगा और अन्य बोंगा भी देव समुदाय में गिने जाते हैं। ‘सोहराई’, ‘सरहुल’, ‘फागुड़’, ‘नवाखानी’, ‘काठडेली’ और ‘सरही कुटासी’ इनके महत्वपूर्ण त्यौहार हैं। ‘सरही कुटासी’ त्योहार लोहा गलाने के उद्योग की समृद्धि के लिए मनाया जाता है। वे पूर्वज, जादू-टोना में विश्‍वास रखते हैं और समस्याओं में बैगा से परामर्श करते हैं।

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जोभीपाट गांव में गीत गाती असुर महिलायें व वाद्य यंत्र बजाते पुरूष (फोटो साभार : सुरेश जगन्नाथम)

प्राचीनकाल से सभ्यता के प्रवाह से दूर रहने वाली असुर आदिवासी समुदाय निरक्षरता के कारण आज भी अपनी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ-हानि, सुख-दुख आदि भावनाओं को मौखिक रूप में ही अभिव्यक्त कर रहे हैं और यही मौखिकता उनका साहित्य कहलाता है जो खुद के द्वारा खुद के लिये सृजित किया गया है। असुर मौखिक परम्परा के विविध रूपों में उनके गीत विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनकी कथा और कहावत आदि विधाओं की अपेक्षा गीतों में कहीं अधिक भावोत्कर्ष नजर आती हैं। मौखिक परम्परा से प्राप्त इन गीतों द्वारा असुरी बोली, उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति और ऐतिहासिक व राजनैतिक पहलुओं को देखा जा सकता है।

यूं तो गीतों का आदिवासी जीवन से घनिष्ठ संबंध होता है, किन्तु असुरों में इस संबंध की चरम सीमा को देख सकते हैं। गीतों में असुर समाज का सांस्कृतिक गौरव और आदर्श को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। एक-एक गीत में कितना उच्च और आदर्श भाव भरे हुए हैं, यह इन गीतों के अध्ययन से ही पता चलेगा। असुरों के गौरवपूर्ण इतिहास, उनकी सांस्कृतिक परम्पराएँ, उनके देवी-देवताओं के प्रति आस्था, मेले, पर्व-त्यौहार, जन्म, विवाह आदि उत्सवों पर उत्पन्न भावावेग और विशेषकर स्त्रियों की पोशाक व आभूषणों की झनकार सभी  इन गीतों को जन्म देने में विशिष्ट भूमिका निभाते हैं।

असुर पर्व-त्योहार और बदलते मौसम के समयसारणी के अनुसार गीतों को गाते हैं। प्रत्येक गीत का एक अवसर होता है और उसी अवसर पर गीत को गाया जाता है। पर्व-त्योहारों की समयसारणी उनके महीनों से जुड़े हुए हैं। साल के बारह  महीनों में मनाये जाने वाले पर्व और उन पर्वों में गाये जाने वाले गीत, किये जाने वाले नृत्य सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। नीचे दिये गये तालिका में इसे देख सकते हैं।

क्र.संमहीनापर्व-त्यौहारगीतनृत्य
01फागुड़1. फागुड़ परब

2. सरहुल परब
1. फागुड़ गीत

2. सरहुल गीत
1. फागुड़ नृत्य

2. सरहुल नृत्य- ठड़िया
02चैतकोई पर्व नहींगीत नहींनृत्य नहीं
03बैसागकोई पर्व नहींगीत नहींनृत्य नहीं
04जेठसिंयाड़ी करम/बुड़िया करमकरम गीतकरम नृत्य
05अस्साढ़सहिया गुहिया पर्वअस्साड़ी गीतनृत्य नहीं
06सावनकागलेटा पूजागीत नहींनृत्य नहीं
07बाधोरइज करमकरम गीतकरम नृत्य - दोहड़ी
08कुआरकोई पर्व नहींगीत नहींनृत्य नहीं
09कातिकसोहराईसोहराई गीतसोहराई नृत्य - जतरा
10अघानखनिहारी पूजागीत नहींनृत्य नहीं
11पूसखरवइज / हुडुहिरो पूजाश्रम गीतनृत्य नहीं
12माघपर्व-त्योहार नहीं केवल विवाहगीत हैंनृत्य हैं


गीतों के प्रकार
– असुर भाषा में गीत को सिरिङ कहा जाता है। कुछ गीतों के नाम पर्व के नाम से जुड़े हुए हैं तो कुछ के काम से जुड़े हुए हैं। और ये गीत इस प्रकार हैं फागुड़ गीत, सरहुल गीत, करम गीत, सोहराई गीत, पुरखा गीत, पाँज्या गीत, श्रम गीत, विवाह गीत आदि। इन गीतों के अलग अलग राग होते हैं। नृत्य की शैली राग पर निर्भर होती है शायद इसी कारण नृत्य के शैलियों के नाम और राग के नाम दोनो एक ही हैं।प्रमुख रूप से असुर पर्व-त्योहारों में गाये जाने वाले गीतों को तालिका में देख सकते हैं किन्तु इसके अतिरिक्त और भी कई संदर्भ हैं जहाँ गीतों का आलाप किया जाता है। जैसे धान रोपते समय, धान काटते समय, धान ढोते समय, घरेलू काम करते समय आदि। विवाह गीत और उनके इतिहास से संबंधित पुरखा गीत भी हैं।  

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड में अपने गायों को चराने ले जाती महिला और उसका बच्चा (फोटो साभार : सुरेश जगन्नाथम)

नृत्य के प्रकार – असुर भाषा में नृत्य को एनेंङ कहा जाता है। नृत्य के नाम बहुधा पर्व-त्योहारों के नाम से ही होते हैं जैसे फागुड़ नृत्य, सरहुल नृत्य, करम नृत्य, सोहराई नृत्य, जतरा नृत्य आदि। लेकिन सभी पर्वों में नृत्य एक सा नहीं होता है। पर्व और गीत के राग के अनुसार नृत्य की शैलियाँ बदलती रहती हैं।

नृत्य की शैलियाँ :

देसावली – युवतियाँ एक पंक्ति में खड़े होकर बायीं ओर से एक दूसरे के कंधे पर बायां हाथ डालकर खड़े हो जाती हैं। गीत प्रश्‍नोत्तर के रूप में होता है। प्रश्‍न करने का दल युवकों का होता है और वे ही वाद्य यंत्र भी बजाते हैं। युवक वाद्य यंत्र बजाते हुए गीत के माध्यम से प्रश्‍न करते हैं, युवतियाँ थोड़ा कमर को झुकाकर सर उठाकर युवकों को देखते तीन कदम आगे तीन कदम पीछे चलते हाथ को आगे पीछे हिलाते ‘नेऽ ऽ ऽना’ शब्द के उच्छारण में बायां पाँव के घुटने को झुकाते हुए आगे बड़ते हैं, वैसा ही पीछे आते समय दायां पाव के घुटने को झुकाते हैं। इस प्रकार नृत्य करते हुए किये गये प्रश्‍न का जवाब गीत गाती हुई देतीं हैं। इसे देसावली नृत्य कहा जाता है।

दोहड़ी – इस नृत्य के तहत महिलायें एक दूसरे की उंगलियों को कसकर हथेलियों को मिलाकर पकड़ते हैं। बायां पाँव थोड़ा उठाकर कमर को लचकाते, तीन कदम दायें, तीन कदम बायें बढ़ाते गीत गाते हुए नृत्य करती हैं। गीत और ताल के अनुसार बीच-बीच में तलवे के बल बैठकर ताली बजाते हुए उठती हैं और फिर नृत्य करती हैं।

ठड़िया – नृत्य के इस स्वरूप में पंक्ति में खड़े होकर एक दूसरे के हथेलियों को कसकर पकड़ते हैं। दोनो पाँव को झटकाते, थोड़ा उचलते गोल घूमते गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। इस नृत्य में किसी भी प्रकार के वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता है। केवल गीत गाते हुए नृत्य करते हैं।

जतरा – कंधा से कंधा मिलाकर, कमर को थोड़ा झुकाकर, हाथ और पाँव को धीमी गति से हिलाते आगे तीन कदम पीछे तीन कदम बढाते हुए नृत्य करती हैं। गीत में ‘गीऽ ऽ ऽरे’ शब्द के उच्चारण में छोटा विराम लेते हैं, फिर नृत्य शुरू हो जाता है।

जदुर – पंक्ति में कंधा से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं। धीरे-धीरे सर हिलाते हुए धीमी गति से कदम आगे बढाते हैं। उसी प्रकार पीछे आते हैं। गीत में ‘हो’ शब्द के उच्‍चारण में दाहिना पाँव को हल्का सा उछालते हैं।

लःसव– एक के बगल में एक खड़े होकर कंधे से कंधा मिलाते हैं। पाँव को धीरे-धीरे आगे पीछे बढाते हुए गीत के लय और मांदर के ताल की गति के अनुसार कमर लचकाते हुए कदम को आगे पीछे बढाते हुए, हाथ को दायें बायें हिलाते हुए नृत्य करते हैं। गीत में ‘गीऽ ऽ ऽरे’ शब्द के उच्चारण के उपरांत छोटा विराम लेते हैं और फिर गीत और ताल के अनुसार नृत्य की गति तीव्र होती है।

फागुड़ गीत

गीत- 1

बुरू रे ऽ ऽ ऽ हाँसा जे लोयो ऽ ऽ ऽ

बुरू रे ऽ ऽ ऽ हाँसा जे तियांग ओ ता ऽ ऽ ऽ ना  //2//

ओके सब्बे ऽ ऽ ऽ ए सांड़ासी कु ऽ ऽ ऽ टासी ऽ ऽ ऽ

ओके सब्बे ऽ ऽ ऽ ए घना ऽ ऽ ऽ

पा ऽ ऽ ऽ लके सोटा ऽ ऽ ऽ व ता ऽ ऽ ऽ ना  //2//

माडांग सब्बे ऽ ऽ ऽ ए सांड़ासी कु ऽ ऽ ऽ टासी ऽ ऽ ऽ

तायोम सब्बे ऽ ऽ ऽ ए घ ऽ ऽ ऽ ना

पा ऽ ऽ ऽ लके सोटा ऽ ऽ ऽ व ता ऽ ऽ ऽ ना  //2//

संदर्भ– इस गीत को फागुड़ पर्व में सुक्रा, सुक्रैन की पूजा करते हुए गाया जाता है।

अर्थ – जंगल में लकड़ी जल रही है

कौन पकड़ेगा चिमटा और हथौड़ा

कौन पकड़ेगा घना

कौन प़ाल को धार करेगा।

असुरों का पारम्परिक व्यवसाय लोहा गलाना, और उस लोहे से तरह-तरह के औजार बनाना है। इसी पर आधारित यह गीत अत्यंत प्राचीन है। असुरों का मानना है कि सबसे पहले लोहा गलाने की विधि का आविष्कार उनके समुदाय के सुक्रा, सुक्रैन नामक एक युगल ने किया था और उन्हीं की पूजा करते हुए वे फागुड़ पर्व में इस गीत को गाते हैं। असुर जहाँ खनिज मिलता है, वहीं जंगल में ही लोहा को गलाते हैं। लोहा गलाने की प्रक्रिया में ईंधन के रूप में कोयले का उपयोग करते हैं। इसलिये वे पहले से ही लकड़ी को जलाकर कोयला तैयार कर लेते हैं। इस गीत में कहा जा रहा है कि जंगल में लकड़ी जल रही है। जंगल में आग को देख कर अनुमान व्यक्त कर रहे हैं कि कोई कोयला तैयार कर रहा है। अर्थात लोहा गलाने के लिये कोयला जलाया जा रहा है। लोहा गलने के बाद उसे प़ाल की आकृति देने की प्रक्रिया में कौन-कौन किस प्रकार का सहयोग देगा यह गीत में पूछा जा रहा है। मसलन गरम किये गये लोहे को चिमटा से कौन पकड़ेगा और कौन घन (बड़ा हथौड़ा) से गरम लोहे पर चोट मारेगा।

गीत- 2

जीविड़ि भरी रे  ऽ ऽ ऽ  मानेवा राइज के शोभाव ता ऽ ऽ ऽ दम्  //2//

राइज रे नाव जगाव लाआम माने ऽ ऽ ऽ वा

राइज के सोहन ता ऽ ऽ ऽ दम्

संदर्भ – इस गीत को भी फागुड़ पर्व में गाया जाता है।

अर्थ –    मनुष्य अपने जीवन काल में दुनिया को सुशोभित किया, दुनिया में अपना यश नाम फैलाया।

दुनिया को नृत्य व गीत से सुहावना किया।

इस गीत का राग फागुड़ राग है, इसमें वाद्य यंत्रों का प्रयोग नहीं होता है। गीत के माध्यम से कहा जा रहा है कि मनुष्य ने संसार में कई तरह के सुन्दर-सुन्दर चीजों का आविष्कार करके ख्याति प्राप्त की  है, उसका उपभोग कर आनंद उठा रहा है। किन्तु संगीत के जैसा सुन्दर, मधुर कोई अन्य नहीं है। संगीत से संसार सुन्दर और सुशोभित हुआ है। इस गीत से संगीत के प्रति आदिवासियों की जो धारणा है वह प्रकट होती है, उनकी नजर में संगीत से सुन्दर और कुछ नहीं है। शायद इसलिये संसार के सभी आदिवासी समुदायों में संगीत आज भी विद्यमान हैं।

सरहुल गीत

गीत- 1

बुरु ऽ ऽ ऽ परबत लोऽ ऽ ऽ नेना ऽ ऽ ऽ भलाऽ ऽ ऽ कुई//2//

मुइऽ ऽ ऽग के बड़ी दगा नेऽ ऽ ऽना //2//

फ़फाऽ ऽ ऽ पैऽ ऽ ऽनगाऽ ऽ ऽ ओऽ ऽ ऽटांग सेनो नाऽ ऽ ऽकु //2//

मुइग के बड़ी दगा नेऽ ऽ ऽ ना //2//

संदर्भ– इस गीत को सरहुल पर्व के अंत में दोहड़ी राग में गाया जाता है।

अर्थ–    जंगल, पहाड़ में आग लग गया है

चींटी के साथ बहुत धोखा हुआ

कीट पतंग सारे उड़ गये

चींटी के साथ बहुत धोखा हुआ

यह सरहुल गीत है जिसे इस गीत में जंगल में आग लगने पर होने वाले अंत को असुर गायक बड़ी मार्मिकता से व्यक्त कर रहा है। गीत केवल दो वाक्यों का है किन्तु उसमें व्यक्त मार्मिकता, जीव जन्तु, कीट-पतंगों के प्रति आदिवासियों की सहानुभूति को गीत को बिना सुने उसे महसूस नहीं किया जा सकता है। इस गीत के आलाप में वह वेदना बार-बार उभरकर सामने आती दिखाई देती है। अक्सर जंगल में लगी आग हम देखते रहते हैं और उस दृश्य को देखकर यह अफसोस जताते हैं कि पेड़ पौधे जल रहे हैं, जंगल नष्ट हो रहा है और  हमारी सोच वहीं तक सीमित रह जाती है। कारण हम उस जंगल में नहीं रहते, हम जंगल के बाहर रहकर उसका अनुमान लगाते हैं, किन्तु जंगल में रहनेवाले असुर, उस दृश्य को सोचने मात्र से विचलित हो जाते हैं  और उस वेदना को अपने गीतों में व्यक्त करते हैं । यही फर्क है बाहरी और भीतरी वालों में। गीत में असुर उन जीव-जन्तुओं जैसे जो दौड़ सकते हैं, उड़कर अपनी जान बचा सकते हैं के प्रति नहीं बल्कि उन अल्प जीव जैसे चींटी तथा अन्य जमीन पर रेंगने वाले अल्प प्राणियों के प्रति भी अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं  और कह रहे हैं कि वह कोई दुर्घटना नहीं बल्कि अल्प जीवों के साथ दगा है।

गीत- 2

सिरिंग सिरिंग तेऽ ऽ ऽ गाला तींग बैठावनेनाऽ ऽ ऽ जीवतींग सिरिंग तेगेरेऽ ऽ ऽ

नाइ रेऽ ऽ ऽ जिउतींग सिरिंग तेंगरेऽ ऽ ऽ//2//

मांदाड़ रू रूऽ ऽ ऽ तीःतींग हासु नेना जिउ तींग मांदड़ तेंगरेऽ ऽ ऽ

ईऽ ऽ ऽ रे जिउ तींगमांदड़ तेंगरेऽ ऽ ऽ//2//

संदर्भ – इस गीत को सरहुल पर्व में गाया जाता है। यह गीत जतरा राग में है।

अर्थ – गा गा कर कण्ठ बैठ गया पर मेरा हृदय उन्हीं गीतों पर अटका हुआ है।

मांदर बजा बजा कर हाथ दर्द हो गया है

मेरा हृदय मांदर के ताल में अटका हुआ है।

यह सरहुल गीत है। इस गीत में रात भर नाच गाने के बाद असुर युवक-युवतियाँ सुबह उनकी दशा किस प्रकार है उसका उल्लेख किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त गीत-नृत्य के प्रति उनके लगाव का चित्रण है। युवती कह रही है कि रात भर गीत गा गा कर नृत्य करने बाद भी मन नहीं भरा, मेरा हृदय अभी भी उन गीतों पे अटका हुआ, और गाने की इच्छा है किन्तु मेरा गला बैठ गया है। युवक कह रहा है कि रात भर माँदर पर थाप देने के बाद भी जी नहीं भरा, मेरा हृदय अभी भी माँदर के थाप पर अटका हुआ है, और बजाने की इच्छा है किन्तु मेरे हाथ में दर्द हो रहा है। इससे नृत्य एवं गीतों को लेकर अुसरों का लगाव साफ साफ दिखाई देता  है।

अस्साड़ी गीत

गीत- 1

टोनांग राईज रे कारखाना खोलवनेना टोनांग गोटा टोनांग लाचाबायो ता ऽ ऽ ऽ ना रे  //2//

मालमाल के गाड़ी रीकू इदीला चाँदवा रे ऊयूला ऽ ऽ ऽ बूरे

चालान लाकू चाँदवा रे चालान ला ऽ ऽ ऽ कू  //2//

चंदुआ तारा रेल रेकू इदिला कारखाना रे गालाव ला ऽ ऽ ऽ कू

संदर्भ – आषाड़ माह सहिया गुहिया पर्व में इस गीत को गाया जाता है।

अर्थ–    पठार देश में कारखाना खुल गया, पूरा पठार खुदकर समाप्त हो रहा है।

खनिज को गाड़ी में लादकर चाँदवा में गिराया

चाँदुवा से रेल गाड़ी में लादकर कारखाना में डाल के गलाया जा रहा है।

यह अस्साड़ी गीत है। इसके राग को अस्साड़ी राग कहते हैं। बहुधा पर्व त्योहारों के अवसर पर पारम्परिक गीतों का गायन होता है। इन मौखिक परम्पराओं में गीत जैसे के तैसे नहीं होते हैं। समय के अनुसार उनके जीवन को प्रभावित करने वाले विविध पहलुओं, परिवर्तनों को नये गीतों के रूप में गढ़ते हैं। गीत नये हो सकते हैं किन्तु राग पारम्परिक ही होता है। इस प्रकार के गीतों का जीता-जागता उदाहरण यह गीत है। इस गीत की पृष्ठभूमि नई है किन्तु राग पारम्परिक ही है। गीत में बाह्य शक्तियों के प्रभाव से इनकी संपदा जीवन किस प्रकार से नष्ट हो रही है उसे बताया जा रहा है। गीत में असुर कह रहे हैं कि हमारे जंगल, पठारों में कारखाना खुल गया है। पूरा पठार खोद कर समाप्त किया जा रहा है। जमीनें नष्ट हो रही हैं। अनुपजाऊ हो रही हैं।  बड़ी-बड़ी कंपनियां हमारी जमीन को खोद कर हमारी सारी खनिज संपदा को गाड़ी में लादकर पहाड़ के नीचे चाँदवा ले जा रही हैं। वहाँ से रेलगाड़ी में माल भर-भर कर दूर- दूर कारखानों में ले जाया जा रहा है। इस प्रकार वर्तमान में आदिवासियों की जमीन, उनके जंगल और जीवन किस प्रकार नष्ट हो रहे हैं, इस गीत में बताया जा रहा है।

गीत- 2

झिमी ऽ ऽ ऽर झीटा ऽ ऽ ऽ दाः हो दा ऽ ऽ ऽ राः  //2//

बहीन तींग बुरू ऽ ऽ ऽ रे इया ऽ ऽ ऽ म दाय  //2//

झिमी ऽ ऽ ऽ र झीटा ऽ ऽ ऽ दाः हो दा ऽ ऽ ऽ राः  //2//

बहीन तींग बुरू ऽ ऽ ऽ रे इया ऽ ऽ ऽ म दाय  //2//

छाता ऽ ऽ ऽओ कनोआः ऽ ऽ ऽ चुकुडू ऽ ऽ ऽहो कनो ऽ ऽ ऽआः  //2//

बहीन तींग बुरू ऽ ऽ ऽ रे इया ऽ ऽ ऽ म दाय  //2//

छाता ऽ ऽ ऽ ओ कनोआः ऽ ऽ ऽ चुकुडू ऽ ऽ ऽ हो कनो ऽ ऽ ऽ आः  //2//

बहीन तींग बुरू ऽ ऽ ऽ रे इया ऽ ऽ ऽ म दाय  //2//

संदर्भ – यह अस्साड़ी गीत है। इस गीत को बरसात के मौसम में, धान रोपनी के समय गाया जाता है।

अर्थ–    रिमझिम रिमझिम बारिश हो रही है।

मेरी बहन जंगल में रो रही है।

उसके पास छाता भी नहीं है और घंघू भी नहीं है।

मेरी बहन जंगल में रो रही है।

असुर समुदाय के जीवन में गीतों का प्रमुख स्थान होता है। ये गीत कई प्रकार के होते हैं। संदर्भानुसार गीतों का आलाप किया जाता है। प्रस्तुत गीत को अस्साड़ी गीत कहा जाता है जिसे श्रम गीत भी कहा जा सकता है क्योंकि अस्साड़ गीत खेतों में या घर पर काम करते समय गाये जाते हैं। प्रमुख रूप से इन गीतों को खेतों में रोपनी के समय अपनी थकान भूलाने के लिये सामूहिक रूप से गाते हुए काम करते हैं। प्रमुख रूप से इन गीतों में अपने अपने दुःख को व्यक्त करते हैं। प्रस्तुत गीत में एक भाई अपने बहन के प्रति प्रेम और उसके लिये व्याकुलता को व्यक्त कर रहा है। कह रहा है कि तेज बारिश हो रही है और मेरी बहन जंगल में है। उसके पास न छाता है न गूंगू (बारिश से बचने के लिये पत्तों से बना हुआ कोट मोहलान पत्तों से बनता है) वह भींग जायेगी। वह रो रही होगी। अर्थात् यहाँ भाई अपनी गरीबी को भी व्यक्त कर रहा है। वह इतना गरीब है कि अपनी बहन के लिये एक छाता या एक गुंगू की भी व्यवस्था नहीं कर पा रहा है।

करमा गीत

गीत- 1

का ऽ ऽ ऽ रम डहु ऽ ऽ ऽ ड़ा भीता ऽ ऽ ऽ रे बबुचें ऽ ऽ ऽ गा इयां दा ऽ ऽ ऽ य

हां रे बबुचें ऽ ऽ ऽ गा इयां दा ऽ ऽ ऽ य

गाते दो रैस ऽ ऽ ऽ का अपा ऽ ऽ ऽ ते दो मांदैर का ऽ ऽ ऽ बाबू चेंगा इयां दा ऽ ऽ ऽ य

हां रे बबुचें ऽ ऽ ऽ गा इयां दा ऽ ऽ ऽ य

संदर्भ – इस गीत को करम जतरा गीत कहा जाता है। इसे करम पर्व में नृत्य करते गाया जाता है।

अर्थ – करमा पर्व में डाली गाड़ा गया है, पिता मांदर बजा रहे हैं और माँ नृत्य कर रही हैं। बच्‍चा रो रहा है।

यह करमा जतरा गीत है जिसे असुर समुदाय  के बड़े बुजुर्ग, युवक-युवतियाँ अखरा में मिलकर नृत्य करते हुए गाते हैं। इस गीत में करमा पर्व के माहौल को बताया गया है। झारखण्ड में असुरों समेत अन्‍य  आदिवासी समुदायों  के लिये भी करमा पर्व बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस पर्व में सारे गाँव के लोग अखरा में इकट्टा होकर सारी रात गीत नृत्य करते हैं। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि करमा  पर्व मनाने की विधि असुरों में भिन्न होती है। अन्य आदिवासियों की भांति असुर करमा पर्व में करमा की डाली नहीं गाड़ते हैं, किन्तु इस गीत में करम डाली को गाड़ने की बात को कही जा रही है। अर्थात् यह पर्व जो है असुरों के द्वारा नहीं बल्कि अन्य के द्वारा मनाया जा रहा  है, किन्तु असुर भी इस पर्व में शामिल होते नजर आ रहे हैं। इसलिये गीत में कहा जा रहा है कि करमा की डाली गाड़ दी गई है। एक असुर परिवार में पति-पत्‍नी दोनों कुशल गायक, मांदर वादक के साथ साथ नर्तक भी हैं। यदि किसी कुशल नर्तक, वादक गायिका को अपने कौशल को प्रदर्शित करने का अवसर मिल जाय तो उसे कैसे गँवा सकते हैं। गीत व नृत्य के प्रति उनकी आसक्ति, मोह अपनी हदें पार करने पर मजबूर कर देती हैं। इसलिये गीत में कहा जा रहा है कि पिता एक कुशल मांदर वादक है माँ एक अच्छी गायिका है और वे दोनों घर में सोते हुए बच्चे को अकेला छोड़कर अखरा में नाच रहे हैं। नींद खुलने पर बच्चा अपने माता पिता के लिये जोर-जोर से चिल्लाकर रो रहा है।

गीत- 2

जोड़ी ऽ ऽ ऽ कुड़ीकू ऽ ऽ ऽ हीजोआकु हो ऽ ऽ ऽ ले  //2//

दांउड़ीरे आखड़ा एद ऽ ऽ ऽ ना  //2//

जोड़ी ऽ ऽ ऽ कुड़ीकू ऽ ऽ ऽ हीजोआकु हो ऽ ऽ ऽ ले  //2//

ठींगनावकेते मांदाड़ रू ऽ ऽ ऽ ईंग  //2//

संदर्भ– इस गीत को करमा पर्व के समय गाया जाता है।

अर्थ – जब युवतियाँ आयेंगी तब बगल में जो आखड़ा है उसमें हम घुटनों के बल बैठकर मांदर बजायेंगे।

यह करम दोहड़ी राग में गाया गया गीत है, इस गीत को करम पर्व में असुर युवक-युवतियाँ अखरा में नृत्य करते समय गाते हैं। इस गीत में करमा पर्व का वातावरण चित्रित है। करमा पर्व में सब मिलकर गीत नृत्य करते हैं किन्तु अभी अखरा में कोई उतरा नहीं है। युवा कह रहें हैं कि जब लड़कियाँ हमारी जोड़ी बनकर अखरा में उतरेंगी तब हम नृत्य करेंगे। मांदर वादक कह रहे हैं कि जब लड़के और लड़कियाँ जोड़ी बनाकर नृत्य करने के लिये अखरा में उतरेंगे तब हम अखरा में घुटनों के बल पर खड़े होकर उनके लिये मांदर बजाएंगे। आदिवासियों का एक भी पर्व ऐसा नहीं होता है जिसमें मांदर नहीं बजता हो। आदिवासी अपने पर्वों को सामूहिक रूप से मनाते हैं। वहीं गाँव के नहीं बल्कि आसपास के सभी गाँव वालों को गीत-नृत्य में भाग लेने के लिये आमंत्रित किया जाता है। गीत व नृत्य के बिना आदिवासियों का जीवन अधूरा प्रतीत होता है।  

सोहराई

गीत- 1

नेसराः अकालरे एता लकन जीविड़ोआ ऽ ऽ ऽ बू  //2//

ओके सेनमे बानीभूति ओके सेनय रींड़ पैंचा एता लकन जीविड़ो आ ऽ ऽ ऽ बू

बू ऽ ऽ ऽ रे एता लकन जीविड़ो आ ऽ ऽ ऽ बू //2//

आम सेनम रींड़ पइंचा इंग सीनिंग बानीभूती

जहन लकन जीबीडोआ ऽ ऽ ऽ बु  //2//

संदर्भ– यह कातिक जतरा गीत है। जतरा राग। इसमें वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता है।

अर्थ  –   इस समय के अकाल में हम किस तरह जीयेंगे।

कौन जायेगा मज़दूरी करने और कौन जायेगा ऋण चुकाने।

असुर मौखिक परम्परा में उनके जीवन से संबंधित सभी भावनाओं को देखा जा सकता है। मुख्यतया उल्लास से संबंधित संदर्भ उनके गीतों में दिखाई देते हैं, क्योंकि प्रत्येक पर्व त्योहार उल्लास से ही भरा होता है। जीवन का अर्थ खुशी और आनन्द ही नहीं उसमें दुःख, वेदना, चिंता आदि भी समाहित रहती है। उपर्युक्त गीत में जीवन निर्वाह की चिंता को प्रकट किया जा रहा है। गीत में पत्‍नी अपने पति से कह रही है- अकाल पड़ा हुआ है। खेत सारे सूख गये हैं, घर में खाने के लिये कोई अनाज नहीं है। अब हम कैसे जीयेंगे, क्या खायेंगे, क्या पीयेंगे। हमें किसी भी प्रकार से घर चलाना है। अपने और बच्चों का पेट पालना है। किन्तु  मज़दूरी करने कौन जायेगा। क्योंकि पहले से हम ऋणग्रस्त हैं। अर्थात् झारखण्ड में आदिवासियों की आर्थिक स्थिति को इस गीत में बताया जा रहा है। यह केवल असुरों की ही नहीं प्रायः सारे आदिवासियों की दशा इसी प्रकार की है। समाज में बड़े-बड़े साहूकार, जमींदार आदिवासियों का शोषण किस प्रकार से करते हैं साफ-साफ पता चलता है। अकाल पड़ा हुआ है, लोग भूख से तड़प रहे हैं। जीने के लिये कोई न कोई काम करना है किन्तु अकाल के कारण यहाँ कोई काम नहीं है। ईंट के भट्ठों में या चाय के बागानों में काम करने के लिये उन्हें पलायन करना होगा किन्तु यहाँ साहुकार या जमींदार के पास पहले ही ऋण लेने के कारण उसे चुकाने के लिये बंधक बनकर उसके यहाँ चाकरी करनी है। तभी वह ऋणमुक्त हो सकता है। जब तक वह ऋण चुका नहीं देता है तब तक वह उस गाँव को छोड़कर बाहर नहीं जा सकता है। इसी स्थिति को पत्‍नी बताते हुए अपने दर्द को गीत में व्यक्त कर रही है।    

गीत- 2

नेस राः आ ऽ ऽ ऽ काल रे ऽ ऽ ऽ हीरदय कायारे गो ऽ ऽ ऽ ला

ला ऽ ऽ ऽ रे हीरदय कांयारे बो ऽ ऽ ऽ ला  //2//

सीलियारी सा ऽ ऽ ऽ ग गुड़लीराः घोटो ऽ ऽ ऽ हीरदय कायारे गोला

ला ऽ ऽ ऽ हीरदय कायारे गो ऽ ऽ ऽ ला  //2//

संदर्भ  – इस गीत को  कातिक पर्व में गाया जाता है। जतरा राग है। नृत्य करते हुए गाते हैं।

अर्थ इस अकाल में हृदय शरीर को ढो रहा है।

अकाल में सिलियारी साग और गुंदली का भात भी उपलब्द नहीं है।

यह गीत अकाल के समय होने वाले अभाव का चित्रण प्रस्तुत करता है। हिन्दी कविता जगत में बाबा नागार्जुन की ‘अकाल और उसके बाद’ कविता अत्यंत प्रचलित है। यहाँ असुरों की मौखिक परम्परा में अकाल का जिस प्रकार से वर्णन हुआ है यह उस कविता से कम नहीं है। हम जानते हैं अकाल के समय लोगों की दयनीय स्थिति होती है । जब इन्सान खेती करता है, अनाज से समृद्ध होता है तब अच्छा पौष्ठिक आहार खाता है। उस वक्त उपलब्ध अनाज या सब्जियों को हाथ भी नहीं लगाता है जो अच्छे किस्म की नहीं होती। किन्‍तु अकाल के समय उसे कुछ भी मिल जाय उसे प्रसाद के रूप में स्वीकार करता है। इसी प्रकार कम किस्म का अनाज है- गुड़ली और सिलियारी साग, जो झारखण्ड में पाया जाता है किन्तु इसे लोग खाते नहीं। उसे मवेशियों को खिलाया जाता है। गीत में पत्‍नी कह रही है कि इस अकाल में अन्न के बिना शरीर शुष्क हो गया है। शरीर में शक्ति नहीं है, इस पीड़ा को हृदय ढो रहा है। खाने के लिये न गुड़ली मिल रहा है जिसे घठ्‍ठा बनाके पीयें, न सिलियारी मिल रही है जिसे उबालकर खायें। इस दयनीय स्थिति से हृदय वेदना से भर रहा है।

विवाह गीत

असुरों की मौखिक परम्परा में विशिष्ट स्थान रखने वाले गीतों में प्रमुख हैं विवाह गीत जिसे वे अपनी भाषा में बिहा सिरिंग कहते हैं। इस समुदाय में विवाह कई प्रार के होते हैं। 1. ओढ़ाह बिहा- माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह। 2. इदितैयिते बिहा- इस पद्धति में लड़के और लड़की के पक्षों की सहमति से विवाह तय होता है किन्तु लड़की के पिता की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण अर्थात पारम्परिक रूप से विवाह करने में सक्षम न होने के कारण बिना ब्याहे लड़का लड़की को अपने घर ले जाता है और अन्य विवाहितों की भाँति जीने लगते हैं लेकिन नियम यह है कि उनके बच्चों के विवाह से पहले पारम्परिक रूप से माता-पिता का विवाह होना अनिवार्य है। 3. सह-पलायन (प्रेम विवाह) लड़का और लड़की एक दूसरे के प्रेम में घर में सूचित किये बिना सह-पलायन करते हैं, बाद में अपने अपने घरों में पता चलने पर उन्हें लाया जाता है और समाज के नियमों के अनुसार हर्जाना भरकर विवाह करने की अनुमति प्राप्त करते हैं।

असुरों की पारम्परिक विवाह के अवसर पर विवाह तय होने से लेकर दुल्हन को विदा करने तक विविद चरणों में अलग-अलग गीतों को गाते हैं। इन सारे गीतों को बिहा सिरिंग कहा जाता है। अनुष्ठानों और संदर्भों के अनुसार असुरों के बिहा सिरिंग इस प्रकार हैं-

गीत -1 – हास लाअ बेरा सिरिंग

विरोड में विरोड में ऽ ऽ ऽ हा ऽ ऽ ऽ स आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन बिहा हुय ओको ऽ ऽ ऽ आ

आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ //2//

लाएंगे में लाएंगे में बै ऽ ऽ ऽ गा आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ

आम बिगर हा ऽ ऽ ऽ स एतालेकन विहा हुयओको ऽ ऽ ऽ आ //2//

संदर्भ – विवाह में कलश रखने के लिये मिट्टी लाने के संदर्भ में इस गीत को गाया जाता है।

अर्थ – उठो मिट्टी उठो, तुम्‍हारे बिना विवाह कैसे होगा

खोदिये बैगा खोदिये, मिट्टी तुम्‍हारे बिना विवाह कैसे होगी

असुरों में विवाह के कई विधि -विधान हैं जिनमें एक है मंडप के नीचे कलश की स्थापना करना। कलश को रखने के लिये मिट्टी से बनाया जाता है। इसके लिए केवल दीमक के बाँबी की मिट्टी का ही इस्तेमल किया जाता है। उस मिट्टी को खोद कर लाने का दायित्व पहान की होती है। पहान बाँबी के पास पहुँचकर मिट्टी खोदने से पहले पूजा करता है। उसी समय बगल में खड़ी स्त्रियाँ इस गीत को गाती हैं।  इन गीतों को हासला सिरिंग कहते हैं। हास का अर्थ है माटी, लाआ का कोड़ना। यह विधि विवाह को प्रकृति से जोड़ती है। धरती सूर्य रश्मि ग्रहण कर नये अंकुरों को जन्म देती है जिससे सारी  सृष्टि का निर्माण हो रहा है। उसी प्रकार नव विवाहित दंपति से नये जीवों का जन्म होगा। उनका जीवन सुख और आनंदमय की कामना करते हुए धरती की शुभकामनाओं के लिये इस विधि को संपन्न किया जाता है क्योंकि असुरों का विश्‍वास यह है कि हम मिट्टी से जन्‍मे हैं। यह शरीर मिट्टी का है और मिट्टी में समा जाएंगे। मिट्टी जीवन का आधार है, इसलिए विवाह में अपने रीति-रिवाज के साथ बैगा के हाथों से पूजा-पाठ कर मिट्टी उठाते हैं।  स्त्रियाँ गीत गाती हैं।

गीत- 2 – हूड़ू हालांगेमे सिरिङ

हूड़ू हालांगेमे भवजी ऽ ऽ ऽ

सीकि सारइहुड़ू ऽ ऽ ऽ  रेनअ हुडू हालांगेमे भवजी ऽ ऽ ऽ

हूड़ू हालांगेमे भवजी ऽ ऽ ऽ

सीकि सारइ हुड़ू ऽ ऽ ऽ  रेनअ हुडू हालांगेमे भवजी ऽ ऽ ऽ

संदर्भ –कलश की स्थापन कर उसे धान की बालियों से सजाया सजाने के समय गाया जाता है।

अर्थ धान चुनो भाभी धान चुनो भाभी सिकी सारई का धान ( एक प्रकार का उत्तम धान) चुनो भाभी

मोहलन के पत्ते से निर्मित अनाज रखने का पात्र बांधो भाभी

इस गीत को हुडुहलांगेमे गीत कहा जाता है। मंडप में कलश की स्थापना के बाद कलश को धान की बालियों से सजाया जाता है। यह सजाने का काम दुल्हन की भाभी का होता है। मंडप में स्त्रियाँ खड़ी होकर भाभी को संबोधित करती हुई इस गीत को गाती हैं। धान की बालियों से कलश को सजाओ। सिकीसारइ धान उत्तम प्रकार का धान है, और यहाँ कलश धान रखने के पात्र का प्रतीक है। कलश को धान की बालियों से सजाने का उद्धेश्य है कि लड़की जहाँ भी जाय उस घर में धान की कमी न हो, भंडार हमेशा अच्चे किस्म के धान से भरा रहे।  

गीत- 3 – ओजअ देमे सिरिङ

सुनूम ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

हो बहीन ताम सुनूम ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय//2//

ससांग ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

हो बहीन ताम ससांग ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

आपटन ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

हो बहीन ताम आपटन ओजअ देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

नाकीग देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

हो बहीन ताम नाकीग देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

संवैर तोलो देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

हो बहीन ताम संवैर तोलो देमे ऽ ऽ ऽ आय //2//

संदर्भ – विवाह में तेल हल्दी लगाने के समय इस गीत को गाया जाता है।

अर्थ–    तेल लगा दे रही है

तुम्हारी बहन तेल लगा दे रही है

हल्दी लगा दे रही है

तुम्हारी बहन हल्दी लगा दे रही है

उबटन लगा दे रही है

तुम्हारी बहन उबटन लगा दे रही है

बाल बना रही है

तुम्हारी बहन बाल बना रही है

घास से सजा रही है

तुम्हारी बहन घास से जूड़ा सजा रही है।

विवाह संपन्न करने की प्रक्रिया में कई चरण होते हैं। असुरों की विवाह पद्धति में मुख्यधारा समाज की भाँति सिंदूर का उपयोग नहीं होता है, उनकी विवाह पद्धति भिन्न होती है। वह भिन्नता उनके विवाह गीतों में देखने को मिलता है। विवाह में तेल, हल्दी लगाने के संदर्भ में इस गीत को गाया जा रहा है।  दुल्हन की बहन उबटन के रूप में तेल हल्दी लगा रही हैं, आस-पास खड़ी महिलायें इस गीत को गा रही हैं कि- तेल लगा दे रही है, तुम्हारी बहन तेल लगा दे रही है, हल्दी लगा दे रही है, तुम्हारी बहन हल्दी लगा दे रही है, उबटन लगा दे रही है, तुम्हारी बहन उबटन लगा दे रही है। तुम्हारे जूड़े को कुश गास से सजा दे रही है, तुम्हारी बहन सजा दे रही है। इस प्रकार विवाह होने की खुशी में सारी महिलायें इस गीत को गा-गा कर दुल्हन को सुना रही हैं।

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जोभीपाट गांव में ढोल बजाता एक पुरूष (फोटो साभार : सुरेश जगन्नाथम)

गीत–4 – मेरघेरैइ सिरिंग

ओटांगताना ऽ ऽ ऽ  //2//

जो जो सेकम फीर फीर ओटंगताना  //2//

रियो रियो रियो

ओटांगताना ऽ ऽ ऽ  //2//

जो जो सेकम फीर फीर ओटंगताना  //2//

रियो रियो रियो

कींन्दरावताना ऽ ऽ ऽ  //2//

जो जो सेकम फीर फीर कींन्दरावताना  //2//

रियो रियो रियो

कींन्दरावताना ऽ ऽ ऽ  //2//

जो जो सेकम फीर फीर कींन्दरावताना  //2//

रियो रियो रियो

कींन्दरावताना ऽ ऽ ऽ  //2//

रियो डांड़ बारंडो कींन्दरावताना  //2//

रियो रियो रियो

कींन्दरावताना ऽ ऽ ऽ  //2//

रियो डाडे बारंडो कींन्दरावताना  //2//

रियो रियो रियो

संदर्भ – इस गीत को, जब बाराती गाँव में आजाते हैं उस समय लड़की वाले उन्हें दुन्हन के घर सीधे न ले जाकर गाँव के टेडे-मेडे रास्ते से घुमा फिराकर ले जाते समय इस प्रकार के गीतों को गाते हैं।

अर्थ–  उड़ रहा है उड़ रहा है इमली का पत्ता झूमते हुए उड़ रहा है।

गोल गोल घूम रहा है घूम रहा है इमली का पत्ता झूमते उड़ रहा है।

घूम रहा है घूम रहा है बवंडर गोल गोल घूम रहा है घूम रहा है।

विवाह के संदर्भ में बाराती दुल्हन के, गाँव में पहुँचने का माहौल बहुत ही सुखद होता है। बारातियों के आने की खुशी में असुर लड़कियाँ नृत्य करते बारातियों को गाँव के टेढे-मेढे रास्ते से घुमा फिराकर ले जाते हुए युवा बारातियों को संबोधित करते हुए गीत गा रही हैं। मेरघेरैइ का अर्थ है घुमा-फिरान। युवतियाँ कह रही हैं कि –  तुम यहाँ क्या कर रहे हो, बवंडर में फंसे इमली के पत्तों की तरह क्यों घूम रहे हो, हम लोग नाच रहे हैं और तुम हमारे पीछे– पीछे गोल– गोल घूमते, देखते ही रहोगे या हमारे साथ नृत्य करोगे। इसके उत्तर के रूप में हम लोग यही देख रहे हैं–  हमारे स्वागत में तुम नाच रहे हो, हमें मंडप की ओर ले जा रहे हो। तुम इतने उत्साह के साथ नाच रहे हो तुम्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे तुम इमली की पत्ती की तरह हवा के साथ बह रही हो, उड़ रही हो। यहाँ एक दूसरों की इमली के पत्तों से तुलना कर रहे हैं। जो पत्ता बहुत ही हल्का होता है, हवा में ना जाने कहाँ– कहाँ तक उड़ जाता है।

गीत–5 -डोमकच सिरिङ

ओके अला दीपिग दिया ऽ ऽ ऽ

दीप दीपी बाराअ ताना ओक अला दीपिग दिया ऽ ऽ ऽ ओक अला दीपिग दिया ऽ ऽ ऽ

दीप दीपी बाराअ ताना ओक अला दीपिग दिया बाराअ ताना  ईं ऽ ऽ ऽ जोत

ओके अला दीपिग दिया बाराअ ताना ईंजोत हाय रे बाराअ ता ना  ईं ऽ ऽ ऽ जोत

ओके अला दीपिग दिया दीप दीपी बाराअ ताना ओके अला दीपिग दिया ओके अला दीपिग दिया

दीप दीपी बाराअ ताना ओक अला दीपिग दिया बाराअ ता ना  ईं ऽ ऽ ऽ जोत

ओके अला दीपिग दिया बाराअ ताना ईंजोत हाय रे बाराअ ता ना  ईं ऽ ऽ ऽ जोत

कोड़ा आला दीपिग दिया दीप दीपी बारा ताना कोड़ा आला दीपिग दिया कोड़ा आला दीपिग दिया

दीप दीपी बाराअ ताना कूड़ी अला दीपिग दिया बाराअ ता ना  ईं ऽ ऽ ऽ जोत

कुड़ी आला दीपिग दिया दीप दीपी बारा ताना कोड़ा आला दीपिग दिया कोड़ा आला दीपिग दिया

संदर्भ – दुल्हा और दुल्हन को मंड़प के नीचे बैठाने के बाद इस प्रकार के गीतों को गया जाता है।

अर्थ–    किसका दीप जलता बुजता हुआ जल रहा है, किसका दीप प्रकाश दे रहा है

लड़का का दीप जलता बुझता जल रहा है

लड़की का दीप प्रकाश दे रहा है।

विवाह तय होने के बाद पंद्रह दिन पहले से अंधेरा होते ही गाँव के युवक-युवतियाँ एकजुट होकर दुल्हन के घर पहुँच जाते हैं। आंगन में लड़के और लड़कियाँ दुल्हन सहित दो दलों में बंट जाते हैं और डोमकच गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। डोमकच गीत प्रश्‍नोत्तर के रूप में होता है। एक दल प्रश्‍न करता है तो दूसरा दल उत्तर देता है। यह गीत बड़े लम्बे होते हैं। गीत को आगे बढाने  के लिये, लम्बे समय तक गाने के लिये उन्हीं प्रश्‍न-उत्तरों को बार-बार दोहराते हुए गाते हैं। इस प्रकार नृत्य करने का मुख्य उद्धेश्य यह है कि- विवाह के बाद अपनी सहेली कहीं दूर देश चली जायेगी और उसके साथ नृत्य करने का अवसर मिले भी या नहीं, इस कारण वे अपनी सहेली के साथ गीत गाते हैं, नृत्य करते हैं, ये पंद्रह दिन उसके जीवन के यदगार दिन बनाने का प्रयास करते हैं। हर दिन यह नृत्य डोमकच गीत से आरम्भ होता है और अंगनायी गीत से समाप्त। यह नियम है। डोमकच गीत को विवाह के पहले ही नहीं अपितु विवाह में दुल्हा और दुल्हन को मंडप में बैठाने के बाद लड़की और लड़के के पक्ष वाले दो दलों में बंटकर गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। उसी संदर्भ का यह गीत है। दुल्हा और दुल्हन को मंड़प में बैठाने के बाद उनके हाथों से दीप जलवाया जाता है। दुल्हा के पक्ष वाले दुल्हे की प्रशंसा करते हुए गीत गाते हैं तो ठीक उसी प्रकार दुल्हन के पक्ष वाले दुल्हन की प्रशंसा में गीत गाते हैं। इस गीत में लड़के के पक्ष वाले प्रश्‍न के रूप में गा रहे है कि किस का दीप जलता–बुझता जल रहा है, और किसका दीप अच्छे प्रकाश से जल रहा है। लड़की के पक्ष वाले कह रहे हैं कि दुल्हा का दीप जलता भुजता जल रहा है, लड़की का दीप अच्छी तरह प्रकाश देते हुए जल रही है। इस गीत में चहरे की दीप से तुलना की गयी है– कि किसका चेहरा सुन्दर दिख रहा है, किसका चेहरा प्रकाशित हो रहा है। तो लड़की के पक्ष वाले कहते हैं कि दुल्हे का चेहरा, बुझता हुआ दीप की तरह दिखाई दे रहा है और लड़की का चेहरा अच्छी तरह जलते हुए दीप की तरह प्रकाशित है।

गीत -6 -बिदा सिरिङ

विदा दान विदा दान सम ऽ ऽ ऽ धी सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

हुक्‍का दान सम ऽ ऽ ऽ धी चीलोम दान समधी सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

चुना दान समधी तमाखु दान सम ऽ ऽ ऽ धि सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

सेंगेल दान समधी शुकुल दान सम ऽ ऽ ऽ धी सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

सेनोलागीन सेनोलागीन लंका हो ऽ ऽ ऽ रा

संदर्भ– विवाह समाप्ति के बाद एक दूसरे से विदा लेते हुए यह गीत गाते हैं।

अर्थ–    विदा दीजिये विदा दीजिये समधी जाने के लिये जाने के लिये रास्ता दूर है।

हुक्का दीजिये चीलम दीजिये जाने के लिये रास्ता दूर है।

चूना  दीजिये तम्बाकु दीजिये जाने के लिये रास्ता दूर है।

आग दीजिये धुँआ दीजिये जाने के लिये रास्ता दूर है।

विवाह समाप्ति के बाद अंतिम चरण है विदाई। इस अवसर में भी कई गीत गाये जाते हैं। इन गीतों को विदाई गीत कहा जाता है। प्रस्तुत असुर  गीत में दोनो पक्ष वाले आमने–सामने खड़े होकर एक दूसरे से विदा ले रहे हैं। वर पक्ष वाले कह रहे हैं कि विदा दीजिये समधी जी विदा दीजिये। रास्ता बहुत लम्बा है, जाने में बहुत समय लग जायेगा अब हमें विदा दीजिये। रास्ते में पीने के लिये हुक्का दीजिये, खाने के लिये चूना तम्बाकू दीजिये। हुक्का जलाने के लिये आग दीजिये, धुआँ दीजिये। पुराने जमाने में यातायात की सुविधा नहीं होती थी। रास्ता तय करने में काफी समय लग जाता था। पहाड़ियों घटियों को पार करते–करते काफी थक जाते थे। जिसके कारण दुल्हन पक्ष वाले खाने की सामाग्री के साथ साथ हुक्का, तम्बाकू देते थे। आज की भाँति माचिस का प्रचलन नहीं था इसलिये हुक्का जलाने के लिये आग का बंदोबस्त कर दिया जाता था। आग निरंतर जलते रहने के कारण उसमें से धुँआ भी निकलता था। धुंआ का उल्लेख गीत की प्राचीनता को बताता है। इस प्रकार के प्राचीन गीत आज भी जीवित रहने का कारण ये आदिवासी ही हैं। आज भले ही अनेक सुविधाएँ क्यों न हो किन्तु गीत वही गाये जाते हैं।


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लेखक के बारे में

सुरेश जगन्नाथम

डॉ. सुरेश जगन्नाथम आदिवासी मामलों के अध्येता व स्वतंत्र लेखक हैं जिनकी विशेष रुचि आदिवासी मौखिक साहित्य के संकलन और दस्तावेजीकरण में है। इन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय सहित अनेक संस्थानाओं में अध्यापन किया है। इसके अलावा इन्होंने आईसीएसएसआर द्वारा सहायता प्राप्‍त शोध परियोजना के तहत दक्षिण, मध्य, पूर्वोत्तर भारत तथा अंडमान के आदिम आदिवासियों के मौखिक साहित्य के संग्रह पर विशेष अध्ययन किया है।

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