h n

जिंदगियां बेहतर बनाने पर हो जोर, नकद-विहीनता पर नहीं : ज्यां द्रेज

ई-मेल के जरिए लिए गए एक साक्षात्कार में ज्यां द्रेज, जो कि यकीनन भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अग्रणी विशेषज्ञ हैं, ने फारवर्ड प्रेस को बताया कि सरकार के अतिवादी आर्थिक कदमों से जमीनी स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। उल्टे इनसे ग्रामीण भारत के निवासियों की जिंदगी और कठिन हो जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के नोटबंदी, जनधन योजना और बैंक खातों को आधार से जोड़ने जैसे निर्णयों पर ग्रामीण भारत, विशेषकर उसकी दलित-बहुजन आबादी की, क्या प्रतिक्रिया रही है? फारवर्ड प्रेस के प्रश्नों के जवाब में दूरदराज के गांवों की अपनी यात्राओं के दौरान अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने जो देखा-सुना, उसे हमसे साझा किया।

गांवों में बैंकिंग अधिसंरचना की कमी सबसे बड़ी समस्या

एफपी : अर्थव्यवस्था केा नकद-विहीन बनाने के सरकार के प्रयासों का जमीनी स्तर पर क्या असर पड़ा है? पिछले लगभग एक साल में आपने इस सिलसिले में क्या अनुभव किया?    

ज्यां द्रेज : मुझे नहीं लगता कि अर्थव्यवस्था को नकद-विहीन बनाना बुद्धिमत्तापूर्ण आर्थिक नीति है। कम से कम निकट भविष्य में भारत इस लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता और अगर वह कर भी सकता होता, तब भी ऐसा करने का कोई उचित कारण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा बिना जबरदस्ती के नकद-विहीन लेनदेन को प्रोत्साहित करने के पक्ष में कुछ तर्क दिए जा सकते हैं। आर्थिक नीति का फोकस लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर होना चाहिए, और इस पर भी उनकी जिंदगी कैसे बेहतर बनाई जा सकती है। वे किराने का सामान खरीदने के लिए कागज का इस्तेमाल करते हैं या प्लास्टिक का, इसका कोई महत्व नहीं है।

एफपी : जनधन योजना के अधिकांश खाताधारक सामाजिक दृष्टि से हाशिए पर पड़े वर्गों (एससी, एसटी, ओबीसी व अल्पसंख्यक) से हैं। इस बारे में आपका क्या कहना है?    

ज्यां द्रेज : यह अच्छी खबर होती यदि हम यकीन से कह सकते कि जनधन योजना से उन्हें कोई मदद मिल रही है। दुर्भाग्यवश, आज जो स्थितियां हैं उनमे हम ऐसा नहीं कह सकते। उदाहरण के लिए, कई जनधन खाते उन लोगों पर दबाव बनाकर खुलवाए गए है, जिनके पहले से ही दूसरे खाते थे। कई खाते होने से लोगों को परेशानी और उलझन होती है, विशेषकर तब, जब उनको प्राप्त होने वाला धन उनके सबसे नए, आधार से जुड़े बैंक खाते में बिना उनकी स्वीकृति या जानकारी के जमा कर दिया जाता है।

बिहार के समस्तीपुर में बैंक शाखा के खुलने का इंतजार करती महिलायें

एफपी : सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिग को प्रोत्साहन देने के लिए क्या करना चाहिए?     

ज्यां द्रेज : सरकार को अर्थव्यवस्था को नकद-विहीन बनाने और परंपरागत बैंकों को खत्म करने जैसे अतिवादी लक्ष्यों को त्याग देना चाहिए। इसकी जगह सरकार को सभी के लिए समुचित बैंकिग सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर फोकस करना चाहिए। पिछड़े जिलों के ग्रामीण बैंकों में बहुत भीड़ होती है। वहां अपने खातों से मजदूरी, पेंशन या वजीफे की धनराशि निकालना एक बहुत कठिन काम होता है, विशेषकर बुजुर्गों के लिए। अगर सरकार को ऐसे लोगों का जीवन आसान बनाना है तो उसे बैंकों की ग्रामीण शाखाओं में अधिक स्टाफ उपलब्ध करवाना चाहिए और वहां बेहतर बैंकिग अधिसंरचना के विकास पर जोर देना चाहिए। बैंकों को समाप्त कर देने के बारे में सोचना कतई समझदारी नहीं है। उदाहरणार्थ, बैंकों की ग्रामीण शाखाओं में पेंशनरों के लिए विशेष काउंटर होने चाहिए क्योंकि मूलभूत बैंकिग सुविधाओं के अभाव से पेंशनर सबसे ज्यादा परेशान होते हैं।

[ज्यां द्रेज बेल्जियन मूल के भारतीय नागरिक हैं और सम्मानित विकास अर्थशास्त्री हैं। वे रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अतिथि प्राध्यापक हैं और दिल्ली स्कूल आॅफ इकानामिक्स में आनरेरी प्रोफेसर हैं। वे लंदन स्कूल आॅफ इकानामिक्स और इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य कर चुके हैं। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति के दस्तावेजीकरण में उनकी महती भूमिका रही है। वे (महात्मा गांधी) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के प्रमुख निर्माताओं में से एक हैं। उन्हाेंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन के साथ कई पुस्तकों का सहलेखन किया है जिनमें ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन‘ व ‘एन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इटस कोन्ट्राडिक्शंस‘ शामिल हैं। सामाजिक असमानता, प्राथमिक शिक्षा, बाल पोषण, स्वास्थ्य सुविधाओं व खाद्य सुरक्षा जैसे विषयों पर शोध में उनकी विशेष रूचि है]

 


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

 जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार 

महिषासुर : मिथक व परंपराए

महिषासुर : एक जननायक

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...