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गुजरात : सिंहासन पर नहीं रहेगा ‘कमल’!

1974 के बाद गुजरात की राजनीति में बड़ा उलटफेर बड़े आंदोलन के बाद ही हुआ है। इस बार भी गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में हुआ पाटीदार आंदोलन और ओबीसी के आरक्षण को लेकर अल्पेश ठाकुर द्वारा किया गया आंदोलन नजीर बनकर उभरा है। साथ ही ऊना की घटना के बाद दलितों का विद्रोह भी निर्णायक साबित हुआ है। गुजरात चुनाव संपन्न होने के बाद वोटरों के मन मिजाज का आकलन कर रहे हैं आशीष रंजन

गुजरात में दो चरणों का चुनाव समाप्त हो गया है। अगले चार दिनों तक ये उहापोह बना रहेगा कि गुजरात मे इस बार कौन जीतेगा? क्या भाजपा एक बार पुनः सत्ता में आएगी या फिर कांग्रेस इस बार अपने प्रदर्शन से सबको चौंका देगी?

अहमदाबाद में वोट देकर बाहर निकलते एक बुजुर्ग(फोटो : आशीष रंजन)

1995 के बाद पराजय के कगार पर भाजपा

चौंका देने वाली बात इसलिए भी है कि 1995 में जबसे भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ राज्य में सत्ता में आई है, तब से वह एक भी विधानसभा चुनाव गुजरात में नहीं हारी है। अगर इस बार फिर से भाजपा जीतती है तो उसका ये छठा टर्म होगा। भाजपा पिछले 22 सालों से सत्ता में है और बार बार कोशिश करने के बावजूद कांग्रेस उसे टक्कर देना तो दूर, सीटों और वोटों में उसके आस-पास भी नही दिखी। लेकिन इस बार कांग्रेस की चर्चा भी जमीन पर है जो संकेत देती है कि इस बार मुक़ाबला कुछ कठिन है।

बहरहाल 18 दिसंबर को जीत जिसके भी हाथ आये लेकिन जीत की सम्भावना को लेकर पुराने आंकड़ों और इतिहास को जोड़कर कुछ कयास तो लगाये ही जा सकते हैं।

नुमाइश का कितना होगा असर : सी-प्लेन पर सवार होते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी( साभार : फायनांसियल एक्सप्रेस)

रोचक होगा मत प्रतिशत में बड़ा अंतर

1995 में जबसे भाजपा गुजरात की सत्ता में आई है तबसे हर चुनाव में कांग्रेस के ऊपर वह लगभग 10 प्रतिशत वोटों की लीड में रहती है जबकि सीटों में यह अंतर लगभग 65 सीटों का होता है। जब से नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने है तबसे भाजपा संगठनात्मक रूप से और मजबूत हुई और इसी दौर में कांग्रेस ज्यादा कमजोर हुई है। 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो भाजपा और कांग्रेस में करीब 26 प्रतिशत वोटों का अंतर था और भाजपा ने राज्य की सभी 26 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी। अगर इस दृष्टि से देखे कांग्रेस के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती है क्योंकि 2014 के बाद विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में जहां भाजपा को पराजय का सामना भी करना पड़ा है वहां उनके वोट में कहीं भी बहुत बड़ी गिरावट देखने को नही मिली है, सिवाय दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 के। दिल्ली में भाजपा के वोट में करीब 14 प्रतिशत की कमी हुई थी, फिर भी ये 26 प्रतिशत से बहुत कम है। अगर इन आंकड़ों की दृष्टि से देखे तो गुजरात में भाजपा को हरा पाना पहाड़ सरीखा दिखता है।

राहुल गांधी : ताजपोशी के बाद मिल सकती है बड़ी सफलता (साभार : टाईम्स ऑफ इंडिया)

हर आंदोलन के बाद तख्त भी बदला और ताज भी

लेकिन आंकड़ो से इतर भी एक इतिहास रहा है। 1962 के पहले विधानसभा चुनाव से लेकर अभी तक देखा जाए तो गुजरात के लोग मोटे तौर हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, उत्तर-प्रदेश, केरल आदि राज्यों की तरह हर चुनाव में सरकार नहीं बदलते हैं। सरकार के बदलना या न बदलने की व्याख्या कई अलग-अलग कारणों से जोड़कर हो सकती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि गुजरात में जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है, उस समय किसी न किसी आंदोलन का असर रहा है। 1974 में छात्रों और मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर नवनिर्माण आंदोलन चला था और 1975 से पहली गैर-कांग्रेसी सरकार राज्य में बनी थी। उसके बाद 1985 में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलनों ने 1990 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बाहर फेंक दिया और उसके बाद कांग्रेस राज्य में कभी अपने दम पर सत्ता में नही लौटी। लेकिन अगर 2014 के बाद वाले गुजरात को देखें जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनकर दिल्ली चले गए, तबसे गुजरात मे कुछ हलचल लगातार रही है। 2015 से हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदारों द्वारा अनामत (आरक्षण) को लेकर आंदोलन किया गया। फिर अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व में ओबीसी समाज का आंदोलन हुआ और फिर ऊना कांड के बाद जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में दलितों का आंदोलन हुआ। तीनों आन्दोलनों ने राज्य सरकार के सामने काफी परेशानियां खड़ी कीं।

व्यापारियों का आक्रोश भी रहा महत्वपूर्ण

इसके अतिरिक्त गुजरात में भाजपा के सबसे बड़े कोर (विश्वस्त) वोटर पटेल और ट्रेडिंग समुदाय के लोग रहे है। पटेल आंदोलन के साथ ही केंद्र सरकार द्वारा GST के लागू करने से व्यापारी वर्ग में साफ तौर पर आक्रोश देखा गया। व्यापारियों ने सूरत और कुछ अन्य जिलों में आंदोलन भी किया था। यानि कि भाजपा के कोर वोटर में ही पार्टी के नीति-निर्णयों को लेकर खलबली है और वो सरकार से रूठे हुए हैं। अगर इतिहास में थोड़ा पीछे चलें तो पश्चिम बंगाल में तीन दशक से ज्यादा समय तक शासन करने वाली लेफ्ट (वाम) पार्टियों के कोर वोटर किसान और मजदूर हुआ करते थे लेकिन नंदीग्राम और सिंगुर के आंदोलनों ने लेफ्ट के कोर वोटर में सरकार के प्रति अविश्वास जगाया और 2011 में लेफ्ट की सरकार गिर गयी।

राहुल गांधी की सभा के दौरान उमड़ा जन सैलाब(साभार : हिंदुस्तान टाईम्स)

इसके अतिरिक्त ऐसा देखा गया है कि भारतीय मतदाता के मूड में पिछले कुछ सालों में एक व्यवहारिक परिवर्तन आया है। आज के मतदाता एक स्थापित प्रणाली (सिस्टम) को बदलने के रिस्क ले रहे है। इसे यूं  भी देखा जा सकता है कि 2013 से लेकर अभी तक हुए चुनावों में ज्यादातर राज्यों में मतदाताओं ने एक नई सरकार को मौका दिया है। मौका देने की इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा युवाओं का बढ़-चढ़ कर मतदान प्रक्रिया में भाग लेना भी रहा है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी, आसाम, हरियाणा (जहां कि वो काफी कमजोर थी) आदि राज्यों में भाजपा की जीत को इस नज़रिए से भी देखा गया है। दिल्ली और आसाम में हमारे फील्ड वर्क के दौरान ये चीजें साफ तौर पर देखने को मिली। ठीक उसी तरह इस बार गुजरात चुनाव में भी हमसे बात करने वाले ग्रामीण युवाओं ने स्वीकार किया कि वो कांग्रेस को एक मौका देने की बात सोच रहे थे। लेकिन, 18 दिसम्बर को चुनाव परिणाम आने के बाद ही इस बात का पता चल पायेगा कि मतदाता के मन में चल क्या रहा था।

अंत में सनद रहे

चलते चलते एक आखिरी बात। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में आये मतों के विश्लेषण में हम ये भूल जाते है कि दिसम्बर 2015 में गुजरात में हुए पंचायत चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत 45 के आसपास चला गया था जो कि भाजपा से 4 प्रतिशत अधिक था और शहरी निकाय चुनाव में भी कांग्रेस ने अपने मत प्रतिशत में 8 से 10 प्रतिशत का इजाफा।

मेरा निष्कर्ष

चुनाव के दरम्यान गुजरात में दो सप्ताह से अधिक का समय गुजारने और लोगों से संवाद के आधार इतना जरूर कहा जा सकता है कि शहरी इलाकों में जहां एक ओर भाजपा को बढ़त मिल सकती है तो दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में उसे भारी नुकसान हो सकता है। कांग्रेस हर हाल में लाभ की स्थिति में रहेगी और मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि कांग्रेस को प्राप्त होने वाली सीटों की संख्या तीन अंकों में हो।


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लेखक के बारे में

आशीष रंजन

लेखक अशोका युनिवर्सिटी में रिसर्च फेलो हैं

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