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भारतीय संस्कृति के अन्तर्सूत्रों को तलाशती एक किताब

आज देश में आर्य-द्विज संस्कृति को बहुजन-श्रमण संस्कृति चुनौती दे रही है। दोनों संस्कृतियों की जड़ें अत्यन्त पुरानी हैं और उनके बीच टकराहटें भी उतनी ही पुरानी हैं। हजारों वर्षों से चले आ रहे इस सांस्कृतिक संघर्ष के बहुजन-श्रमण पक्ष के विविध पहलुओं को ‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ किताब किस रूप में सामने लाती है, विश्लेषण कर रहे हैं विकाश सिंह मौर्य :

मनुष्य और प्रकृति के साथ साहचर्य युक्त जीवन और सभ्यता की भारतीय प्राचीन संस्कृति पर सुनियोजित और सुव्यवस्थित रणनीति के साथ वर्चस्वशाली संस्कृति ने अपना नियंत्रण कायम किया। यह वर्चस्वशाली संस्कृति मनुष्यों की बराबरी में नहीं, बल्कि उंच-नीच की धारणा में विश्वास रखती थी। बहुलांश को अधीन बनाना ही इसकी मुख्य रणनीति थी।  इस वर्चस्वशाली संस्कृति को स्थापित करने व चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से लोगों के मानसिक बुनावट अपने अनुकूल गढ़ने के लिए  वर्चस्वशाली संस्कृति के संस्थापकों ने हिंसा, षडयंत्र, छल, दमन और क्रूरता का सहारा लिया।  इन सभी की मुखर अभिव्यक्ति पौराणिक मिथकों में होती है।  इन मिथकों में वर्चस्वशाली संस्कृति के नायक-नायिकाओं के बरक्स प्रतिनायक-नायिकाएं भी उपस्थित है।  इन मिथकों के नायक-नायिकाओं की तरह इनके प्रतिनायक-नायिकाएं भी किसी सभ्यता, संस्कृति, समाज और जीवन-पद्धति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी बड़े पैमाने पर आज भी उपस्थिति है। ऐसे ही एक प्रति महानायक महिषासुर हैं। महिषासुर कौन थे, किस संस्कृति के प्रतीक पुरूष थे, कौन सी जीवन-पद्धति का प्रतिनिधित्व करते थे, क्योंकि आदिवासी, दलित और बहुजन तबके उन्हें नायक की तरह देखते हैं। आज उनकी उपस्थिति भारतीय समाज में किन-किन रूपों में हैं? ‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ किताब इन प्रश्नों का उत्तर देती है। साथ ही महिषासुर आंदोलन और विमर्श के विविध आयामों को खोलती है तथा सैद्धांतिकी प्रस्तुत करती है।

‘महिषासुर मिथक और परंपराएं’ का आवरण चित्र

प्रमोद रंजन द्वारा संपादित 360 पृष्ठों की यह एक धारदार किताब विश्लेषण युक्त है। यह भाग-दौड़ वाली जिन्दगी में ठहरकर सोचने को मजबूर करने वाली किताब  है। इसमें कुल 27 लेख संकलित हैं। तर्कों, समस्याओं, विश्लेषणों एवं सवालों के अभी तक अनछुए पहलुओं की परतों की धूल झाड़ती है। कई सारे विचलित और परेशान करने वाले सवाल भी भारत की अकादमिक मण्डली के सम्मुख प्रस्तुत करती है। करीब-करीब छः वर्षों की मेहनत के बाद तैयार हुई इस किताब में गंभीर यात्रा विवरण,  राहुल सांकृत्यायन की परम्परा से जुड़ते हुए नज़र आते हैं। मानवशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय एवं एथनोग्रफिक अध्ययन, साेशल एक्टिविस्टों, साहित्यकारों और इतिहासकारों के भी विद्वतापूर्ण एवं उपयोगी लेख यहां संकलित हैं। जब आप इस पुस्तक को पढ़ रहे होते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि एक लम्बे ऐतिहासिक दौर का साक्षात्कार करते हुए चल रहे हैं। एक ऐसा साक्षात्कार जहां रोमांच भी है, दिलचस्पी भी है। वर्चस्वशाली संस्कृति के अमानवीय चरित्र और उसके शोषण-उत्पीड़न के विस्तृत आख्यान भी हैं। आदिवासी जीवन की विविध छवियां मौजूद हैं, उनकी त्रासदी के चित्र हैं, तो उनके जीवन का उल्लास भी दिखता है।  आदिवासी समाज में महिषासुर की उपस्थिति के भी व्यौरे हैं।

विस्तृत यात्रा वृत्तान्त जिनमें अपने अतीत के खोज की निस्सीम प्यास निहित है तो वर्तमान में आदिवासियों एवं किसानों के ऊपर सरकार प्रायोजित बदहाली के कारणों की तलाश है।  राजस्थान, खजुराहो के प्रसिद्ध मंदिरों सहित बुन्देलखण्ड के लोक प्रतीकों एवं लोक त्योहारों के विश्लेषण भी दत्तचित होकर किया गया है, जो प्राचीन संस्कृति के वर्तमान प्रवाह को चिन्हित करती प्रतीत होती है। बहुजन-श्रमण परम्परा के प्रतीकों, उनकी भाषा एवं उनकी सहज जीवन शैली को किस तरीके से और क्यों विकृत किया गया, नष्ट किया गया। इसकी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित पड़ताल यह पुस्तक करती है। यह किताब यह भी बताती है कि असुर परम्पराओं के मूल दार्शनिक तत्त्व तथा इनसे निसृत विश्व दृष्टि कृषि और आग पर आधारित हैं तथा ब्राह्मण-द्विज परम्पराओं से सर्वथा भिन्न हैं। 

महिषासुर आन्दोलन का उद्देश्य शव-साधना नहीं है। यह आन्दोलन हिंसा और छल के बूते खड़ी की गयी असमानता पर आधारित संस्कृति के विरुद्ध है। बालाघाट के गोंड आज भी गर्व से कहते हैं कि भगवान् शब्द उनका दिया हुआ है। भा-भूमि,ग-गगन,व-वायु,अ-अग्नि,न-नीर। गोंड सहित अन्य जनजातीय समाज जो घोटुल नाम की संस्था से आपस में जुड़े रहे हैं, वे सब निश्चय ही किसी लुप्त हो चुकी समृद्ध संस्कृति के वारिस हैं जिनकी संस्कृति को छलपूर्वक नष्ट किया गया है और चुराया गया है। उदाहरण के लिए गोंडों की बम्लाई दाई जिसे आर्य ब्राह्मणों ने बमलेश्वरी देवी बना दिया, गोंडी समुदाय के आदि पुरुष ‘सम्भुशेक’ बाद में हिन्दुओं के महादेव बन जाते हैं। ‘पेंकमेढ़ी’ ‘पंचमढ़ी’ बन गया है। ऐसे मामलों में भाषा की प्रकृति और सांस्कृतिक शोषण के लिए उसका इस्तेमाल आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे मामलों में सूक्ष्म अंतर्दृष्टि बहुत आवश्यक है।

खजुराहो में महिषासुर की प्रतिमा

‘आन्दोलन किसका और किसके लिए’ हिस्से में महिषासुर आन्दोलन की सैद्धांतिकी, संस्कृति का अब्राम्हणीकरण, भारत माता के प्रति दृष्टिकोणों एवं केरल की भारतमाता, रविन्द्रनाथ टैगोर की भारतमाता के साथ ही साथ बहुजन भारत माता की अवधारणा का सम्यक विश्लेषण किया गया है। पसमांदा मुसलमानों की सांस्कृतिक स्थिति एवं महिषासुर की परम्परा से उनकी समानता का भी परीक्षण किया गया है।

किताब में कुल 6 खण्ड हैं। ‘मिथक एवं परम्पराएं’ खण्ड में स्थापित किया गया है कि दुनिया के सभी समाज किसी ना किसी रूप में  अपना तथ्यात्मक इतिहास लिखते हैं। उस समाज की पहचान और उसका मौलिक दर्शन इस इतिहास में प्रतिबिंबित होता है।  इस देश में इतिहास कभी नहीं लिखा गया है बल्कि उसकी जगह मिथकों और कल्पनाओं से भरे पुराण लिखे गए हैं। भारत के पास अतीत तो है लेकिन इतिहास नही है। इस अध्ययन में लेखकों ने ब्राह्मणवादी संस्कृति और बहुजन संस्कृति के विषय में विस्तृत वर्णन किया है। बहुजन समाज को धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सत्ता से दूर रखने के लिए सांस्कृतिक हिंसा एवं सांस्कृतिक संहार का सहारा लिया गया है। गोंडी पुनेम दर्शन के माध्यम से यह बताने की कोशिश है कि गोंडी धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार पूरे भारत में था। आज भी धार्मिक स्थलों में गोंडी धर्म के चिह्न मिल  रहे हैं। डाॅ. मोतीरावण कंगाली जी के अध्ययन से यह पता चलता है कि किस प्रकार गोंडी धर्म और संस्कृति को बुद्ध के उदय से बहुत पहले ही आत्मसात करके मूल गोंडी समुदायों को षडयंत्रपूर्वक समाज व राज्य व्यवस्था में निचले पायदानों पर धकेलकर जंगलों में ही सीमित कर दिया गया था।

बुंदेलखंड के मोहारी में मैकासुर के सीमेंट के चबूतरे पर बनी मूर्तियां

संभूशेक और गणपति कोई व्यक्ति नहीं बल्कि उपाधियां हैं।  सम्भुशेक और गणपति का बचे रहना मतलब संस्थाओं का बचे रहना है। आज भी वर्चस्वशाली अभिजन संस्कृति संस्थाओं को ख़त्म नहीं कर पा रही ,उन्हें पता है कि व्यक्ति को समाप्त कर सकते हैं लेकिन संस्थाओं को नहीं इसीलिए उन्होंने सम्भुशेक व गणपति जैसे संस्थानों को ब्राह्मण-अभिजनवादी रंग में रंगकर कब्ज़ा कर लिया और खुद चौकीदार बनकर कर्मकांड में रंगकर संभुशेक के मूल कार्य व स्वरुप को बदल दिया।

‘असुर संस्कृति व समकाल’ में वेदों में उल्लेखित तथ्यों के आधार पर असुर जाति व समाज के जीवन दर्शन का परिचय देने की कोशिश है। ऋग्वेद के हवाले से बताया गया है कि इसमें लिखे अधिकांश श्लोक भिखमंगई की तरह हैं। धन के लिए इंद्र की याचना में सर्वाधिक श्लोक लिखे गय। इसी तरह ऋषियों ने भात,मधु,पत्थर यहां तक कि अपनी महानता की भी बात स्वयं ही लिखी हैऔर सभी को महत्वपूर्ण बताने की कोशिश की है। जिस तरह वेद को अपौरुषेय और ब्रह्मा की लकीर बताया जाता है वह वास्तव में गलत है क्योंकि वेदों के कई हिस्सों की रचना स्त्रियों ने किये हैं।  जिन वेदों के लिखने में स्त्रियों ने महती भूमिका निभाई हो, स्त्रियों को ही उसे पढ़ने से क्यों रोका गया? यह भी एक सवाल है। देवताओं का जन्म ही भयभीत मनुष्य के मस्तिष्क से हुआ है।

ऋषि और मुनि की दो विभिन्न और विरोधी परम्पराओं की पड़ताल भी इस किताब में है। यह पड़ताल कौन हिंसक है? कौन अहिंसक है? के आधार पर की गयी है। ऋषि हिंसक परम्परा के प्रतिनिधि थे तो मुनि अहिंसक परम्परा के। तथागत बुद्ध को भी मुनिराज कहा जाता है। शिव के  रूद्र रूप, पारवती और गणपति की विवेचना बहुजन- श्रमण दृष्टिकोण के साथ की गयी है। यह दृष्टिकोण तमाम सारे पूर्व उपस्थित अभिजन दृष्टिकोणों के सीधे टकराता है। यह दृष्टिकोण बहुत सशक्त मालूम होता है। मनोवेदों की मान्य त्रयी परम्परा के अतिरिक्त कर्मवेद यथा धनुर्वेद, सर्पवेद, आयुर्वेद, गंधर्ववेद आदि का ऐतिहासिक विश्लेषण इस पुस्तक में आपको मिल जाएगा। सभ्यताओं का संघर्ष किस प्रकार है किस रूप में है? असुरों के भव्य भवन निर्माण कला और अभिजन देवों द्वारा उनके नष्ट किये जाने का सबसे प्रबल प्रमाण तो असुरों की लोहा गलाने की परम्परा और उन गलाए गए लोहे पर अभी तक जंग का न लगना है। सम्राट अशोक महान द्वारा मैसूर में भेजे गए ‘धम्म प्रचारक महादेव’ का उस पहाड़ी क्षेत्र का जनप्रिय अधिपति बनना और महिषासुर नाम से शासन करना बहुत महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनके आधार पर भावी अनुसंधानों की दिशा तय की जा सकती है.

विकास दुबे ने अपने आर्थिक-सांस्कृतिक  विश्लेषण के माध्यम से यह बताया है कि किस तरह से असुरों के समक्ष ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जा रही हैं कि वे खुद बेमौत मरने को बाध्य हो रहे हैं। इसकी तुलना हिटलर के गैस चैम्बर से की जा सकती है.

आदिवासी क्षेत्रों में चल रहे अभिजन संस्कृति प्रायोजित हिंसक अभियान के सन्दर्भ में प्रतीत होता है कि यह सारा संसाधनों की लूट से सम्बंधित है। हिंसा, हत्या और बलात्कार का भय प्रायोजित किये बिना आदिवासी क्षेत्रों में सेना बुलायी नहीं जा सकती तथा बिना सैन्य बल के खनिज संपदा से भरपूर आदिवासी क्षेत्रों पर कब्ज़ा किया नहीं जा सकता है।  

पांचवें भाग ‘साहित्य’ में महामना जोतीराव फुले की लिखी हुई सत्यशोधक विधि से विवाह हेतु प्रार्थना समेत अन्य सामाजिक एक्टिविस्ट साहित्यकारों की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं। यह दिलचस्प है आज से डेढ़ सौ साल पहले जोतीराव फुले ने बली राजा और महिषासुर का जो विश्लेषण अपनी पुस्तकों ‘गुलामगीरी’ और‘किसान का कोड़ा’ में किया था, उसे देश के विभिन्न हिस्सों में बिखरे मानवशास्त्रीय तथा पुरातात्विक प्रमाण उसे सही साबित कर रहे हैं।   

किताब :  महिषासुर : मिथक और परंपराएं

संपादक : प्रमोद रंजन

मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850(हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

ऑनलाइन यहां से खरीदें : https://www.amazon.in/dp/B077XZ863F

 


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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

 जाति के प्रश्न पर कबी

महिषासुर : मिथक व परंपराए

चिंतन के जन सरोकार 

महिषासुर : एक जननायक

 

लेखक के बारे में

विकाश सिंह मौर्य

विकाश सिंह मौर्य, इतिहास विभाग, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में पी-एच.डी. शोधार्थी हैं। ये बहुजन-श्रमण संस्कृति और वैचारिकी पर सक्रिय रूप से चिंतन एवं लेखन कार्य करते हैं

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