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अतीत को खॅंगालने का बेजोड़ प्रयास

किसी भी जाति-समाज को जानने-समझने का जरिया उसका साहित्य और इतिहास होता है। यहाॅं यह भी याद रखने की जरुरत है कि यह विजेताओं से ही प्रभावित होता है। इस लिहाज से असुरों का इतिहास नहीं है। महिषासुर मिथक व परंपराएं द्विजों के इतिहास को परखने और गैर द्विजों के अतीत को समझने का प्रयास है। बता रहे हैं सुनील अमर :

‘द मार्जिनलाइज्ड’ द्वारा प्रकशित और प्रमोद रंजन द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘महिषासुर: मिथक व परम्पराएं ’ विदेशी और उसी परम्परा के देशी ग्रन्थकारों द्वारा फैलाये गए इतिहास के सायास कुहासे को भेदने में एक टाॅर्च की तरह काम करती है। पुस्तक में डेढ़ दर्जन से अधिक लेखकों ने अपनी यात्राओं व शोधों के जरिए ‘असुर’ के अन्तर्गत आने वाले बहुजन समुदाय की जड़ों तक पहुॅंचने, उनके रहन-सहन, बोली, मान्यताओं, उपासना विधि तथा इन सब पर संगठित ढंग से ‘ब्राह्मणी’ व्यवस्था द्वारा किए गए व किए जा रहे सांस्कृतिक-आर्थिक हमलों का विस्तृत व साक्ष्यपूर्ण विवरण रखने का श्रमसाध्य कार्य किया है। देश में पिछले कुछ वर्षों से चल रहे महिषासुर आन्दोलन और उसके बारे में ‘सवर्ण मीडिया’ द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम का पर्दाफाश करने में भी यह पुस्तक मदद करती है।

महिषासुर मिथक और परंपराएं (संपादक – प्रमोद रंजन) पुस्तक का कवर पृष्ठ

हमारे देश में आधुनिक कही जाने वाली जो शिक्षा व्यवस्था है उसमें राक्षस, असुर, भैंस, भैंसा तथा जंगली आदि शब्दों को या तो गाली के तौर पर पढ़ाया जाता है या फिर किसी को नीचा दिखाने के लिए प्रयोग किया जाता है। प्रस्तुत पुस्तक इस बात पर बहुत तर्कसंगत ढंग से रोशनी डालती है कि उपर्युक्त शब्द गाली या नीच के पर्याय नहीं बल्कि एक अति प्राचीन संस्कृति के वाहक और जीवन्त प्रतीक हैं जिन्हेें सबल जाति समूहों ने अपने स्वार्थ और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए गाली और नीच में परिभाषित कर दिया है। पुस्तक कहती है कि-‘… यह शोध बहुजन समाज की मूल संरचना और उसके ऐतिहासिक उद्विकास सहित उसके पतन की खोज है ताकि ब्राह्मणी या आर्य षड़यन्त्र को उसकी सम्पूर्णता में देखा जा सके। यही शोध आज हमारी आॅंखों के सामने चल रहे उसी सनातन षड़यन्त्र को दुबारा उजागर करेगा। यह न केवल ऐतिहासिक अर्थाें में उद्विकास और पतन की नयी तस्वीर को उजागर करेगा, बल्कि भविष्य में ब्राह्मणवादी पाखण्ड के शमन के लिए प्रगतिशीलों और मुक्तिकामियों सहित सम्पूर्ण बहुजन समाज के सभी धड़ों को एक साथ संगठित भी करेगा। यही अंततः एक निरीश्वरवादी प्रकृतिरक्षक, मातृसत्तात्मक और ‘इस लोक’ में भरोसा करते हुए परलोक को नकारने वाले वैज्ञानिक व समतामूलक समाज वाले भारत में स्थापना का आधार बनेगा।’ (पृष्ठ 139)

जोभीपाट गांव में गोला असुर और सुमित्रा असुर से बात करते प्रमोद रंजन (फोटो : एफपी ऑन द रोड, 2015)

पुस्तक में विस्तार से इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि कैसे आज भी झारखण्ड के असुरों और बिहार के मवेशीपालकों के बहुत से रीति-रिवाज व परम्पराएं एक जैसी हैं। इसमें जानवरों की पूजा, गायन, होेली-दीवाली जैसे त्यौहार तथा अच्छी फसलों के लिए किए जाने वाले करम पर्व आदि का विस्तार से उदाहरण देकर इस बात को रेखांकित किया गया है कि इस तरह के दैनिक जीवन वाले तमाम साम्य महज संयोग नहीं हो सकते। प्रकृति की गोद में जीवनयापन करने वाले असुर स्वाभाविक है कि प्रकृति पूजक होते हैं लेकिन यही प्रकृति पूजा बिहार के मैदानी इलाकों में भी बदस्तूर जारी है। करमा पर्व, गौरैया बाबा, ढ़ेलहवा बाबा, गोधन कूटने की परम्परा, बख्तौर बाबा तथा जट-जटिन (संभवतः यक्ष-यक्षिणी का अपभ्रंश) आदि का व्यापक संधान कर और मैदानी परम्पराओं से उनका बारीकी से मिलान कर यह स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कि आज जिसे हम सभ्य समाज के रीति-रिवाज बताते हैं उनका उत्स असल में कहाॅं है और वे कहाॅं से ली गई हैं। लेखकाें ने इस बात को स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की है यहाॅं के मूल लोग कौन थे।

बुंदेलखंड के मोहारी में मैकासुर के सीमेंट के चबूतरे पर बनी मूर्तियां

किसी भी जाति-समाज को जानने-समझने का जरिया उसका साहित्य और इतिहास होता है। यहाॅं यह भी याद रखने की जरुरत है कि यह विजेताओं से ही प्रभावित होता है। इस लिहाज से असुरों का इतिहास नहीं है। आलोच्य पुस्तक में बताया गया है कि भारतीय इतिहास को लेकर चार दृष्टियाॅं मौजूद हैं- पहली औपनिवेशिक, दूसरी राष्ट्रवादी, तीसरी वामपंथी और चौथी बहुजन इतिहास दृष्टि। इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास को बहुजन दृष्टिकोण से देखे जाने की जरुरत है तथा महिषासुर आन्दोलन फुले, आम्बेडकर और पेरियार के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास को देखने के नजरिए को व्यापक बहुजन तबके तक ले जाना चाहता है।

यात्रा वृतान्त, मिथक व परम्पराएं, आन्दोलन किसका, किसके लिए?, असुर: संस्कृति व समकाल, साहित्य तथा परिशिष्ट इन छह खण्डों में विभाजित इस पुस्तक का पाॅंचवां खण्ड साहित्य का है जिसे इकठ्ठा करने में निश्चित ही काफी श्रम व प्रयत्न किया गया है। इसमें प्रार्थना, गीत, रागिणी, कविताऐं व एक नाटक भी है। पूरी पुुस्तक यात्रा व शोध से लबरेज है और यही वजह है कि यह न सिर्फ असुर संस्कृति को जानने-समझने की इच्छा रखने वालों बल्कि इस सम्बन्ध में आगे शोध करने वालों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी बन पड़ी है। इसके साथ ही सरकार के तमाम विभाग भी इस पुस्तक को संरक्षण व संवर्द्धन कार्यक्रमों के लिए दिशानिर्देशक के तौर पर इ्रस्तेमाल कर सकते हैं।

 

किताब :  महिषासुर : मिथक और परंपराएं

संपादक : प्रमोद रंजन

मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850(हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

ऑनलाइन यहां से खरीदें : https://www.amazon.in/dp/B077XZ863F


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 जाति के प्रश्न पर कबी

महिषासुर : मिथक और परंपराएं

चिंतन के जन सरोकार 

महिषासुर : मिथक व परंपराए

लेखक के बारे में

सुनील अमर

सुनील अमर राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार हैं।

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