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चौरी-चौरा : बहुजन गरीब किसानों की क्रांतिकारी बगावत का प्रतीक

4 फरवरी 1922 को चौरी-चौरा में घटी घटना न केवल भारतीय इतिहास, बल्कि विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। पहली बार सुभाष चंद्र कुशवाहा ने तथ्यों, देशी-विदेशी दस्तावेजों और लोक में चौरी-चौरी की स्मृति को आधार बनाकर एक विश्वसनीय इतिहास ‘चौरी चौरा : विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’ लिखा है। बता रहे हैं सिद्धार्थ

4 फरवरी, 1922 : चौरी-चौरा दिवस पर विशेष  

सुभाष चंद्र कुशवाहा की किताब  पुरजोर तरीके से इस बात को स्थापित करती है कि मुख्यत: दलित, पिछड़े, और मुस्लिम गरीब किसानों की क्रांतिकारी बगावत ने  4 फरवरी 1922 को न केवल भारतीय इतिहास बल्कि विश्व इतिहास का यादगार दिन बना दिया। इस दिन दलित बहुल डुमरी खुर्द गांव के गरीब और सामाजिक तौर पर अपमानित दलितों-बहुजनों और मुसलानों ने उच्च जातीय जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के गढ़जोड़ को खुलेआम चुनौती दिया और कुछ समय के लिए ही सही चौरी-चौरा के इलाके पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। इस घटना की तुलना बास्तील के किले पर फ्रांस की जनता के हमले और कब्जे से की जाती है। 14 जुलाई 1789 को फ्रांस की विद्रोही जनता ने फ्रांसीसी राजसत्ता के गढ़ बास्तील के किले पर पर कब्जा कर लिया था। इसी घटना ने फ्रांसीसी क्रांति का आगाज किया था।

स्वतंत्रता आंदोलन के सभी इतिहासकारों ने चौरी-चौरा की घटना का उल्लेख किया। लेकिन प्रमाणिक तथ्यों, इतिहास के सभी दस्तावेजों  और जनता के बीच इस घटना की स्मृतियों  को आधार बनाकर  सुभाष चंद्र कुशवाहा ने एक मुकम्मल और सच्चा इतिहास लिखा है। सुभाष चंद्र कुशवाहा तथ्यों के आधार इस बात को प्रमाणित करते हैं कि चौरी-चौरा की घटना मूलत: भारत के दलित, पिछड़े और मुसलमान कहे जाने वाले गरीब किसानों की क्रांतिकारी बगावत थी। यह बगावत उच्च जातीय जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के गठजोड़ के खिलाफ थी। लेकिन साथ ही यह बगावत मोहनदास करम चंद्र गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की जमींदार समर्थ नीतियों के भी खिलाफ थी। भले ही जिन किसानों ने इस विद्रोह में भाग लिया और खासकर जिन लोगों ने इसका नेतृत्व किया वे लोग स्वयं को कांग्रेस का स्वयं-सेवक मानते थे और गांधी जी के स्वराज का अर्थ जमींदारों और पुलिस के अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति भी मानते थे। सुभाष चंद्र कुशवाहा तथ्यों और दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित करते हैं कि, ‘चौरी-चौरा की गरीब जनता ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। ग्रामीण आबादी के सबसे नजदीक ब्रिटिश सत्ता के केंद्र के रूप में थाना ही था, जहां वे अपनी विद्रोह जता सकते थे। 4 फरवरी, 1922 को उन्होंने उस सत्ता को न केवल चुनोती दी, बल्कि विद्रोह की रात, चौरी चौरा रेलवे स्टेशन और डाकघर पर तिरंगा फहरा कर, अपने संघर्ष का मकसद समाज के सामने रखा’।

इस विद्रोह में चौरी-चौरा के 40 किलोमीटर के दायरे 60 गांवों के गरीब किसान शामिल हुए थे। इनकी संख्या 2 से 3 हजार के बीच थी। इस विद्रोह का केंद्र दलितों, पिछड़ों और मुसलानों का गांव डुमरी खुर्द था। इस विद्रोह का नेतृत्व वर्ण-जाति व्यवस्था में शू्द्र-अतिशूद्र कही जाने वाली जातियों के लोगों और गरीब मुसलमानों ने किया था। इस बगावत के नेता अब्दुल्ला चूड़ीहार, भगवान अहीर, बिकरम अहीर, नजर अली, रामस्वरूप बरई आदि थे। चौरी-चौरा की बगावत के लिए 19 लोगों को फांसी दी गई थी। इन 19 लोगों में अब्दुल्ला, भगवान अहीर, बिकरम अहीर, दुधई, कालीचरन कहार, लवटू कहार, रघुबीर सुनार, रामस्वरूप बरई, रूदली केवट, संपत चमार आदि को फांसी दी गई थी। जाति के आधार पर देखें तो अहीर जाति के 4, कहार 3, मुसलमान 3 और केवट जाति के 2 लोगों को फांसी दी गई। 19 लोगों को फांसी देने के साथ ही, 14 लोगों को आजीवन कारावास और 96 लोगों को अलग-अलग तरह की सजाएं दी गई थी। फांसी और सजा पाये अधिकांश लोग पिछडे, दलित और मुसलमान थे। जिन लोगों को फांसी और अन्य सजाएं हुई उनके परिवारों पर किस कदर कहर टूटा और उन पर क्या बीती इसकी भी मार्मिक कहानी यह किताब कहती है।

चौरी-चौरा शहीद स्मारक की तस्वीर

चौरी-चौरा के डुमरी खुर्द के  लाल मुहम्मद, बिकरम अहीर, नजर अली, भगवान अहीर और अब्दुल्ला के नेतृत्व में के नेतृत्व में किसानों ने 4 फरवरी 1922 में हजारों किसानों ने जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक चौरी-चौरी थाने को फूंक दिया। 22 सिपाही मारे गए।

इस घटना ने उच्च जातीय जमींदारों-राजा एंव नवाबों और ब्रिटिश सत्ता को हिला दिया। यह खबर पूरी दुनिया में फैल गई। जहां एक ओर दुनिया भर के जनपक्षधर क्रांतिकारी ताकतों ने इसका स्वागत किया और भारत में क्रांतिकारी तूफान की शुरूआत के रूप में देखा, वहींं उच्च जातीय जमींदारों को अपने संघर्ष की रीढ़ मानने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेता गांधी भी इस विद्रोह से घबरा उठे। उन्होने मेहनतकश गरीब जनता की इस बगागवत को ‘गुंडों का कृत्य’ या ‘उपद्रवियों का कृत्य’ कहा। ऐसा कह कर वे सीधे-सीधे उच्च जातीय जमींदारों और ब्रिटिश सत्ता के पक्ष में खड़े हो गए।

चौरी-चौरी संघर्ष की हकीकत को ज्यादात्तर इतिहासकारों ने छिपाया और तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हम सभी जानते हैं कि भारत के ज्यादात्तर इतिहासकार उच्च जातीय और उच्चवर्गीय इतिहास दृष्टि के शिकार रहे हैं, इसमें बहुत सारे वामपंथी इतिहासकार भी शामिल है। लेकिन हाल वर्षों में ऐसे दलित-बहुजन समाज से ऐसे लेखक और इतिहासकार सामने आए हैं, जिन्होंने न केवल उदारवादी राष्ट्रवादी इतिहास दृष्टि को चुनौती दिया, बल्कि छद्म वामपंथी द्विज इतिहास दृष्टि को भी चुनौती दिया है। ऐसे लेखक और इतिहासकारों में एक महत्वपूर्ण नाम सुभाष चंद्र कुशवाहा का है। पेंगुइन बुक्स प्रकाशित उनकी किताब, चौरी-चौरा : विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन  चौरी-चौरा की घटना को देखने परंपरागत नजरिए को चुनौती देती है और पूरे घटना क्रम को एक नए परिप्रेक्ष्य के साथ प्रस्तुत करती है।

हम सभी जानते हैं कि दलित-बहुजन समाज के सघर्षों और उसके नायकों की निरंतर द्विज इतिहासकारों द्वारा उपेक्षा की जाती रही है, यह चीज चौरी-चौरा की घटना के संदर्भ में भी हुई। इस संदर्भ में सुभाष चंद्र कुशवाहा कहते हैं, ‘ मेरे जेहन में जब भी चौरी-चौरा  विद्रोह का स्मरण आता है, तो सोचता हूं कि आजादी की लड़ाई में ब्रिटिश सत्ता को नेस्तानाबूद करने वाले इस इकलौते कृत्य को गौरवान्ति करने के बजाय, उपेक्षित करने का कारण, भारतीय सामंती समाज के उस वर्ग चरित्र का हिस्सा तो नहीं, जहां गरीब किसानों, मुसलमानों और कथित निम्न जातियों को हमेशा उपेक्षित और तिरस्कृत किया गया है।’ यह किताब चौरी-चौरा की बगावत के माध्यम से भारतीय इतिहास विषेशकर स्वतंत्रता आंदोलन जातीय चरित्र और वर्गीय चरित्र के संदर्भ में कई सारे गंभीर प्रश्न उठाती है। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के वर्गीय चरित्र पर तो वामपंथी इतिहासकार एक हद तक प्रश्न उठाते हैं, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा आजादी का आंदोलन उच्च जातियों के नेतृत्व में उच्च जातीय वर्चस्व का भी संघर्ष था, इसे देखने की भी कोशिश नहीं करते। आंबेडकर ने निरंतर स्वतंत्रता आंदोलन के उच्च जातीय चरित्र को अपने विमर्श और संघर्ष के केंद्र में रखा। यही काम प्रेमचंद्र ने अपने उपन्यास गोदान में किया है। गोदान का केंद्रीय निष्कर्ष यह है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्तियां उच्च जातीय और उच्च वर्गीय हैं। सुभाष चंद्र कुशवाहा इसी यथार्थ को प्रमाणिक तथ्यों के माध्यम से अपनी किताब में समाने लाते हैं।

चौरी-चौरा रेलवे स्टेशन

वे चौरी-चौरा के किसानों की बगावत को किसी स्थानीय कांड के रूप में नहीं लेते। वे इसके विश्वव्यापी और देशव्यापी फलक को प्रस्तुत करते हैं। दुनिया भर की जनता के संघर्षों के इतिहास के साथ चौरी-चौरा के इतिहास को जोड़ते हुए लिखते हैं, चौरी-चौरा का किसान विद्रोह भारतीय इतिहास की कई फंतासियों, मिथको और कुलीनतावादियों के दोगले चरित्र का पर्दाफाश करते हुए, इस तथ्य को भी रूपायित करता जान पड़ता है कि किसी गुलाम देश की आजादी, सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष के प्रयासों से नहीं मिलती, आजादी के लिए हमेशा जनसंघर्ष की जरूरत पड़ती है। ऐसे संघर्षों में कई बार हिंसा की उपस्थिति अधिनायकवादियों द्वारा अनिवार्य बनी दी जाती है तो कई बार स्वंय की हिफाजत के लिए भी हिंसा जरूरी हो जाती है। आत्मरक्षार्थ शस्त्र लाइसेंस देने के पीछे दुनिया भर में यही सिद्धांत अपनाया जाता है।’  यह बात चौरी-चौरा के गरीब किसानों पर भी लागू होती है,  ‘ चौरी-चौरा की गरीब जनता ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन के अंदर एकजुट हो, विरोध का स्वर बुलंद किया था। उनका विद्रोह गुंडों का नहीं, आजादी की आकांक्षा का विद्रोह था। ग्रामीण आबादी के सबसे नजदीक ब्रिटिश सत्ता के केंद्र के रूप में थाना ही था, जहां वे अपनी विद्रोह जता सकते थे।

इस विद्रोह के समाजिक चरित्र को उजागर करते हुए सुभाष जी लिखते हैं, ‘ गोरखपुर के गरीब और अस्पृश्यों का यह विद्रोह, अंग्रेजों से लोहा लेने और प्राणों की आहुति देने वाले दक्षिण के मोपला विद्रोह और राजस्थान के भील विद्रोह के समान उच्च आदर्श प्रस्तुत करता है’। यह विद्रोह स्वत:स्फूर्त, अराजक और अनियोजित भीड़ द्वारा नहीं अंजाम दिया गया था। यह एक सुनियोजित तरीके से रणनीति बनाकर अंजाम दिया गया था, ‘ स्वंयसेवकों ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए, इस विद्रोह को अंजाम देने के लिए एक हद तक रणनीति भी बना ली थी। 4 फरवरी की सभा को सफल बनाने के लिए मात्र दो दिन की तैयारी में 40 किलोमीटर की परिधि के लगभग 60 गांवों के स्वयंसेवकों को बुलाकर एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत की थी। गोरखपुर के कांग्रेसी मुख्यालय का नेतृत्व न मिलने के बावजूद उन्होंने  अपना नेतृत्व विकसित किया और उसके निर्देशों का पालन भी किया।’ चौरी-चौरा के 60 गांवों के  गरीब किसानों के विद्रोह के  कारणों का विश्लेषण करते हुए लेखक लिखता है,’ किसान विद्रोहों के पीछे थानेदार गुप्तेश्ववर सिंह और अंग्रेजों द्वारा पोषित जमींदारों के जुल्म, जनता में आक्रोश पैदा कर रहे थे। दूसरी ओर गांधी, ‘महात्मा’, ‘फकीर’, ‘देवता’ और ‘चमत्कारिक पुरूष’ के रूप में समाचार पत्रों तथा देख अभिजात्यों द्वारा स्थापित किए जाने के बावजूद, किसानों की किसी भी समस्या का हल, कांग्रेसी आंदोलन के पास नहीं दिख रहा था। यहां तक कि ज्यादात्तर जुल्म ढाने वाले जमींदार कांग्रसे के समर्थ थे।’

सुभाष चंद्र कुशवाहा की यह किताब चौरी-चौरा के संदर्भ में बहुत सारे नए तथ्यों को सामने लाती है और पुराने मनगढ़ंत तथ्यों को दुरूस्त करने की मांग करती है। यह तथ्यात्मक गलतियां इतिहासकारों के साथ-साथ सरकारी दस्तावेजों में भी की गई हैं। यह किताब चौरी-चौरा के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे चरित्र पर दलित-बहुजन दृष्टि से पुनर्विचार करने की प्रस्तावना भी प्रस्तुत करती है।

पुस्तक – चौरी चौरा : विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन

लेखक – सुभाष चंद्र कुशवाहा

प्रकाशक –  पेंगुइन बुक्स

मूल्य – 225  रुपए


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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