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बुंदेलखंड में महिषासुर, बड़ा देव और मैर बाबा की परम्पराएँ

मूलनिवासियों की परंपरायें पूरे देश में कमोबेश एक जैसी हैं। फिर चाहे वह झारखंड के असुर जनजाति के लोगों के देवता बोंगा की आराधना हो या सरना माई की पूजा या फिर बुंदेलखंड के गांवों में महिषासुर व बड़ा देव की पूजा। सवाल ब्राह्म्णवादी और नवउदारवादी हमलों के बरक्स मूलनिवासियों की संस्कृति के भविष्य का भी है। बता रहे हैं सुरेश प्रसाद अहिरवार

प्राचीन काल से ही बुदेलखंड के गांवों में महिषासुर की पूजा की जाती रही है। हमारा गांव इसका साक्षी रहा है। हमारे गाँव में अहीर और अहिरवार (देश के कई हिस्‍सों में यह जाति चर्मकार, मोची आदि नामों से भी जानी जाती है) दोनों जाति के लोग मिलकर महिषासुर की पूजा करते हैं। गाँव वाले महिषासुर को ‘भैंसासुर’ के नाम से पुकारते हैं। खासकर जब गाँव अकाल से पीड़ित होता है तो गाँव की बैठक बुलाकर भैंसासुर से संबंधित  विशेष अनुष्ठान किया जाता है ।

बुंदेलखंड के महोबा में महिषासुर की मंदिर (एफपी ऑन द रोड)

गाँव वालों की मान्यता है कि  घोलना[1] के शरीर में भैंसासुर का वास होने पर वह गाँव वालों से उनकी समस्याओं पर बात करता है और उनकी  समस्याओं का समाधान 24 घंटे में हो जाता है। उनका तो यहाँ तक मानना है कि महिषासुर ने दुर्गा की बैलगाड़ी को चलाया था।  खैर भैंसासुर की कथा में ये प्रसंग कहां से आए, यह एक अलग शोध का विषय है। हालांकि जनश्रुतियों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन कथा-प्रसंगों को बाद में जोडा गया है। जब मैंने अपने गाँव वालों से पूछा कि महिषासुर को दुर्गा ने मारा था, फिर भी दुर्गा की आराधना क्यों की जाती है?  इस पर वे मौन हो जाते हैं।

ज्वारे की प्रथा

भैंसासुर की पूजा के मौके पर ज्वारे रखने की प्रथा भी है। ज्वारे गेहूं के छोटे-छोटे पौधों से निकाला गया रस है जिसका सेवन रक्तशुद्धि के लिए किया जाता है। इसे ग्रीन ब्लड भी कहा जाता है। इस आयुर्वेदिक उपयोग के अतिरिक्त गेहूं की फसल कैसी होगी इसका अंदाजा जवारे को देखने से पता कर लेते होंगे। लेकिन बाद में इसका मूल उद्देश्य विकृत होकर कर्मकांडी हो गया। इससे जुड़ा एक और तथ्य है कि इस दौरान लोग अपनी-अपनी  कुल देवी की भी आराधना करते हैं। ध्यातव्य है कि प्रत्येक परिवार की अलग-अलग कुल देवी होती हैं जिन्हें अलग –अलग नामों से पुकारा जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में मातृसत्तात्मक अनुष्ठान बहुत पहले से होते रहे हैं लेकिन कालांतर में कहीं कुछ घालमेल हुआ है।

एक तरफ नोरता, दूसरी तरफ दूर्गा पूजा

बुंदेलखंड में इन 8 दिनों का एक और पर्व मनाया जाता है जिसे ‘नोरता’ के नाम से जाना जाता है। कहीं-कहीं इसे ‘सोआटाके’ के रूप में भी जाना जाता है। नोरता अश्विन मास के प्रथमा से अष्टमी तक मनाया जाता है। सबसे जरूरी बात कि इसे सिर्फ कुंवारी लड़कियाँ ही मनाती हैं। पहले दिन गाँव के बाहर से मिट्टी लाई जाती है। उस मिट्टी को एक पुतले का आकार दिया जाता है। पुतले को घर की दीवार में चिपका दिया जाता है। प्रत्येक दिन लड़कियाँ सुबह जल्दी उठकर पूजा करती हैं। पूजा के पहले गोबर और मिट्टी से लीपती हैं। प्रतिदिन एक चौका (पूजा करने के लिए चिन्हित सजाया गया स्थान) बनाया जाता है। इस प्रकार आठ दिनों की आराधना के दौरान आठ चौके बनाये जाते हैं। लीपने के दौरान जो मिश्रण निकलता है उसे फेंकते नहीं है बल्कि प्रत्येक दिन एक-एक मीटर खिसकाते जाते हैं। आठवें दिन एक विशेष पूजा की जाती है। उस दिन मिट्टी के एक मटके में छेद  करके एक दीपक रखा जाता है। जिसे ‘धीड़ीया’ के नाम से जाना जाता है। फिर लड़की अपने सिर उस मटके को रखकर पूरे गाँव में घुमाती है। गाँव की सारी लडकियाँ उसके सम्मान में और विदा करते हुए वियोग में गीत गाती हैं। शादी होने के बाद लड़कियां नोरता मनाना बंद कर देती हैं। नोरता जहाँ अष्टमी को खत्म हो जाता है, वहीं दुर्गापूजा का समापन नवमी को होता है।

दुखों को हरने वाले बड़ा देव

आदिवासी गोंड जनजाति का विश्वास प्राकृतिक चीजों में रहा है लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं। सूरज, चाँद और पेड़-पौधों में उनका विश्वास कायम है। पर वे मंदिर नहीं बनाते। जब वे सुबह उठकर घर छोड़ते हैं तो अपने पूर्वजों और देवताओं को याद करते हैं, जिसमें बड़ा देव का प्रमुख स्थान है। सर्वप्रथम बड़ा देव के आगे वे अपना सिर झुकाते हैं। घरेलू रीति-रिवाजों और फसल के आगमन पर भी इन देवताओं की पूजा की जाती है। परिवार पर कोई विपदा आए या स्त्री को प्रजनन संबंधी समस्या हो, तब भी बड़ा देव की पूजा की जाती है। बड़ा देव को साल वृक्ष के प्रतीक के रूप में माना जाता है। गोंड अग्नि की पूजा नहीं करते हैं। हवन कार्य का प्रचलन भी उनमें नहीं है। वे सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण व जब स्त्री राजस्वला हो तो भी बड़ा देव की पूजा निषेध होती है। इस दौरान घर में भोजन नहीं पकाया जाता है। इसके पीछे उनकी परम्परा व सामाजिक मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि स्त्री राजस्वला (मासिक धर्म) होने पर घर में पवित्रता नहीं होती,  इसलिए बड़ा देव की आराधना नहीं की जानी चाहिए।

बुंदेलखंड में बड़ा देव का स्मारक (फोटो साभार- सुरेश प्रसाद अहिरवार)

बड़ा देव से जुड़ी प्रचलित कहानी

एक लोकप्रिय कहानी के अनुसार एक बार बड़ा देव की पूजा की जा रही थी। तभी उन्होंने किसी बात पर नाराज होकर एक साज वृक्ष को अपना आशियाना बना लिया व वहीं रहने लगे। बड़ा देव से लोगों ने घर आने की अपील की लेकिन बड़ा देव ने घर आने से मना कर दिया। इसलिए आदिवासी मान्यता है कि साज वृक्ष पर ही बड़ा देव रहते हैं। तब से ही साज वृक्ष की पूजा की जाने लगी। बड़ा देव एक निराकार देवता के रूप में पूजे जाते हैं इसलिए उनका मंदिर नहीं बनाया जाता है। घरों में और बाहर दोनों जगह सामूहिक रूप से बड़ा देव की पूजा की जाती है। बड़ा देव की मान्याताएं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हैं। पूजा पद्धति भी एक जैसी ही प्रतीत होती है।

मैर बाबा की पूजा विधि

बुंदेलखंड में मैर बाबा की भी पूजा की जाती है। मैर बाबा का अर्थ ‘मेरे बाबा’ भी लगाया जा सकता है। बुंदेलखंड में सभी गैर-ब्राह्मण जातियां  – भंगी, चमार, बसोर, कोरी, काछी, लोधी, ठीमर, अहीर व अन्य सभी मूलनिवासी मैर बाबा की पूजा करते हैं। वे आदिवासियों के विवाह के देवता ‘दूल्हा देव’ के  समान प्रतीत होते हैं। मैर बाबा का एक स्थान घर के किसी कोने में होता है। मिट्टी में एक चौकोर आकृति बना दी जाती है। वहीं पूजा की जाती है। जिस घर में शादी होती है, उसका बड़ा सदस्य मैर बाबा की पूजा करता है। इस पूजा में एक कपड़े के ऊपर कुछ चिन्ह बनाये जाते हैं। ये हड़प्पा के चिन्ह या आकृति से मिलते-जुलते हैं। चिन्ह बनाने के लिए हल्दी में तेल मिलाया जाता है। इस मौके पर परिवार के सभी लोगों को भोज कराया जाता है।

बड़ा देव और भाव

जब आदिवासियों के जानवर बीमार हो जाते है तब भी बड़ा देव की आराधना की जाती है। बीमारी ठीक होने की विनती की जाती है। आदिवासियों के और बुंदेलखंड के बड़ा देव में कोई अंतर नहीं है। बुंदेलखंड के टीकमगढ़ जिले मोहनगढ़ तहसील के कुंवरपुरा गाँव में जहाँ अहीर (यादव) जाति के लोग आज भी बड़ा देव की पूजा करते हैं। आदिवासियों में बड़ा देव की पूजा के दौरान बकरे की बलि दी जाती है। वहीं बुन्देलखण्ड में बड़ा देव की पूजा के दौरान  किसी भी प्रकार की बलि नहीं दी जाती है। यही एकमात्र अंतर देखने को मिलता है। पंडा पूजा कर आवाहन करता है- हे, देवतागण आप आइये और हमें दर्शन दिजीये। सभी उपस्थित लोग हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। बड़ा देव की छवि आने की प्रतीक्षा की जाती है। भाव[2] आने वाले व्यक्ति को ‘घोलना’ और बुंदेलखंड में ‘बरुआ’ कहते हैं। देवता की प्रशंसा की जाती है और फिर अपनी-अपनी समस्याओं के समाधान के बारे में बड़ा देव से चर्चा करते हैं। बड़ा देव समस्याओं के समाधान के बारे में बताते हैं। बड़ा देव के चबूतरे पर स्त्री को चढ़ने की मनाही होती है। बड़ा देव के चबूतरे के पास से गुजरने पर स्त्री जूते/चप्पल उतार अपने में हाथ में ले लेती हैं। इस भाव को बड़ा देव के प्रति सम्मान के तौर पर देखा जाता है।

बुंदेलखंड के मैर बाबा और गोंडवाना के दूल्हा देव एक ही जान पड़ते हैं। मूलनिवासियों में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पूजा का कोई उदाहरण नहीं मिलता।

आदिवासियों और मूलनिवासियों की चकना परंपरा

बुंदेलखंड में एक परम्परा है गांवों का चकना या चाकना। इस  परम्परा के तहत आषाढ़ शुरू होने के पहले, गाँव के सभी जागरूक लोग एकत्रित होते हैं और गाँव की सुरक्षा के बारे में निर्णय करते हैं। गाँव का चाकना एक प्रकार से गाँव का सुरक्षा घेरे बनाना होता है। ताकि अप्रिय घटनाओं को रोका जा सके। गाँव के सभी लोग इस के लिए चंदा एकत्रित करते हैं। चाकना परम्परा के बारे में डॉ. बी आर. आंबेडकर[3] का कहना है कि यह परम्परा हजारों साल पुरानी है। वैदिक परम्पराओं से भी बहुत पुरानी है। गाँव के सभी बड़े बुजुर्ग, गुनिया और पंडालोग पूर्णिमा या अमावस्या जैसी महत्वपूर्ण तिथि के दिन एकत्रित होते हैं। फिर एक गाँव का गुनिया एक हाथ में शराब लेकर, दूसरे लोग अन्य पूजा सामग्री अठवाई[4] को हाथों में  लेकर खोटते यानि टुकड़ों में तोड़-तोड़कर फेंकते  चले जाते हैं। गाँव की मैंडी[5] पर गुनिया लोग शराब के साथ मुर्गा या बकरे की बलि चढ़ाते हैं। कभी-कभी बकरे का कान काटकर छोड़ दिया जाता है और बलि नहीं चढ़ाई जाती है। ऐसा वे इसलिए करते हैं ताकि गाँव के बाहर के दैवी आत्माओं को भोजन मिल सके और वे गाँव को किसी भी प्रकार की क्षति न पहुचाएं। प्रारंभिक दौर में आर्य लोग गाँव के बाहर रहते थे। तब वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए गांवों में चोरी और उपद्रव करते थे। ऐसा माना जाता है कि शायद गांवों में उपद्रव को रोकने के लिए मूलनिवासियों ने अपनी सुरक्षा के लिए गाँव की बाहर सीमा पर उन्हें भोजन आदि की व्यवस्था करने का कार्यक्रम की शुरुआत की हो। इसी तरह यह परम्परा बन गई। बाद में गाँव में यह धारणा बन गई कि यह मनुष्यों, पशुओं को बीमारियों व दैवी प्रकोप से बचाता होगा।

असुर समुदाय के लोग कलकत्ता के पूजा पंडाल में अपनी सांस्कृतिक नृत्य करते हुए।साभार- इंडियन एक्सप्रेस

पहचान बनाये रखने की चुनौती

वर्तमान में मूलनिवासी अपनी पहचान को न ही सहेज पा रहे हैं और ना ही रूचि ले रहे हैं। साथ ही साथ लेखन कार्य भी इस ओर नहीं हो पा रहा है जबकि हमारी पंरपराओं को विकृत किया जा रहा है।

आर्य संस्कृति में विश्वास करने वालों के द्वारा किया जा रहा है। जब मूलनिवासी संस्कृति को आर्य संस्कृति ने अधिशाषित करने का प्रयास किया तो मूलनिवासियों ने दबाव में आकर आर्य संस्कृति के प्रभाव से महिषासुर व नोरता के साथ के साथ दुर्गा पूजा मनाना भी शुरू कर दिया होगा। गोंडवाना में बड़ा देव के साथ राम और हनुमान भी पूजे जाने लगे। मूलनिवासियों ने तो सामंजस्य की प्रक्रिया अपनाई लेकिन आर्यों ने मूलनिवासियों के संस्कृति को या तो विकृत करने का प्रयास किया या दमन करने का काम किया। मूलनिवासियों में सामंजस्य की यह प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक संघर्ष को टालने का प्रयास किया जाता है लेकिन आन्तरिक ज्वाला भभकती रहती हैं।

वर्तमान में महिषासुर, रावण के शहादत दिवस के रूप में प्रतिसंस्कृतिकरण (संस्कृति का विपरीत प्रवाह) की प्रक्रिया देखने को मिल रही है। मूलनिवासी संस्कृति को पुनः जागृत करने का प्रयास किया जा रहा है। साथ ही साथ बड़ा देव की पूजा भी बड़े स्तर पर होने लगी हैं। 21वीं सदी में उभरते न्यू मीडिया सोशल नेटवर्किंग के दौर में मूलनिवासी  संस्कृति ने पुनः अपनी पहचान कायम करने की कोशिश कर रही है। वैश्वीकरण के दौर में जब संसार कॉरपोरेट जगत के हाथों संचालित होने जा रहा है। आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा कि इससे मूलनिवासी संस्कृति कितनी लाभान्वित होगी।

सन्दर्भ ग्रन्थसूची :   

  1. वेर्रिर एल्विन, द बाइगा. जियन प्रकाशन समूह, 1986
  2. प्राचीन रिवाज और मान्यताएं, इ.ओ जेम्स  https://archive.org/stream/primitiveritualb00jame/primitiveritualb00jame_djvu.txt
  3. भारत में ग्रामीण समुदायों का उद्भव और विकास बी.एच. बैडन पॉवेल http://socserv2.socsci.mcmaster.ca/econ/ugcm/3ll3/badenpowell/VillageCommunities.pdf
  4. एम कांगली, 2011, पारी कुपार लिंगो गोंडी पूनम दर्शन (Hindi). चन्द्रलेखा कांंगली, 48, उज्जवल सोसायटी नागपुर
  5. बाबा साहब अम्बेडकर के कुछ चुनिंनदा काम  http://www.delhihighcourt.nic.in/library/articles/may/selected%20work%20of%20Dr%20B%20Rambedkar.pdf

        

[1] ऐसी मान्यता है कि भेंसासुर एक व्यक्ति के शरीर में वास करते हैं। इन्हें घोलना कहा जाता है। वह व्यक्ति जिसके शरीर में आकर भैंसासुर बात करता है

[2] जिसके शरीर में बड़ा देव का वास होता है

[3] http://www.delhihighcourt.nic.in/library/articles/may/selected%20work%20of%20Dr%20B%20Rambedkar.pdf

[4]  एक प्रकार से छोटी पोड़ी

[5] गांव की सीमा


महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशनवर्धा/दिल्‍ली। मोबाइल  : 9968527911. ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी  Amazon,और  Flipkart पर उपलब्ध हैं

लेखक के बारे में

सुरेश प्रसाद अहिरवार

घन्सौर गवर्मेंट कॉलेज में सहायक प्रोफेसर सुरेश प्रसाद अहिरवार ने जवाहर लाल यूनिवर्सिटी से शोध किया है। उनके एमफिल का विषय “मध्य प्रदेश में पंचायती राज संस्थाएं और दलितों के सश्क्तिकरण” था। वहीं “मध्यप्रदेश की पंचायती राज संस्थाओं के जरिये दलितों का राजनैतिक सश्क्तिकरण और सामाजिक बहिष्कार” उनके पीएचडी का शोध विषय था

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