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मंडल से बढ़ी पिछड़ों-दलितों की हिस्सेदारी, लेकिन चुनौतियां हो रहीं गंभीर : दीपंकर

देश की राजनीति में 90 के दशक के बाद व्यापक बदलाव आये हैं। इन बदलावों ने समाजवादी पार्टियों के चरित्र को तो बदला ही है, वामपंथी दलों को भी अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर किया है। इन मजबूरियों की वजह व देश की मौजूदा स्थिति को लेकर भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से फारवर्ड प्रेस की विशेष बातचीत :

मंडल आयोग के अनुशंसाओं का लागू होना भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण परिघटना है। इसके कारण देश के बहुसंख्यक तबके को हिस्सेदारी मिली है और इसके सकारात्मक परिणाम आये हैं। वामपंथी पार्टियाें ने अब देश की राजनीति में दलितों और पिछड़ों की बढ़ी हिस्सेदारी को स्वीकार कर अपनी रणनीति में बदलाव किया है। फारवर्ड प्रेस के साथ विशेष बातचीत में भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य यह सच स्वीकारते हैं कि आज देश में स्थायी फासीवाद की स्थिति बन गयी है और इसे खत्म करने के लिए वामपंथी पार्टियों और वे पार्टियां जो धर्म निरपेक्ष, लोकतांत्रिक आौर उत्पादन के संसाधनों में बराबरी में सभी वर्गों की समुचित भागीदारी वाले भारत के पक्ष में हैं, उन्हें एक साथ आना होगा।

बिहार की राजधानी पटना के गांधी मैदान में रैली को संबोधित करते भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य

90 के दशक के तीन परिघटनायें आज के संदर्भ में

देश की राजधानी दिल्ली के भीड़भाड़ वाले लक्ष्मीनगर (निम्न आय वर्ग के लोगों का इलाका) में एक संकरी गली में बने चारू भवन में फारवर्ड प्रेस के साथ बातचीत में दीपंकर ने देश में मौजूदा राजनीति पर विस्तृत बातचीत की। बातचीत की शुरूआत ही 90 के दशक में घटित तीन महत्वपूर्ण परिघटनाओं से हुई। पहली घटना मंडल कमीशन की अनुशंसाओं काे लागू किया जाना है। तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने साहसपूर्ण फैसला लिया था। इसका समाज में असर पड़ा है। सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुसंख्यक वर्ग की हिस्सेदारी बढ़ी है। इस कारण राजनीतिक समीकरण भी बदले हैं। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। आज भाजपा जैसी पार्टी जिसने बेशर्मी के उच्च स्तर को पार करते हुए जहां एक ओर स्वयं को मंडल के पक्ष में साबित करने का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर वह आज भी ब्राह्मणवादी-मनुवादी एजेंडे को लागू करना चाहती है।

भाजपा के सामने समाजवादियों ने भी घुटने टेके

दीपंकर बताते हैं कि मंडल कमीशन के बाद की राजनीति में जो पार्टियां सामने आयीं, उनमें अपवाद को छोड़ लगभग सभी ने भाजपा के सामने घुटना टेका है। अपवाद में राष्ट्रीय जनता दल है जिसने कभी भी भाजपा के साथ समझौता नहीं किया। दूसरी ओर उन दिनों जब बाबरी मस्जिद की शहादत हुई तब उत्तरप्रदेश में मुखर हुई समाजवादी पार्टीऔर बहुजन समाजवादी पार्टी भी भाजपा के साथ गयीं। बिहार में तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रिकार्ड ही बना डाला है।

स्थायी आर्थिक,राजनीतिक और सामाजिक फासीवाद की ओर बढ़ रहा भारत

आज पूरे देश में फासीवाद चरम पर है। मुख्य बात यह है कि इसे स्थायी बनाने की कोशिशें की जा रही है। दीपंकर के मुताबिक देश में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पहले भी थी। यदि विभाजन के समय हुई व्यापक हिंसा को छोड़ दें तो आजादी के बाद कई घटनायें सामने आयीं, लेकिन उन घटनाओं का प्रभाव स्थायी नहीं था। आज देश में स्थायी सांप्रदायिक तनाव बनाया जा रहा है। गांवों में हिंदुत्व के नाम पर लोगों को उकसाया जा रहा है। आज इस देश में दलित, अल्पसंख्यक सभी दहशत में जी रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि ऐसी परिस्थिति को स्थायी बनाने की साजिश आरएसएस रच रही है।

स्वदेशी की बात कहने वाले कह रहे मेक इन इंडिया

आर्थिक मोर्चे पर देश में फासीवाद चरम पर है। हालांकि जिन दिनों देश में ग्लोबलाइजेशन नहीं था, तब भी आर्थिक सत्ता पर नियंत्रण चंद बड़े लोगों के पास ही था। लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण होने से स्थिति में बदलाव की उम्मीदें जगी थीं। ग्लोबलाइजेशन लागू होने के बाद सत्ता वर्ग के सहारे पूंजीपति वर्ग अपेक्षाकृत अधिक मजबूती के साथ आगे बढ़ा है। परंतु मोदी राज में जिस तरीके से चंद पूंजीपतियों के हाथों देश को नीलाम किया जा रहा है, वह चिंतनीय है। हालत तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं अब मेक इन इन्डिया का नारा दे रहे हैं और देश में उपलब्ध उत्पादन के संसाधनों की खुली लूट करने को विदेशी कंपनियों को आमंत्रित कर रहे हैं।

क्या है विकल्प?

दीपंकर बताते हैं कि देश जिस फासीवादी युग में जी रहा है, उसका मुकाबला करने के लिए सभी समान विचारधाराओं वाली पार्टियों को एक साथ एक मंच पर आना होगा। यही परिस्थिति की मांग है। फिर चाहे वह वामपंथी पार्टियां हों या समाजवादी राजनीतिक चरित्र वाली पार्टियां। हालांकि यह भी सही है कि सभी पार्टियों की रणनीति, उनके एजेंडे और उनकी पृष्ठभूमि अलग-अलग हैं, लेकिन देश को आरएसएस द्वारा थोपे जा रहे संकट से बचाने के लिए सभी का साथ आना जरूरी है।


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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