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अन्याय की जड़ों पर निरंतर प्रहार करती रहीं गौरी लंकेश

वे अभिव्यक्ति की आज़ादी, असहमत होने के हक और प्रजातांत्रिक मूल्यों का जीवंत स्वरूप थीं। उनके विरोधियों की संख्या बड़ी थी और उनका जीवन खतरे में था। इसके बावजूद, अपने नैतिक बल के कारण ही वे हिम्मत से आगे बढ़ती गईं। बता रही हैं सिंथिया स्टीफन :

बीते 5 सितंबर को जब मैंने टीवी पर यह खबर देखी कि गौरी लंकेश की उनके घर के बाहर, नज़दीक से गोली मारकर हत्या कर दी गई है तो मुझे ऐसा लगा कि दुनिया मानो रूक-सी गई है। मैं इतनी हतप्रभ थी कि मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। फिर, मैंने अपनी एक मित्र को फोन लगाया, जो गौरी लंकेश की काफी नज़दीक थीं। उन्होंने भी यह खबर देखी थी और वे गहरे सदमे में थीं। कुछ ही दिनों पहले उन्होंने पूरी दोपहर गौरी लंकेश से खुशनुमा माहौल में लंबी बातचीत की थी।

गौरी लंकेश

गौरी लंकेश एक सम्मानित बुद्धिजीवी और प्रतिबद्ध पत्रकार थीं। वे अपने पिता पी. लंकेश, जो कि जानेमाने लोहियावादी चिंतक, लेखक और बुद्धिजीवी थे, की उतनी ही योग्य पुत्री थीं। गौरी लंकेश, मूलतः, बेंगलुरू से लगभग 200 कि.मी. दूर स्थित शिमोगा नगर की निवासी थीं। उन्होंने दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता का प्रशिक्षण पाया। टाइम्स ऑफ इंडिया के बेंगलुरू संस्करण में कुछ समय तक काम करने के पश्चात वे लोकप्रिय समाचार साप्ताहिक ‘संडे वीकली’ की बेंगलुरू संवाददाता बन गईं। दिल्ली में उन्होंने तेलुगु टीवी चैनल इनाडू के लिए काम किया। उनके पिता ‘लंकेश पत्रिके’ नामक अत्यंत लोकप्रिय कन्नड़ अखबार के संस्थापक-संपादक थे। सन 2000 में उनकी मृत्यु के बाद, उनके परिवार ने इस अखबार को बंद करने का निर्णय लिया। प्रकाशक के बार-बार अनुरोध करने पर गौरी ने अखबार का संपादक बनना स्वीकार कर लिया और उनके भाई इंद्रजीत अखबार का व्यावसायिक प्रबंधन करने लगे। परंतु भाई-बहन के बीच वैचारिक मतभेद थे और उनके विचार हमेशा मेल नहीं खाते थे। सन 2005 में उनके भाई ने अखबार में एक ऐसे लेख का प्रकाशन रोक दिया, जिसे उन्होंने स्वीकृति दी थी। इंद्रजीत का कहना था कि उक्त लेख नक्सल समर्थक था। उन्होंने अखबार छोड़ दिया और अपना एक नया प्रकाशन शुरू किया जिसका नाम था ‘गौरी लंकेश पत्रिके’। उनके पत्रकार साथी बताते हैं कि उन्हें यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि गौरी ने अंग्रेज़ी छोड़ कन्नड़ पत्रकारिता करने का निर्णय किया है क्योंकि कन्नड़ भाषा पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी नहीं थी। परंतु वे अपने काम में लगी रहीं और उनकी पत्रिका न केवल सफल हुई बल्कि उसने साहस की पत्रकारिता के नए मानक स्थापित किए।

उनके साप्ताहिक अखबार, जो कोई विज्ञापन स्वीकार नहीं करता था, काफी लोकप्रिय था और अपनी तीखी टिप्पणियों और जनवादी लेखन के लिए जाना जाता था। उनके धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील विचारों का राजनीतिज्ञों, विद्यार्थियों और युवा बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग ने ज़बरदस्त स्वागत किया। चूंकि ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ कन्नड़ में निकलती थी, इसलिए उसके लिए आम आदमी में अपनी पैठ बनाना और आसान था। गौरी हर प्रकार के अन्याय के खिलाफ खुलकर लिखती और बोलती थीं। उन्होंने कभी इस बात की फिक्र नहीं की कि उनके लेखन से कौन नाराज़ हो रहा है और कौन प्रसन्न। जाहिर है उनके विरोधियों की संख्या बहुत बड़ी थी। राज्य के कई जिलों में उनके खिलाफ मानहानि के दर्जनों मुकदमे दायर किए गए परंतु इसके बाद भी उन्होंने वह लिखना और प्रकाशित करना जारी रखा, जो वे ज़रूरी समझती थीं। यह दृष्टिकोण आज दुर्लभ है क्योंकि आज अखबार बड़े व्यवसायिक घरानों का हिस्सा बन गए हैं और न तो राजनीतिक और ना ही आर्थिक सत्ताधारियों के खिलाफ खुलकर कुछ कह पाते हैं।

कॉलेज के दिनों में अपने मित्रों के साथ गौरी लंकेश (ब्लू टॉप व जींस में)

सन 2008 में उनके अखबार में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि भाजपा नेता प्रहलाद जोशी और उमेश दुशीषी ने हुब्बाली के एक जोहरी से एक लाख रूपए की जबरिया वसूली की है। दोनों नेताओं ने उनके खिलाफ मानहानि का दावा कर दिया और नवंबर 2016 में एक निचली अदालत ने उन्हें दोषसिद्ध घोषित कर दिया। इस प्रकरण में वे दूसरी आरोपी थीं। पहले आरोपी को बरी कर दिया गया क्योंकि इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला कि उसने इस लेख को लिखा था। अदालत ने गौरी से कहा कि वे अपनी खबर का स्त्रोत बताएं परंतु उन्होंने पत्रकारिता के उच्च प्रतिमानोंनांे के अनुरूप ऐसा करना स्वीकार नहीं किया और सज़ा पाना बेहतर समझा। उन्हें उसी अदालत से ज़मानत मिल गई और उन्हें जेल नहीं जाना पड़ा।

उन पर अक्सर यह आरोप लगाया जाता था कि वे नक्सलवादियों की समर्थक हैं। परंतु यह भी उतना ही सच है कि वे हर प्रकार की हिंसा के खिलाफ थीं और उन्होंने कई नक्सलवादियों को

मुख्यधारा में वापस लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

पत्रकार के अलावा वे सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं। ‘कौमू सौहार्द वेदिके’ (केएसवी) की अध्यक्ष बतौर उन्होंने चिकमंगलूर के नज़दीक बाबा बुधनगिरी हिल्स इलाके में संघ परिवार द्वारा सांप्रदायिक घृणा के बीज बोने के प्रयासों का कड़ा विरोध किया। बुधनगिरी, सूफी संत बाबा बुधन का स्थान है। ऐसा कहा जाता है कि वे ही यमन से पहली बार काॅफी के बीज भारत लाए थे। समय के साथ बुधनगिरी सभी धर्मों के लोगों के श्रद्धा स्थल के रूप में उभरा। संत की दरगाह पर प्रार्थना करने के लिए बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान वहां पहुंचते थे। ऐसा कहा जाता है कि यही वह स्थान है जहां सातवीं सदी में पैगम्बर मोहम्मद के एक नज़दीकी सहयोगी आए थे। यह भी कहा जाता है कि बाबा बुधन, जिन्होंने कई सदियों पहले एक नए पंथ की स्थापना की थी, विष्णु के एक अवतार दत्तात्रेय के रूप थे।

पिछले कुछ वर्षों से संघ परिवार इस स्थान पर अपना दावा करता आया है। उसने इस तीर्थस्थल पर कब्ज़ा करने के लिए हर तरह के प्रयास किए। केएसवी, सांप्रदायिक सद्भाव और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के इस प्रतीक की रक्षा के अभियान में हमेशा आगे रही। उसने इस स्थान के धर्मनिरपेक्ष और अंतर्सामुदायिक चरित्र को बनाए रखने के पक्ष में जनमत का निर्माण किया। गौरी इस तीर्थ स्थल की मूल परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने के अभियान की सबसे मज़बूत स्तंभों में से एक थीं।

मेधा पाटेकर व अन्य के साथ गौरी लंकेश

केएल अशोक, जो केएसवी का कामकाज देखते हैं, का कहना है कि ‘‘यह केवल एक पत्रकार की हत्या नहीं है। यह प्रजातंत्र और संवैधानिक मूल्यों की भी हत्या है। वे हमारे साथ मिलकर सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाती थीं। हम सभी को पता था कि हमारी जिंदगियां खतरे में हैं परंतु हमें यह अपेक्षा नहीं थी कि ऐसा होगा’’।

अशोक कहते हैं कि गौरी लंकेश की हत्या दरअसल तार्किकता का खात्मा करने के षड़यंत्र का भाग है। ‘‘नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश – ये सभी तार्किकतावादी चिंतक थे और इसी कारण उनकी हत्या की गई’’।

गौरी बुद्धिजीवियों की बैठकों और सम्मेलनों में भाग लेने का कोई मौका नहीं छोड़ती थीं चाहे बेंगलुरू में या कहीं और। वे 6 सितंबर को मुंबई में एक बैठक में भाग लेने वाली थीं। वे जो कुछ भी कहती थीं उसे अत्यंत गंभीरता से लिया जाता था क्योंकि उनके विचार स्पष्ट थे और उनकी प्रतिबद्धता संदेह से परे। पत्रकार और बुद्धिजीवी के रूप में उनकी उच्च विश्वसनीयता थी। उनके कई भाषण यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। उनसे यह पता चलता है कि वे कितनी सरल भाषा में सूचनापरक और संतुलित विचार लोगों के सामने रखती थीं। वे हमेशा धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की हामी रहीं और धार्मिक कट्टरता, घृणा फैलाने वाले भाषणों और हिंसा का उन्होंने हमेशा विरोध किया।

अपने साप्ताहिक का संपादन करने और उसमें लिखने के अतिरिक्त वे कई अन्य प्रकाशनों के लिए भी लेखन कार्य करती थीं जिनमें ‘द वायर’, ‘राउण्डटेबिल इंडिया’ व ‘बैंगलोर मिरर’ शामिल थे। फरवरी 2016 में उन्होंने ‘बैंगलोर मिरर’ में महिषासुर पर एक लेख लिखा था जो गहन शोध पर आधारित था।

उनके मित्र उन्हें एक अत्यंत स्नेही और सौम्य व्यक्ति के रूप में याद करते हैं। गुजरात के युवा दलित वकील जिग्नेश मेवानी, जिन्होंने ऊना हिंसा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया था, और जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार उन्हें बहुत प्रिय थे। ‘‘उनका हमेशा यह ज़ोर रहता था कि जब भी हम किसी बैठक आदि में भाग लेने के लिए बेंगलुरू आएं तो उनके ही घर रूकें। वे मुझे अपना अच्छा लड़का और कन्हैया को गंदा लड़का बताती थीं’’, जिग्नेश ने उन्हें अपनी एक मार्मिक श्रद्धांजलि में लिखा।

गौरी लंकेश (दायें) अपनी बहन कविता के साथ। पार्श्व में उनके पिता पी. लंकेश की तस्वीर

वे अपनी बहन कविता, जो एक सफल फिल्म निर्माता हैं, के बहुत नज़दीक थीं। कविता राजनीति से दूर रहती हैं परंतु दोनों बहनें एक दूसरे के काम में सहयोग करती थीं। गौरी, कविता की फिल्मों की पटकथा पढ़ती थीं और उनके संबंध में अपने सुझाव देती थीं। वे अपने पिता के बहुत नज़दीक थीं और उनके सम्मान में वे पत्रिका के कार्यालय में कभी उनकी कुर्सी पर नहीं बैठीं। पत्रकारिता प्रारंभ करने के पहले वे बेंगलुरू के सेन्ट्रल काॅलेज में अंग्रेजी की व्याख्याता थीं और इसलिए उन्हें ‘मेशट्रू’ (शिक्षक) के नाम से भी पुकारा जाता था।

उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा क्या थी? शायद एक आॅनलाईन पोर्टल को दिए गए उनके साक्षात्कार की इन पंक्तियों से हमें यह समझने में मदद मिल सकती हैः ‘‘…मैं हिन्दुत्व की राजनीति की निंदा करती हूं और जाति व्यवस्था की भी, जो हिन्दू धर्म का हिस्सा मानी जाती है। इसके कारण मेरे आलोचक मुझे हिन्दू-विरोधी बताते हैं। परंतु मेरा यह मानना है कि एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए जो संघर्ष बसवन्ना और आंबेडकर ने शुरू किया था उसे आगे बढ़ाना मेरा कर्तव्य है और जितनी मेरी शक्ति है उतना मैं कर रही हूं।

वे अभिव्यक्ति की आज़ादी, असहमत होने के हक और प्रजातांत्रिक मूल्यों का जीवंत स्वरूप थीं। उनके विरोधियों की संख्या बड़ी थी और उनका जीवन खतरे में था। इसके बावजूद, अपने नैतिक बल के कारण ही वे हिम्मत से आगे बढ़ती गईं। धमकियां मिलने के बावजूद उन्होंने कभी पुलिस की सुरक्षा नहीं मांगी क्योंकि वे बंदूक हाथों में लिए लोगों के साथ चलने में विश्वास नहीं रखती थीं। ऐसा सोचना भी उनके लिए मुश्किल था। परंतु अब हम सब लोगों को उनके बिना जीना सीखना होगा। एक हत्यारे की गोली ने उनकी जान ले ली है। जैसा कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने ट्वीट किया ‘‘जानीमानी पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बारे में सुनकर मुझे गहरा धक्का लगा। इस जघन्य अपराध की निंदा करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। सच तो यह है कि यह प्रजातंत्र की हत्या है। उनकी मृत्यु से कर्नाटक ने एक मज़बूत प्रगतिशील आवाज़ को खो दिया है और मैंने एक मित्र को।’’

हम सबको उनकी मृत्यु से गहरी क्षति हुई है। शक्तिशाली बनी रहो, गौरी।


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लेखक के बारे में

सिंथिया स्टीफेन

सिंथिया स्टीफेन स्वतंत्र लेखिका व विकास नीति विश्लेषक हैं। वे लिंग, निर्धनता व सामाजिक बहिष्कार से जुड़े मुद्दों पर काम करतीं हैं

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