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महिषासुर प्रकरण : दमन पर हौसला भारी, विदेशों में भी शोध शुरू

कथित तौर पर विविधता वाले भारत के कई हिस्सों में महिषासुर विमर्श को लेकर सैंकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया है। सभी मामलों के केंद्र में महिषासुर और भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए है। सांस्कृतिक प्रतिवाद को विधिक मामले में उलझाने की कोशिशें कैसे विफल हो रही हैं, बता रहे हैं नवल किशोर कुमार :

पहली बार वर्ष 2011 में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दलित-पिछड़े वर्ग के छात्रों ने महिषासुर शहादत दिवस समारोह का आयोजन किया था। यह आयोजन  कई प्रकार की पेचीदगियों के बाद मुमकिन हो सका था। लेकिन इस आयोजन ने पूरे देश में महिषासुर विमर्श को चर्चा के केंद्र में ला दिया। पूरे देश में, ऐसे लोग सामने आने लगे जिनकी जड़ें इससे जुड़ी थीं। लोगों को हौसला बढ़ा और फिर पूरे देश में अनेक जगहों पर आयोजन होने शुरू हुए। लेकिन साथ ही द्विजों का राज्य समर्थित रवैया भी सामने आया। देश के कई हिस्सों में लोगों के खिलाफ धार्मिक भावनायें भड़काने के आरोप में मुकदमे दर्ज किये गये। लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन इन दमनात्मक कार्रवाईयों के बावजूद मूलनिवासियों के अस्मिता पर आधारित, इस विमर्श का दायरा  बहुत तेजी से बढा है। इसका एक प्रमाण यह कि स्विटजरलैंड सहित कई देशों के विश्वविद्यालयों में शोेध किये जा रहे हैं। रिपोर्ट में हम इसकी कुछ बानगियां रखेंगे।

महिषासुर शहादत दिवस को लेकर सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हो रहे पोस्टर

विदेशी विश्वविद्यालयों में हो रहा शोध

मौमिता सेन मूलत: पश्चिम बंगाल की हैं और इन दिनों एक यूरोपियन विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। अपने पोस्ट पीएचडी प्रोजेक्ट के केंद्र में उन्होंने महिषासुर विमर्श को रखा है। दरअसल उनका शोध विश्वविद्यालय के द्वारा दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में हो रहे सांस्कृतिक पुनर्जागरण  पर विस्तृत शोध का हिस्सा है।

फारवर्ड प्रेस के साथ बातचीत में मौमिता ने बताया कि महिषासुर विमर्श को लेकर उनकी दिलचस्पी तब बढ़ी, जब वर्ष 2015 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राज्यसभा में इस संबंध में बयान और उन्होंने दुर्गा को देश की संस्कृति के मूलाधार के साथ जोड़ा। मौमिता बताती हैं कि अपने शोध के दौरान वह भारत के उन सभी हिस्सों में जायेंगी जहां महिषासुर से संबंधित संस्कृतियां मौजूद हैं और साथ ही वहां भी, जहां इसके अवशेष मौजूद हैं। इसके अलावा वे पश्चिम बंगाल भी जायेंगी, जहां  दुर्गा अपने से अधिक मजबूत दिखने वाले महिषासुर का संहार करती दिखायी जाती हैं।

कोलकाता के चित्रकार देबनाथ उज्ज्वल की पेंटिंग

मौमिता अकेली उदाहरण नहीं हैं। मूलत: जर्मनी के उवे स्कोडा डेनमार्क के अरहुस विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और इन दिनों भारत में सर्वहारा समाज की संस्कृतियों पर शोध कर रहे हैं। अपने शोध के मद्देनजर जब अपने अंतिम भारतीय प्रवास के दौरान पश्चिम बंगाल और झारखंड के सीमावर्ती जिलों में संथालों के बीच पहुंचे, तब उन्हें महिषासुर एक नायक के रूप में मिले और तब उन्होंने इसे अपने शोध का केंद्र बिंदु बनाया।

दक्षिण भारत में द्विज मान्यताओं को चुनौती

मसलन दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक में यह विमर्श असर दिखाने लगा है। इसकी विभिन्न रूपों में अभिव्यक्तियां सामने आ रही हैं। इसी संदर्भ में मैसूर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महेश चंद्र गुरू पर राम व भगवद् गीता पर टिप्पणी किये जाने को लेकर मुकदमा करीब एक साल पहले  दर्ज किया गया। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी उन्हें निलंबित कर दिया। लेकिन प्रो. गुरू नहीं रूके।

बीते 18 सितंबर 2017 को मैसूर में उनके नेतृत्व में महिष दसरा का भव्य आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। इस मौके पर मूलनिवासियों की संस्कृति व मुद्दों पर आधारित तीन किताबें लोकार्पित की गयीं। ये तीन किताबें थीं – ‘सेक्सुअल सीक्रेट्स ऑफ गॉड्स एंड गॉडेसेज’ (लेखक : सिद्दस्वामी),’हिन्दूज एट बीफ’ का कन्नड़ में अनुवाद (मूल लेखक डॉ. बी. आर. आंबेडकर), और ‘दलित आर्केस्ट्रा : सिद्धार्थ ’(लेखक : सिद्दस्वामी)। इस मौके पर वक्ताओं ने राज्य सरकार से महिषासुर दिवस को राजकीय त्यौहारों की सूची में शामिल करने की मांग की। अपने अध्यक्षीय संबोधन में प्रो. गुरू ने कहा कि 245 ईसापूर्व में बौद्धानुयायी सम्राट अशोक ने  बौद्ध भिक्षु महादेव को कर्नाटक के ‘महिषामंडल’ भेजा। बाद में एक शासक महिषा ने महिषामंडल राज्य की स्थापना किया। बहुत सारे प्रमाण महिषासुर की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नही है कि चामुंडेश्वरी देवी (दुर्गा) ने महिषासुर की हत्या की। ब्राह्मणवादी उन्हें ‘असुर’ के रूप में प्रचारित करते हैं। उन्होंने राज्य सरकार से मैसूर विश्वविद्यालय का नाम महिषासुर विश्वविद्यालय करने की मांग भी की।

18 सितंबर 2017 को कर्नाटक के मैसूर में महिष दसरा समारोह के दौरान तीन पुस्तकों का लोकार्पण करते अतिथिगण

गौरी लंकेश की हत्या और महिषासुर पर उपन्यास

वहीं कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू के योगेश मास्टर भी एक नजीर हैं। नजीर इस मायने में कि पिछले वर्ष मनुवादी उन्मादियों ने उनके साथ मारपीट की थी और चेहरे पर कालिख मल दिया था। इसके अलावा बीते 5 सितंबर 2017 को गौरी लंकेश की हत्या बेंगलुरू में कर दी गयी। वह प्रसिद्ध कन्नड़ टेबलॉयड ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ की संपादक थीं और पिछले तीन वर्षों से अपने टेबलॉयड में योगेश मास्टर सहित अन्य दलित-बहुजन लेखकों के विचारों को प्रमुखता से जगह देती थीं। इसके अलावा पिछले वर्ष बेंगलोर मिरर के लिए उन्होंने रिक्लेमिंग महिषासुर शीर्षक से लेख लिखा था। योगेश उनकी हत्या को दलित-बहुजन विमर्श से जोड़कर देखते हैं। वर्तमान में इन दिनों वे अपने नये उपन्यास ‘महिषासुर’ को अंतिम स्वरूप दे रहे हैं जो शीघ्र ही प्रकाश्य है।

उग्रवाद प्रभावित छत्तीसगढ़ में महिषासुर की गूंज

उधर सलवा जुडुम और आपरेशन ग्रीन हंट के बीच ही आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ के कई जिलों में सांस्कृतिक आंदोलन जंगल में लगी आग की लहर की बढता जा रहा है। इस संबंध में राजनांदगांव जिले के मानपुर कस्बे के निवासी युवा व्यवसायी व सामाजिक कार्यकर्ता विवेक कुमार सिंह बताते हैं कि यहां हर आदिवासी के घर में परंपरागत रूप से  महिषासुर की पूजा की जाती है। अब यह एक आंदोलन बन चुका है और इसके  कारण पूरे इलाके में दुर्गापूजा जैसे नए बाजारवादी त्यौहार का दम निकलता जा रहा है। हालत यह हो गयी है कि अब दुर्गापूजा और रावण वध करने वालों को चंदा मांगने पर भी नहीं मिल रहा है। रावण वध के लिए पुतला पहले स्थानीय कलाकार बनाते थे, लेकिन आंदोलन का परिणाम है कि पिछले वर्ष कलाकारों ने मना कर दिया और आयोजकों को बाहर से पुतला मंगवाना पड़ा था। विवेक के मुताबिक इस बार भी पूरे इलाके में दुर्गापूजा व रावण वध का बहिष्कार किया जा रहा है। इसके अलावा आगामी 5 अक्टूबर 2017 को महिषासुर शहादत दिवस समारोह आयोजित किया जाएगा। इसके लिए स्थानीय लोगों द्वारा एक बैठक आहूत की गयी है।

18 सितंबर 2017 को कर्नाटक के मैसूर में महिष दसरा समारोह के दौरान उपस्थित जनसमूह

रासुका की धौंस भी बेकार

ध्यातव्य है कि विवेक कुमार के खिलाफ भी पिछले वर्ष मार्च महीने में मुकदमा दर्ज कराया गया था। उनके ऊपर आरोप था कि वर्ष 2014 में उन्होंने अपने फेसबुक वॉल पर महिषासुर के मिथक के पुनर्पाठ से संबंधित विचारों को साझा किया था। विवेक बताते हैं कि सदियों से थोपी जा रही मनुवादी संस्कृति के जड़ पर प्रहार करने पर उसके ठेकेदारों का यह व्यवहार कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता है। सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनकारियों को इसके लिए तैयार रहना चाहिए। वे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में मूलनिवासियों के उभार का दमन करने के लिए रासुका का इस्तेमान किया जा रहा है। दरअसल अब पुलिस सांस्कृतिक आंदोलनकारियों को धार्मिक भावना आहत करने के आरोप में गिरफ्तार नहीं करती है बल्कि उन्हें रासुका के तहत गिरफ्तार करती है। उनके उपर नक्सली होने या नक्सलियों की सहायता करने का आरोप लगाया जाता है। इससे विधिक पेचीदगियां बढ़ जाती हैं। सामान्य मामलों में पुलिस को अधिकतम 90 दिनों के अंदर आरोप पत्र अदालत में समर्पित करना अनिवार्य होता है लेकिन रासुका उन्हें मामलों को लंबा खींचने में मदद करता है।

महिषासुर विरोधियों के उखड़ने लगे पांव, मिल रही जेल

विवेक बताते हैं कि इस तरह की दमनात्मक कार्रवाईयों के बावजूद ब्राह्मणवाद के पांव उखड़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष जब उन्हें गिरफ्तार किया तब उसके बाद सुकमा में ही हिन्दू संगठनों द्वारा रैली निकाली गयी और रैली के दौरान मूलनिवासियों के खिलाफ अपशब्द का इस्तेमाल किया गया। मूलनिवासियों ने हिन्दू संगठनों के लोगों के खिालाफ मुकदमा दर्ज कराया। इस मामले में आरोपितों की अग्रिम जमानत याचिका पहले निचली अदालत ने खारिज तो किया ही, बाद में हाईकोर्ट ने भी 1 जुलाई 2017 को जमानत की अपील को खारिज कर दिया। हालांकि इस मामले में करीब आठ महीने बाद एक आरोपी सतीश दूबे को पुलिस ने गिरफ्तार किया और न्यायादेश के आलोक में जेल भेजा गया। विवेक के अनुसार यह मामला यही नहीं रूका। बाद में वहां के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम सहित कई अन्य मूल निवासियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उनके विचारों का दमन करने की कोशिश की गयी।

समर्थन में उतरे कई राजनेता

वहीं इस संबंध में पूर्व विधायक मनीष कुंजाम कहते हैं कि भारत के संविधान में सभी को अपनी बात बिना किसी दूसरे की भावनाओं को आहत किये कहने का अधिकार है। महिषासुर हमारे पूर्वज हैं। द्विज जब अपने आख्यानों में उन्हें खलनायक के रूप में चित्रित करते हैं तो उससे हमारी भावनायें भी आहत होती हैं। श्री कुंजाम कहते हैं कि मूलनिवासियों को भी अपनी बात कहने की आजादी मिलनी चाहिए। श्री कुंजाम की तरह ही महाराष्ट्र से लगे छत्तीसगढ के मुंगेली जिले के विकास मुंगलीकर भी उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें 295 ए के तहत मुकदमा झेलना पड़ा है। उन्हें 5 अक्टूबर 2016 को गिरफ्तार किया गया। इनके मामले में दमन की पराकाष्ठा का आलम यह है कि जिला प्रशासन की अनुशंसा पर अदालत ने उन्हें मुंगेली जाने पर रोक लगा दिया है। इस कारण उन्हें परेशानियां उठानी पड़ रही हैं। परंतु इसके बावजूद सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अभियान में मुस्तैदी के साथ जुटे हैं।

महिषासुर विमर्श को अन्य राजनेताओं का समर्थन भी मिलना शुरू हो गया। इस संदर्भ में झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री दिशोम गुरू शिबू सोरेन का वर्ष 2007 में दिया गया वह बयान उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री रहते हुए रांची में रावण वध समारोह में भाग लेने से इंकार कर दिया था। वहीं वर्ष 2012 में फारवर्ड प्रेस के साथ बाचतीत में उन्होंने  कहा था कि वे असुर समाज से आते हैं और रावण को अपना आराध्य मानते हैं। 

सांस्कृतिक प्रतिरोध को राजनीतिक समर्थन : दिशोम गुरू व झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन, राज्यसभा सांसद डा. मीसा भारती, छत्तीसगढ़ के कोंट विधानसभा क्षेत्र से सीपीआई के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम

राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पुत्री और राज्यसभा सांसद डा. मीसा भारती ने भी वर्ष 2015 में फारवर्ड प्रेस को दिये अपने साक्षात्कार में रावण वध और महिषासुर मर्दन की आलोचना करते हुए कहा था कि द्विजों ने सत्ता पर कब्जा बनाये रखने के लिए हमारे जननायकों का चित्रण खलनायक के रूप में किया है। उन्होंने यह भी कहा था कि बहुजन संस्कृति से सरोकार रखने वाले आंदोलनकारी अपना संघर्ष जारी रखें और बहुलतावादी प्रजातंत्र के समतामूलक सरोकारों को आगे बढ़ायें।

झारखंड में लामबंद हुए आदिवासी, सरकार को ललकारा

झारखंड में अपने पूर्वजों को सम्मान दिलाने के लिए वहां के आदिवासियों का संघर्ष अब तीखा हो गया है। बीते 27 अगस्त 2017 को रांची से प्रकाशित अखबार आई नेक्सट ने अपने मुख्य पृष्ठ पर इसकी तसदीक की। खबर के अनुसार खूंटी जिले के मुरही पंचायत के कांकी में आदिवासियों ने दो दिनों तक एसपी- डीएसपी सहित 80 अधिकारी- कर्मियों को 14 घंटे तक बंधक बनाए रखा। हालांकि लोग भूमि अधिग्रहण कानून में किये गये संशोधनों को लेकर आंदोलनरत थे। परंतु उनके आंदोलन को सबसे अधिक मजबूती सांस्कृतिक पुनर्जागरण ने दी। परिणाम यह हुआ कि कांकी की ‘पारंपरिक प्राकृतिक ग्रामसभा’ के एक नए फरमान के बाद से झारखंड के सरकारी तंत्र में उपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच गया। ग्रामसभा ने फरमान जारी किया कि रावण व महिषासुर (महेषा मुर्मू) आदिवासियों के राजा व पूर्वज हैं। उन्हें दशहरा में जलाना या राक्षस कहना सांस्कृतिक द्रोह ही नहीं, बल्कि देशद्रोह है। यदि पांचवी अनुसूचित क्षेत्र के जिलों में महाराजा रावण व महेषा मुर्मू (महिषासुर) को राक्षस कहकर जलाया गया, तो जिलों के उपायुक्तों पर देशद्रोह का मुकदमा चलेगा। अपने फरमान के संदर्भ में ग्रामसभा ने कहा कि यह मुकदमा एट्रोसिटी एक्ट व आइपीसी 124ए के तहत चलेगा। इसमें ऐसे अधिकारियों को बर्खास्त करने का भी प्रावधान है।

उत्तर प्रदेश में भी उठ रहा सवाल

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के इस आंदोलन का दायरा उत्तरप्रदेश के कई शहरों में फैल चुका है। अभी हाल ही में बीते 15 सितंबर को उत्तरप्रदेश के बुलंद शहर जनपद के डिवाई थाने के गालिबनगर मुहल्ले के निवासी युवा दंत चिकित्सक डा. रजवी दिवाकर के खिलाफ  बजरंग दल एवं अन्य हिन्दू संगठन के लोगों द्वारा मुकदमा दर्ज कराया गया है। दर्ज प्राथमिकी के अनुसार कुछ दिनों पहले व्हाट्स अप के जरिए दलित समुदाय के डा. दिवाकर ने मूलनिवासियों को संबोधित एक संदेश पोस्ट किया। इस पोस्ट में दुर्गा की प्रतिमा के निर्माण में वेश्यालय से मिट्टी लाये जाने आदि की चर्चा थी। अपने खिलाफ मुकदमा के बारे में पूछने पर दिवाकर  बताते हैं कि बुलंद शहर में आंबेडकरवादियों की संख्या बढ़ी है और लोग अब खुलकर विमर्श करते हैं। वे अब मानने लगे हैं कि दुर्गापूजा आर्यों द्वारा मूलनिवासियों की हत्या का जश्न है और इसका विरोध किया जाना चाहिए। वे मानते हैं कि जिस बात को डॉ. भीम राव आंबेडकर पहले ही कह गये हैं, उसे मानने पर अपराध कैसा?

बंगाल में महिषासुर स्मरण के साथ विज्ञान दिवस

उधर भद्रलोक कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल में भी मनुवादी परंपराओं के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध शुरू हो गया है। पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों में करीब 700 जगहों पर महिषासुर स्मरण दिवस मनाया गया था। इस क्रम में कोलकाता में दुर्गा को माननेवालों ने विरोध व्यक्त किया था और स्थानीय प्रशासन ने दबाव में आते हुए, इस आयोजन को स्थगित करवा दिया था।  लेकिन लोगों ने अपना सांस्कृतिक आंदोलन जारी रखा है।

पश्चिम बंगाल में महिषासुर विमर्श और उत्सव के आयोजनों से जुड़े सर्दिंदू उद्यीपन बताते हैं कि महिषासुर स्मरण दिवस के मौके पर हम कोई पूजा-पाठ का आयोजन नहीं करते हैँ। बल्कि हम महिषासुर जिन्हें हम अपना पूर्वज मानते हैं, उनके साथ हुए अतीत में अत्याचार का स्मरण करते हैं और वर्तमान में मूलनिवासियों के बीच एकता कैसे बढ़े व उनकी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक चुनौतियों को लेकर विचार-विमर्श करते हैं। वे बताते हैं कि इस बार महिषासुर स्मरण दिवस के आयोजकों (जिनमें दलित, पिछड़े और आदिवासी शामिल हैं)  ने करीब 1000 जगहों पर महिषासुर स्मरण दिवस मनाने का निर्णय लिया है। इस मामले में सर्दिंदू बताते हैं कि इस बार हम लोगों ने राज्य स्तर पर बीते 2 सितंबर 2017 को बैठक कर रणनीति बनायी है। इसके तहत पहले ही हम लोगों ने संबंधित जिला प्रशासनों को सूचित कर दिया है कि आगामी 1 अक्टूबर 2017 को हम लोग महिषासुर स्मरण दिवस मनायेंगे। उन्होंने बताया कि उसी दिन मुहर्रम होने के कारण केवल एक जगह कोलकाता में पुलिस ने शोभा यात्रा निकालने पर रोक लगाया है परंतु हम उन इलाकों में जरूर जायेंगे जहां हमारे लोग रहते हैं जो महिषासुर को अपना आदर्श मानते हैं। आखिर यह हमारे विश्वास का सवाल है जिसका आधार इतिहास और समृद्ध परंपरा है। उनके जैसे कपोल-कल्पित कहानियां नहीं।

वहीं पुरूलिया जिले के काशीपुर प्रखंड के भलगोरा सहित कई आदिवासी बहुल गांवों में इस विमर्श को नया विस्तार दिया गया है। स्थानीय निवासी अजीत हेम्ब्रम महिषासुर स्मरण दिवस का आयोजन करने के साथ ही विज्ञान दिवस भी मनाते हैं। इसका उद्देश्य आदिवासियों को अंधविश्वास, मनुवादी चमत्कारों  और शिक्षा के बारे में जागरूक करना होता है। इस आयोजन में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं।

बहरहाल यह तो साफ है कि अब तक हुए तमाम अध्ययनों के बाद पौराणिक मिथकों के यथार्थ सामने आते हैं। फिर चाहे वह महाराष्ट्र के म्हसोबा हों, बुंदेलखंड के महोबा, झारखंड के महिषासुर, बिहार के मैदानी इलाकों में भैंसासुर, मैकासुर या फिर दक्षिण के राज्यों में महिष। स्वयं डॉ. आंबेडकर ने भी अपनी किताब ‘अछूत कौन थे और अछूत कैसे हो गए?’ में इन तथ्यों की तलाश की और लोगों के सामने रखा। नागों और द्रविड़ों के बीच समानता का उनका सूत्र आज भारत के सभी मूलनिवासियों को एक साझा सांस्कृतिक पहचान देने में कामयाब हो रहा है।


महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। ‘द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशनवर्धा/दिल्‍ली। मोबाइल  : 9968527911. ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजनऔर फ्लिपकार्ट इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी  Amazon,और  Flipkart पर उपलब्ध हैं

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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