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दलितों पर अत्याचार और आत्मरक्षा का अधिकार

दलितों पर अत्याचार पूरे देश में सबसे अधिक होते हैं। एनसीआरबी द्वारा अद्यतन जारी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2015 में दलितों के खिलाफ पूरे देश में 59834 घटनाओं की तुलना में संबंधित पुलिस द्वारा निष्पादित मामलों की संख्या केवल 6508 रही। एक वजह दलितों में कानून के बारे में जागरूकता का अभाव भी है। देश में कानून के बरक्स आत्मरक्षा के अधिकार को सविस्तार बता रहे हैं दीपक कुमार :

बुद्ध ने कहा था कि ‘युद्ध समाधान नहीं है’। बुद्ध की इस बात को भारतीय संविधान ने अपने मूल-पाठ और अन्य वैधानिक प्रावधानों में समाहित किया। भारतीय संविधान का भाग-चार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बनाए रखने और बढ़ावा देने का प्रावधान करता है[i] व्यक्ति राष्ट्रीय के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय विधि का एक विषय है और व्यक्ति को एक दूसरे के साथ-साथ राज्य के बरक्स भी अधिकार और कर्तव्य प्रदान किए गए हैं। कानून सभ्यता का उपहार है, जो मानव प्राणी और जानवरों के बीच में एक बुनियादी अन्तर पैदा करता है। मानव प्राणी संगठित और सभ्य तरीके से समाज से संचालित होता है। मानव प्राणियों का स्वभाव है कि वे अपने आप ही एक दूसरे के साथ शान्ति के साथ नहीं रह सकते। इसलिए उनको स्वयं के बनाए नियमों या राज्य द्वारा बनाए कानूनों से नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में राज्य नागरिकों की सुरक्षा के लिए कानून बनाता है। यह कानून न केवल नागरिकों को एक दूसरे से सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि राज्य से भी सुरक्षा प्रदान करता है।

संविधान निर्माता डा. भीमराव आंबेडकर

ऐसे कानून हैं, जो किसी भी आक्रमण से व्यक्ति से व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ राज्य से भी सुरक्षा प्रदान करते हैं। राज्य का यह दायित्व है कि वह अपने राज्य क्षेत्र के भीतर और बाहर व्यक्ति के शरीर और संपत्ति की सुरक्षा करे। लेकिन कुछ हालात ऐसे होते हैं, जिनमें राज्य फौरी तौर पर व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करने की स्थिति में नहीं होता। इन हालातों के लिए राज्य व्यक्ति को किसी आक्रमण से अपनी आत्मरक्षा करने का अधिकार प्रदान करता है। यह अधिकार इस बात तक की इजाजत देता है कि यदि कोई व्यक्ति उसकी हत्या करना चाहता है, तो अपनी आत्मरक्षा में वह उस व्यक्ति की हत्या भी कर सकता है। भारतीय दंड विधान की यह अनोखी विशेषता है कि वह व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि जब उसे तर्कसम्मत तरीके से यह आशंका हो जाए कि इन हालातों में कोई व्यक्ति उसकी मौत का कारण बन रहा है, तो वह आपको यह अधिकार देता है कि आप अपनी और दूसरे अन्य व्यक्तियों का बचाव कर सकते हैं।

भारत में एक खास समुदाय लगभग ढाई हजार वर्षों से अपमान और भेदभाव का सामना कर रहा है। इस समुदाय को जातिवादी और धार्मिक व्यवस्था ने अमानवीय हालातों में रहने के बाध्य किया। आप रोज अखबारों में तथाकथित उंची जातियों के एक खास समुदाय द्वारा अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के संदर्भ में तीन से चार घटनाएं पढ़ सकते हैं। ये लोग भी भारत के नागरिक हैं, इन्हें भी अन्य समुदायों की तरह आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त है। राज्य ने इन समुदायों की रक्षा के लिए कानून बनाए हैं, लेकिन आजादी के बाद के 70 वर्षों का अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि कानून बेहतर हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन बदत्तर है। राज्य मशीनरी समाज के वंचित समुदायों के अधिकारों, स्वतंत्रता और आजादी की सुरक्षा करने में असफल रहा है।

अब मैं यहां उन स्थितियों को रेखांकित करना चाहता हूं, जिन स्थितियों में राज्य की सहायता उपलब्ध नहीं होती। इन स्थितियों के लिए राज्य अपने नागरिकों को आत्मरक्षा का अधिकार प्रदान करता है, इस अधिकार में उस व्यक्ति की हत्या का अधिकार भी शामिल है, जो आपकी या अन्य किसी की हत्या करना चाहता है। नीचे हम उन कुछ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रावधानों की चर्चा करेगें, जो आत्मरक्षा की अवधारणा को निर्धारित करते हैं।

आत्मरक्षा का अधिकार राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह से मान्यता प्राप्त अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र का अनुच्छेद 51 इस बात की मान्यता देता है कि यह अधिकार उसके सभी सदस्यों को प्राप्त है, ये सदस्य व्यक्ति हो या राज्य।

संयुक्त राष्ट्र के अधिकार पत्र में कोई ऐसा प्रावधान नहीं हैं, जो संयुक्त राष्ट्र के किसी सदस्य पर सशस्त्र हमला होने की स्थिति में व्यक्ति या समूह के अन्तर्निहित आत्मरक्षा के अधिकार को खारिज करता हो, उस समय तक, जब तक की सुरक्षा परिषद अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को कायम रखने के लिए आवश्यक कदम न उठा ले। हां यह जरूरी है कि सदस्यों द्वारा आत्मरक्षा के अधिकार को क्रियान्वित करने के लिए जो कदम उठाए गए हैं, उसकी सूचना सुरक्षा परिषद को तत्काल दी जाए। इस संदर्भ में यह भी स्पष्ट है कि आत्मरक्षा के लिए उठाए गए कदम किसी भी प्रकार से सुरक्षा परिषद के प्राधिकार और उत्तरदायित्वों को प्रभावित नहीं करते हैं। वर्तमान चार्टर के तहत सुरक्षा परिषद को यह अधिकार है कि जब भी उसे आवश्यक लगे वह अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा कायम रखने और पुर्नस्थापित करने के उद्देश्य से आवश्यक कदम उठा सकता है।[ii]

भारतीय विधि संहिता की 1860 की धारा 100 भी ‘व्यक्तिगत सुरक्षा’ के नाम पर आत्मरक्षा का अधिकार प्रदान करता है। जैसे कि :

जब शरीर के व्यक्तिगत आत्मरक्षा का अधिकार, हत्या का कारण बनने तक विस्तारित हो जाता है :   

इससे (अनुच्छेद 100) पहले के अनुच्छेदों में उल्लिखित प्रतिबंधों के भीतर शरीर की रक्षा करने का व्यक्तिगत आत्मरक्षा का अधिकार, जिस व्यक्ति पर आक्रमण किया गया है, उसे यह अधिकार प्रदान करता है कि वह आक्रमणकारी की हत्या भी कर सकता है। यह अधिकार नीचे उल्लेखित शर्तों के अधीन है :

(पहला) – ऐसे हमला जिसमें तर्कसम्मत तौर पर इस बात की आशंका हो कि इसके चलते व्यक्ति की मृत्यु हो जायेगा, यदि इस हमले को रोका नहीं गया।

(दूसरा) – ऐसा हमला जिसमें तर्कसम्मत तौर पर इस बात की आंशका हो कि यदि इसे रोका नहीं गया तो व्यक्ति को गंभीर चोट पुहंचेगी।

(तीसरी) – ऐसा हमला, जिसका मंतव्य बलात्कार करना हो

(चौथा) – ऐसा हमला, जिसका मंतव्य अप्राकृतिक कामुकता की चाह को पूरा करना हो

(पांचवा) – ऐसा हमला, जिसका मंतव्य अपहरण करना हो

(छठां) – एक ऐसे मंतव्य से किया गया हमला, जिसका लक्ष्य  व्यक्ति को अनधिकृत रूप से कैद करना हो, जिसमें जिस व्यक्ति को कैद किया जा रहा है, उसे तर्कसम्मत रूप में यह लगना चाहिए कि सार्वजनिक प्राधिकारी संस्थाएं उसे मुक्त करान में अक्षम हैं[iii]

इन 6 हालातों में भारतीय दंड विधान का अनुच्छेद 100 व्यक्ति को इस बात की अनुमति देता है कि वह हमलावर की हत्या भी कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति इस अधिकार का उपयोग इन हालतों के इतर करता है तो वह भारतीय दंड विधान के अनुच्छेद 100 के तहत यथोचित प्रावधानों के तहत दंड पाने का अधिकारी होगा।

जब व्यक्तिगत निजी संपत्ति की रक्षा का अधिकार, हत्या का कारण बनने तक विस्तारित हो जाता है 

भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 99 में उललेखित प्रतिबंधों के भीतर व्यक्तिगत संपत्ति की रक्षा का अधिकार व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले की हत्या या अन्य नुकसान पहुंचाने के अधिकार तक विस्तारित होता है। यदि व्यक्तिगत संपत्ति को नुकसान पुहंचाने की कोशिश निम्न रूपों में की गई है :

(पहला) – डकैती

(दूसरा) – रात को घर में सेंधमारी

(तीसरा) – किसी भवन, टेन्ट या पानी के जहाज या बड़ी नाव में आग लगाने का उपद्रव करना, जिस भवन, टेन्ट  या जहाज या बडी नाव का इस्तेमाल मानव निवास स्थान के रूप में किया जाता हो, या संपत्ति रखने की जगह के रूप में ।

(चौथा) – चोर, उपद्रवी या घर में अनाधिकार प्रवेश करने वाला, इस हालात में बहुत सारे तर्कसम्मत आशंका के कारण होते हैं, जिसेक परिणाम स्वरूप मृत्यु या गंभीर चोट पुहंच सकती है, यदि व्यक्तिगत आत्मरक्षा के अधिकार को अमल में न लाया जाए[iv]

आत्मरक्षा के अधिकार के प्रति न्यायिक नजरिया :

उड़ीसा उच्च न्यायलय की पूर्णपीठ ने उड़ीसा राज्य बनाम रविन्द्रनाथ दलाई और अन्य के 1973 क्रीमिनल लॉ जर्नल के मामले में इस बात को स्वीकार किया कि एक सभ्य समाज में प्रत्येक सदस्य के व्यक्तिगत शरीर और उसकी संपत्ति की सुरक्षा करना, राज्य  का उत्तरदायित्व है। इस कारण से प्रत्येक व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि यदि वह अपने व्यक्तिगत शरीर या संपत्ति को फौरी खतरा महसूस करे तो, राज्य द्वारा उपलब्ध सहातया ले, लेकिन उसे यदि इस प्रकार की फौरी सहायता उपलब्ध ने हो तो, उसे व्यक्तिगत आत्मरक्षा का अधिकार उपलब्ध है[v]

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली

सर्वेच्च न्यायलय ने अपने हाल के एक निर्णय में एक स्वीकार किया है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की हत्या कर सकता है/ कर सकती है, यदि उस व्यक्ति द्रारा मृत्यु की आशंका के तर्कसम्मत कारण हो। यह निर्णय दीपक मिश्रा और के. एस. राधाकृष्णन की पीठ ने दिया था। न्यायलय ने कहा कि :

आत्मरक्षा का अधिकार का तब तक अपराधकर्ता के खिलाफ नहीं इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जब तक कि संबंधित व्यक्ति को इस बात की तर्कसम्मत आंशका न हो कि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो, या तो उसकी मृत्यु हो सकती है, या वह गंभीर रूप में घायल हो सकता है, इस स्थिति में व्यक्ति को आत्मरक्षा करने के सभी उपाय प्रयोग मे लाने के अधिकार होगें” 

जो अधिकार भारतीय दंड विधान के अनुच्छेद 96 से 98 और 100 अनुच्छेद 99 से नियंत्रित होते हैं। व्यक्तिगत आत्मरक्षा का अधिकार का इस्तेमाल अपने हाथों किसी की जान लेने तक विस्तारित है, लेकिन अपने हाथों अपने आत्मरक्षा में किसी की जान लेने वाले अभियुक्त को यह साबित करना पड़ेगा कि ऐसे हालात मौजूद थे, उसमें वह यदि ऐसा न करता तो, या तो उसकी मृत्यु हो जाती या वह गंभीर रूप से घायल हो जाता[vi]

एक अन्य निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्वीकार किया किः “एक व्यक्ति को अधिकार होगा कि वह कानून अपने हाथ में ले ले, यदि वह देखता है कि उसके मात-पिता या सगे-संबंधी पर हमला होने वाला है।[vii]

दर्शन सिंह बनाम पजाब राज्य और अन्य[viii] मामले में 15 जनवरी 2010 को न्यायालय ने स्वीकार किया कि :

जब वास्तव में यह आशंका हो कि हमलावर मृत्यु या गंभीर चोट का कारण बन सकता है, तो इस स्थिति में बचावकर्ता का व्यक्तिगत आत्मरक्षा का अधिकार हमलावर का जान लेने तक विस्तारित हो सकता है। सिर्फ तर्कसम्मत आशंका आत्मरक्षा के अधिकार को प्रयोग में लाने का पर्याप्त आधार है,लेकिन कानून की यह सुनिश्चित अवस्थिति है कि आत्मरक्षा का अधिकार सिर्फ स्वंय की रक्षा तक सीमित है, और इसमें सगे-संबंधियों की रक्षा शामिल नहीं है। आत्मरक्षा का अधिकार बदला लेने का अधिकार नहीं देता9

रसेल आन क्राइम (11वां संस्करण, वाल्यूम 1,पेज. 491) में कहते हैं कि :

“ …… एक व्यक्ति द्वारा किसी भी ऐसे व्यक्ति का ताकत के साथ प्रतिरोध करना न्यायसंगत है,  जिसका साफ तौर पर मंतव्य और प्रयत्न हिंसा द्वारा अथवा अचनाक हमला बोलकर एक ज्ञात घोर अपराध उस व्यक्ति, उसके निवास स्थान अथवा संपत्ति के संदर्भ में करना है। इस स्थिति में वह पीछे हटने को बाध्य नहीं है, और न तो सिर्फ हमले का प्रतिरोध करने को बाध्य है, जिस स्थिति में वह है, उस स्थिति में वह तक तक अपने विरोधी का मुकावला कर सकता है, जब तक कि खतरा टल न जाए। यदि दोनों के बीच सघर्ष जारी है, तो वह अपने हमलावार की हत्या कर सकता है। इस तरह की हत्या न्यायसंगत है।[ix]” 

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि आत्मरक्षा का अधिकार राष्ट्रीय के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पूरी तरह मान्यता प्राप्त अधिकार है। आम आदमी के हाथ में अपने शरीर और संपत्ति की रक्षा करने के लिए, यह एक असाधारण अधिकार है। भारतीय विधि व्यवस्था में यह अच्छी तरह स्थापित है कि कोई भी उसका/ उसकी जान नहीं ले सकता है। दूसरे शब्दों में हर नागरिक का यह मौलिक कर्तव्य है कि वह अपने शरीर और संपत्ति की किसी भी हमले से रक्षा करे।

मैंने यह आलेख इसलिए लिखा, क्योंकि न तो राज्य ही अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए तत्पर है और न ही नागरिक अपने आत्मरक्षा के अधिकारों के बारे में जानते हैं, इसलिए यह उचित समय है कि लोग संवैधानिक तरीके से अपनी सुरक्षा करना जरूर जाने। इस चीज के बारे में मुझे और अधिक कुछ नहीं कहना है, लेकिन एक बात कहना जरूरी है कि एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के शरीर और संपत्ति की रक्षा करने का पहला कर्तव्य राज्य का है, और आत्मरक्षा अधिकार बाद की चीज है, जो अन्त में आता है। पहले आपको पुलिस की मदद की प्रतीक्षा करना है, यदि यह मदद नहीं मिलती है, तो कृपया अपने और अन्यों के शरीर और संपत्ति की रक्षा करने लिए आत्मरक्षा के अधिकार का उपयोग कीजिए।

 [i] भारत का संविधान, आर्टिकल 51

[ii] यूनाईटेड नेशन्स  , http://www.un.org/en/sections/un-charter/chapter-vii/   23 मई 2017

[iii]  https://indiankanoon.org/doc/714464/ last accessed on 23 मई 2017

[iv] At https://indialawyers.wordpress.com/2010/01/17/supreme-court-lays-down-guidelines-for-right-of-private-defence-for-citizens/ last accessed on 24  मई 2017

[v] दी इंडियन एक्सप्रेस , राइट टू किल इन सेल्फ डिफेंस वनली ऑन रीजनेबल फीयर्स, सुप्रीम कोर्ट ( 15 जून 2012 ) http://archive.indianexpress.com/news/right-to-kill-in-selfdefence-only-on-reasonable-fears-sc/962464/ last accessed on 24 मई, 2017

[vi] धनंजय महापात्रा , टाइम्स ऑफ इंडिया (17 जून 2016 ) ) http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/SC-expands-scope-of-right-to-self-defence/articleshow/52787800.cms last accessed on 24 मई, 2017

[vii] https://indiankanoon.org/docfragment/1748156/?formInput=self%20defence%20%20doctypes%3A%20supremecourt last accessed on 24 मई 2017.

[viii] https://indialawyers.wordpress.com/2010/01/17/supreme-court-lays-down-guidelines-for-right-of-private-defence-for-citizens/ last accessed on 24 मई 2017

[ix] सेक्शन 309 ऑफ आईपीसी, 1860

(अनुवाद- सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

दीपक कुमार

दीपक कुमार, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर स्टडी ऑफ लॉ एण्ड गवर्नेंस में एम.फिल के छात्र हैं

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