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रामविलास शर्मा का प्रच्छन्न हिन्दुत्व  

आधुनिक भारत में हिंदुत्व अपने को कट्टर हिंदुत्व, नरम हिंदुत्व और वामपंथी प्रछन्न हिंदुत्व के रूप में प्रकट करता रहा है। वामपंथी प्रच्छन्न हिंदुत्व के सबसे मुखर प्रतिनिधियों में से एक प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा रहे हैैं। तुलसी राम ने अपने इस आलेख में उनके प्रच्छन्न हिंदुत्व को तथ्यों और तर्कों के साथ उजागर किया है

वामपंथी प्रच्छन्न हिंदुत्व के पुरोधा रामविलास शर्मा

अपने वैदिक मोह के कारण ‘हिन्दी प्रदेश’ के धनुर्धर साहित्यकार रामविलास शर्मा संघ परिवार में ‘आधुनिक ऋषि’ के नाम से जाने जाते हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में बेहद परिश्रम के बाद उन्होंने जिन दो ग्रन्थों भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश (दो खंडों में) तथा गांधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्यायें की रचना की, उनमें बड़ी बुद्धिमानी से वैदिक-पौराणिक परम्परा का निर्वाह किया गया है। जिस तरह उपनिषद् काल में अनेक ऋषि अनीश्वरवादी होते हुए भी वेदों को ही प्रमाण मानते थे, ठीक उसी तरह रामविलास शर्मा का चिन्तन विकसित हुआ है, जिसे मार्क्सवादी प्रगतिशील परम्परा से जोड़ना सर्वथा दोहराई जाने वाली भूल कहा जाएगा, जैसा कि जनवादी चिन्तक करते आ रहे हैं। बौद्ध धर्म, दलित तथा बाबासाहब अम्बेडकर से जुड़े जितने भी तथ्य या घटनाक्रम हों, उन्हें बौद्धिक धोखाधड़ी के आधार पर रामविलास शर्मा ने ब्राह्मणवादी वैदिक परम्परा में घोलकर आदि शंकराचार्य की तर्कणा शैली को सजीव बना दिया है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के देवेन्द्र स्वरूप ने लिखा : ‘‘…उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के ऊँचागाँव सानी नामक ग्राम में पं. गयादीन नामक कान्यकुब्जी ब्राह्मण के घर में जन्मे रामविलासजी के भीतर एक अति संवेदनशील अन्तःकरण, प्रखर अन्वेषी मेधा और तपोनिष्ठ सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत संगम विद्यमान है।’’

वैदिक आर्य

जहाँ तक बुद्ध दर्शन, वर्ण-व्यवस्था तथा भारत की अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं का सम्बन्ध है उनका अन्तिम हल स्वामी विवेकानन्द की तरह रामविलास शर्मा ऋग्वेद में ढूँढ़ते हैं। इस सन्दर्भ में उन्होंने आर्य-उद्भव पर आधारित संघ परिवार की चिर-परिचित अन्धविश्वासी शोध-प्रणाली को अपनाया है। वर्ण-व्यवस्था को न्यायोचित ठहराने के लिए संघ परिवार सतत आर्य संस्कृति तथा आर्यों द्वारा रचित वैदिक ग्रन्थों का सहारा लेता चला आ रहा है। साथ ही, इन्हीं मान्यताओं पर आधारित इतिहास-भंजक शिक्षा पाठ्यक्रमों को देश-भर में इस समय जबरन थोपने का प्रयास भी किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में तर्क दिया जाता है कि आर्य विदेशी नहीं, बल्कि भारतीय थे; समस्त ज्ञान-विज्ञान, कला तथा संस्कृति का स्रोत ऋग्वेद है; विलुप्त मिथकीय सरस्वती का पौराणिक गुणगान; अन्धविश्वास से ओत-प्रोत कर्मकांड; गाय में ईश्वर का निवास; महाभारत, रामायण, पुराण आदि सही ऐतिहासिक ग्रन्थ; गौतम बुद्ध ने कोई नया दर्शन नहीं दिया, बल्कि उन्होंने नये ढंग से आर्य संस्कृति का ही प्रचार किया, तथा वर्ण-व्यवस्था एक सर्वोत्तम प्रणाली थी जिसे फिर से लागू किए जाने पर ही भारत का असली विकास सम्भव है, आदि-आदि।

आधुनिक काल में उपर्युक्त तथ्यों के मूल स्रोत स्वामी विवेकानन्द हैं, जिनकी सम्पूर्ण रचनाओं का संग्रह आठ खंडों में कलकत्ता स्थित रामकृष्ण मठ ने प्रकाशित किया है। इन तमाम तथ्यों को रामविलास शर्मा ने अपनी सभी अन्तिम रचनाओं में लगभग सम्पूर्ण रूप से न्यायोचित ठहराया है, यद्यपि वे वर्ण-व्यवस्था को फिर से लागू करने की बात नहीं करते। फिर भी, यहाँ एक महत्त्वपूर्ण समस्या उठ खड़ी होती है कि कोई आर्यों का गुणगान करे और वर्ण-व्यवस्था का विरोध, ऐसा सम्भव नहीं है। आर्य देशी थे या विदेशी, यह एक सत्यशोधक विषय अवश्य है, जिस पर मतभेद का उद्भव अनुचित नहीं है। किन्तु भारत के सन्दर्भ में यह विशेष विचारणीय प्रश्न इसलिए है कि जो लोग आर्यों को स्वदेशी बता रहे हैं, वे सभी वर्ण-व्यवस्था के घोर समर्थक तथा साम्प्रदायिक हैं, जिनकी भूमिका भारतीय समाज के लिए विघटनकारी है। इसका क्रियात्मक रूप इस समय देश की राजनीति में अपनी चरम सीमा पर है। इस यथार्थ को ध्यान में रखकर बुद्ध, दलित तथा अम्बेडकर के प्रति रामविलास शर्मा के विचारों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

 अपने विवेचन के शुरुआती दौर में ही रामविलास शर्मा आर्यों को स्वदेशी सिद्ध करने के लिए महापंडित राहुल सांकृत्यायन के विचारों के विरुद्ध ऐसे अनेक तथ्य रखते हैं, जो तथ्य न होकर मात्र कथ्य हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक ऋग्वैदिक आर्य  में लिखा है: ‘‘मोहनजोदड़ो और हड़प्पा तथा ऐसे कितने नगरों के संहार के बाद सप्तसिन्धु की विजित भूमि को पशुपाल आर्य जनों ने आपस में बाँटकर उसे गोचर भूमि में परिणत कर दिया।’’ राहुल के इस तर्क के विरुद्ध रामविलास शर्मा आर्यों की सभ्यता को मोजनजोदड़ो तथा हड़प्पा से अधिक विकसित बताते हुए उन्हें उद्योग-धन्धों का विकासकर्ता मानते हैं। आर्यों की जीवन-शैली के प्रति मनमोहकता पैदा करने के उद्देश्य से रामविलासजी उन्हें अग्नि का आविष्कारक मानते हैं, जो अग्नि जलाकर सन्तान उत्पन्न करने के उद्देश्य से यज्ञ करते थे। वे ‘तथ्यों’ के साथ कहते हैं कि यज्ञ का आयोजन करके पड़ोस के जवानों से आर्य अपने समूह की स्त्रियों के साथ सामूहिक समागम के माध्यम से सन्तान वृद्धि करते थे। इस सम्बन्ध में रामविलास शर्मा ने एक अन्य रोचक तथ्य प्रस्तुत किया है, जिसके अनुसार ‘शत्रुओं को जीतकर उनको दास बनाने पर प्रजा जितनी बढ़नी चाहिए, उतनी बढ़ नहीं पाती थी। अतएव यज्ञ के बहाने लोगों को एकत्रित करके बच्चे उत्पन्न करने की प्रजापतियों की पद्धति थी।’ इस तथ्य के अन्दर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण यथार्थ यह छिपा हुआ है कि आर्य किन शत्रुओं को जीत कर दास बनाते थे ? जाहिर है जो आर्यों से भिन्न यहाँ के मूल निवासी थे। अन्यथा आर्य लोग दास बनाने की प्रक्रिया में युद्ध में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से सन्तान-वृद्धि के लिए अपनी स्त्रियों के साथ सामूहिक समागम क्यों करवाते? अतः रामविलास शर्मा की यह मान्यता कि ‘आर्य स्वदेशी थे’ उनके ही द्वारा प्रस्तुत तथ्य से स्वतः खंडित हो जाती है।

वेदों में प्रगतिशीलता की तलाश में रामविलास शर्मा

विश्वविख्यात इतिहासकार डी.डी.कोसाम्बी ने हड़प्पानिवासियों द्वारा नदियों के जल को रोकने के लिए अस्थायी बाँध बनाने का जिक्र किया है, जिससे किनारे की भूमि पर पानी फैल जाने से खेती उपजाऊ हो जाती थी। इस बाँध-व्यवस्था को ध्वस्त करके आर्यों ने सारे प्रदेश में कृषि का नाश कर दिया था। कोसाम्बी के इस मत का खंडन करते हुए रामविलास शर्मा ऋग्वेद से कृषि सम्बन्धित तथ्य पेश कर कहते हैं: ‘‘विडम्बना यह है कि जो लोग उत्तर भारत में खेती का विकास कर रहे थे, उन्हें कोसाम्बी ने उसका विनाशक मान लिया है।…खेती के जितने प्रमाण ऋग्वेद में हैं, उनको उन्होंने एक तरफ हटा दिया है। हड़प्पा सभ्यता ऋग्वेद से पहले है, आर्यों ने आकर उसका विनाश किया, यह आत्मगत कल्पना उन्होंने तथ्यों पर आरोपित कर दी है।’’ अपनी इस तीखी प्रतिक्रिया में रामविलास शर्मा यह भी मानने के लिए तैयार नहीं है कि हड़प्पा सभ्यता ऋग्वेद से पहले की है, अन्यथा वे इसे कोसाम्बी की आत्मगत कल्पना क्यों मानते? ऋग्वेद में खेती का बहुत जिक्र है, जिसे कर्मकांड से भी खूब जोड़ा गया है। यहाँ तक कि फसल बोने से पूर्व उस खेत में उत्पादकता के प्रतीक के रूप में स्त्री के साथ समागम भी किया जाता था। किन्तु जब वे उत्तर भारत में आर्यों को ऋग्वेद के आधार पर खेती का विकासककर्ता बताते हैं, तो वे इस ऐतिहासिक तथ्य को भूल जाते हैं कि आर्य भारत में आते ही ऋग्वेद नहीं लिखने लगे थे। पशुपालन से खेती युग में प्रवेश करने में उन्हें काफी बड़ा समय लगा तथा ऋग्वेद को किसी एक आदमी ने एक निर्धारित समय में नहीं लिखा। अतः हड़प्पा सभ्यता के दौरान खेती विनाश की जो घटना आर्यों से जुड़ी है, वह उनके द्वारा खेती-विकास से बहुत पहले की है। ऋग्वेद का सम्मोहन रामविलास जी पर इस कदर हावी है कि वे आर्यों को अग्नि का आविष्कारक बताते हुए इसे विश्व-संस्कृति को भारत की सबसे बड़ी देन कहते हैं। इतना ही नहीं, वे दावा करते हैं: ‘‘सभ्यता का जितना विस्तार अठारहवीं सदी से लेकर अब तक हुआ है, वह अग्नि के आविष्कार के सामने समस्त मानव संस्कृति के विकास को देखते हुए क्षुद्र है।’’ इस कथन से पहले वे ऋग्वेद  में अग्नि का ढेर-सा हवाला देते हुए यह भी कहते हैं कि संसार के किसी भी धर्म में अग्नि को वह महत्त्व प्राप्त नहीं है, जो उसे वैदिक धर्म में प्राप्त है। उनके ये दावे सत्य की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। अग्नि का आविष्कार आदमी ने नहीं, बल्कि प्रकृति ने किया है। आदमी ने इस आविष्कार की सिर्फ नकल की है। अग्नि का आविष्कारक बताकर रामविलासजी आर्यों की सभ्यता को सर्वाधिक प्राचीन तथा विश्व की पहली सभ्यता बताना चाहते हैं, जिसका कोई आधार नहीं है। यदि आग के आविष्कारक आर्य थे, तो उनसे प्राचीनतर एवं अविकसित हड़़प्पा वाले, जो नगर बसाकर रहते थे, वे क्या आग जलाकर खाना पकाना नहीं जानते थे ? हड़प्पावाले निश्चित रूप से खाना पकाकर खाते थे। जहाँ तक अग्नि का धर्म से सम्बन्ध है, उस पर वैदिक धर्म का एकाधिकार नहीं है। पारसी लोगों का प्राचीन धर्म ‘जरतुस्त’ कहलाता है जिसका एक मात्र कर्मकांड घर की छत पर आग जलाना है। एक सम्पूर्ण धर्म के रूप में सिर्फ पारसी अग्निपूजक हैं।

आर्यों के मायाजाल में फँसे संघ परिवार के इतिहासकारों तथा कर्मकांडियों की चाहत के स्रोत तैंतीस करोड़ देव विलुप्त सरस्वती तथा यज्ञों में बलि के काम आनेवाले घोड़े भी रहे हैं। आर्यों के साथ-साथ घोड़ों को भी वे भारतीय मूल का मानते हैं। इन सारे विषयों पर रामविलास शर्मा ने एक वैदिक ऋषि की तरह प्रकाश डाला है। उन कर्मकांडी ऋषियों का गुणगान करते हुए वे कहते हैं कि वैदिक ऋषि काम करते थे, वे श्रम से घबराते नहीं थे। ऋग्वेद से अनगिनत उदाहरण प्रस्तुत करके वे देवी-देवताओं का महिमा मंडन भी खूब करते हैं। वे यह मान कर चलते हैं कि ऋग्वेद के सारे देवी-देवता ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष थे। इस कड़ी में उन्होंने सरस्वती का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसके तट पर वैदिक कवि रहते थे, खेती करते थे और यज्ञ करते थे। सरस्वती का महत्त्व केवल नदी का महत्व नहीं है, कवि-प्रतिभा का भी महत्व है, सृजनशीलता का महत्त्व है। इसके साथ ही नारी जाति के प्रति जो सम्मान का भाव वैदिक कवियों में रहा है, वह भी सरस्वती के प्रति श्रद्धा के रूप में व्यंजित होता है। एक अन्य जगह उन्होंने उल्लेख किया है कि हड़प्पा सभ्यता जब पूरे उभार पर थी, तब यह सरस्वती जल से भरी हुई थी। बाद में पृथ्वी के अन्दर की हलचल से सरस्वती तथा कई नदियों का जलमार्ग बदल गया और सरस्वती जलहीन हो गई। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि यह मिथकीय सरस्वती इस समय देश-भर में एक साम्प्रदायिक समस्या बन गई है। संघ परिवार द्वारा इतिहास-भंजन का यह भी एक महत्त्वपूर्ण जलविहीन स्रोत है। वैसे सभ्यताओं के इतिहास से पता चलता है कि आर्य जिस किसी भी भूमि पर गए, वे किसी-न-किसी नदी को सरस्वती कहकर अवश्य पुकारते थे। मिस्र में ‘स’ के ‘ह’ उच्चरित करने के कारण उसे हरहस्ती कहा जाता था। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में सरस्वती को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की पुत्री बताया गया है, किन्तु उनके साथ ब्रह्मा का चरित्र पिता का न होकर पति जैसा था, जिसके कारण ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को अपूज्य घोषित कर दिया। यही कारण है कि पुष्कर को छोड़कर ब्रह्मा का मन्दिर कहीं और नहीं बनाया गया और न उसकी कहीं पूजा होती है। वैसे, यह आश्चर्यजनक बात है कि आर्य या हिन्दू मान्यता के अनुसार ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं, किन्तु उनके द्वारा पूजित नहीं। ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा भागवत पुराण में सरस्वती एवं ब्रह्मा से सम्बन्धित घटनाक्रमों का पूरा विवरण मिलता है, किन्तु रामविलास शर्मा ने उसका जिक्र नहीं किया है। उन्होंने आर्यों के घोड़ों की विस्तृत चर्चा की है। घोड़ों से सम्बन्धित ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं के उल्लेख के माध्यम से वे लिखते हैं : ‘‘घोड़ों को रथ में जोतने और उन्हें खोलने का काम देव ही करते हैं। अग्निदेवों को बुलाने के लिए रथ में घोड़े जोतते हैं। मरुत् अपने रथ में घोड़े जोतते हैं। इन्द्र घोड़ों को रथ में जोतते हैं।’’ आदि, आदि। इन घोड़ों के बारे में उन्होंने सफाई देते हुए लिखा है कि ऋग्वेद में कहीं भी यह संकेत नहीं है कि अश्व बाहर से आये हैं। देशी घोड़े हैं। उन नदियों का उल्लेख है, जहाँ से घोड़े सारस्वत प्रदेश में लाये जाते थे। उनकी यह मान्यता भी उनके उस हठवादी अन्धविश्वास की उपज है, जिसके तहत रामविलास शर्मा ऋग्वेद की मायानगरी की सीमा से बाहर झाँकना पसन्द नहीं करते। घोड़ा भारतीय पशु नहीं है। इस सन्दर्भ में विश्व-भर में अनेक प्रमाण विद्यमान हैं। आलू की पैदावार भारत में बहुत होती है। इस आधार पर यह कहा जाए कि यह भारतीय मूल का है, तो इसे मात्र हठवादिता कहा जाएगा। ज्ञातव्य है कि आलू को भारत में अर्जेन्टाइना से अंग्रेज लाए थे। उसी तरह घोड़ा भी आर्यों के साथ मध्य एशिया से आया। वैसे राणा प्रताप के घोड़े चेतक के साथ जितनी किंवदन्तियाँ जोडी़ दी जायें, भारत उत्तम किस्म के घोड़ों के लिए कभी भी नहीं जाना गया। मध्य एशिया के घोड़े विशेषकर काफकाज के, आज भी विश्व-प्रसिद्ध हैं। भारतीय खेलों में प्रतियोगिता के घोड़े अभी भी विदेशों से मँगाये जाते हैं। जो घोड़े मध्य एशिया से भारत आए, उनकी नस्लें आर्यों की ही तरह बदलती गईं। एक समय ऐसा आया कि वे ‘इन्द्र के रथ’ में जोते जाने के काबिल नहीं रहे और भारतीय बनियों के लद्दू घोड़े बनकर रह गये। यद्यपि, गौतम बुद्ध अपने कथक नामक घोड़े पर बैठकर घर से भागे थे, किन्तु बौद्ध साहित्य में उन्हें गैंडे की तरह चलते बताया गया है। जाहिर है, गैंडा भारतीय पशु है। घोड़ों के सन्दर्भ में मध्य एशिया में अनेक रोचक पुरातत्वीय प्रमाण मिले हैं। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार आर्यों के पालतू जानवरों में एक-तिहाई घोड़े होते थे। जाहिर है, उस समय घोड़े आवागमन तथा युद्ध के सबसे बड़े हथियार होते थे। मध्य एशिया के सिंतस्ता नामक स्थान पर यूनेस्को की सहायता से की गई एक खुदाई में कुछ वर्ष पहले 1700 ई.पू. की एक कब्र मिली है, जिसमें स्वस्तिक मिला है। वहीं कई जगहों पर कब्रों में घोड़ों के साथ रथ भी मिले हैं। इसके अतिरिक्त यज्ञ-स्थल मिले हैं, जहाँ पशुओं को जलाकर देवों को अर्पित किया जाता था। उनकी राख को वहाँ के आर्य उनकी बची हुई हड्डियों में छेद करके भर देते थे। वहाँ के इफेद्रा नामक पौधे से शराब बनाते थे, जिसे भारत में सोमरस कहा जाता है। इससे भी सिद्ध होता है कि घोड़ा तथा रथ-संस्कृति मध्य एशिया में थी, जहाँ से उसका संतरण आर्यों के साथ भारत में हुआ। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण ‘सुश्रुत संहिता’ में मिलता है, जिसमें महान प्राचीन चिकित्सक सुश्रुत ने लिखा है कि यहाँ ब्राह्मण यज्ञ के दौरान हवनकुंड में अनेक पशुओं के अंग-प्रत्यंग काट कर डालते थे, जिसे देखने के लिए अनेक चिकित्सक ब्राह्मण का वेष बनाकर वहाँ उपस्थित होते थे, ताकि कटे अंगों को देखकर मानव-शरीर पर आपरेशन करना सीख सकें। ईरान के प्रसिद्ध महाकाव्य शाहनामा में कवि फिरदौसी ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्राचीन घटना का उल्लेख किया है, जिसमें ईरान में पाई जानेवाली एक आदिम जनजाति का वर्णन है, जिन्हें ‘देव’ कहा जाता था। फारसी उच्चारण में इसे ‘दीव’ कहा जाता है। शाहनामा के अनुसार ‘देव’ नामक जनजाति बहुत बलशाली तथा घुड़सवार हुआ करती थी। इस सन्दर्भ में फिरदौसी एक प्राचीन ईरानी राजा का जिक्र करते हैं, जो अपने हरम के लिए पश्चिम की पाँच सौ गोरी युवतियों की तलाश में था। उसने इसी ‘देव’ नामक जनजाति के पाँच सौ युवा घुड़सवारों को खाना-खर्चा देकर उक्त कार्य सम्पन्न करने के लिए रवाना किया। जब ये घुड़सवार पाँच सौ गोरी युवतियों को अपहृत कर ईरान पहुँचे तो वह राजा मर चुका था, इसलिए उन्होंने इन युवतियों को लेकर पहाड़ की गुफाओं में शरण ली तथा उनके सहयोग से जो बच्चे पैदा हुए उन्हें कुर्द यानी ‘पर्वत पुत्र’ कहा गया। हमारे यहाँ भी शंकर की पत्नी को पार्वती, शैलजा या शैल-पुत्री कहा जाता है। बहुत से विद्वान यह मानते हैं कि सही मायनों में ईरान ही आर्यों की असली भूमि रही है। ईरान ‘आर्यान’ का बदला हुआ नाम है। शाहनामा की उक्त घटना से भी सिद्ध होता है कि वह आर्य वहीं के थे तथा जिस देव या दीव नामक जनजाति का जिक्र आता है, वे ही भारत में देव या देवता कहलाए। तैंतीस करोड़ देवताओं की अवधारणा सम्भवतः अपनी हमलावर आबादी को बढ़ा-चढ़ाकर अतिशयोक्ति करने से है, ताकि भारत के मूल निवासियों को बिना किसी प्रतिरोध के हराकर दास बनाया जा सके। बाद में ब्राह्मणों ने इसे तैंतीस करोड़ देवताओं के रूप में पूजने के लिए अन्धविश्वास के माध्यम से प्रचार किया। महात्मा फुले भी मानते हैं कि आर्य ईरान से आये थे। वे ब्रह्मा के बारे में साफ तौर पर कहते हैं कि वह ईरान से ही आये थे। इस तरह अनेक ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक स्रोतों से साफ जाहिर होता है कि आर्यों के साथ घोड़े भी भारत में बाहर से आये, किन्तु रामविलास शर्मा सिर्फ इस बात पर जोर देते हैं कि ऋग्वेद में इसका जिक्र नहीं है। सत्य को परखने की उनकी यह पद्धति हास्यास्पद है, जिसका असली मंतव्य यह है कि जो बात ऋग्वेद में नहीं है, वह सरासर गलत है। रामविलास शर्मा ने स्वयं एक रोचक घटना का जिक्र किया है जिसके लिए उन्होंने इतिहासकार डी.सी. गांगुली का सहारा लिया है। उन्होंने लिखा है कि सन् 1021-22 ई. में महमूद गजनवी ने चन्देल राजा विद्याधर के कालिंजर स्थित किले पर धावा बोला। विद्याधर ने सुलह के लिए 300 हाथी तथा धन देने का प्रस्ताव किया। महमूद मान गया। इस पर विद्याधर ने महमूद के सैन्यबल की परीक्षा लेने के उद्देश्य से 300 हाथियों के झुंड को बिना महावतों के किले से बाहर झोंक दिया। महमूद के आदेशानुसार उसके सैनिकों ने सभी हाथियों पर काबू पा लिया, जिससे प्रसन्न होकर चन्देल राजा विद्याधर ने महमूद की प्रशंसा में एक छन्द लिखकर भेजा और महमूद बहुत प्रसन्न है इस घटना से भी एक दूरगामी तथ्य की ओर संकेत मिलता है। आखिर, विद्याधर ने महमूद को क्यों हाथियों के झुंड ही पेश किए? घोड़े क्यों नहीं? स्पष्ट है कि हाथी सैन्यबल के हिसाब से स्वदेशी थे, न कि घोड़े। इसलिए विद्याधर ने हाथियों के उपहार को अधिक सम्मानजनक समझा। किन्तु इस घटना से रामविलास शर्मा ने साफ एक ही निष्कर्ष निकाला है, वह यह कि विद्याधर ने महमूद की प्रशंसा में जो छन्द लिखा था, वह बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, हिन्दी या इस प्रदेश की कोई जनपदीय भाषा ही हो सकती थी। उन्हें इस हिन्दू राजा विद्याधर की समर्पणकारी कायरता की याद नहीं आई।

अपने स्वदेशी आर्य-अभियान में रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर को भी सम्मिलित किया, जिसमें उनके विचारों का विरूपण भी किया गया है। आर्य और द्रविड़ के सम्बन्ध में उन्होंने अम्बेडकर का जो पहला उद्धरण प्रस्तुत किया है, उसे अपनी सुविधा के अनुसार काट-छाँटकर विरूपित कर दिया है। अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए वे लिखते हैं: ‘‘द्रविड़ शब्द तमिल का ही संस्कृत रूपान्तर है। तमिल केवल दक्षिण भारत की ही नहीं, वरन् आर्यों के आने से पहले, समूचे भारत की भाषा थी।’’ जबकि अम्बेडकर ने बी.आर. भंडारकर का हवाला देते हुए जो उद्धरण दिया है, वह यह है: ‘‘मौलिक शब्द ‘तमिल’ जब संस्कृत में आयातित (इम्पोर्ट) किया गया तो यह ‘दमित’ और बाद में ‘दमिल’, फिर ‘द्रविड़’ हो गया। द्रविड़ शब्द लोगों की भाषा का नाम है न कि उनकी नस्ल का। तीसरी बात याद रखने की यह है कि तमिल या द्रविड़ आर्यों के आने से पूर्व सिर्फ दक्षिण भारत की भाषा नहीं थी, बल्कि पूरे भारत की थी और कश्मीर से लेकर केप कैमोरिन तक बोली जाती थी।’’ अम्बेडकर ने आगे द्रविड़ तथा नाग को एक मानते हुए लिखा है कि दक्षिण के नाग अपनी मातृभाषा तमिल को अपनाए रहे और आर्यों की भाषा संस्कृत को उन्होंने नहीं अपनाया, किन्तु उत्तर के नागों ने आर्यों की भाषा को अपना लिया। इस परिवर्तन को अम्बेडकर आर्य तथा नाग सम्पर्क के प्रभाव की विचित्र प्रक्रिया मानते हैं। अम्बेडकर की उक्त मान्यताओं से भी सिद्ध होता है कि आर्य स्वदेशी लोगों से भिन्न थे। एक अन्य जगह अम्बेडकर द्वारा 21 पृष्ठों की टाइप की हुई पांडुलिपि प्रकाशित हुई है, जिसका शीर्षक है शूद्र तथा प्रतिक्रान्ति । इस लेख में अम्बेडकर ने कुछ टिप्पणियाँ की हैं, जिनके आधार पर रामविलास शर्मा ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि अम्बेडकर भी आर्यों  को स्वदेशी मानते थे। इस प्रश्न पर विश्लेषण से पहले इस तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है कि अम्बेडकर के अध्ययन का विषय यह कभी नहीं था कि ‘आर्य स्वदेशी थे या विदेशी।’ उनके अध्ययन का विषय मूलतः वर्ण-व्यवस्था थी जिसके सम्बन्ध में आर्यों की कैसी भूमिका थी? अपने राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन की अति व्यस्तता के दौरान जो भी समय मिला, उसका उपयोग उन्होंने वर्ण-व्यवस्था की गुत्थी को सुलझाने में लगाया, न कि आर्यों के देशी या विदेशी होने की गुत्थी को सुलझाने में। इसलिए मात्र कुछ हल्की-फुल्की टिप्पणियों के आधार पर रामविलास शर्मा द्वारा उन्हें संघ परिवार के दायरे में घसीटना सर्वथा अनुचित है। वे अम्बेडकर को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि आर्य किसी खास नस्ल के थे, इस धारणा का बहुत स्पष्ट और तीव्र खंडन करते हुए अम्बेडकर ने लिखा कि आर्य एक जनसमुदाय का नाम है। जो चीज उन्हें आपस में बाँधे हुए थी, वह एक विशेष संस्कृति, जो आर्य संस्कृति कहलाती थी, को सुरक्षित रखने में उनकी दिलचस्पी थी। जो भी आर्य संस्कृति स्वीकार करता था, वह आर्य था। आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी। इसलिए ऐसा कोई निश्चित रंग, कोई निश्चित शारीरिक गठन भी नहीं था, जिसे आर्य संज्ञा दी जा सके। आर्यों  के ऐसे कोई काले और चपटी नाकवाले लोग नहीं थे जिन्हें वे अपने से भिन्न मानते।

डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा मुर्दिहिया और मणिकर्णिका

उपर्युक्त उद्धरण को रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर का बताकर उद्धृत किया है, यह एक सरासर बौद्धिक धोखाधड़ी है। वास्तविकता यह है कि उपर्युक्त बातों को अम्बेडकर ने सातवेलकर नामक लेखक की रचना से उद्धृत किया है, जिसके बारे में उन्होंने नं. 2 नामक फुटनोट में लिखा है: ‘‘इस विषय पर पूर्ण जानकारी के लिए ‘पुरुषार्थ’, जिल्द 13, पृ. (अज्ञात-ले.) पर श्री सातवेलकर द्वारा की गई प्रतिभाशाली बहस को देखें।’’ आगे रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर को पुनः उद्धृत किया है: ‘‘यह कहना गलत है कि दस्यु लोग नस्ल के विचार से अनार्य थे। दस्यु आर्यों से पहले भारत में रहनेवाली आदिवासियों की किसी नस्ल के नहीं थे। कुछ आस्थायें, कुछ क्रियायें आर्य संस्कृति का मूल मानी जाती थीं। आर्य जन-समुदाय के जो सदस्य इन्हें स्वीकार न करते थे, उन्हें आर्य नाम से वंचित किया गया था। नस्ल के विचार से दस्यु, अनार्य थे, यह विश्वास कैसे पैदा हुआ, यह समझ पाना कठिन है।’’ इस सन्दर्भ में अम्बेडकर द्वारा ऋग्वेद (10:49) से उद्धृत किया गया एक अंश भी प्रस्तुत किया गया है, जिसमें इन्द्र कहते हैं: ‘‘कवि नाम के मनुष्य के कल्याण के लिए मैंने वज्र (थंडरबोल्ट) से प्रहार किया। रक्षा के साधनों का व्यवहार करके मैंने कूप की रक्षा की है। मैंने शुष्ण को मारने के लिए वज्र उठाया। मैंने दस्युओं को आर्य उपाधि से वंचित किया।’’ इन दोनों उद्धरणों पर रामविलास शर्मा अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं: ‘‘इन्द्र की इस बात से दस्यु आर्य थे, और अधिक सकारात्मक तथा स्पष्ट क्या होगा? आर्य और दस्यु एक ही समाज में लोगों के सांस्कृतिक व्यवहार का भेद सूचित करते हैं, आक्रमणकारियों और मूल निवासियों का भेद नहीं।’’  उपर्युक्त दोनों उद्धरणों पर रामविलास शर्मा की प्रतिक्रिया सोच-समझकर किये गये कुतर्क का परिणाम है। अम्बेडकर उक्त उद्धरणों के माध्यम से असली बात यह कहना चाहते हैं कि जो आर्यों की संस्कृति को नहीं मानता था, उसे आर्य दस्यु कहते थे। इस अर्थ में दस्यु आर्यों से पहले कोई नस्ल या आदिवासी नहीं थे। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि आर्यों के पहले भारत में कोई रहता ही नहीं था। यहाँ आदिम जातियाँ अवश्य थीं। यही कारण है कि इस समय संघ परिवार ने आर्यों द्वारा प्रदत्त वर्ण-व्यवस्था को न्यायोचित ठहराने के निरन्तर अभियान में भारत के तमाम आदिवासियों को वनवासी कहकर पुकारने का अभियान चला रखा है, ताकि आर्यों को ही मूल निवासी सिद्ध किया जा सके। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात जिसमें इन्द्र कहते हैं ‘‘मैंने दस्युओं को आर्य उपाधि से वंचित किया’’, इससे यह सिद्ध होता है कि अनार्यों को भी आर्य की उपाधि दी जाती थी। किन्तु, रामविलास शर्मा द्वारा अम्बेडकर के जिन उद्धरणों के माध्यम से उन्हें विरूपित करने का प्रयास किया गया है, उसके पीछे अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को सम्पूर्णता में न लेकर आधे-अधूरे तथ्यों को पेश किया गया है। अम्बेडकर ने जिन प्रश्नों के उत्तर देने के प्रयास में उपर्युक्त बातें कही थीं, उन प्रश्नों से जुड़े हुए तथ्यों को रामविलास शर्मा ने जान-बूझकर उद्धृत नहीं किया। वे तथ्य इस प्रकार हैं- ‘‘सयणाचार्य की अत्यधिक अज्ञानी व्याख्या के कारण यहाँ तक कि श्रेष्ठ ज्ञानी लोगों के बीच भी इन समुदायों, विशेषकर आर्यों, असुरों तथा देवों के परस्पर सम्बन्धों और उनकी सगोत्रता के बारे में कुछ विचित्र मान्यतायें प्रचलित हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि असुर जन किसी भी हालत में मानव प्रजाति के नहीं थे। उन्हें दानव तथा बेताल समझा जाता है, जो आर्यों को अपनी निशाचरी आपदा से तंग करते थे। सुर या देवों को प्रकृति की शक्तियों को छन्दोबद्ध दैवीकरण समझा जाता है।’’ वास्तविकता यह है कि उपर्युक्त समस्या का उत्तर ढूँढ़ने की तलाश में अम्बेडकर ने रंग-रूप की बात करके मूल रूप से नृवैज्ञानिक (ऐंथ्रोपोलाजिकल) तथा बाद में मात्र एक-दो विद्वानों की मान्यताओं को आधार बनाकर तर्क का सहारा लेते हुए आर्यों के बारे में बहुत थोड़ा-सा किसी परिस्थिति में लिखा जो उनकी मृत्यु के 31 साल बाद प्रकाशित हुआ। यदि वे प्रकाशन के समय जिन्दा होते, तो सम्भवतः वर्तमान संघ परिवार के रूप को देखते हुए अपनी पांडुलिपि में आमूल परिवर्तन कर देते। इसके बावजूद जो कुछ छपा है, उसका सही विश्लेषण रामविलास शर्मा ने नहीं किया। अन्त में उन्होंने अम्बेडकर की रचना से यह अर्थ निकाला कि शूद्र आर्यों से भिन्न नहीं थे। आर्य संस्कृति जो माने, वह आर्य। इसी अर्थ में आर्य शब्द का प्रयोग किया हुआ था। इस दृष्टि से शूद्र भी आर्य थे। जिन्होंने आर्य संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया, वे दस्यु कहलाए। बहुत समय बाद कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी शूद्रों को आर्य माना गया है। यहाँ अम्बेडकर ने खुले तौर पर सांस्कृतिक सन्दर्भ में शूद्रों या दस्युओं को आर्यों से भिन्न नहीं माना। जहाँ तक शूद्र-आर्य सम्बन्ध के बारे में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का सवाल है, यह सर्वविदित है कि विद्वान लोग आर्थिक मामलों के सन्दर्भ में कौटिल्य की प्रशंसा करते हैं, किन्तु वर्ण-व्यवस्था के तहत शूद्रों के विरुद्ध कौटिल्य ने जिन क्रूर कानूनों को समाहित किया है, उनका कोई जिक्र नहीं होता। कौटिल्य ने शूद्रों को आर्य माना है, यह तर्क स्वयं रामविलास शर्मा द्वारा अर्थशास्त्र  से उद्धृत तथ्य से ही धराशायी हो जाता है, जिसके अनुसार: ‘‘म्लेच्छ अपनी सन्तान बेचें या गिरवी रखें तो इसमें कोई दोष नहीं है, किन्तु आर्य जाति किसी भी हालत में गुलाम नहीं बनाई जा सकती।’’ वे अर्थशास्त्र से दूसरा उदाहरण देकर लिखते हैं: ‘‘जो आर्य स्वयं को बेचकर दास बनते थे, उनके बारे में नियम यह था- अपने आपको बेच देनेवाले आर्य पुरुष की सन्तान भी आर्य ही समझी जाए।’’ इन तथ्यों से स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि आर्य बिल्कुल अलग नस्ल के थे। रामविलास शर्मा ने ऋग्वेद से एक मन्त्र का हवाला देकर एक जगह लिखा है: ‘‘धन देकर दासों को छुड़ाया जा सकता था और फिर उन्हें आर्य बनाया जा सकता था।’’ क्या इन तथ्यों से जाहिर नहीं होता है कि आर्यों और दासों में कितनी भिन्नता थी?

आर्यों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर की रचनाओं के खंड- 3 से जो बातें उद्धृत की हैं, उनसे मिलते-जुलते तथ्यों को खंड-7 से भी दुहराया गया है, क्योंकि मेढक-कुदान पद्धति से तथ्यों को रखने से उनकी अपनी आधारहीन मान्यताओं को बल मिलता है। किन्तु सबसे विचारणीय तथ्य यह है कि रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर पर लिखने के लिए प्रकाशित रचनाओं के जिन 15 खंडों का इस्तेमाल किया है, इनमें से चौथे खंड को उन्होंने गोल कर दिया जिसका शीर्षक है हिन्दू धर्म की गुत्थी। बौद्धिक धोखाधड़ी का इससे बड़ा नमूना बहुत कम मिलता है। उन्होंने पाठकों को भ्रमित करने तथा धोखा देने के लिए ऐसा किया है। यह खंड अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें हिन्दू धर्म की 24 गुत्थियों को अम्बेडकर ने अति शोधपूर्ण ढंग से सुलझाने की कोशिश की है। रामविलास शर्मा ने इस खंड से एक शब्द भी उद्धृत नहीं किया है। स्मरण रहे कि यह वही रचना है, जिसके खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा शिवसेना ने सन् 1987 में पूरे महाराष्ट्र में बड़े पैमाने पर दंगा किया था। आर्यों के सम्बन्ध में यदि रामविलास शर्मा इस खंड से उद्धरण प्रस्तुत करते तो न सिर्फ उनका आर्य-सम्मोहन ध्वस्त होता, बल्कि खंड-3 और 7 में प्रस्तुत आम्बेडकर को कई आर्य-मान्यताओं के बारे में गलतफहमी भी दूर हो जाती। इस खंड की ‘‘गुत्थी संख्या 13: द रीडिल्स ऑफ अहिंसा’’ के शुरू में ही अाम्बेडकर ने लिखा   : ‘‘आर्य जुआड़ियों की एक नस्ल थे। आर्य सभ्यता के शुरुआती दौर में जुआ एक विज्ञान के रूप में इस हद तक विकसित हो चुका था कि उन्होंने कई तकनीकी शब्दावलियों का आविष्कार किया। हिन्दुओं ने चार युगों के रूप में कृत, त्रेता, द्वापर तथा कलि नाम के शब्दों का प्रयोग किया था, जिनमें उनके ऐतिहासिक काल विभक्त किये जाते हैं। वास्तविकता यह है कि जुआ खेलते समय आर्य जन इन शब्दों का प्रयोग मूल रूप से पाँसे के लिए करते थे। सबसे भाग्यशाली पासा कृत तथा अभागा पाँसा कलि कहलाता था। त्रेता तथा द्वापर इन दोनों के बीच समझे जाते थे।… बादशाहत तथा पत्नियों तक को जुआ के दाँव पर लगा दिया जाता था। राजा नल जुआ के दाँव पर अपना राज्य हार गया था। पांडवों ने उससे भी आगे बढ़कर अपने राज्य तथा पत्नी द्रोपदी दोनों को ही दाँव पर लगा दिया तथा वे दोनों को हार गये।’’ यहाँ गौर करने की बात यह है कि रामविलास शर्मा ने अम्बेडकर के जिन दो खंडों से उद्धृत करके सिद्ध करने की कोशिश की है कि आर्य जन कोई नस्ल (रेस) नहीं थे, यह मान्यता अम्बेडकर के उपर्युक्त कथन से स्वतः खंडित हो जाती है, क्योंकि उन्होंने साफ शब्दों में आर्यों को जुआड़ियों की एक नस्ल माना है। स्वयं रामविलास शर्मा ने ऋग्वेद का एक उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है: ‘‘ऋग्वेद में एक जुआरी जुआ खेलता है, पछताता है, फिर भी खेलता है। कवि उससे कहता है- कृषि कृषस्य (10.34.13)। वह उससे गाय चराने के लिए नहीं कहता, लूट-मार करने के लिए नहीं कहता, खेती करने के लिए कहता है। मानना चाहिए कि खेती आम लोगों का धन्धा होगी, तभी उसने जुआरी से ऐसा कहा।’’ अम्बेडकर सेक्स या रति सम्बन्धों के बारे में आर्यों को ढीले चरित्र वाले मानते थे। एक समय ऐसा था जब आर्य विवाह को नर-नारी के बीच स्थायी गठबन्धन के रूप में जानते ही नहीं थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने महाभारत  का हवाला दिया है, जिसमें पांडु अपनी पत्नी कुन्ती से किसी और के माध्यम से बच्चे पैदा करने के लिए कहते हैं। ऐसा भी समय था जब सेक्स सम्बन्धों के लिए आर्यों के बीच कोई प्रतिबन्ध या नियम नहीं होता था। अतः उनके बीच ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनमें भाई-बहन, माता-पुत्र, पिता-पुत्री तथा दादा-पोती के बीच सेक्स सम्बन्ध का रिश्ता हुआ करता था। इसे अम्बेडकर ने स्त्री-पुरुषों का साम्यवाद कहा है। यह ऐसा साम्यवाद था जिसमें एक ही स्त्री पर कई पुरुषों की हिस्सेदारी होती थी। ऐसी स्त्री को गणिका कहा जाता था। आर्यों के बीच प्रचलित स्त्रियों के साम्यवाद में कुछ नियमित रूप भी होते थे। इस व्यवस्था में एक स्त्री पुरुषों के समूह में बँटी रहती थी, किन्तु हर एक के लिए उसका दिन निर्धारित होता था। ऐसी स्त्री को वारांगना यानी वह जिसके दिन निर्धारित हों, कहा जाता था। इससे वेश्यावृत्ति का अति घिनौना रूप विकसित हुआ। इस पर अम्बेडकर लिखते हैं कि कहीं अन्यत्र वेश्याओं ने जनता के बीच खुले तौर पर सेक्स समागम के लिए इजाजत नहीं दी, किन्तु प्राचीन आर्यों के बीच ऐसा प्रचलन था। प्राचीन आर्यों के बीच पशुगमन (पशु के साथ सेक्स) का भी प्रचलन था और इसके लिए उन लोगों में कुछ ऋषि भी शामिल थे जिन्हें सर्वाधिक श्रद्धेय माना जाता था। इस सम्बन्ध में स्मरण रहे कि आर्य काल में राजा लोग अश्वमेध यज्ञों के दौरान कर्मकांड के तहत अपनी रानियों को बलि के घोड़े के साथ सेक्स सम्बन्ध के लिए बाध्य कर देते थे। इस प्रक्रिया में कई बार रानियों की मृत्यु भी हो जाया करती थी। जाहिर है यह कुकर्म इन्हीं तथाकथित ऋषियों द्वारा सम्पन्न होता था। आगे अम्बेडकर ने ‘अहिंसा की गुत्थी’ में ही आर्यों को शराबियों की भी नस्ल माना है। शराबखोरी से सम्बद्ध ऋचाओं से ऋग्वेद भरा पड़ा है। जहाँ तक स्त्रियों के साम्यवाद का सम्बन्ध है, यूनानी दार्शनिक प्लेटो की याद ताजा हो जाती है, जिन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ रिपब्लिक में इसकी चर्चा की है। वे अपने आदर्शवादी राज्य के लिए सिर्फ बलशाली पुरुषों द्वारा स्त्रियों से सामूहिक समागम के माध्यम से सन्तान उत्पन्न कराना चाहते थे। इस तथ्य से यह भी सिद्ध होता है कि आर्यों का एक समूह मध्य एशिया से यूनान पहुँचा था।

इस तरह अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म की गुत्थी नामक ग्रन्थ में आर्य संस्कृति तथा धर्म से उत्पन्न अनेक गुत्थियों का भेद खोला है। रामविलास शर्मा ने आश्चर्यजनक ढंग से इन तथ्यों को छिपाकर अम्बेडकर को आर्य-पूजक सिद्ध करने का कुप्रयास किया है। वे हर विषय में आर्यों का जबरन समावेश करते हैं, किन्तु अन्य देशों में आर्य कैसे पहुँचे, ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर आँखें मूँद लेते हैं। जर्मनी में हिटलर ने आर्य नस्ल की श्रेष्ठता के आधार पर फासिस्ट व्यवस्था लागू की थी। क्या हिटलर भारतीय आर्यों के मूल का था? ईरान के अन्तिम राजवंश पहलवी के अन्तिम राजा मोहम्मद रजा शाह पहलवी ने अपने ‘आर्यमेहर’ यानी ‘आर्य-ज्योति’ नामक पदवी से विभूषित किया था। क्या वह भी भारतीय मूल का था? इस तरह के अनेक उदाहरण एशिया से लेकर यूरोप तक मिलते हैं। यदि वेदों के साथ-साथ इन अनेक देशों के प्राचीन महाकाव्यों जैसे यूनान के कवि होमर का इलियड और ओडिसी, ईरान के जोरोस्टर का अवेस्ता तथा मध्य एशियाई देश किर्गीजिया का मनस आदि को देखें तो इनसे आर्य संस्कृति तथा आर्यों के घुमन्तू जीवन का पता चलता है। साथ ही भाषा की दृष्टि से अनेक शब्द ऐसे हैं जो इन सारे ग्रन्थों में समान रूप से एक ही अर्थ वाले हैं। इनमें समान संस्कृति या कर्मकांड की भी जानकारी मिलती है जैसे अग्निपूजा, पशुबलि (यहाँ तक कि नरबलि), मुर्दों को दफनाने की प्रथा जो बाद में भारत में जलाने के रूप में बदल गई, आदि शामिल हैं। होमर के इलियड से कुछ अद्भुत जानकारी मिलती है। इस ऐतिहासिक ग्रन्थ में जिस त्रोय-युद्ध का वर्णन है, उसकी पृष्ठभूमि में स्पार्टा के राजा आचियान मेनेलास की अति खूबसूरत पत्नी हेलेन को त्रोय के राजकुमार पेरिस बहकाकर चुरा ले जाना है। हेलेन को मुक्त करने के लिए महायुद्ध होता है और भयंकर तबाही होती है। होमर का यह काव्य जिस समय लिखा गया था, वह भारत में उपनिषद् काल था। इस सन्दर्भ में रोचक तथ्य यह है कि संघ परिवार देश-भर में जिस नये पाठ्यक्रम को लागू करने का प्रयास कर रहा है, उसमें यह भी बताया गया है कि होमर ने रामायण की नकल करके इलियड लिखा था। इसके पीछे तर्क यह है कि रामायण में जिस तरह सीता का अपहरण रावण ने किया था, वैसे ही इलियड में हेलेन का पैरिस ने। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि रामायण  उपनिषद् काल की रचना नहीं है, बल्कि बहुत बाद की है। संघ परिवार के इस इतिहास-भंजक प्रयास में रामविलास शर्मा भी एक खास अन्दाज में स्वर मिलाते हुए लिखते हैं: ‘‘होमर के प्रसिद्ध काव्य एशियाई भूमि पर रचे गये थे।’’

आर्यों के सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मध्य एशिया की आर्य संस्कृति को आन्द्रोनोवा संस्कृति कहा जाता था जो दो हजार वर्ष ई.पू. कायम थी। यह वही समय था, जब भारत में आर्यों का आगमन शुरू हुआ था। भारत में आर्य संस्कृति आन्द्रोनोवा की कार्बन कापी लगती है जिसमें सारे कर्मकांड शामिल है। यहाँ सर्वाधिक उल्लेखनीय बात यह है कि आन्द्रोनोवा संस्कृति पुरुषप्रधान थी और जब वे लोग भारत में आये तो यहाँ के मूल मातृसत्तात्मक समाज को उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज में बदल दिया। यही कारण है कि दोनों क्षेत्रों के महाकाव्यों में वर्णित नायक-नायिकाओं की भूमिका में अत्यन्त समानता है। रूस के प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक खज़ानोव ने खोज की है कि दो हजार वर्ष ई.पू. मध्य-एशिया में कड़ाके की ठंड पड़ी, जिससे बचने के लिए आर्य जान लेकर भागे और अपेक्षाकृत गर्म क्षेत्र भारत में आकर बस गये। लोकमान्य तिलक ने भी लिखा है कि आर्य बाहर से पहाड़ पार करके भारत आये थे, क्योंकि पहाड़ों पर देवों का निवास होता है। इन तमाम ऐतिहासिक, पुरातत्वीय तथा वैज्ञानिक खोजों के बावजूद रामविलास शर्मा ने आर्यों को जिस तरह से भारतीय मूल में गौरवान्वित करने का जाल बुना है, उससे वर्ण-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के ताजा अभियान में संघ परिवार को एक और दलित-मारक ‘ब्रह्मास्त्र’ मिल गया है। इस ‘ब्रह्मास्त्र’ की धार को तेज करने के लिए उन्होंने अम्बेडकर को भी वैदिक हवनकुंड में स्वाहा कर दिया है। स्मरण रहे कि भारत में आर्य संस्कृति का ही क्रूरतम रूप वर्ण-व्यवस्थावादी हिन्दू संस्कृति है। साथ ही भारत में प्रवेश करने का जो मार्ग आर्यों ने सदियों पहले अपनाया था, उसी मार्ग से उनके विदेशी हमलावर मुगल काल तक आते रहे। इस परम्परा को पहली बार अफनीसी निकितिन तथा वास्को डि गामा ने तोड़ा जो समुद्री मार्ग से भारत आये और जिनका अनुसरण बाद में अंग्रेजों ने किया।

बुद्ध और मार्क्स

भारत में दलितों से जुड़ा हुआ एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बौद्ध धर्म भी है, जिसके बारे में रामविलास शर्मा ने आर्य शैली का ही सहारा लेते हुए बौद्ध दर्शन को विकृत किया है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित उनके विचारों के विश्लेषण की पृष्ठभूमि में उनकी यह मान्यता विचारणीय है जिसमें उन्होंने लिखा है: ‘‘स्मरण रहे कि हड़प्पा सभ्यता का ह्रास उस समय होता है जब सरस्वती जलाक्षीण हो जाती है। इसलिए वैदिक सभ्यता या तो हड़प्पा सभ्यता की समकालीन होगी, या उससे पहले उसका अस्तित्व रहा होगा। हड़प्पा सभ्यता का ह्रास हो जाए, उसके बाद ऋग्वेद में सरस्वती को जल से भरा-पूरा कल्पित किया जाए, यह असम्भव है।’’ इस कल्पित अवधारणा पर ऐसा लगता है कि रामविलास शर्मा दुनिया-भर के इतिहासकारों के साथ आँख-मिचैनी खेलना चाहते हों। यह आँख-मिचैनी उनकी बौद्ध दर्शन के साथ भी जारी रहती है, जिसकी शुरुआत करते हुए उन्होंने लिखा है: ‘‘प्राचीन भौतिकवाद का विवरण बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में मिलता है। यह सदा विश्वसनीय नहीं है।’’ इस कथन को न्यायोचित ठहराने के लिए वे राहुल सांकृत्यायन का खंडन करते हुए उनके द्वारा प्रसिद्ध प्राचीन दार्शनिक अजित केशकंबली के बारे में लिखे गये तथ्यों का उल्लेख करते हैं: ‘‘यहाँ हमें अजित का दर्शन उसके विरोधियों के शब्दों में मिल रहा है, जिसमें उसे बदनाम करने की कोशिश जरूर की गई होगी।’’ यह उद्धरण राहुल के दर्शन-दिग्दर्शन से लिया गया है। हैरत की बात यह है कि राहुल सांकृत्यायन ने अजित केशकंबली के दर्शन के बारे में जो कुछ लिखा है, उसके बारे में रामविलास शर्मा ने एक शब्द का भी उल्लेख नहीं किया है। वे राहुल के उद्धरण को ऊपर जहाँ अधूरा छोड़ देते हैं, उसके आगे है: ‘‘अजित आदमी को चातुर्महाभौतिक (चारों भूतों का बना) मानता था। परलोक और उसके लिए किए जानेवाले दान-पुण्य तथा आस्तिकवाद को वह झूठ समझता था।’’ इसके बाद विरोधियों द्वारा बदनाम करने के लिए अजित के बारे में कहे गये तथ्यों का खंडन करते हुए राहुल ने लिखा: ‘‘किन्तु वह माता-पिता और इस लोक को नहीं मानता था, यह गलत है। यदि ऐसा होता तो वह वैसी शिक्षा न देता, जिसके कारण वह अपने समय का लोक-सम्मानित सम्भ्रान्त आचार्य माना जाता था, फिर तो उसे डाकुओं और चोरों का आचार्य या सरदार होना चाहिए था।’’ देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने बौद्ध धर्म को इतिहास का करिश्मा बताया है, किन्तु रामविलास शर्मा महाभारत की मूल दार्शनिक धारा को यथार्थवादी बताते हुए लिखते हैं: ‘‘इस महाकाव्य में भी अनेक परिवर्तन किये गये हैं, परन्तु यथार्थवादी दर्शन की मूल स्थापनायें जैसे यहाँ सुरक्षित हैं, वैसे बौद्ध और जैन ग्रन्थों में नहीं है। कालवाद, नियतिवाद आदि को कर्मविरोधी न मान लेना चाहिए।’’ रामविलास शर्मा की मूल समस्या यह है कि वे हर ब्राह्मणवादी मिथक को यथार्थवादी मानते हैं तथा वैज्ञानिक विचारोंवाले बौद्ध दर्शन, आदि को निरन्तर विरूपित करते हैं। यहाँ तक कि नियतिवादी दर्शन, जिसका आधार ही अन्धविश्वास तथा भाग्यवाद है, उसे वे कर्म-विरोधी न मानने की सलाह देते हैं। उन्होंने प्लेटो, नागार्जुन, शंकर तथा हेगेल को एक स्वर में भाववादी दार्शनिक बता डाला है। प्लेटो की बात तो समझ में आती है किन्तु उसके साथ नागार्जुन, शंकर, हेगेल को जोड़ना समझ के बाहर की बात है। यहाँ हर एक के विषय में बहस का मुद्दा नहीं है, किन्तु इतना अवश्य कहा जाएगा कि शंकर एक अद्वैतवादी एवं अत्यन्त बौद्धविरोधी दार्शनिक थे, जिन्होंने ब्राह्मणवाद एवं वर्ण-व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई थी। हेगेल का दर्शन विज्ञानवादी था, जबकि नागार्जुन एक प्रखर बौद्ध दार्शनिक थे। माध्यमक लिखकर नागार्जुन शून्यवाद के प्रवर्तक बने। वे बुद्ध के अनात्मवाद को शून्यवाद कहते थे। अतः रामविलास शर्मा द्वारा उन्हें भाववादी बताकर शंकर जैसे कर्मकांडी दार्शनिक के साथ जोड़ा जाना विश्व-दार्शनिक परम्परा को आमूल विकृत करने का प्रयास है। बुद्ध तथा नागार्जुन, दोनों को एक साथ विरूपित करते हुए रामविलास शर्मा ने लिखा है: ‘‘संसार को दुःख का कारण मानने, उसे अस्वीकार करने की जो प्रवृत्ति गौतम बुद्ध में थी, उसे नागार्जुन ने तर्कसंगत परिणति तक पहुँचाया। संसार एक भ्रान्ति है, मनुष्य की चेतना यह भ्रान्ति उत्पन्न करती है। कवि यदि संसार से आकर्षित होगा तो वह सत्य से विमुख होगा। यही कारण है कि नागार्जुन का प्रभाव साहित्यकारों पर कम-से-कम है। बौद्ध दर्शन के साथ धर्म जुड़ गया। भाववादी दर्शन और वैराग्यप्रेमी धर्मशास्त्र का यह गठबन्धन साहित्य के विकास में बाधक रहा।’’ उक्त कथन में रामविलास शर्मा ने सफेद झूठ का सहारा लिया है। गौतम बुद्ध संसार को दुःख नहीं, बल्कि वे संसार में दुःख मानते थे तथा उसका कारण एवं निवारण भी ढूँढ़ निकाला था। गौतम बुद्ध में कभी भी संसार को अस्वीकार करने की प्रवृत्ति नहीं थी। वे इसे कभी भ्रान्ति भी नहीं, बल्कि भ्रान्तिवाली अवधारणा वर्ण-व्यवस्थावादी शंकराचार्य जैसे हिन्दू दार्शनिकों की थी जिनका विश्वास ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ अर्थात् ‘ईश्वर सत्य है, यह दुनिया झूठी है’ में था। इसे बुद्ध या नागार्जुन के साथ जोड़ना दार्शनिक डकैती है। बौद्ध दर्शन के साथ धर्म जुड़ने से साहित्य का विकास कभी नहीं रूका। वास्तविकता यह है कि धर्म उन हिन्दुओं का होता है जो कर्मकांड करते हैं। बौद्धों का ‘धम्म’ होता है, जिसका अर्थ ‘सिद्धांत’ होता है। इसीलिए बुद्ध को तथागत अर्थात् अपने ही बताये गये मार्ग (सिद्धान्त) पर चलनेवाला कहा जाता है। रामविलासजी की कल्पित स्थापना कि ‘भाववादी दर्शन और वैराग्य प्रेमी धर्म-शास्त्र का यह गठबन्धन साहित्य के विकास में बाधक रहा’, ऐसा बौद्ध दर्शन या नागार्जुन के बारे में कहना आसमान को पाताल में देखने जैसा है। भाववादी दर्शन का विकास कभी जनता तक नहीं पहुँचता और न उसे क्रियात्मक रूप दिया जा सकता है। यूनानी दार्शनिक प्लेटो के ‘आदर्श राज्य में दार्शनिक राजा’ की अवधारणा ढाई हजार वर्ष पूर्व पूर्णतया असफल हो चुकी है। दो ही तरह के दर्शन का विकास जन-जन तक पहुँचता है। अन्धविश्वासी और दूसरा वैज्ञानिक। आर्य दर्शन या हिन्दू धर्म अन्धविश्वासी होने के ही कारण भारत में अभी तक कायम है, किन्तु कहीं बाहर नहीं जा सका। इस सन्दर्भ में अम्बेडकर ने सटीक कहा कि हिन्दू धर्म कभी मिशनरी धर्म इसलिए नहीं बन सका कि इसमें ऊँच-नीच का भेदभाव था। वहीं बौद्ध धर्म न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व के अनेक देशों में फैला, क्योंकि यह वैज्ञानिक तथा समानता के आधार पर विकसित हुआ था। यदि यह भाववादी होता, तो इसका विकास कभी भी नहीं हो सकता था। विडम्बना यह अवश्य है कि बौद्ध धर्म भारत में समाप्तप्राय हो गया। इसका कारण भी हिंसक हिन्दू धर्म है, जिसमें स्वयं रामविलास शर्मा के ही प्राचीन पूर्वजों का सबसे बड़ा हाथ है। वे बौद्ध ग्रन्थों में भौतिकवाद के विवरण को अविश्वसनीय कहते हुए इसकी जड़ें भी वेद-पुराणों में ढूँढ़ने का कृत्रिम प्रयास करते हैं, किन्तु यथार्थ का हमेशा दमन कर देते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भौतिकवादी जड़ों के कारण ही हिन्दुओं ने बौद्ध धर्म के खिलाफ जंग छेड़ी थी। इस सन्दर्भ में वैशेषिक दर्शन तथा न्याय के विख्यात् व्याख्याता वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आर्य का कथन विशेष रूप से विचारणीय है। उन्होंने लिखा है: ‘‘वैशेषिक में भौतिक तत्त्वों की विशेष चर्चा होने का मुख्य कारण यह भी है कि इसकी रचना का एक विशेष उद्देश्य बौद्धमत का खंडन और वैदिक सिद्धान्तों की स्थापना भी था। बौद्ध भौतिकवादी थे और वेदों के साथ ईश्वर का भी खण्डन करते थे। मध्य काल में उनका प्रभाव समस्त देश में बहुत अधिक व्याप्त हो गया था और कहने लगे थे कि बौद्ध धर्म के प्रचंड तेज के कारण वैदिक सूर्य डूब गया। अन्त में न्याय और वैशेषिक जैसे दर्शनकारों और कुमारिल भट्ट तथा शंकराचार्य जैसे धर्म-प्रचारकों ने बौद्धों का पराभव करके वैदिक सिद्धान्तों की पुनः स्थापना की। ऐसी स्थिति में वैशेषिकों ने भौतिक लाभ के आधार पर अपना प्रचार-कार्य करनेवाले बौद्धों का खंडन करने के लिए यदि उसी धरातल पर खड़े होकर प्राकृतिक तत्त्वों की वेद-सिद्धान्तानुकूल विवेचना की तो यह स्वाभाविक ही था।’’ यहाँ विद्वान स्वयं फैसला करें कि रामविलास शर्मा और पंडित श्रीराम शर्मा में मिथ्याभाषी कौन है ?

‘‘भाववादी दर्शन और वैराग्य-प्रेमी धर्मशास्त्र का यह गठबन्धन साहित्य के विकास में बाधक रहा’’, रामविलास शर्मा की बौद्ध दर्शन के विरुद्ध यह टिप्पणी उनकी भ्रान्त व्याख्या का ही परिणाम है। यदि उन्हें बौद्ध साहित्य की जानकारी नहीं है, तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सारे विश्व को उसकी जानकारी नहीं है। उक्त टिप्पणी यदि वे हिन्दू धर्म के बारे में करते, तो शत-प्रतिशत सत्य की कसौटी पर सही उतरते। बौद्ध दर्शन का वैराग्यप्रेमी धर्मशास्त्र से कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। शंकराचार्य ने तो वेदसम्मत हिन्दू धर्म की वैराग्य से सम्बन्धित स्थापित मान्यताओं से दो कदम आगे बढ़कर बचपन में ही संन्यास ले लिया था, जबकि हिन्दू परम्परा में ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ अवस्था के बाद संन्यास आता है। रामविलास शर्मा भारतीय साहित्य के नाम पर जिसे साहित्य कहते हैं, वह धर्मान्धता पर आधारित एक मिथक है, जिसे सही मायने में मुश्किल से साहित्य कहा जा सकता है। इसके विपरीत बौद्ध साहित्य ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ की अवधारणा पर विकसित होकर अति विशाल एवं विश्वव्यापी बन गया। यह बात और है कि भारत में रामविलास शर्मा द्वारा महिमा-मंडित वेद-प्रेमियों ने ही इसके बहुत बड़े हिस्से को अग्निकुंड में स्वाहा कर दिया। बौद्ध साहित्य को वेद-प्रेमियों द्वारा विनष्ट करने का अनुमान शंकराचार्य की आत्मकथा में वर्णित इन तथ्यों से लगाया जा सकता है, जिसे रामकृष्ण मठ के स्वामी अपूर्वानन्द ने मूल रूप से बंगला में लिखा था। आठवीं सदी में नालन्दा विश्वविद्यालय के विश्वविख्यात बौद्ध आचार्य धम्मपाल से कुमारिल भट्ट का शास्त्रार्थ हुआ था। शास्त्रार्थ की सिर्फ दो शर्तें थीं। हारनेवाला जीतनेवाले का धर्म स्वीकार कर लेगा या फिर धान की भूसी में आग लगाकर आत्मदाह। सर्वप्रथम शास्त्रार्थ में हारने के कारण कुमारिल भट्ट ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। बाद में आयोजित शास्त्रार्थ में विजयी हो गये, किन्तु धम्मपाल ने वैदिक धर्म स्वीकार न करके आत्मदाह कर लिया। इस घटना का विवरण शंकराचार्य की आत्मकथा में इस प्रकार है: ‘‘विशेष चेष्टा करने पर भी धम्मपाल पराजित हुए। कहा- मेरी पराजय का कारण कुमारिल भट्ट की प्रतिभा है। किन्तु बौद्ध धर्म में मेरी श्रद्धा नष्ट नहीं हुई है। मैं बुद्ध धर्म और संघ की शरणागति से विचलित नहीं हुआ हूँ। प्राण त्याग करना ही मैंने वरण कर लिया। धम्मपाल सत्यपालन के लिए तुषानल में प्रविष्ट हुए।’’ इसके आगे स्वामी अपूर्वानन्द ने लिखा है: ‘‘कुमारिल की इस विजय ने समस्त भारत के लोगों में वैदिक धर्म के नवजागरण की सृष्टि की। उस समय के मगधराज आदित्य सेन ने उस बौद्ध विजय को गौरवान्वित करने के लिए विशेष ठाट-बाट से कुमारिल भट्ट को प्रधान पुरोहित रखकर एक विराट अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। गौड़ देश के हिन्दू राजा शशांक नरेन्द्र वर्धन वैदिक धर्म के अनुरागी थे। उन्होंने मौका पाकर हिन्दू धर्म के विजय अभियान के रूप में बुद्ध गया के जिस बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर तथागत ने सिद्धि प्राप्त की थी, उस बोधि दु्रम को काट डाला और बौद्ध मन्दिर पर अधिकार स्थापित कर बुद्धदेव की मूर्ति को दीवाल उठाकर बन्द कर दिया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने तीन बार उस वृक्ष के मूल को खोदकर उसे समूल नष्ट कर दिया। कुमारिल भट्ट ने उत्तर भारत में सर्वत्र विजयी होकर बौद्ध और जैन धर्मों के प्राधान्य को नष्ट किया।’’ इस स्थिति पर प्रतिक्रिया में प्रसन्नता व्यक्त करते हुए ‘सर्वदर्शन संग्रह’ में लिखा:

           बौद्धापि नास्तिकध्वस्तो

           वेदमार्गः पुरा किल।

           भट्टाचार्यः कुमारांश

           स्थापयामास भूतले।।

अर्थात् ‘‘जिस वेदमार्ग का बौद्ध आदि नास्तिकों ने पुराने समय में विध्वंस कर दिया था, उसी को कुमारिल भट्ट ने फिर पृथ्वी पर स्थापित किया।’’ वेद-प्रेमियों द्वारा बुद्ध तथा बौद्ध प्रतीकों के विध्वंस से सम्बन्धित ऐसी घटनाओं से भारत का इतिहास भरा पड़ा है, जिसमें लाखों बौद्ध भिक्षुओं की हत्यायें भी शामिल हैं। इन घटनाओं से भली-भाँति अनुमान लगाया जा सकता है कि बौद्ध साहित्य को कितने बड़े स्तर पर विनष्ट किया गया होगा। इस विध्वंस से बची कुछ महत्त्वपूर्ण साहित्यिक एवं दार्शनिक पांडुलिपियों को लेकर जान बचाकर भागने वाले बौद्ध भिक्षु तिब्बत, चीन तथा श्रीलंका पहुँचे, जहाँ उन्हें सुरक्षित रखा जा सका। इन्हीं पांडुलिपियों में राहुल सांकृत्यायन ने सरहपा जैसे महान कवि तथा उनकी रचनाओं एवं धर्मकीर्ति जैसे महान दार्शनिक के प्रमाणवार्तिक का उद्धार किया था। किन्तु रामविलास शर्मा जहाँ भारतीय संस्कृति के नाम पर सिर्फ आर्य या हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दी प्रदेश के नाम पर हिन्दू प्रदेश की निरन्तर व्याख्या करते हैं, वहीं वे बौद्ध संस्कृति और साहित्य का नाम आते ही शुतुरमुर्ग के रूप में अवतरित हो जाते हैं।

विश्व साहित्य के विख्यात जर्मन विशेषज्ञ एम. विंटरनित्स ने लिखा है: ‘‘ऐसा बौद्ध साहित्य के कारण सम्भव हुआ कि हम इतिहास के गहन प्रकाश में प्रवेश कर सके तथा हमें यह भलीभाँति मालूम है कि यहाँ तक कि वैदिक एवं पौराणिक साहित्य के इतिहास के अन्धकारमय पन्ने भी इस प्रकाश से जगमगा उठते हैं।’’ विंटरनित्स ने विश्वसाहित्य के लिए बौद्ध विचारधारा को भारतीय मस्तिष्क की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपज बताते हुए उसके अध्ययन पर विशेष बल दिया है। बौद्ध साहित्य ऐसा साहित्य है, जिसकी शुरुआत जनतान्त्रिक मूल्यों तथा तर्क की कसौटी पर खरा उतरने के आधार पर हुई। गौतम बुद्ध के निर्वाण के तुरन्त बाद सम्राट अजातशत्रु की सहायता से राजगीर में प्रथम महासंगीति आयोजित की गई, जिसमें देश-भर से आये पाँच सौ विद्धान भिक्षुओं ने हिस्सा लिया। भिक्षु महाकश्यप की अध्यक्षता में सम्पन्न प्रथम महासंगीति में आनन्द बुद्ध की शिक्षाओं को याद करके सुनाते जाते थे तथा उपस्थित भिक्षुओं में से जिनके सामने उन उपदेशों को दिया गया था वे आनन्द की बात को सत्यापित करते जाते थे। इसके बाद सभी मिलकर उन उपदेशों का साथ-साथ संगायन करते थे। इस तरह आनन्द ने बुद्ध की मूल शिक्षाओं को सुत्तपिटक के रूप में सम्पादित किया, जिसमें दीर्घ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय शामिल थे। इसी प्रक्रिया का अनुगमन करते भिक्षु उपालि ने बौद्ध नियमों से सम्बद्ध विनयपिटक का सम्पादन किया तथा स्वयं महाकश्यप ने बुद्ध की शिक्षाओं के सैद्धान्तिक हिस्सों को अभिधम्म पिटक  के रूप में सम्पादित किया। इन सभी को एक साथ त्रिपिटक कहा गया।’ अतः संगठित बौद्ध साहित्य का उद्गम वैज्ञानिक तर्कणा के आधार पर हुआ, जिसकी नींव पर भावी बौद्ध दार्शनिकों, कवियों, नाटककारों तथा अन्य साहित्यकारों ने साहित्य की सर्जना की। इसके अतिरिक्त कला, मूर्तिकला, वास्तुकला, स्तम्भ लेखन (शिलालेख) आदि जैसी सौन्दर्यशास्त्रीय विधाओं का करिश्माई विकास भी बौद्ध साहित्य के प्रभाव से सम्पन्न हुआ। सम्राट अशोक के कार्यकाल में मोगलीपुत्र तिस्स ने कथावत्थु पकरण लिखकर तर्कणा-आधारित साहित्य की परम्परा को एक नया मोड़ दिया जिसे बाद में अभिधम्म पिटक के अभिन्न अंग के रूप में स्वीकार किया गया। कालान्तर में प्रथम सदी में साकेत के अश्वघोष ने बुद्धचरित लिखकर साहित्य की दुनिया में आत्मकथा लेखन की नींव डाली। वे नाटक विधा के भी जन्मदाता थे। इसके बाद नागार्जुन, दिग्नाग, असंग, वसुवन्धु, चन्द्रकीर्ति, धर्मकीर्ति आदि जैसे अनेक उद्भट दार्शनिक साहित्यकार हुए, जिनके प्रभाव में बौद्ध साहित्य अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। इसी कड़ी में बुद्धघोष और धम्मपाल ने बुद्ध के उपदेशों पर टिप्पणी करते हुए ‘अट्ठकथाएँ’ लिखीं। साथ ही, श्रीलंका में ‘दीपवंस’ तथा ‘महावंस’ साहित्य की रचना की गई। अट्ठकथाओं का युग लगभग पाँच सौ वर्षों तक (ग्यारहवीं सदी तक) चलता रहा। नागार्जुन के दर्शन ‘शून्यवाद’ पर अति विशिष्ट भाष्यकार के रूप में छठी सदी के चन्द्रकीर्ति ने प्रसन्नपदा (माध्यमिक वृत्ति) चतुःशतकवृत्ति उक्तसास्तिक वृत्ति आदि श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना की। सोलहवीं शताब्दी में जन्मे तिब्बत के विश्वविख्यात लामा तारानाथ ने नागार्जुन के बारे में लिखा: ‘‘आचार्य नागार्जुन ने विनय (बुद्ध के विनयपिटक यानी नियम) को पोषित तथा माध्यमक प्रणाली को विस्तारित किया। उन्होंने श्रावकों को विशेष रूप से नियम का उल्लंघन करनेवाले भिक्षुओं तथा श्रामणेरों को मठ से निकालकर अत्यन्त सहायता की, फिर भी वे संघ में बहुत प्रभावशाली बने रहे। कहा जाता है कि ऐसे भिक्षुओं तथा श्रामणेरों की संख्या आठ हजार थी।’’ लामा तारानाथ आगे लिखते हैं कि आचार्य नागार्जुन ने 108 मठों में महायान के 108 केन्द्रों की स्थापना की थी।

नागार्जुन की तर्कणा शक्ति इतनी तीव्र थी कि बाद का कोई भी दार्शनिक उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। इस कड़ी में धर्मकीर्ति का कोई जवाब नहीं था, जिनके बारे में विंध्याचल के एक राजा उत्पलपुष्प ने अपने महल के मुख्य द्वार पर लिखवा रखा था- ‘‘यदि शरणार्थियों में सूर्य के समान धर्मकीर्ति का अस्त हो जाता है या उनके सिद्धान्त सुप्त या विलुप्त हो जाते हैं तो तीर्थ के पंडों के फर्जी सिद्धान्तों का उदय होगा।’’ यही कारण था कि उनके समकालीन ईष्या करने वाले पंडितों ने धर्मकीर्ति की रचनाओं को कुत्ते की पूँछ में बाँधकर उसे गलियों तथा गाँवों में दौड़ाया, ताकि उन्हें नष्ट किया जा सके। इस तरह हम देखते हैं कि अनगिनत बौद्ध दार्शनिक साहित्यकारों ने अपनी तर्कसंगत रचनाओं के माध्यम से बौद्ध साहित्य को लोकप्रिय बनाया था। यह प्रक्रिया सदियों तक चलती रही, किन्तु उसके अधिकतर हिस्से को इन्हीं वर्ण-व्यवस्थावादी तीर्थिकों ने हमेशा के लिए नष्ट कर दिया, जिसका रामविलास शर्मा ने कहीं जिक्र तक नहीं किया है, जिससे साफ जाहिर होता है कि बौद्ध संस्कृति तथा साहित्य को वे अपने तथाकथित हिन्दी प्रदेश की संस्कृति का हिस्सा नहीं मानते। उल्टे वे लिखते हैं- ‘‘भाववादी बौद्ध दार्शनिक लगभग 600 वर्षों तक सांख्य, लोकायत, वैशेषिक आदि भारतीय दर्शन की यथार्थवादी धाराओं का विरोध करते रहे, परन्तु उन्हें नष्ट न कर सके।’’ जबकि, हकीकत यह है कि कोई भी बौद्ध दार्शनिक कभी भाववादी नहीं था और न किसी ने किसी दर्शन को कभी नष्ट करने की कोशिश की। यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि समानता, शान्ति तथा विश्वबन्धुत्व पर आधारित बौद्ध दर्शन विश्व-भर में फैला किन्तु अन्धविश्वासी कर्मकांड एवं ऊँच-नीच पर आधारित वैदिक विचारधारा के पोषकों ने स्वयं इसे हिंसा के बल पर भारत में नष्ट किया। बौद्ध दर्शन को नष्ट करने की जिस आदि शंकराचार्य ने दार्शनिक नींव डाली, उन्हें रामविलास शर्मा भी प्रच्छन्न अर्थात् छिपे हुए बुद्ध कहकर पुकारने में नहीं हिचकते, किन्तु जाने या अनजाने में वे यह भी लिखते हैं कि शंकर का जितना विरोध बौद्धों से था, उतना ही उनका विरोध लोकायतवादियों, सांख्य, वैशेषिक आदि के अनुयायियों से भी था। बौद्धों तथा लोकायतवादियों के सन्दर्भ में शंकर का विरोध सही है, किन्तु सांख्य के साथ-साथ वैशेषिक आदि का शंकर द्वारा विरोध स्वयं में रामविलासजी की सोच का विरोधाभास है। वास्तविकता यह है कि इन दर्शनों के अनुयायियों ने शंकराचार्य के साथ मिलकर बौद्धों के विरुद्ध अभियान चलाया था। वैशेषिक दर्शन के जनक कणाद के बारे में वेदमूर्ति श्रीराम शर्मा आचार्य ने लिखा है: ‘‘उस समय महर्षि कणाद और महर्षि गौतम ही धर्म रक्षार्थ कटिबद्ध हुए और उन्होंने अपनी विद्या, बुद्धि तथा कार्यकुशलता द्वारा बौद्ध धर्म के जोरदार प्रवाह को रोककर फिर से प्राचीन सिद्धान्तों की रक्षा और स्थापना की।’’ इस कड़ी में एक तथ्य साफ तौर पर उभरकर सामने आता है कि शंकराचार्य की ही तरह रामविलास शर्मा भी बौद्ध-विनाशक हैं। वे उन्हीं की तरह अवतारवादी भी हैं, इसलिए लिखते हैं: ‘‘अवतार पहले भी हुए थे, ब्रह्मा तथा अन्य देवों के अवतार हुए थे। विष्णु के अवतार भी हुए थे, पर कोई अवतार शारीरिक रूप से इतना आकर्षक नहीं था, जितना भागवत के कृष्ण थे।’’ वे ब्राह्मण गुणगान में पुराणों को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं। इस सन्दर्भ में रामविलास शर्मा उसकी पहचान छिपाने के लिए भ्रमजाल का सहारा लेते हुए अन्य ब्राह्मण प्रशंसक ग्रन्थों से अनेक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, ताकि पाठकगण उन्हें ब्राह्मणवादी मान लेने की भूल न कर बैठें। ऐसे ही एक उद्धरण में वे लिखते हैं: ‘‘ब्राह्मण ही आर्य साहित्य के विशाल समुद्र को भरने वाले एवं अक्षुण्ण रखनेवाले थे। युगों से जो संस्कृति प्रवाहित होती रही, उसके संरक्षक ब्राह्मण ही तो थे। यह मानी हुई बात है कि सभी ब्राह्मण एक से नहीं थे, किन्तु बहुत से ऐसे थे जिन पर आर्य जाति की संपूर्ण संस्कृति का भार रखा जा सका और उन्होंने उसका विकास, संरक्षण एवं संवर्धन करने में अपनी ओर से कुछ भी उठा न रखा। इसी से आर्य जाति ब्राह्मणों के समक्ष सदैव नत रही है।’’ इस तरह के उद्धरणों की भरमार करते हुए रामविलास शर्मा ने कहीं भी यह जरूरी नहीं समझा कि जिस आर्य संस्कृति का संवर्धन ब्राह्मणों ने किया, उससे इस देश में सदियों से वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत सिर्फ ऊँच-नीच, खून-खराबा, अशिक्षा, दारुण गरीबी एवं अत्याचारों का ही संरक्षण होता रहा। इस तरह ब्राह्मणवाद के गुणगान में उनकी स्तालिनवादी प्रतिबद्धता कहीं बाधक नहीं होती, किन्तु पाठकीय स्वाद बदलने के लिए ऋग्वेद, भागवत आदि ग्रन्थों में व्यंग्यस्वरूप वेदपाठी ब्राह्मणों की मेढकों से की गई तुलना का उल्लेख करना नहीं भूलते, जैसे: ‘‘जो मेढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलों की गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे- जैसे नित्य-नियम से निवृत्त होने पर गुरु के आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं।’’ इस उक्ति के सुन्दर अनुवाद के लिए वे तुलसीदास के रामचरितमानस से किष्किंधा कांड का भी उल्लेख करते हैं- ‘दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई – वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।’

ब्राह्मण महिमा मंडन की प्रक्रिया में रामविलास शर्मा ने बुद्ध को कदम-कदम पर समेटने की कोशिश की है, जिसके लिए उन्होंने ‘दीर्घ निकाय’ तथा ‘अंगुत्तर निकाय’ से बुद्ध के उपदेशों का व्यापक रूप से उल्लेख किया है। अपने उपदेशों को सरलता से समझाने के उद्देश्य से बुद्ध देवों, यज्ञों, पुनर्जन्म आदि का अक्सर उल्लेख किया करते थे। ऐसे उद्धरणों के माध्यम से रामविलास जी ने वैदिक कर्मकांडों को न्यायोचित ठहराने का अथक प्रयास किया है। उदाहरण के लिए एक बार बुद्ध ने एक ब्राह्मण से कहा : ‘‘ब्राह्मण, न मैं सभी यज्ञों की प्रशंसा करता हूँ और न मैं सभी यज्ञों की निन्दा करता हूँ। ब्राह्मण, जिन यज्ञों में गौओं की हत्या होती है, बकरी-भेड़ों की हत्या होती है, मुर्गों-सूअरों की हत्या होती है तथा अन्य नाना प्रकार के प्राणियों की हत्या होती है, हे ब्राह्मण! मैं इस प्रकार के हिंसक यज्ञ की प्रशंसा नहीं करता…।’’ इस उक्ति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वे लिखते हैं: ‘‘वैदिक संस्कृति के ह्रासकाल में यज्ञ सम्बन्धी हिंसा बहुत बढ़ गई थी। बुद्ध ने उचित ही उसकी तीव्र आलोचना की है; किन्तु वह यज्ञ मात्र के विरोधी नहीं थे।’’ यहाँ उन्होंने दो स्तर पर तथ्यों का विरूपण किया है। एक, आर्यों ने जिन यज्ञों की नींव डाली उनमें हिंसा शुरू से ही अपनी चरम सीमा पर थी जिसमें न सिर्फ पशुबलि बल्कि नरबलि भी शामिल थी। इसलिए उनका यह कहना कि सिर्फ वैदिक संस्कृति के ह्रासकाल में हिंसा बढ़ गई थी, सर्वथा गलत है। दूसरा, बुद्ध हर प्रकार के कर्मकांड तथा अन्धविश्वासों के प्रबल विरोधी थे। अतः उपर्युक्त ब्राह्मण से यज्ञों के बारे में कहे गए बुद्ध के वचनों का यह अर्थ निकालना कि वे अहिंसक यज्ञों के विरोधी नहीं थे, उनकी शिक्षाओं का क्रूर उल्लंघन है। इसी तरह बुद्ध ने संसार में दुःख की बात करते हुए जन्म को ही दुःख का कारण माना। जाहिर है, जो जन्म नहीं लेगा, उसे दुःख कैसा? बुद्ध के इस महान दार्शनिक चिन्तन को अत्यंत सतही ढंग से तोड़ते-मरोड़ते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं: ‘‘इस विचारधारा के अनुसार संसार का अस्तित्व और उस संसार में मनुष्य का जन्म सबसे बड़ी दुखद घटना है। यह निराशावादी दृष्टिकोण है, मानवता का विरोधी है। उपनिषदों के ऋषियों के यहाँ ऐसा चिन्तन नहीं है…।’’  जिस बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’ का नारा दिया, उससे बढ़कर मानवता-प्रेमी कौन हो सकता है? क्या कोई निराशावादी ऐसी कल्पना कर सकता है? बुद्ध ने स्वयं आशावाद-निराशावाद की सर्वोत्तम व्याख्या की है : ‘‘आशावादी वे लोग हैं जो उच्च कुल में पैदा हुए हैं, जो राजा बनने का स्वप्न देख सकते हैं, जिनकी बिरादरी के लोग अभिषिक्त होते हैं, लेकिन वे लोग जो निम्न वर्ग में पैदा हुए हैं जिनके पास सम्पत्ति नहीं है, जो रोगग्रस्त हैं और निर्धनता से छुटकारा नहीं पा सकते, उनके खाने-पीने, सोने-रहने की व्यवस्था नहीं है, ऐसे लोग निराशावादी हैं, इनके लिए भविष्य अन्धकारमय है। इस समाज में सम्पत्ति की रक्षा करना बहुत जरूरी है। उसकी रक्षा के लिए कानून बना हुआ है, लेकिन कानून सबके लिए एक-सा नहीं है। जो धनी है वह कानून की पकड़ से बच जाता है, जो निर्धन है वह मारा जाता है।’’ बुद्ध की इस उक्ति से रामविलास शर्मा की विरूपित कुतर्क-क्षमता का पर्दाफाश इसलिए भी हो जाता है कि उपर्युक्त उद्धरण को उन्होंने ही ‘अंगुत्तर निकाय’ से स्वयं अन्य सन्दर्भ में उद्धृत किया है। उन्होंने एक ही तथ्य को तोड़ने-मरोड़ने का क्रम बार-बार दोहराया है। बुद्ध ने वैदिक पुनर्जन्म, जिसका मूल आधार अन्धविश्वास है, का खण्डन करते हुए ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ का वैज्ञानिक सिद्धान्त दिया है, जिसका अति सरल अर्थ यह है कि एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति। इस सन्दर्भ में उन्होंने साफ कहा कि जिस किसी भी वस्तु का जन्म होता है, उसका विनाश अवश्यम्भावी है, किन्तु उस रूप में नहीं, उसका स्वरूप बदल जाता है, जिसमें आत्मा के लिए कोई स्थान नहीं होता। इसे और भी साफ करते हुए बुद्ध ने कहा कि किसी भी जीवधारी की मृत्यु के साथ ही उसका हमेशा के लिए विलोप हो जाता है, जिसे ‘निर्वाण’ कहते हैं, अर्थात् पुनर्जन्म से सम्पूर्ण मुक्ति। यही ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ तथा निर्वाण बुद्ध के दर्शन की एकमात्र कुंजी है, जिसके कारण दुनिया के अनेक वैज्ञानिकों-दार्शनिकों ने बुद्ध को मानव जाति का पहला वैज्ञानिक बताया। बुद्ध इस दुनिया को ईश्वर की कृति नहीं मानते थे। किन्तु रामविलास शर्मा ने बुद्ध के ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ को विकृत करते हुए लिखा है: ‘‘हर प्रपंच का कोई कारण होता है। मनुष्य जो दुःख सहता है उसका मूल कारण यह है कि वह जन्म लेता है। जन्म न ले तो दुःख के पैदा होने की सम्भावना ही न होगी। इस तरह बुद्ध का प्रतीत्य समुत्पाद केवल वैराग्य की ओर नहीं, वरन् शून्यवाद की ओर ले जाता है।’’ यदि ये बातें रामविलास शर्मा हिन्दू दर्शन के बारे में करते, तो वे निश्चित रूप से सत्यवादी कहलाते। बुद्ध का दर्शन कभी भी वैराग्य प्रेमी नहीं था। इसकी झलक जो भी थोड़ी-बहुत श्रमण-भिक्षुओं में मिलती है, वह सर्वोच्च नैतिक मूल्यों तथा विश्व कल्याणकारी त्याग पर आधारित है जिसका पालन भिक्षु संघ में किया जाता है। आम उपासकों तथा जनता से इस तथाकथित वैराग्य का कुछ लेना-देना नहीं है। साथ ही, जिस शून्यवाद का प्रचार नागार्जुन ने किया, वह बुद्ध के अनात्मवाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः इन सन्दर्भों में रामविलास शर्मा ने कर्मकांडी ब्राह्मणों के कुतर्क को ही न्यायोचित ठहराने की कोशिश की है। ब्राह्मणवादी लेखक डी.आर.भण्डारकर के माध्यम से रामविलास शर्मा महाभारत तथा धर्मशास्त्रों के सदाचार तथा बौद्ध सम्राट अशोक के बताए गये सदाचार में कोई बुनियादी फर्क नहीं मानते। इस सन्दर्भ में वे भूल जाते हैं कि महाभारत तथा सभी धर्मशास्त्रों के सदाचार के पीछे अत्यन्त शोषणकारी वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा थी, जबकि अशोक इसका विरोधी था। उन्होंने बौद्ध धर्म के विरुद्ध अनर्गल प्रचार करने वाले तथा हिन्दू धर्म को सदाचारी ठहराने वाले सभी लेखकों की उक्तियों का सहारा लेते हुए उन्हीं घिसे-पिटे आरोपों को दोहराया है, जिनमें कहा गया है कि बौद्ध मठ तथा संघ धन-सम्पदा से पट गये थे, तथा वहाँ अनाचार होने लगा था, इसलिए उसका पतन हो गया। ऐसा लिखकर वे यह छाप छोड़ना चाहते हैं कि हिन्दू धर्म सदाचारी तथा धन-सम्पत्ति विरोधी है। ऐसा लिखकर वे ब्राह्मणों के बौद्ध-विरोध तथा धन-सम्पत्ति विरोधी है। ऐसा लिखकर वे ब्राह्मणों के बौद्ध-विरोधी तथा समाज-विरोधी हिंसक कुकृत्यों को छिपा भी लेते हैं। हिन्दू मन्दिरों में चढ़ावे के माध्यम से अर्जित होनेवाली अपार धन-सम्पदा तथा हजारों देवदासियों के शारीरिक शोषण आदि की रामविलास शर्मा ने आलोचना तक नहीं की है, विरोध की बात तो दूर की है। हाँ, उन्होंने इतना जरूर उल्लेख किया है कि विध्वंस से पहले अकेले सोमनाथ के मन्दिर में 350 नर्तकी देवदासियाँ काम करती थीं तथा पूरे गुजरात के चार हजार मन्दिरों में 20 हजार से अधिक, इस तरह की नर्तकी देवदासियाँ थीं। वे अन्यत्र कहते हैं कि सोमनाथ मन्दिर के जिस कक्ष में शिवलिंग था, उसके आगे सोने की जंजीर थी जिसे खींचने से घंटा बजता था। उस सोने की जंजीर का वजन 200 मन था। शिवलिंग की पूजा के लिए एक हजार ब्राह्मण नियुक्त किए गए थे। यात्रियों की हजामत के लिए 300 नाई थे। मन्दिर के अधिकार में 10 हजार गाँव थे, जिसकी आमदनी से उसका खर्च चलता था। इस सन्दर्भ में इतिहासकार डी.सी.गांगुली का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि महमूद गज़नी जनवरी, 1050 के मध्य में सोमनाथ पहुँचा। वहाँ उसने देखा समुद्रतट पर खूब सुरक्षित दुर्ग है। बंदरगाह के बड़े प्रांगण में हिन्दू एकत्र थे और वे जश्न मना रहे थे। उन्हें विश्वास था कि मुसलमानों ने दूसरी जगह मूर्तियाँ तोड़ी हैं, उस पाप का दंड देने के लिए सोमनाथ ने इन मुसलमानों को वहाँ आकर्षित किया है और वह उनका नाश कर देंगे। आगे क्या हुआ, सारी दुनिया जानती है। वहाँ का राजा बिना लड़े ही भाग गया। महमूद ने जो चाहा वह किया।

किन्तु बौद्ध दर्शन एवं बौद्ध सम्राटों की भूमिका को विकृत करने में रामविलास शर्मा ने कोई हिचक नहीं प्रदर्शित की है। बौद्ध धर्म के विनाश में ब्राह्मणवाद समर्थक पुष्यमित्र द्वारा अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की धोखे से की गई हत्या एक ऐतिहासिक मोड़ थी। वे पुनः विभिन्न ग्रन्थों से ली गई बौद्ध-विरोधी स्थापनाओं के आधार पर पुष्यमित्र का गुणगान करते हैं। ‘लोग कमजोर मौर्य शासकों से असन्तुष्ट थे’, या ‘विदेशी आक्रमण का जो विनाशकारी प्रभाव मौर्य शासन पर पड़ रहा था, उससे पुष्यमित्र को सत्ता हथियाने की प्रेरणा मिली’ आदि जैसे इतिहासभंजक तथ्यों को वे दोहराते हैं। पुष्यमित्र द्वारा किए गये अश्वमेध यज्ञों को भी वे महिमामंडित करते हैं। इस सन्दर्भ में वे कालिदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ नामक संस्कृत नाटक के पाँचवें अंक को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि रनिवास का सेवक सारसिक मालिन मधुकरिका से कहता है: ‘‘जब से अश्वमेध के घोड़ों की रक्षा के लिये राजकुमार वसुमित्र सेनापति बनाये गये हैं तभी से उनके चिरंजीवी होने के लिए योग्य ब्राह्मणों को चार सौ स्वर्ण मुद्राओं के बराबर दक्षिणा में दिया जाता है।’’ इतना ही नहीं, एक अन्य मिथ्या तथ्य का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं: ‘‘पंजाब में बौद्ध धर्म खुलकर यूनानी हमलावरों का साथ दे रहा था, ऐसा प्रतीत होता है। इससे विश्वासघातकों के प्रति जैसा व्यवहार करना चाहिए, उसके लिए पुष्यमित्र को पर्याप्त कारण मिल गया था। पुष्यमित्र की शत्रुता बौद्ध धर्म से नहीं थी।’’ पुुष्यमित्र शुंग को लेकर संघ परिवार बौद्ध धर्म के खिलाफ जिस तरह वर्षों से मिथ्या प्रचार कर रहा है, उन्हीं मिथकों की रामविलास शर्मा डुगडुगी बजा रहे हैं, जो इतिहास-भंजन का न्यूनतम स्तर है। पुष्यमित्र ने ब्राह्मण धर्म तथा उसके मिथकीय कर्मकांडों की रक्षा के लिए विश्वासघात द्वारा बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की हत्या की थी, क्योंकि उसे स्वयं सम्राट ने ही अपना सेनापति नियुक्त किया था। चूँकि बौद्ध धर्म इन कर्मकांडों का विरोधी था, इसलिए पुष्यमित्र ने उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए बृहद्रथ की हत्या के तुरन्त बाद अश्वमेध यज्ञों की भरमार कर दी। इन कर्मकांडों का उसके समकालीन पतंजलि ने पुष्यमित्र का जमकर साथ दिया। सोलहवीं सदी के विख्यात तिब्बती लामा तारानाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घनघोर दुश्मन था तथा उसने मध्यदेश से लेकर पंजाब के जालन्धर तक सैकड़ों मठों को जलाकर ध्वस्त करने के साथ-साथ अनेक विद्धान बौद्ध भिक्षुकों की हत्या कर दी थी। पुष्यमित्र ने पाटलीपुत्र के विख्यात बौद्धमठ कुक्कुटराम को भी ध्वस्त करने की कोशिश की थी, किन्तु अन्दर से सिंह के दहाड़ने जैसी आवाज सुनकर भाग गया। तारानाथ आगे कहते हैं कि पुष्यमित्र के अत्याचार से अधिकांश बौद्ध भिक्षु भागकर दूसरे देशों में चले गये थे। इसके परिणामस्वरूप पाँच वर्षों के अन्तर्गत उत्तर भारत में ‘धम्म’ का विलोप हो गया। इस कड़ी में रामविलास शर्मा ने विरूपित तथ्यों के आधार पर प्रथम सदी के महान बौद्ध कवि अश्वघोष पर कालिदास की शैली का अनुसरण करने जैसा आरोप लगाया है जिसका अर्थ यह हुआ कि कालिदास अश्वघोष से पहले अवश्य पैदा हुए होंगे; जो सरासर गलत है। भारत सहित दुनिया के अनेक विद्वानों ने इस तथ्य को उजागर किया है कि कालिदास अश्वघोष के बहुत बाद पैदा हुए थे तथा उन पर अश्वघोष की अमिट छाप है। भारतीय साहित्य के विख्यात् जर्मन मर्मज्ञ विंटरनित्स अश्वघोष को कालिदास का अति विशिष्ट पूर्वाधिकारी मानते हैं।’’ प्रसिद्ध भारतीय बौद्ध भिक्षु कुमारजीव ने चीन जाने के बाद अश्वघोष की आत्मकथा का चीनी भाषा में अनुवाद सन् 401 तथा 409 के बीच किया था। सातवीं सदी के प्रसिद्ध चीनी भिक्षु यात्री इत्सिंग के अनुसार उस समय भारत के बौद्ध मठों में बुद्ध भक्ति में रचित अश्वघोष के गाये जानेवाले पदों का गायन हुआ करता था। तिब्बती स्रोतों से पता चलता है कि अश्वघोष एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ भी थे। वे गायक-गायिका-तरुण-तरुणियों के साथ साकेत के हाट-बाजारों में घूम-घूमकर बाजा-गाजा के साथ संगीत की मधुर तान बिखेरा करते थे, जिसके माध्यम से आम जनता में बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ता था। इन्हीं स्रोतों के अनुसार अश्वघोष की तार्किक क्षमता अद्भुत थी, जो अपने सामने विपक्षियों को वैसे ही उखाड़ फेंकते थे जैसे तूफानी हवाएँ सड़ी जड़वाले पेड़ों को। अश्वघोष द्वारा प्रथम सदी में रचित बुद्ध की काव्यात्मक आत्मकथा बुद्धचरित सौन्दर्यशास्त्रीय शैली का एक अद्भुत ग्रन्थ है, जिसका कालिदास समेत आने-वाले सभी कवियों ने अनुसरण किया। उदाहरण के लिए राजकुमार के रूप में सिद्धार्थ जब महल से निकलकर नगर में प्रवेश करते थे तो स्त्रियाँ किस तरह उन्हें देखने को लालायित हो उठती थीं, इसका अति आकर्षक वर्णन अश्वघोष ने बुद्धचरित के तीसरे सर्ग ‘संवेग उत्पत्ति’ में श्लोक 13 से 23 के बीच किया है, जिससे उपमा की एक अतीव अलंकृत झलक मिलती है। इन श्लोकों में अश्वघोष कहते हैं कि ‘राजकुमार आ रहे हैं’, नौकरों के माध्यम से ऐसा सुनते ही नगर की स्त्रियाँ उन्हें देखने के लिए इतना व्याकुल हो गईं कि वे घर के बड़ों से अनुमति प्राप्त कर अपने घरों की छतों तथा खिड़कियों पर धमक पड़ीं। इस दौड़ की प्रक्रिया में उनकी मेखला (करधनी) कमर के नीचे सरक जाती थी, जिससे वे बाधित हो जाती थी। अभी सोकर उठने से अलसाई हुई आँखों के साथ वे आनन-फानन में गहने पहनकर दौड़ पड़ीं। वे पालतू पक्षियों के झुंड के कोलाहल को शान्त करने के लिए अपनी मेखलाओं तथा नुपूरों को खनखनाकर उन्हें डराती हुईं एक-दूसरे के ऊपर गिरती-पड़़ती दौड़ पड़ीं। उत्सुकता से व्याकुल जल्दी-जल्दी भागने के चक्कर में उनके विशाल नितम्ब तथा उरोज बाधक बन गए। कई स्त्रियों ने तेज दौड़ सकने के बावजूद शर्म से अपनी चाल धीमी कर दी तथा एकान्त में पहने गहनों को लज्जावश छिपाने लगीं, आदि, आदि।

 वर्ण व्यवस्था के विरोध में लिखी गई अश्वघोष की वज्रसूची (हीरे की सूई) सबसे प्राचीन रचना है, जिसके कारण उनकी कृतियों की तरह यह भी सदियों तक विलुप्त रही। यदि उनकी रचनाओं के तिब्बती तथा चीनी अनुवाद नहीं होते तो सम्भवतः वे सदा के लिए अदृश्य हो गई होतीं। संस्कृत में नाट्य-लेखन की परम्परा को अश्वघोष ने ही शुरू किया था। हर विधा की रचनाओं में अश्वघोष ने बौद्ध सिद्धान्तों को सौन्दर्यशास्त्रीय शैली में प्रस्तुत किया। बाद के लगभग सभी परम्परावादी संस्कृत कवियों ने अश्वघोष की सौन्दर्यशास्त्रीय शैली को तो अवश्य अपनाया, किन्तु उनके बौद्ध सिद्धान्तों का हर एक ने जमकर विरोध किया। चूँकि अश्वघोष की रचनाओं में वर्ण-व्यवस्था तथा वैदिक कर्मकांडों का विरोध एक सामान्य प्रक्रिया है, इसलिए ब्राह्मणवादी संस्कृत कवियों ने वर्ण-व्यवस्था तथा कर्मकांडों के समर्थन में पौराणिक विषय-वस्तुओं तथा पात्रों को अपनाया। ऐसे संस्कृत कवियों तथा नाटककारों में भास, कालिदास, शूद्रक, बाण, भवभूति, भारवि, क्षेमेन्द्र, सोमदेव, श्रीहर्ष, नारायण भट्ट तथा नीलकंठ दीक्षित आदि शामिल हैं।

 उलटे, रामविलास शर्मा द्वारा अश्वघोष को कालिदास का एक तरह से नकलची साबित करने की कोशिश आश्चर्यजनक है। इसे अश्वघोष के साहित्य तथा उनके जीवनकाल के बारे में उनकी अनभिज्ञता ही कहा जायेगा। भारतीय साहित्य के एक उद्भट विद्वान विमल चरण लाहा ने एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित अपने एक ग्रन्थ में अश्वघोष की सौन्दर्यपूर्ण शैली से सम्बन्धित उत्कृष्ट श्लोकों तथा उसके प्रभाव में लिखी गई कालिदास की काव्य-रचनाओं का एक महत्वपूर्ण ‘चार्ट’ प्रस्तुत किया है, जिससे रामविलास शर्मा द्वारा अश्वघोष के बारे में बुना गया भ्रमजाल अपने आप तार-तार हो जाता है। इस चार्ट के प्रस्तुतीकरण से पहले उन्होंने अपने विश्लेषण में लिखा: ‘‘अश्वघोष तथा कालिदास के बीच ऐतिहासिक सम्बन्ध में निकटतम एवं सर्वाधिक स्पर्शगोचर तथ्य यह है कि यद्यपि सभी दृष्टान्तों में प्रत्यक्ष उधारी के प्रमाण निर्णायक रूप से नहीं मिलते, किन्तु दोनों की रचनाओं से कुछ लाक्षणिक बन्द नीचे (यानी किताब में-ले.) दिये गए हैं, जिनसे यथेष्ट संकेत मिल जाता है कि कालिदास ने जिस रूप में अपने विचारों को प्रस्तुत किया, उसके लिए वह अपने बौद्ध पूर्वज के ऋणी थे।’’ चैथी-पाँचवीं सदी के महान बौद्ध दार्शनिक तथा विज्ञानवाद के जनक दिग्नाग का समकालीन भारतीय जनमानस पर बहुत गहरा प्रभाव था। कालिदास भी एक बौद्धविरोधी साहित्यकार थे, यद्यपि वे सीधे-सीधे बौद्ध धर्म पर प्रहार नहीं करते थे। किन्तु औरों की तरह वे भी कर्मकांडों तथा पौराणिक पात्रों का चयन करते थे। इसी कड़ी का उनका ग्रन्थ रघुवंश है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है: ‘‘दिग्नागानां पथि परिहरन्’’- मेघदूत के इस वाक्य में दिग्नागों के पथ को छोड़कर चलने को कहा गया है। यहाँ महान बौद्ध नैयायिक दिग्नाग सांकेतित हैं।’’ इस कथ्य से भी सिद्ध होता है कि कालिदास बौद्ध-विरोधी परम्परा के समर्थक थे। इतिहासकार राजबली पांडे का मत कि कालिदास 500 ई. के बाद पैदा हुए थे, बिल्कुल सही लगता है। जिस समय भारत में कर्मकांडी ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध-विरोधी अभियान अपनी चरम सीमा पर था तथा वैदिक कर्मकांडों को पुनर्जीवित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे थे, उसी रणनीति का एक अभिन्न अंग वैष्णव पंथ था जिसमें कीर्तन के माध्यम से अन्धविश्वासों को अत्यन्त लोकप्रिय बनाया गया है। इसमें संगीत की बेहद प्रमुखता थी, जिससे ग्रामीण जनता अधिक प्रभावित हुई। इस तरह मनोरंजन के साथ ही अन्धविश्वासों का बोलबाला हो गया तथा वर्ण-व्यवस्था को एक नई दिशा मिली। कुछ सन्तों ने अस्पृश्यता का विरोध जरूर किया जिसके पीछे उनका मूल उद्देश्य अछूतों को बौद्धों के चंगुल से छुड़ाना था, न कि वर्ण-व्यवस्था का विरोध करना। किन्तु रामविलास शर्मा लिखते हैं: ‘‘महाभारत और पुराणों के कुछ कवि देश के भीतर और बाहर की गण-व्यवस्था से परिचित थे। विष्णु को गणप्रतीकों से जोड़कर उन्होंने वैष्णव मत को लोकप्रिय बनाया। कश्यप, वराह, मत्स्य- सब विष्णु के अवतार हो गये। भक्ति-भावना पहले भी थी, व्यापक रूप से उसका प्रचार वैष्णव मत के साथ, सम्भवतः गुप्त काल, में हुआ। आगे बढ़े हुए जनों से पिछड़े हुए गणों को जोड़कर भक्ति और वैष्णव मत ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ किया। यह उसकी प्रगतिशील भूमिका थी।’’  वैष्णव मतावलम्बियों का गुणगान करके रामविलास शर्मा उनके बौद्धविरोधी अभियान तथा अन्धविश्वासी कर्मकांडों को छिपा लेते हैं। वैष्णव मत से राष्ट्रीय एकता कभी सुदृढ़ नहीं हुई, बल्कि इससे देश-भर में वर्ण-व्यवस्था सुदृढ़ हुई। इस सन्दर्भ में इसकी भूमिका प्रगतिशील न होकर सामाजिक रूप से विघटनकारी थी। हाँ, वैष्णव मत ने सारे देश के ब्राह्मणों के बीच एकता को सुदृढ़ अवश्य किया। एक जगह अन्यत्र रामविलासजी लिखते हैं: ‘‘वैष्णव मतावलम्बियों ने यज्ञ में पशुबलि का विरोध किया। इसका उल्लेख महाभारत में है। आगे चलकर कबीर आदि सन्त सब वैष्णव मतावलम्बी बने। शाक्तों से उनका विरोध था, इसलिए कि शाक्तों में बलि प्रथा का प्रचलन बना रहा।’’ वैष्णव मतावलम्बियों द्वारा यज्ञों में पशुबलि के विरोध से पता चलता है कि वे यज्ञ तथा बलि विरोधी बौद्धों के प्रभाव को मिटा देना चाहते थे क्योंकि मूल रूप से यह अभियान बौद्धों का ही था। हैरत की बात यह है कि वैष्णवपंथी पशुबलि का तो विरोध कर रहे थे, किन्तु यज्ञ आदि कर्मकांडों का नहीं, उलटे उन्हें वे बढ़ावा दे रहे थे। जहाँ तक कबीर का सवाल है, उस महान, वर्ण-व्यवस्थात्मक पाखंडविरोधी क्रान्तिकारी कवि को वैष्णवमतावलम्बी बताना या ऐसा सिद्ध करना रामविलास शर्मा का पुरोहितवादी साहित्यिक उत्पात माना जाएगा। कबीर की रचनाओं में कुछ पौराणिक किंवदन्तियों की छाप अवश्य मिलती है, जैसे सृष्टि की रचना या माया की अवधारणा से सम्बन्धित प्रपंच। ऐसा उन्हें अपने हिन्दू पारिवारिक पूर्वजों से विरासत में मिला था, जिन्होंनेे बाद में इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था। कालान्तर में कबीर के दर्शन में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया, जैसे उनके ‘दुःख’ सम्बन्धी विचारों पर बुद्ध के दुःख की अवधारणा की अमिट छाप थी। यही कारण था कि मगहर जो बुद्ध की निर्वाण-स्थली कुशीनगर से समीप है, उस पूरे क्षेत्र को कर्मकांडी ब्राह्मणों ने नरक घोषित कर दिया था और यह अन्धविश्वास फैला रखा था कि जो वहाँ जाएगा या उसकी मृत्यु होगी, तो उसे नरक मिलेगा। इस कर्मकांडी अन्धविश्वास के विरोध में कबीर मगहर जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए। यह आश्चर्यजनक जरूर है कि कबीर ने कहीं बुद्ध का उल्लेख नहीं किया, जिसका प्रमुख कारण यह था कि उनके जीवनकाल में ब्राह्मण तथा मुसलमान, दोनों ही बुद्ध-विरोधी अभियान चला रहे थे। कबीर के साथ रविदास, पलटूदास आदि का नाम लेते हुए रामविलासजी गर्व के साथ कहते हैं: ‘‘ये सन्त बौद्ध दर्शन से नहीं, वेदान्त से प्रभावित हुए थे। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ऐसा कोई सन्त नहीं हुआ, जो वेदान्त से प्रभावित न हुआ हो।’’ उनका यह वेदान्त गुणगान दलित तथा पिछड़े वर्ग से आए इन तमाम सन्त कवियों को वर्ण-व्यवस्था के साँचे में ढालने का कान्यकुब्जी प्रयास है। यह पहले कहा जा चुका है कि ये सन्त जिस काल में हुए, उसमें बौद्ध-विरोधी अभियान अपनी चरम सीमा पर था। वेदान्त तथा वैष्णवमत तो कर्मकांड तथा अन्धविश्वास के बल पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक थोपा जा रहा था, जबकि बौद्ध दर्शन अपनी दार्शनिक विश्वकल्याणकारी अद्भुत शक्ति एवं क्षमता के बल पर न सिर्फ कश्मीर से कन्याकुमारी, बल्कि दुनिया के एक हिस्से से दूसरे छोर तक गया और आज भी विद्यमान है, जबकि वेदान्त आदि रामविलास शर्मा जैसे कुछ अनर्थकारी विद्वानों या संघ परिवार के साम्प्रदायिक अभियानों तक सीमित होकर रह गया है।

दलित और अम्बेडकर

रामविलास शर्मा की साहित्य-सम्बन्धी अनेक रचनाओं में जितना विरूपण है, उससे कहीं ज्यादा वह उनकी राजनीतिक रचनाओं में व्याप्त है। रोचक तथ्य यह है कि जब वे वर्ण-व्यवस्था की बात करते हैं तो विशुद्ध आर्य-पुरोहित के रूप में वेदपूजक बन जाते हैं, किन्तु जब वे आधुनिक दलितों या अम्बेडकर की बात करते हैं तो स्तालिनवादी कम्युनिस्ट हो जाते हैं। इस कड़ी में उन्हें ‘साम्यवादी’ की जगह ‘साम्य-वेदी’ कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा। दलितों की मूल समस्या वर्ण-व्यवस्था है, जिसकी विखंडित व्याख्या वे ऋग्वेद के विश्लेषण से ही शुरू करते हैं। इस प्रक्रिया में रामविलास शर्मा निरन्तर बुद्ध-अम्बेडकर-विचार-भंजन का सहारा लेते हैं। वर्ण-व्यवस्था को किसी-न-किसी रूप में न्यायोचित ठहराने वाले अनेक विद्वानों में रामविलास शर्मा भी एक हैं जो इस बात पर विशेष बल देते हैं कि ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त या अन्य धर्मग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था बहुत बाद में जोड़़ी गई जिसके लिए वे अम्बेडकर का हवाला देते हैं। ज्ञातव्य है कि पुरुष-सूक्त में चार वर्णों को ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से निकला बताया गया है। इस सन्दर्भ में मूल मुद्दा यह है कि वर्ण-व्यवस्था धर्मग्रन्थों से ही उत्पन्न हुई। यदि इसका कोई अन्य आधार जैसे श्रम विभाजन आदि, जिस पर रामविलास शर्मा अनेक बार यत्र-तत्र जोर दे चुके हैं, होता तो वह बहुत पहले समाप्त हो गई होती। साथ ही, श्रम करनेवालों यानी शूद्रों या दलितों को कभी अपवित्र, अछूत और घृणित नहीं समझा गया होता। ‘धर्मग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था बाद में जोड़ी गई’ जैसी बात करनेवाले रामविलास शर्मा जैसे तर्कशील इस अन्दाज में तथ्यों को रखते हैं मानो ऋग्वेद  या अन्य धर्मग्रन्थों की ब्राह्मणों ने रचना की।

आंबेडकर, गांधी और लोहिया

 इस कड़ी में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वेदों और उपनिषदों को छोड़कर रामायण, महाभारत, गीता, मनुस्मृति, सभी पुराणों आदि की रचना बुद्ध के बाद हुई। लगभग इन सारे ग्रन्थों में वर्ण-व्यवस्था को दैवी बताते हुए बौद्धों तथा बौद्ध दर्शन पर प्रहार किए गए। यहाँ तक कि वाल्मिकी रामायण के 109वें सर्ग में ‘श्रीराम के द्वारा जाबालि नास्तिक मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन’ नामक विषय के अन्तर्गत जाबालि के नास्तिक विचारों के उत्तर में राम चैतीसवें श्लोक में कहते हैं: ‘‘जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धमतावलम्बी), भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर की तरह दंड दिलाया ही जाए; परन्तु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मुख न हों- उससे वार्तालाप तक न करें।’’

इस सन्दर्भ में हैरत यह है कि रामविलास शर्मा रामायण में जिन वशिष्ठ तथा विश्वामित्र का नाम आया है, उनका सम्बन्ध ऋग्वेद के रचनाकारों से जोड़ते हैं तथा रामकथा को अटकलबाजी के आधार पर ऋग्वेद  से पुरानी सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। यदि ऋग्वेद से रामकथा पुरानी है तो वे वेद-विरोधियों और बौद्धों को दंड देने की बात कैसे करते? चूँकि रामकथा का सम्बन्ध कोसल से है, इसलिए रामविलास शर्मा ऋग्वेद  की भाषा को मूलतः कोसल की प्राचीन भाषा बताते हैं। स्मरण रहे कि वे पहले ही ऋग्वैदिक सभ्यता को हड़प्पा से प्राचीन बता चुके हैं। ये दोनों स्थापनाएँ भ्रामक हैं। वेदों को विभिन्न ऋषियों ने विभिन्न काल में लिखा, इसलिए उनके जन्म-स्थानों की क्षेत्रीय भाषाओं की छाप तो उनमें अवश्य मिलती है, किन्तु निश्चित रूप से ऋग्वेद की भाषा शुद्ध कोसल की प्राचीन भाषा नहीं हो सकती। पालि तथा संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ भरत सिंह उपाध्याय के अनुसार वेद की भाषा का उपयुक्त नाम ‘छन्दस’ है। उपाध्याय यह भी कहते हैं कि बाद में पाणिनि ने वेद की भाषा की भिन्नरूपता को सुसम्बद्ध कर उसे साहित्यिक रूप प्रदान किया। यही संस्कृत अर्थात् संस्कार की हुई भाषा कहलाई। वेदों की भाषा की तरह रामविलास शर्मा बुद्ध की विचारधारा तथा उनके द्वारा दिए गए उपदेशों की भाषा के बारे में भी भ्रम उत्पन्न करते हैं। इस सन्दर्भ में वे लिखते हैं: ‘‘गौतम बुद्ध की विचारधारा भारत और विश्व को कोसल और मगध के प्राचीन जनपदों की महत्त्वपूर्ण देन है। माना जाता है कि बुद्ध के वचन पालि में सुरक्षित हैं। बुद्ध पालि बोलते थे या उससे मिलती-जुलती भाषा बोलते थे। जो भी भाषा बोलते रहे हों, वह मगध और कोसल की भाषा अवश्य रही होगी।’’ रामविलास शर्मा का उक्त कथन प्रथम दृष्ट्या सीधा-सादा लगता है, किन्तु इसमें भी एक तरह की बौद्धिक धोखाधड़ी छिपी है। वे हमेशा मगध और कोसल समेत लगभग सभी प्रमुख बौद्ध स्थलियों का सम्बन्ध ऋग्वेद से जोड़ते हैं। इसलिए वे बड़ी चालाकी से गौतम बुद्ध की विचारधारा को सीधे-सीधे उस ऐतिहासिक महामानव की न बताकर भारत तथा विश्व को कोसल और मगध के प्राचीन जनपदों की महत्वपूर्ण देन बताते हैं। यहाँ वे प्रमुखता वैदिक जनपदों को देते हैं। जहाँ तक बुद्ध के उपदेशों की भाषा का सवाल है, उन्होंने कभी भी अपने उपदेश पालि में नहीं दिए, वे जिस भाषा में बोलते थे, उसे ‘अर्ध मागधी’ कहते हैं। ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध ग्रन्थों को मिटा देने के अभियान के चलते बुद्ध-वचनों को मागधी से पालि भाषा में श्रीलंका के बौद्धों ने अनुवाद किया जिसका मुख्य उद्देश्य उनकी रक्षा करना था। इस उद्देश्य से सर्वप्रथम ई.पू. 29 में श्रीलंका के राजा वट्टगमणि ने ताम्रपत्रों पर लिपिबद्ध कराया था।

वर्ण-व्यवस्था जैसी समाज-संहारक प्रथा को रोचकता प्रदान करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं: ‘‘वर्ण-व्यवस्था का अध्ययन करते हुए केवल मनुस्मृति पर निर्भर रहना ठीक नहीं है। स्मृतिकार जो नियम बनाते  थे, सदा उनका पालन न किया जाता था। अक्सर ये नियम उनकी इच्छापूर्ति मात्र होते थे। आपातकाल के लिए उन्होंने जो नियम बनाए थे उनसे वास्तविक स्थिति का पता चल जाता है। धर्मशास्त्रों में बनाए हुए नियम सारे भारत में लागू होते थे, यह सोचना भी ठीक न होगा। धर्मशास्त्रों के अधिकांश नियम उत्तर भारत, विशेष रूप से हिन्दी प्रदेश के जनपदों के समाजों के लिए बनाये गये थे।’’ रामविलास शर्मा का वर्ण-व्यवस्था के प्रति यह आकर्षण किसी बुद्धिवादी व्यक्ति के लिए निन्दा योग्य भी नहीं समझा जा सकेगा। दलितों के लिए विभिन्न स्मृतियों में रचे गए प्राणघातक कानून मात्र ऋषियों की इच्छापूर्ति के लिए नहीं थे। ऐसे कानून तो समाज में आज भी लागू हैं। दलितों की आँखें खोदकर आज भी निकाली जाती हैं, वैदिक हथियारों से उनकी गर्दन भी रेती जाती है, उनकी स्त्रियों की योनियाँ प्रतिदिन क्षत्-विक्षत् की जाती हैं तथा सोए-सोए उनके झोंपड़ों को हवन-कुंड में बदल दिया जाता है। वर्ण-व्यवस्था का कोई भी ऐसा दंडात्मक कानून नहीं है, जिसे प्रतिदिन देश-भर में कहीं-न-कहीं लागू न किया जाता हो। वर्ण-व्यवस्था के कानून सिर्फ उत्तर भारत के लिए नहीं थे। यह एक देशव्यापी अपराध था। दक्षिण भारत में इसकी कठोरता कई अर्थों में उत्तर भारत से ज्यादा खतरनाक थी। आठवीं सदी के शंकराचार्य ने वर्ण-व्यवस्था को कठोरता से लागू करने का अभियान ही केरल से चलाया था। इस सम्बन्ध में किसी भी व्यक्ति के लिए यह कहना धृष्टता होगी कि रामविलास शर्मा जैसे विद्वान इन तथ्यों से परिचित नहीं थे। किन्तु ब्राह्मण होने की मजबूरी से वे निरन्तर ग्रसित हैं, इसलिए तथ्यों को तोड़ना उनकी वैदिक विरासत है। इस परम्परा को वे आगे बढ़ाते हुए एक तरफ तो यह अवश्य मानते हैं कि परजीवी पुरोहित वर्ग के बिना वर्ण-व्यवस्था चल नहीं सकती, किन्तु दूसरे ही पल उसमें यह जोड़ देते हैं कि ‘‘यहाँ श्रमण (यानी बौद्ध भिक्षु) और ब्राह्मण व्यापक अर्थ में इसी परजीवी पुरोहित वर्ग के अन्तर्गत हैं। उनका काम लोगों को सन्मार्ग पर चलाना है, आशीर्वाद देना है। बदले में वे उनसे योग्य पदार्थ प्राप्त करते हैं। यहाँ श्रमण और ब्राह्मण में प्रतिस्पर्धा नहीं है। दोनों मिलकर काम करते हैं।’’ रामविलास शर्मा एक बौद्ध श्रमण और कर्मकांडी वर्ण-व्यवस्थावादी ब्राह्मण पुरोहित को समान गुणों वाला बताकर बौद्ध दर्शन तथा वैदिक दर्शन में कोई फर्क नहीं करना चाहते। यहाँ दोनों के बीच फर्क बताने की आवश्यकता नहीं है। सिर्फ इतना कहना ही काफी होगा कि बौद्ध दर्शन वर्ण-व्यवस्था तथा कर्मकांड विरोधी है, जबकि वैदिक दर्शन इन दोनों के बिना अस्तित्व विहीन है। एक बौद्ध भिक्षु व्यक्तिगत रूप में अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे संघ के लिए भिक्षा प्राप्त करता है, जबकि पुरोहित ब्राह्मण दान से व्यक्तिगत सम्पत्ति का संचय करता है। एक बौद्ध भिक्षु 24 घण्टे में सिर्फ एक बार भोजन करता है, वह भी 12 बजे दिन से पूर्व, जबकि ब्राह्मण पूरे दिन इसी में लिप्त रहता है। बौद्ध भिक्षु वर्ण-व्यवस्था के सतत् विरोध में उपदेश या आशीर्वाद देता है, जबकि पुरोहित ब्राह्मण उसके समर्थन में ऊँच-नीच का विष फैलाता है। फिर भी रामविलास शर्मा को दोनों के बीच कोई अन्तर नजर नहीं आता। लेकिन वे चाणक्य की शैली के ब्राह्मण हैं तथा उन पर प्रगतिशील-जनवादी होने का ठप्पा भी लगा हुआ है, इसलिए उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है कि कहीं इस ठप्पे की सुर्ख स्याही पुरोहितों के कमंडल के गंगाजल से धुल न जाए, वे उनके विरुद्ध कुछ यथार्थ भी उगल देते हैं, वह भी विरोधाभास के साथ। वे महाभारत के ‘शान्तिपर्व’ में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर से कही गई बात का उल्लेख करते हुए लिखते हैं: ‘‘जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रों के ज्ञान से शून्य हैं तथा जो अग्निहोत्र नहीं करते हैं, वे सभी शूद्र तुल्य हैं। धर्मात्मा राजा को चाहिए कि इन सब लोगों से कर ले और बेगार कराए।… संस्कारभ्रष्ट म्लेच्छ तथा शूद्रों का यज्ञ कराकर, पतित हुआ अधम ब्राह्मण इस संसार में अपयश पाता है और मरने के बाद नरक में गिरता है।’’ इस पर रामविलास शर्मा ब्राह्मणों की गरीबी पर तरस खाते हुए कहते हैं कि जीविका के लिए वे किस तरह का काम करते थे, इसका अनुमान भीष्म के इन वाक्यों से होता है: ‘‘ब्राह्मणों में जो ऋत्विज्, राजपुरोहित, मन्त्री, राजदूत अथवा सन्देशवाहक हों, वे क्षत्रिय के समान माने जाते हैं। घुड़सवार, हाथी सवार, रथी व पैदल सिपाही का काम करने वाले ब्राह्मणों को वैश्य के समान समझा जाता है। वर्ण-मर्यादा तोड़नेवाले ब्राह्मणों को वैश्य के समान समझा जाता है। वर्ण-मर्यादा तोड़नेवाले ब्राह्मण राजा द्वारा दंडनीय हैं।’’ बेचारे ब्राह्मण ! रामविलास शर्मा की निगाह में कितने गरीब और पीड़ित थे! जीविका के लिए वे वर्ण-मर्यादा को भी तोड़ देते थे। इसके विपरीत वे तुरन्त कहते हैं: ‘‘पुरोहित वर्ग ने भारतीय संस्कृति के स्रोत ग्रन्थों पर अधिकार किया, सामान्य जनता को उनके अध्ययन से वंचित रखा। वेदों को कर्मकांड का ग्रन्थ बनाकर उन्हें पैसा कमाने का साधन बनाया, समाज में ऊँच-नीच के भेदभाव को स्थायी बनाने के लिए उनका उपयोग किया।’’ शायद ऐसे ही दोहरेपन को कहते हैं, ‘साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’

बहुप्रचारित विश्वामित्र द्वारा चांडाल के घर से भूख के कारण कुत्ते का मांस चुराने की घटना का रामविलास शर्मा ने भी उल्लेख किया है जिसका वर्णन भीष्म ने महाभारत में किया है। भूख के कारण विश्वामित्र चांडालों की बस्ती में जाते हैं और एक चांडाल के घर ताजा कटे कुत्ते की जाँघ को देखकर चुराने के लिए अँधेरा होने का इन्तजार करते हैं। चांडाल जाग रहा था; इसलिए उसने विश्वामित्र को जान से मारने की धमकी दी, किन्तु उन्होंने अपनी पहचान न बताई और वे चांडाल के हाथों मारे जाने से बच गये। चांडाल के लाख कहे जाने पर कि वह कुत्ते का मांस है; विश्वामित्र उसे ले ही गये। इस पर टिप्पणी करते हुए रामविलास शर्मा कहते हैं कि शूद्रों के लिए जीभ काटने, कान में गर्म तेल डालने जैसे दंड की व्यवस्था करने वाले मनुस्मृति के रचनाकार ने अथवा उसमें प्रक्षिप्त अंश जोड़नेवाले ने महाभारत  की इस घटना का स्मरण किया। लिखा: ‘‘धर्माधर्म के गुण-दोष को जाननेवाले विश्वामित्र मुनि ने भूख से पीड़ित होकर चांडाल के हाथ से कुत्ते की जंघा के मांस को लेकर जाने की इच्छा की तथा उस निषिद्ध मांस-भक्षण के खाने की इच्छा से पापदूषित नहीं हुए।’’ इस प्रकरण के माध्यम से रामविलास शर्मा यह कहना चाहते हैं कि प्राचीन काल में विश्वामित्र जैसे मुनि चांडाल के हाथ का छुआ कुत्ते का मांस खा सकते थे, इसलिए वर्ण-व्यवस्था का क्रूर रूप नहीं था। इसे क्रूर मनु जैसे महर्षियों ने नहीं, बल्कि उसमें प्रक्षिप्त अंश जोड़नेवालों ने बनाया। विश्वामित्र तो चांडाल के हाथ का छुआ कुत्ते का मांस भूख के कारण खाकर पाममुक्त हो गये, किन्तु वर्ण-व्यवस्था के विरोध में उन्होंने कभी एक शब्द तक नहीं कहा। वैसे पुरोहितों ने दलितों का हक चुराने का काम किसी-न-किसी शास्त्रीय बहाने से हमेशा किया है, भले ही वह कुत्ते का मांस ही क्यों न हो।

इस प्रकार रामविलास शर्मा प्राचीन काल से लेकर मुगलकाल तक जब भी वर्ण-व्यवस्था का विश्लेषण करते हैं, हमेशा उसके लचीलेपन तथा उदार चरित्र को उभारने में ही अपने शास्त्रीय ज्ञान का उपयोग करते हुए ब्राह्मणों की रक्षा में ढाल की तरह अड़े हुए प्रतीत होते हैं, और अंग्रेजी राज आते ही उसकी कट्टरता का सारा आरोप अंग्रेजों पर मढ़ देते हैं। वे लिखते हैं: ‘‘जातिप्रथा भारत में पहले भी थी और अंग्रेजी राज कायम होने पर भी थी। उनके बन्धन जितने कठोर अंग्रेजी राज में थे, उतने पहले कभी नहीं थे। अंग्रेजी राज का सामाजिक आधार सामन्तवाद था। जातिप्रथा सामन्तवाद की देन थी। जैसे अंग्रेजों ने पुराने जमींदारों के साथ नए जमींदार बनाए, किसानों के शोषण के नए तरीके अपनाए, वैसे ही उन्होंने जाति-बिरादरी के भेदभाव को बढ़ावा दिया। हिन्दू-मुसलमान के भेद की तरह उन्होंने द्विज और शूद्र के भेद से भी लाभ उठाने का प्रयास किया। सामन्तवाद के ह्रासकाल में जातिप्रथा के बन्धन पहले से अधिक कठोर हुए, परन्तु अंग्रेजी राज में कठोरता के वे सारे प्रतिमान छोड़ दिए गए। यानी वर्ण-व्यवस्था की कट्टरता  के लिए ब्राह्मण दोषी नहीं थे। उपर्युक्त बातों को रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक गांधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ नामक पुस्तक में लिखा है, जिन्हें वे अनेक पृष्ठों पर दोहराते हैं। वैसे उन्होंने राजनीति पर अपनी बहुचर्चित तथा पहली पुस्तक भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद (दो खंडों में) सन् 1982 में प्रकाशित की थी, किन्तु हैरत की बात है कि साढ़े ग्यारह सौ पृष्ठों वाली इस पुस्तक में उन्होंने कहीं भी वर्ण-व्यवस्था शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है। यहाँ तक कि अम्बेडकर का सिर्फ एक जगह उल्लेख किया है। इस सन्दर्भ में वे लिखते हैं: ‘‘ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने 16 अप्रैल 1932 को साम्प्रदायिक समस्या के बारे में अपना पंचफैसला सुनाया। बंगाल में 54.7 फीसदी मुसलमानों को वहाँ की विधानसभा की कुल 250 सीटों में से 119 सीटें मिलीं; संयुक्त प्रान्त के 15.3 फीसदी मुसलमानों को प्रान्तीय सभा 228 सीटों में से 66 सीटें दी गईं। अछूतों को जो अलग प्रतिनिधित्व दिया गया था, उसके विरुद्ध गांधीजी ने भूख हड़ताल की। अाम्बेडकर से परामर्श करने के बाद कुछ भारतीय नेताओं ने समझौता कराया जो पूना पैक्ट नाम से विख्यात हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इसे मंजूर किया।’’ इस सिलसिले में वी.पी. मेनन की पुस्तक दि ट्रांसफर ऑफ पावर का उल्लेख करते हुए कहते हैं: ‘‘बादशाह सलामत की सरकार की अपेक्षा पूना पैक्ट ने दलित वर्गों के प्रति और भी अधिक उदारता दिखाई।’’ यहाँ रामविलास शर्मा अंग्रेजी राज को दलितों के प्रति उदार बताते हैं। किन्तु 18 साल बाद ‘गांधी, अम्बेडकर, लोहिया…’  पर लिखते हुए सन् 2000 में उन्हें याद आया कि वर्ण-व्यवस्था को तो अंग्रेजी राज ने कट्टर बनाया। ऐसे भ्रामक विरोधाभासों ने उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा। वर्ण-व्यवस्था या जातिवाद को ‘सामन्तवाद की देन’ बताकर एक बार फिर रामविलास शर्मा धर्मशास्त्रों तथा पुरोहित-ब्राह्मणों को एक कचहरी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की तरह दोषमुक्त घोषित कर देते हैं। यहाँ अंग्रेजी राज के चरित्र को परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं है, जैसा कि रामविलास शर्मा उसे सामन्तवाद पर आधारित मानते हैं। इस परिभाषा को मात्र एक सीमित दायरे में उचित माना जा सकता है, क्योंकि भारतीय सामन्तवाद के प्रतीक सैकड़ों राजा-महाराजा तथा बड़े भूस्वामी एवं सबसे बढ़कर वर्ण-व्यवस्था के पोषक अंग्रेजों का खुलकर साथ दे रहे थे। यह बात और है कि कुछ वर्षों से अनेक सवर्ण लेखक अंग्रेजों का साथ देने के लिए सिर्फ अम्बेडकर तथा दलितों पर आरोप लगाने लगे हैं, जिसका एकमात्र राजनीतिक कारण विगत दशक में बहुजन समाज पार्टी के पीछे बड़ी संख्या में दलितों का एकत्र होना है। इस कड़ी में ऐसे लेखक नवम्बर, 1930 में लन्दन में सम्पन्न प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अम्बेडकर द्वारा हिस्सा लिए जाने का विशेष उल्लेख करते हैं, क्योंकि गांधीजी ने इसका बहिष्कार किया था। इस सम्मेलन में तेजबहादुर सप्रू समेत अनेक हिन्दू राजाओं ने भी हिस्सा लिया था, किन्तु उन्हें देशद्रोही कभी नहीं कहा गया। जहाँ तक अंग्रेजी राज के राजनीतिक चरित्र का सवाल है, उसने भारत में आधुनिक शिक्षा लागू करके देश के आधुनिकीकरण की नींव डाली, जिसकी प्रशंसा कार्ल मार्क्स ने भी की थी। इतना ही नहीं, इंग्लैण्ड से ‘फिनांस कैपिटल’ (वित्तीय पूँजी) की आवाजाही से इस देश में पूँजीवाद विकसित हुआ, जिसने लेनिन के ऐतिहासिक विश्लेषण ‘साम्राज्यवाद: पूँजीवाद की अन्तिम चरम सीमा है’ को चरितार्थ किया। आधुनिक शिक्षा तथा पूँजीवाद के विकास ने भारत की भावी जनतन्त्र प्रणाली की भी नींव डाली जिसके कारण दैवी वर्ण-व्यवस्था को जबर्दस्त धक्का लगा तथा ‘पूना पैक्ट’ के द्वारा दलितों को दी गई रियायतों के कारण बहुत से सवर्ण हिन्दू जो पहले चुपचाप बैठे थे, वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गए। यह एक अकाट्य सत्य है, जबकि ‘अंग्रेजी राज में जातिप्रथा की कट्टरता’ जैसी रामविलास शर्मा की अवधारणा निराधार कल्पना है।

आंबेडकर की किताब प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति

निरन्तर दोहराने के क्रम में कि ‘पहले वर्ण-व्यवस्था मृदुल’ थी, रामविलास शर्मा उसी गति से अम्बेडकर द्वारा कही गई बातों को न सिर्फ काट-छाँटकर बौने रूप में, बल्कि अपनी ओर से नये शब्दों को गढ़कर गलत सन्दर्भों में पेश करते हैं। उदाहरण के लिए अम्बेडकर के एक उद्धरण में वे लिखते हैं: ‘‘वंशगत व्यवसाय की तरफ रूझान था। लेकिन जातिप्रथा अपनी समस्त भयानक कठोरता के साथ उस समय विद्यमान नहीं थी। ब्राह्मण भी अक्सर निम्न श्रेणी के व्यवसाय करते थे।’’ इस सन्दर्भ में रामविलास शर्मा कहते हैं कि ये बातें अाम्बेडकर ने भारत के प्राचीन व्यापार का अध्ययन करते हुए लिखी थी और आगे अपनी तरफ से यह जोड़ते हैं कि भारत की आर्थिक उन्नति का बहुत बड़ा कारण यह था कि यहाँ कारीगरों को पगार मिलती थी। हकीकत यह है कि उक्त बातें अम्बेडकर ने ‘मध्यपूर्व (मिडिल ईस्ट) में भारत का व्यापारिक सम्बन्ध’ नामक अध्याय के तहत लिखी थीं, जो अमरीका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में एम.ए. करते समय उनके शोध प्रबन्ध का हिस्सा था। जिन तथ्यों का उल्लेख रामविलासजी ने ऊपर किया है, उसके ठीक पहले अाम्बेडकर ने लिखा था : ‘‘बढ़ई, लोहार, चर्मकर्मी तथा विभिन्न कलाओं में सिद्धहस्त लोगों की अपनी श्रेणियाँ थीं। यहाँ तक कि समुद्री नाविकों, माला गूँथनेवालों तथा कारवाँ व्यापारियों की भी श्रेणियाँ थीं।’’ इस तथ्य को निकाल देने से अम्बेडकर के विश्लेषण का उचित अर्थ नहीं निकलता। आगे रामविलास शर्मा अाम्बेडकर को उद्धृत करके लिखते हैं : ‘‘हिन्दुओं को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उनके आर्थिक जीवन में जाति-प्रथा की भूमिका बहुत कम थी। थोड़े से दासों के अलावा काफी बड़ी संख्या में मुक्त श्रमिक थे, जिन्हें मुद्रा या भोजन के रूप में पगार दी जाती थी।’’ यह उद्धरण रामविलास शर्मा की बौद्धिक बेईमानी का न्यूनतम स्तर है। पहली बात, वे अाम्बेडकर द्वारा कहे गए अंश की सिर्फ प्रथम तथा अन्तिम पंक्ति को यहाँ पेश करते हैं, वह भी एक महत्त्वपूर्ण शब्द को बदलकर। अाम्बेडकर की प्रथम पंक्ति थी: ‘‘हिन्दुओं को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उनके जीवन में दासप्रथा (स्लेवरी) की भूमिका बहुत कम थी।’’ किन्तु रामविलास शर्मा दास-प्रथा के बदले अपनी ओर से ‘जाति-प्रथा’ जोड़कर अम्बेडकर को जबरन हिन्दू-प्रशंसक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। दूसरी बात, उस वाक्य के बाद अाम्बेडकर ने लिखा था: ‘‘बन्दी बनाना, न्यायिक दंड, स्वेच्छया-निम्नीकरण तथा कर्ज, ये चार प्रमुख कारण थे, जिनके द्वारा व्यक्ति विशेष दास बन जाते थे।’’ इन्हीं दासों के सन्दर्भ में अाम्बेडकर ने हिन्दुओं को तथाकथित शाबासी दी थी, न कि जातिप्रथा के सन्दर्भ में। इसी तरह रामविलास शर्मा ने अांबेडकर को तोड़-मरोड़कर धोखाधड़ी के माध्यम से प्रस्तुत करने की भरमार कर दी है। यदि सभी तथ्यों का सत्यापन किया जाए तो वह एक भारी-भरकम किताब बन जाएगी, जो इस लेख में सम्भव नहीं है। फिर भी, कुछ अन्य तथ्यों का विश्लेषण आवश्यक है।

अाम्बेडकर तथा अंग्रेजी राज के बारे में रामविलास शर्मा ने लिखा है: ‘‘जाति-बिरादरी की भावना के फिर से पनपने और मजबूत होने का बहुत बड़ा कारण अंग्रेजों की आर्थिक नीति थी। जैसा कि अाम्बेडकर ने दिखाया है, शहरों में उद्योग-धन्धों की तबाही से खेती पर आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा निर्भर रहने लगा। अंग्रेज जान-बूझकर जमींदारों, पुरोहितों और ऊँची जाति के लोगों को प्रोत्साहन देते थे। मारे जाते थे निचले स्तरों के गरीब। अंग्रेजों की मदद करके अछूतों का उद्धार किया जा सकता है, यह बहुत बड़ा भ्रम था।’’ ये तथ्य अपनी जगह पर सटीक हैं, सिर्फ इन्हें परखने की दृष्टि में हेर-फेर है। पुरोहितों, ऊँची जातियों आदि को अंग्रेज निश्चित रूप से बढ़ावा दे रहे थे किन्तु इसके मूल में वर्ण-व्यवस्था को मजबूत करना नहीं, बल्कि उनके ही बल पर चल रहे अंग्रेजी शासन को स्थिर बनाना था। ‘अंग्रेजों का साथ देकर अछूतोद्धार भ्रम था’, यह आरोप लगाकर रामविलास शर्मा अाम्बेडकर को सीधे-सीधे नहीं, बल्कि भाषाविज्ञान की मदद से देशद्रोही साबित करते प्रतीत होते हैं। यहाँ वे इस तथ्य का रहस्योद्घाटन कभी नहीं करते कि अछूतों ने सदियों तक वर्ण-व्यवस्था के रक्षकों पुरोहितों-ब्राह्मणों आदि की हर आज्ञा का पालन करते हुए उनकी गुलामी की,  फिर भी उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ? अाम्बेडकर ने सन् 1943 में भारत में संसदीय लोकतन्त्र की तीव्र आलोचना करते हुए यह कहा था कि यह उतना बढ़िया उत्पाद नहीं है, जितना दिखाई देता था। इस पर रामविलास शर्मा उन्हें संसदीय लोकतन्त्र के विरोधी के रूप में पेश करते हुए लिखते हैं: ‘‘अम्बेडकर का पहला महत्त्वपूर्ण विचार यह है कि संसदीय प्रणाली वाला जनतन्त्र जनता की मूल समस्यायें हल नहीं कर सकता।’’ यहाँ वे अम्बेडकर को नक्सलवादी के रूप में देखते हैं और यह भूल जाते हैं कि उन्होंने आजादी से पूर्व एक विशेष परिस्थिति में उक्त बातें कही थीं, जबकि द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और भारत में जनतान्त्रिक अधिकार नहीं के बराबर थे। इस विचार को अाम्बेडकर पर शाश्वत लागू नहीं किया जा सकता। आखिरकार, अाम्बेडकर ने ही संविधान रचना के बाद स्वतन्त्र भारत में असली संसदीय प्रणाली की नींव डाली थी। अाम्बेडकर ने आजादी से पूर्व अनेक अवसरों पर पूँजीपति तथा मजदूर की समस्याओं का विश्लेषण किया था जिसके हवाले से रामविलास शर्मा लिखते हैं कि यहाँ अाम्बेडकर हिन्दुओं और मुसलमानों की, द्विज और शूद्र की बात नहीं करते। मजदूरों में हिन्दू थे, मुसलमान थे, सवर्ण थे, अवर्ण थे। ये भेद पीछे छूटते जा रहे थे, आदि, आदि। अम्बेडकर के सन्दर्भ में यह विश्लेषण भी भ्रामक है। वे मजदूरों की बात करते समय हमेशा वर्ण-व्यवस्था तथा अस्पृश्यता की समस्या को सर्वोपरि रखते थे। उन्होंने मजदूर आन्दोलनों में भी हिस्सा लिया था और हड़तालों का समर्थन तथा विरोध भी किया था। साइमन कमीशन के भारत आने के बाद अम्बेडकर ने मुम्बई की सूती मिल हड़तालों में दलित मजदूरों के नौकरी से निकाले जाने पर उनकी दशा अछूत होने के कारण बहुत खराब हो गई थी, तथा कर्ज में डूब जाने के कारण सूदखोर उनकी महिलाओं के साथ अनैतिक व्यवहार करते थे। ऐसी दशा सवर्ण मजदूरों की नहीं थी। इसी विरोध के कारण कम्युनिस्टों ने उन्हें गद्दार तथा देशद्रोही कहा था। वर्ण-व्यवस्था की समस्या को उजागर करने के ही कारण अम्बेडकर ने साइमन कमीशन के समक्ष गवाही दी थी जबकि गांधीजी के नेतृत्व में सारा देश उसका विरोध कर रहा था। साइमन कमीशन के समक्ष जब ब्रिटिश लेबर नेता लार्ड एटली ने अम्बेडकर से यह पूछा कि क्या दलित वर्ग उद्योग-धन्धों में मजदूर होने के कारण किसी हद तक अछूत होने से बच जाते हैं? इसके जवाब में अम्बेडकर ने साफ कहा: ‘‘नहीं। दलित वर्ग का आदमी सबसे अधिक कमाई वाले बुनाई विभाग से एकदम अलग रखा जाता है। वह सिर्फ चरखा तथा अन्य विभाग में ही प्रवेश कर सकता है।’’ इस पर एटली ने पूछा: ‘‘क्यों?’’ अम्बेडकर ने उत्तर दिया: ‘‘छुआछूत के कारण।’’ रामविलास शर्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय समेत अनेक नेताओं की प्रशंसा इसलिए करते हैं कि वे छुआछूत के विरुद्ध थे, किन्तु वे इस तथ्य को सम्पूर्ण रूप से छिपा लेते हैं कि छुआछूत तथा अन्य सभी प्रकार के दलित-शोषण की जड़ में असली अपराधी वर्ण-व्यवस्था है जिसकी वकालत गांधी, मालवीय आदि सभी करते थे। शिक्षा से छुआछूत कुछ हद तक दूर हो सकती है, और दूर हुई भी, किन्तु वर्ण-व्यवस्था अभी भी वैसे ही विराजमान है। इसी कारण अम्बेडकर का हर हिन्दू नेता से मतभेद हुआ। रामविलास शर्मा ने इसी तथ्य को हमेशा नकारा है। अम्बेडकर ने रूसी क्रान्ति का स्वागत किया था, किन्तु कम्युनिस्ट प्रणाली में व्याप्त हिंसा के वे विरोधी थे। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक बल-प्रयोग कायम है, साम्यवादी व्यवस्था बनी रहेगी। किन्तु बल-प्रयोग के समाप्त होते ही, उसका पतन हो जाएगा। इसी कड़ी में उनका विचार था कि मानसिक परिवर्तन से जो व्यवस्था कायम होती है, वह स्थायी होती है। अम्बेडकर की यह अवधारणा सोवियत संघ के विघटन से प्रमाणित हो गई। यही कारण था कि उन्होंने वर्ण-व्यवस्था विरोधी तथा शान्तिकामी बौद्ध दर्शन को अपनाया जिसे रामविलास शर्मा धर्म-परिवर्तन कहते हैं। बौद्ध धर्म भारत का अपना दर्शन है, इसलिए इसे धर्म-परिवर्तन कदापि नहीं कहा जा सकता। इसे धर्म-परिवर्तन माननेवाले लोग बौद्ध धर्म को गैर भारतीय तथा हिन्दुत्व को स्वदेशी मानने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रचार करते हैं। ऐसी ही समझ के कारण रामविलास शर्मा जैसे विद्वान बौद्ध दर्शन, अम्बेडकर तथा उनसे जुड़ी दलित समस्याओं की सतत विरूपित व्याख्या करते हैं।

अन्त में रामविलास शर्मा ‘अम्बेडकर में बहुत तरह के अन्तर्विरोध’ हैं, ऐसा कहकर सम्बोधित करते हैं। यह प्रमाणित करने के लिए रामविलास शर्मा अम्बेडकर द्वारा गांधी और आर्यसमाजियों का विरोध किए जाने का हवाला देते हैं। इस सन्दर्भ में वे आर्यसमाजियों को शूद्रों के उद्धार के लिए काम करनेवाला भी बताते हैं। आर्यसमाज के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। जाति-विरोध का थोथा नारा देनेवाले ये लोग निहायत पाखंडी तथा वर्तमान समय में संघ परिवार के साम्प्रदायिक एजेंडा के एक मजबूत स्तम्भ हैं। आगरा में आर्यसमाजियों का पुराना प्रभाव है। वर्षों तक वहाँ रहते हुए रामविलास शर्मा इन्हीं आर्यसमाजियों के पाखंड से अछूते नहीं रह पाते, जिसका प्रतिबिम्ब उनके चिन्तन और लेखन में साफ नजर आता है। साथ ही वे इसी आर्यसमाजी-पाखंड के ऊपर जबरन मार्क्सवादी दर्शन की चादर भी ओढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। अतः इसे ‘मार्क्सवाद का आर्यसमाजीकरण’ के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता। वे अाम्बेडकर तथा दलितों को इन्हीं आडम्बरों में समेटते हैं। इस प्रक्रिया में रामविलास शर्मा ने दलितों तथा मार्क्सवाद-विरोधियों, दोनों के हाथ मजबूत किए हैं। उनका यह आर्यसमाजी चिन्तन संघ परिवार के चिन्तन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। उन्होंने दलितों की असली संहारक वर्ण-व्यवस्था की समस्या की उपेक्षा करके एक तरह से उसका गुणगान किया है तथा वे यह भूल जाते हैं कि भारतीय पूँजीवाद भी वर्ण-व्यवस्था के ही आधार पर विकसित हुआ। वर्ण-व्यवस्था के ही आधार पर धर्मशास्त्रों ने भारत में पूँजीपति और सर्वहारा बनाने की नींव सदियों पहले रखी थी। कौन जाति धन-सम्पत्ति की अधिकारी है, कौन जाति धन कमा सकती है और कौन जाति धनहीन होगी, इसका निर्धारण वर्ण-व्यवस्था ने ही किया था। अतः दलितों के सन्दर्भ में रामविलास शर्मा का आर्यसमाजी चिन्तन प्रलयंकारी तथा उनका मार्क्सवादी चिन्तन असामाजिक है। वर्ण-व्यवस्था सिर्फ दलितों की ही दुश्मन नहीं है, यह मार्क्सवादियों की भी दुश्मन है। जो वर्ण-व्यवस्था से लड़े बिना दलित उद्धार की बात करता है, वह मूल रूप से दलितों के संहार की बात करता है। दलित सन्दर्भ में यह सत्य की सबसे बड़ी कसौटी है। रामविलासजी कभी वेदान्त को देश की एकता सुदृढ़़ करनेवाला बताते हैं, तो कभी तुलसीदास के रामचरितमानस को। इस सन्दर्भ में क्रियाशील हकीकत यह है कि इन दोनों ने वर्ण-व्यवस्थावादियों की राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया है। सिर्फ वर्ण-व्यवस्था विरोधी अभियान ही देश की एकता को हमेशा के लिए सुदृढ़ कर सकता है, क्योंकि इसका सम्बन्ध भारत की सम्पूर्ण चिन्तन परम्परा से जुड़ा हुआ है। वैदिक चिन्तन वर्ण-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आज भी संघर्षरत है जिसका मुकाबला भारतीय परिस्थिति में सिर्फ बौद्ध चिन्तन ही कर सकता है, यह दलित समस्या के निदान की दूसरी बड़ी कसौटी है।

 

(यह लेख पहली बार ‘आलोचना’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।)


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तुलसीराम

डॉ. तुलसीराम (1 जुलाई 1949-13 फ़रवरी 2015) का जन्म आजमगढ़ के चिरैयाकोट गांव में एक दलित परिवार में हुआ था। उन्होंने जवाहरलाला नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर के रूप में काम किया। उन्होंने 'अश्वघोष’ नामक प्रसिद्ध बुद्धिस्ट एवं साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में 'अंगोला का मुक्ति संघर्ष’, 'सी.आई.ए. : राजनीतिक विध्वंस का अमरीकी हथियार’, 'द हिस्ट्री ऑफ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान’, 'पर्सिया टू ईरान’ (वन स्टेप फारवर्ड टू स्टेप्स बैक), 'आइडिओलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशन्स’ (लेनिन टू स्टालिन) हैं। दो खण्डों में प्रकाशित उनकी चर्चित आत्मकथा,' 'मुर्दहिया' ,'मणिकर्णिका' न केवल उनकी व्यथाओं और संघर्षों की कहानी है, बल्कि गाय पट्टी के दलित समाज की भी कहानी कहती हैं।

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