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बली राजा और उनकी विरासत

बली राजा को लेकर आर्यों ने अपने धर्म ग्रंथों में अपमानजनक बातें कही। लेकिन बली राजा का पराक्रम और उनके यश को वे कभी उनके वंशजों से दूर नहीं कर सके। बलीराजा आज भी अपने वंशजों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं। बता रहे हैं नागेश चौधरी :

भारत के मूलनिवासी असुरों एवं आर्यों के बीच का झगड़ा सिर्फ अतीत की बात नहीं है। यह वर्तमान का भी अहम हिस्सा है। असुरों (या बहुजनों) और आर्यों द्वारा शत्रुता की यादों को मौखिक एवं लिखित दोनों रूपों में जिन्दा रखा गया है। यह नस्ल संबंधी कलह थी जो आज जाति व्यवस्था के रूप में मौजूद है। सामान्य तौर पर नस्लों का संघर्ष साथ-साथ चलता है और समतावादी या एक प्रकार के समरूप समाज का निर्माण करता है। किन्तु ऐसा भारत में नहीं हुआ।  

बलीराजा की बहुजनी छवि

असुरों की परम्परा सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़ी है। ऋग्वेद का वामन-बली प्रकरण संकेत करता है कि असुर पूर्व-वैदिक लोग थे। ऐसा प्रतीत होता है कि बली इतने पराक्रमी राजा थे कि आर्य उसकी महानता को भुला नहीं पाए और अपने सभी धर्मग्रन्थों जैसे वेदों, रामायाण, महाभारत, पुराणों यहां तक कि आधुनिक ब्राह्मणवादी साहित्य में उनका जिक्र करना नहीं भूले।  

असुर, दैत्य या राक्षस वे लोग थे जो इस धरती पर शासन करते थे इसका प्रमाण आर्यों के व्याख्यानों एवं बहुजनों के वृतातों में भी मिलता है। बली को पूरे भारत में विभिन्न त्योहारों के माध्यम से याद किया जाता है – जैसे असम में बिहू , केन्द्रीय एवं उत्तर भारत में बली प्रतीपाड़ा और दक्षिण में ओणम के रूप में। इसी प्रकार रावण के जीवन को भी लोग समारोह के रूप में जीते हैं। नरकासुर(आर्यों द्वारा भौमासुर को दिया गया अपमानजनक नाम) को दिवाली पर याद किया जाता है।

वामन के तीन कदम

वामन के तीन पौराणिक कदमों का वर्णन ऋग्वेद और बाद के ब्राह्मणों के ग्रन्थों में पाया जाता है। हिन्दू पौराणिक कथाएं एवं धर्म का शास्त्रीय इतिहास (लेखक: जाॅन डाॅसन) में लेखक लिखते हैं-‘‘पौराणिक तीन कदमों के बीज ऋग्वेद में मिलते हैं जहां विष्णु पृथ्वी, स्वर्ग एवं निचले क्षेत्र में तीन कदम उठाते हैं। (पृष्ठ: 42)। अपनी पुस्तक हिन्दुत्व का शब्दकोश: इसकी पौराणिक कथाएं, लोकसाहित्य और विकास (1500 ईस्वी पूर्व से 1500 शताब्दी) में मारग्रेट और जेम्स स्ट्टली लिखते हैं –‘‘ वैष्णव में वामन अवतार के तीन कदम ऋग्वेद के सूर्य विष्णु द्वारा लिए गए तीन लम्बे डग का प्रतिरूप है। (पृष्ठ: 321)’’

महात्मा फुले ने अपनी पुस्तकों में राजा बली के बारे में विस्तार से लिखा है। महात्मा फुले समग्र वांग्मय, उनके समग्र लेखन का संकलन मराठी में महाराष्ट्र सरकार ने प्रकाशित किया है, उसमें राजा बली के 20 से अधिक संदर्भ हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में विष्णु के 10 अवतारों का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने उनके छल-कपट, नियम विरूद्ध व्यवहार एवं हास्यास्पद बातों को उजागर किया है।

केरल का ओणम पर्व महाबली को श्रद्धांजलि सरीखा है

राजा बली के परदादा हिरण्यकश्यप को भी विष्णु ने नरसिंह के वेष में आकर मार डाला था। फुले ने वामन और राजा बली के बीच के युद्ध का वर्णन किया है और वामन के तीन हास्यास्पद कदमों के बारे में लिखा है। कहानी के अनुसार हार के बाद वामन ने बली को पाताललोक में भेज दिया। उन्होंने प्रश्न किया कि कैसे एक बौना अचानक से विशालकाय जीव कैसे बन सकता है जो स्वर्ग, पृथ्वी और नर्क पर आधिपत्य जमा लेता है।

फुले के अनुसार बली रणभूमि में मारा गया पर उसके पुत्र वाणासुर ने वामन को हराया और इस तरह बली का विषय जीत का जश्न बन गया। इस दिन महाराष्ट्र की महिलाएं बली के समतावादी शासन को याद करती हैं और कहती हैं –‘‘ईडा पीडा जाओ, बली राज येओ’’ अर्थात् ‘‘हमारी बहुत-सी पीड़ाएं दुख-दर्द खत्म हो गए क्योंकि बली का राज आ वापस आ गया!’’

बलीप्रतिपाडा दिन (दिवाली क दूसरा दिन, भैया या भऊबीज), मूलनिवासी महिलाएं भाई का स्वागत या आदर करत हैं और आशा करती हैं कि दूसरा राजा बली आएगा (फुले ने मूलनिवासी लोगों के लिए ‘‘क्षत्रिय’’ शब्द का इस्तेमाल किया है; यह ‘‘किसान’’ नहीं हो सकता, और आर्य के चार वर्णों में भी गलती से प्रयुक्त नहीं हो सकता।) वे अपनी पुस्तक ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ में कहते हैं कि क्षत्रिय इस धरती के मालिक थे। ‘‘आर्यन ब्राह्मण, आर्यन क्षत्रिय, आर्यन वैश्य (ईरान से) आपस में मिल गए और बली की इस भूमि पर आक्रमण कर दिया और यहां के मूलनिवासियों का आधिपत्य समाप्त कर दिया।’’  

फुले ने बली की विशेषताएं व उनसे जुड़े अन्य विश्वासों का उल्लेख किया है। वे इस्लाम और ईसाईयत की तारीफ उसके भाईचारे के सिद्धान्त के लिए करते हैं जो कि अमानवीय जाति व्यवस्था के विरूद्ध है ।

बली के बारे में ब्राह्मणों के विचार

वामन ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करता है। धर्मग्रंथों में जिसका प्रारंभ वेदों से होता है, ब्राह्मण एवं अन्य आर्य बली को बदनाम करते हैं, यद्यपि वे स्वीकार करते हैं कि बली का राज्य सभी के लिए (जिनमें वे स्वयं भी शामिल हैं) कल्याणकारी राज्य था। वे बली से घृणा करते हैं क्योंकि वह असुर वंश से थे। कुछ कहते हैं कि वे अहंकारी थे और विष्णु के खिलाफ थे।   

अासाम में बिहू पर्व के मौके पर बलीराजा को याद किया जाता है

संस्कृत के ख्याति प्राप्त विद्वान एस.डी. सतवालेकर ने परडी गुजरात में संस्कृत भाषा एवं साहित्य की प्रगति के लिए एक स्वाध्याय मंडल की स्थापना की। वह आरएसएस के भी सदस्य थे और गोलवलकर जो कि आरएसएस के द्वितीय प्रमुख थे उन्होंने उन्हें प्रसिद्ध हिन्दू विद्वान कहा था। अपनी पुस्तक वैदिक धर्म खण्ड में सतवालेकर लिखते हैं –‘‘यद्यपि बली का शासन सुराजऔर समतावादी था, और ब्राह्मण सहित, सभी उसके राज्य में खुश थे, ब्राह्मण यह समझ गए थे कि वह असुर या दैत्य था और सारी शक्ति असुरों में थी। उनके लिए यह असहनीय था। वे अपना शासन चाहते थे सिर्फ अच्छा प्रशासन नहीं। यह आर्यों की वंश की भावना थी जो बली के शासन के अधिकार को छीनना चाहती थी। (वामनवतरचा संदेश, वामन अवतार से पाठ, वेदिक धर्म खण्ड, भाग-1, मराठी, पृष्ठ-77, स्वाध्याय मंडल, 1957)’’ सतवालेकर ने स्वयं शासन (बुरा एवं गैरसमतावादी होने के बावजूद) की इच्छा व्यक्त की ताकि राजा बली का सुप्रशासन एवं समतावादी शासन को समाप्त किया जा सके।     

बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजी शासकों के खिलाफ उनका तख्ता पलटने एवं पेशवाओं के शासन के लिए प्रसिद्ध दावा किया –‘‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।’’ पेशवाओं का शासन जो कि ब्राह्मणों का शासन था  वह गैर-ब्राह्मण जाति एवं खेतिहरों के साथ अत्यधिक छूआछूत और अत्याचार करता था। इसके विपरीत, महात्मा फुले ने खुले दिल से अंग्रेजी शासकों की उनकी इंसानियत की प्रशंसा की है। मुझे याद है एम.जी. वैद्य, पूर्व आरएसएस बौद्धिक प्र्रमुख ने तरूण भारत में अपने एक लेख में लालू के पहले शासन की कटु ओलोचना की है और उसे एक ‘‘बुरा शासन’’ साबित किया है।       

अल-बरूनी ने पहले ही शूद्रों के शासन के बारे में इस ब्राह्मणवादी तिरस्कार के बारे में अपनी पुस्तक इंडिया में लिखा है। एक व्याख्यान (वराहमिहिर संहिता) राजा बली का जिक्र किया है, वह लिखते हैं कि नारायण (विष्णु का दूसरा नाम) उसे न्यूनतम भूमि देते हैं। इसी व्याख्यान में अल-बरूनी यह उद्धरण देते हैं, जिसमें नारायण कहते हैं –‘‘ मैंने उसके साथ ऐसा सिर्फ इस उद्देश्य से किया क्योंकि वह मनुष्यों में समानता चाहता है जिसे दूर किया जा सके।मनुष्य अपने जीवन की स्थितियों के अनुसार अलग होंगे, और इस विभिन्नता पर दुनिया आधारित होगी, इसके अलावा, और इससे लोग उसकी पूजा करने से विमुख होंगे और मेरी पूजा करेंगे और मुझ में विश्वास करेंगे (पृष्ठ 232, डाॅ. एडवार्ड सी. सचाउ के अंग्रेजी अनुवाद के संक्षिप्त संस्करण से, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1983)’’

फुले के अनुसार, वर्ण व्यवस्था बली की पराजय के बाद ही स्थापित हुई। मनु ने ब्राह्मणों को शूद्रों के शासन एवं क्षेत्र में रहने से रोका। आर्यों-ब्राह्मणों की यह मानसिकता आज भी है।

दीपावली के अवसर पर पत्रिकाओं एवं दैनिकों में बली को बदनाम करने के लिए लेख प्रकाशित किए जाते हैं। वे कहते हैं वह बुरा था, क्रूर था, देवताओं के विरूद्ध था, विष्णु के खिलाफ था, आर्यों का  दुश्मन था। यह एक वार्षिक कार्य है, जैसे कि रावण का पुतला जलाना। वर्ष 2015 में आरएसएस के दैनिक तरूण भारत में बलीप्रतिपाडा पर एक लेख प्रकाशित किया जिसमें बली के लिए एक विशेषण प्रयुक्त किया गया –‘‘छली या धोखेबाज’’। महाराष्ट्र में मराठी पत्रिकाएं एवं दैनिकों में किसानों को बली राजा के रूप में उद्धरित किया जाता है जब किसानों की दुर्दशा या उनकी आत्महत्या के बारे में लिखा जाता है। इसका अर्थ है कि ब्राह्मण किसानों को असुर समझते हैं जो कि सुर या आर्यों के बारे में यह मानते हैं कि वे उन्हें आत्महत्या करने के लिए विवश करते हैं।  

जो सबक सीखा जाए

कमजोर आर्यों ने असुर राजाओं जैसे महिषासुर एवं भौमासुर को मारने के लिए धोखे का सहारा लिया। लेकिन अब वे इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि असुर उनके सामने कमजोर और भिखारी हैं। वामन जब राजा बली से मिला तब भिखारी था। आर्यों का रावण, महिषासुर एवं भौमासुर से कोई मुकाबला नहीं था। किन्तु अब वे शक्तिशाली हो गए हैं क्योंकि वे संगठित हो गए हैं। दूसरी ओर, बहुजनों में विभाजन या अलगाव तेजी से हो रहा है जिससे वे दिनोदिन कमजोर होते जा रहे हैं। बली असुरों के लिए संयुक्त बल था। आज बलीराजा या बलीराजा की विचारधारा पर संगठित होने की जरूरत है। हर बलीप्रतिपाडा (दीपावली) पर असुर (बहुजन) बलीराजा के प्रशासन के लिए प्रार्थना करते हैं।

बली के राज की समृद्धि एवं समानता को वापस लाने के लिए उन्हें ब्राह्मणवादी गुलामी से मुक्त होना होगा, इसी गुलामी ने उन्हें घटाकर अमानवीय स्थिति में पहुंचा दिया है। उन्हें आर्यों के आज के ढांचे को तोड़ने अथवा पराजित करने के लिए संघर्ष करना होगा।


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लेखक के बारे में

नागेश चौधरी

नागेश चौधरी विगत तीस वर्षों से सामाजिक कार्यकर्ता का धर्म बखूबी निभा रहे हैं। वे मराठी पाक्षिक 'बहुजन संघर्ष’ के संस्थापक संपादक हैं। उन्होंने मराठी, अंग्रेजी व हिंदी में कई पुस्तकें लिखीं हैं, जिनमें 'जाति व्यवस्था व भारतीय क्रांति’ और 'व्हाय बहुजंस आर डिवाइडेड एंड ब्राह्मिंस स्टे यूनाइटेड एंड स्ट्रांग’ शामिल हैं 

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