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डॉ. आंबेडकर और असुर

भारतीय इतिहास में नागों (अनार्यों, असुरों, दासों) की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति अत्यन्त प्रभावशाली रही है। इस सदर्भ मे ऋग्वेद के हवाले से भी विभिन्न तथ्य देते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि नाग सांस्कृतिक विकास की उंची अवस्था को प्राप्त थे। इतिहास यह भी बताता है कि वे देश के बड़े भू-भाग पर राज्य करते थे। विश्लेषण कर रहे हैं सिद्धार्थ :

डॉ. आंबेडकर विलक्षण मेधा के व्यक्तित्व थे। भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं था,जिसका विश्लेषण उन्होंने न किया हो। इस प्रक्रिया में उन्होंने भारतीय इतिहास की भी गहन छानबीन की। इस छानबीन की प्रक्रिया में उन्होंने भारत में निवास करने वाले और भारतीय समाज और इतिहास का निर्माण करने वाले विभिन्न समुदायों, उनकी संस्कृतियों, उनके राजनीतिक प्रभाव क्षेत्रों और उनकी भाषा पर गहन अध्ययन और चिन्तन किया। उन्होंने उस समय तक उपलब्ध इस विषय से संबंधित देशी-विदेशी स्रोतों की छानबीन की। इन स्रोतों में पुरातात्विक, ऐतिहासिक, भाषायी और साहित्यिक स्रोत शामिल हैं। भारत की भिन्न-भिन्न नस्लों के संबंध में अपने गहन अध्ययन, चिन्तन, विश्लेषण और इससे निकले निष्कर्षों को अपनी किताब ‘अछूत कौन थे और अछूत कैसे हो गए?’  के अध्याय 7 के ‘छुआछूत की उत्पत्ति का आधार-नस्ल का अंतर’ में रखा है। यहां हम अपने को असुर नस्ल और इसका दास, नाग और द्रविड़ से क्या संबध है? इनकी भाषा क्या रही है? ऐतिहासिक कालक्रम में इसमें क्या परिवर्तन आया? और कैसे यह अनार्य नस्ल आर्यों से बिल्कुल भिन्न रही है?

डा. भीम राव आंबेडकर

अनार्य, असुर, दास, नाग और द्रविड़ कौन थे? और इनका आपस में क्या संबंध था? इनकी आर्यों से क्या मूलभूत भिनन्तायें थी? इस प्रश्न का जवाब देने से पहले आंबेडकर प्राचीन भारत के इतिहास की एक गुत्थी के संदर्भ में प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि “प्राचीन भारत के इतिहास के विद्यार्थी जब अतीत की मीमांसा करते हैं, तो उन्हें प्रायः चार नाम मिलते हैं। आर्य, द्रविड़, दास और नाग। इन नामों का क्या अर्थ है? इस प्रश्न पर कभी विचार नहीं किया गया। क्या आर्य, द्रविड़, दास और नाग चार विभिन्न प्रजातियों के नाम हैं अथवा एक ही प्रजाति के भिन्न- भिन्न नाम हैं? आंबेडकर स्वयं इसका दो-टूक उत्तर देते हुए कहते हैं कि “ भारत में अधिक से अधिक दो नस्लें थीं। आर्य और नाग[i]” फिर वे प्रश्न पूछते हैं कि “नाग कौन थे?[ii]” वे स्वंय इसका जवाब देते हुए कहते हैं “निस्संदेह अनार्य[iii]”। इसके बाद डॉ. आंबेडकर असुर, नाग और द्रविडों के बीच के संबंधों की छान-बीन करते हैं और कहते हैं कि “यह निश्चित है कि दक्षिण के द्रविड़ उसी परंपरा के हैं, जिस परंपरा के उत्तर के नाग और असुर हैं[iv]”। वे दासों और नागों को एक ही मानते हुए कहते हैं कि दासों और नागों को अलग-अलग मानना  भारी भूल है। इस सदर्भ में वे कहते हैं कि “दास और नाग एक ही हैं। दास, नागों का केवल दूसरा नाममात्र है। यह समझना कठिन नहीं है कि वैदिक वांग्मय में नागों का ही नाम दास क्यों पड़ा। दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का संस्कृत तत्सम रूप है। नागों का राजा दाहक था, इसलिए आर्यों ने नागों के राजा के नाम पर सभी नागों को दास कहना शुरू कर दिया[v]

अनार्य, असुर, दास और और नागों को एक दूसरे का पर्याय मानने के बाद आंबेडकर द्रविड़ों के साथ इनके रिश्ते की छानबीन करते हैं। इस संदर्भ में असुरों और द्रविड़ों के रिश्ते पर विचार करते हैं और कहते हैं कि “दक्षिण के द्रविड़ों की उत्पत्ति असुरों से हुई है[vi]”। फिर वे नागों और द्रविडों के बीच के संबंधों की पड़ताल करते हैं। यह प्रश्न उठाते हैं कि द्रविड़ कौन हैं? क्या वे नागों से भिन्न हैं?  जैसा कि आंबेडकर पहले ही कह चुके हैं कि दक्षिण के द्रविड़ों की उत्पत्ति असुरों से हुई है। अब वे नागों से द्रविडों के संबंधों की व्याख्या करते हूए कहते है कि “द्रविड़ और नाग एक ही नस्ल की दो भिन्न शाखाएं हैं”। साथ ही इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि “नागों के रूप में द्रविडों ने न केवल दक्षिण भारत पर बल्कि उत्तर और दक्षिण सारे भारत पर आधिपत्य बनाए रखा था[vii]” वे कहते है कि “यह स्पष्ट है कि नाग और द्रविड़ एक ही जाति है”।

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के जोभीपाट गांव की एक असुर वृद्ध महिला (तस्वीर साभार : सुरेश जगन्नाथम)

इस प्रकार आंबेडकर अनार्य, असुर, दास, नाग और द्रविड को एक दूसरे का पर्याय मानते हैं। इसे वे फिर से रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “दास वे ही हैं, जो नाग हैं और नाग वे ही हैं, जो द्रविड हैं[viii]”। इसके पहले वे कह ही चुके हैं कि द्रविडों की उत्पत्ति असुरों से हुई है और असुर, दास, नाग और द्रविड़ सब अनार्य थे।

भारतीय इतिहास में नागों (अनार्यों, असुरों, दासों) की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति अत्यन्त प्रभावशाली रही है। इस सदर्भ मे ऋग्वेद के हवाले से भी विभिन्न तथ्य देते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं कि “ऋग्वेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट होता है कि नाग अत्यन्त प्राचीन लोग थे।[ix]  काशीनाथ विश्वनाथ राजवाडे को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं कि “नाग सास्कृति विकास की उंची अवस्था को प्राप्त थे। इतिहास यह भी बताता है कि वे देश के बड़े भू-भाग पर राज्य करते थे। यह कहने की आवश्कता नहीं कि महाराष्ट्र नागों का क्षेत्र था। यहां के लोग और यहां के राजा नाग थे।[x]” इतना ही नहीं डॉ. आंबेडकर विभिन्न स्रोतों का हवाला देकर यह भी बताते हैं कि “एक से अधिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि ईसा के आरंभिक शताब्दियों से आंध्र देश और उसके आस-पास के हिस्सों पर नागों का शासन था।[xi]” नागों के शासन का सिलसिला बाद तक चलता रहा।  इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि “तीसरी और चौथी शताब्दी के प्रारंभ में उत्तरी भारत में अनेक नाग नरेशों  का शासन रहा है। यह बात पुराणों , प्राचीन सिक्कों तथा लेखों से सिद्ध होती है[xii]”। अनार्यों,असुरों, दासों, द्रविडों यानी नागों के शासन और सांस्कृतिक प्रभाव का यह सिलसिला देश के अलग-अलग हिस्सों में दसवी से बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा। जैसी कि पहले उद्धृत किया  जा चुका है कि आंबेडकर का यह मानना था कि “नागों के रूप में द्रविड़ों ने न केवल दक्षिण भारत पर बल्कि उत्तर और दक्षिण सारे भारत पर आधिपत्य बनाए रखा था[xiii]”।

पेरियार के साथ डा. आंबेडकर

अनार्यों, असुरों, दासों, नागों और द्रविडों के एक मानते हुए, आंबेडकर उनके नस्लीय और सांस्कृतिक तौर पर एक होने पर उठाए जाने वाले सवालों का जवाब देते हैं। इस सदर्भ में सबके अधिक सवाल, असुरों, दासों और नागों के साथ द्रविड़ को एक मानने पर है। वे स्वंय इस प्रश्न को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि “यह स्पष्ट है कि नाग और द्रविड़ एक ही प्रजाति के हैं। इतने प्रमाण होने पर भी संभव है कुछ लोग इस मत को स्वीकार न करें। इस मत को स्वीकार करने में जो कठिनाई हो सकती है, वह है दक्षिण के लोगों का द्रविड नाम। लोगों का यह सवाल करना स्वाभाविक होगा कि यदि दक्षिण के लोग नाग ही हैं, तो दक्षिण के लोगों के लिए नाग शब्द का प्रयोग क्यों नहीं होता। इसमें संदेह नहीं है कि यह एक उलझन है। किंतु यह कोई ऐसी गुत्थी नहीं है, जो सुलझाई ना जा सके”[xiv]

इस गुत्थी को आंबेडकर स्वंय ही सुलझाते हैं और इसका मूल कारण दोनों द्वारा बाद में अलग-अलग भाषा का इस्तेमाल करना बताते हैं। वे कहते  हैं कि प्रारम्भ में दो ही भाषायें थीं। अनार्य या असुरों की भाषा और आर्यों की भाषा। उनका मानना है कि अनार्य, असुर, दास और नाग सब एक ही भाषा द्रविड़ बोलते थे, जो आर्यों की भाषा से पूर्णतया भिन्न थी। इतनी भिन्न थी कि आर्य मानते थे कि असुरों के पास कोई भाषा ही नहीं  है। इस बात की पुष्टि के लिए आंबेडकर विभिन्न तथ्य देते हैं। आर्यों के ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि “असुरों के पास वाणी न होने से वे कहीं के नहीं थे। वे ‘हेलवः हेलवः’ चिल्ताते थे। उनकी वाणी अगम्य थी और जो इस प्रकार बोलता है वह म्लेच्छ है। इसलिए कोई ब्राह्मण बर्बर भाषा न बोले, क्योंकि यह असुरों की भाषा है।[xv]” असुरों की यह भाषा मनु के समय तक बोली जाती थी। आंबेडकर मनु का हवाला देकर लिखते हैं कि “ इससे स्पष्ट है कि मनु के समय में भी आर्य भाषा के साथ ‘म्लेच्छ’ अथवा असुरों की भाषा बोली जाती थी”। वे आगे लिखते हैं कि इसके भी साक्ष्य मिलने लगे थे कि उत्तर के अनार्य, या असुर या दास या नाग बाद में अपनी मातृभाषा द्रविड़ की  छोड़कर आर्यों की भाषी बोलने लगे थे, जबकि दक्षिण के असुर या दास या नाग अपनी मातृभाषा द्रविड़ ही बोलते रहे। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आंबेडकर ने लिखा कि “तमिल और उससे संबंधित अन्य बोलियों का आधार असुर भाषा ही है ।“[xvi] आंबेडकर का स्पष्ट निष्कर्ष है कि असुरों की मातृभाषा द्रविड़ ही थी।

मैसूर, कर्नाटक में महिषासुर की विशाल प्रतिमा

इस बिन्दु पर आकर आंबेडकर उस गुत्थी को सुलझाते हैं कि यदि द्रविड़ और नाग एक ही नस्ल और संस्कृति के लोग रहे हैं तो द्रविड लोगों के लिए नाग शब्द का प्रयोग क्यों नहीं हुआ? इस प्रश्न का आंबेडकर एक विस्तृत जवाब देते हैं। वह जवाब यह है-

“सभी उपलब्ध प्रमाणों की विवेचना करने के बाद एक ही निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण भारत के द्रविड़ और उत्तर भारत के असुर अथवा नाग एक ही कुटंब के लोग हैं।

दूसरी बात जो ध्यान देने की हैं, वह यह कि मूल शब्द द्रविड़ नहीं है। यह तमिल शब्द का संस्कृत रूप है। मूल शब्द तमिल का जब संस्कृति भाषा-भाषियों ने उच्चारण किया तो वह दमिल्ल हो गया और इसी दमिल्ल से द्रविड़ शब्द बना। द्रविड़ एक भाषा का नाम है और इसे बोलने वालों को द्रविड़ कहा गया। यह शब्द, इसे बोलने वाले लोगों की नस्ल का बोध नही कराता है।

तीसरी बात जो याद रखने की है, वह यह है कि तमिल या द्रविड़ भाषा आर्यों के आगमन से पूर्व सिर्फ दक्षिण भारत की भाषा नहीं थी। यह समग्र भारत में बोली जाती थी। इसका विस्तार कश्मीर से कन्याकुमरी तक था। सच्चाई तो यह है कि द्रविड़ समग्र भारत में नागाओं की भाषा थी। अगली बात दो ध्यान देने की है, वह नागों और आर्यों के बीच संपर्क और इस संपर्क का नागों और उनकी भाषा पर पड़ने वाले  प्रभावों से संबंधित है। यह बात अजीब लग सकती है कि इस संपर्क का उत्तर के नागों पर जो प्रभाव पड़ा, वह उस प्रभाव से बिल्कुल ही भिन्न था, जो दक्षिण के नागों पर पड़ा। उतर भारत के नागों ने तमिल भाषा बोलना बन्द कर दिया, जो उनकी मातृभाषा थी और उसके स्थान पर संस्कृत भाषा को अपना लिया। दक्षिण के नाग अपनी मातृ-भाषा के रूप में तमिल को अपनाए रहे और उन्होंने आर्यों की भाषा संस्कृत को नहीं अपनाया। अगर दोनों के बीच के इस अन्तर को ध्यान में रखें, तो इस बात की व्याख्या करने में मदद मिलेगी कि क्यों द्रविड़ कह कर सिर्फ दक्षिण भारत के लोगों को संबोधित किया जाता है। उत्तर भारत के नागाओं को द्रविड़ कहने की आवश्यकता  समाप्त हो गई, क्योंकि उन्होंने द्रविड़ भाषा बोलना छोड़ दिया। लेकिन जहां तक दक्षिण भारत के नागाओं का सवाल है, उन्हें द्रविड़ कहने का औचित्य सिर्फ इसलिए नहीं है कि वे द्रविड़ भाषा बोलते रहे, बल्कि उन्हें द्रविड़ कहना इसलिए और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि सिर्फ वही लोग हैं जो उत्तर के नागाओं के द्वारा इस भाषा को बोलना छोडने के बाद अभी भी द्रविड़ भाषा बोलते हैं। यही वह वास्तविक कारण है, जिसके चलते दक्षिण के लोंगों को द्रविड़ कह जाता है।

लेकिन दक्षिण के लोगों के लिए द्रविड़ शब्द का विशेष तौर पर इस्तेमाल होता है, इसके चलते इस तथ्य को भूलना नहीं चाहिए कि नाग और द्रविड़ एक ही नस्ल, भाषा और संस्कृति के लोग थे। नाग और द्रविड़ सिर्फ एक ही लोगों के दो भिन्न नाम हैं। नाग नस्लीय या सांस्कृतिक नाम था और द्रविड़ उनका भाषायी नाम।

इस प्रकार दास वही लोग हैं, जो नाग हैं और नाग वही लोग हैं, जो द्रविड़ हैं। इस प्रकार दूसरे शब्दों में हम भारत की नस्लों के बारे में कह सकते हैं कि दो ही नस्लें रही हैं, आर्य और नाग।

[i] अछूत, वे कौन थे और अछूत कैसे हो गए?, बाबा साहब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाग्यंमय खंड-14 पृ. 59

[ii] वही, पृ. 59

[iii] वही, पृ. 50

[iv] वही, पृ. 50

[v] वही, पृ. 56

[vi] वही, पृ. 54

[vii] वही, पृ. 54

[viii] वही, पृ. 56

[ix] वही, पृ. 59

[x] वही, पृ. 59

[xi] वही, पृ. 50

[xii] वही, पृ. 50

[xiii] वही, पृ. 51

[xiv] वही, पृ. 51

[xv] वही, पृ. 52

[xvi] वही, पृ. 58


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डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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