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सीता नहीं, शूर्पनखा और ताड़का हैं हमारी नायिकायें

बीते दिनों संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के दौरान कांग्रेसी सदस्या रेणुका चौधरी की हंसी महत्वपूर्ण घटना के रूप में सामने आयी। यह पूरी घटना केवल राजनीतिक घटना नहीं बल्कि स्त्री विमर्श से जुड़ा महत्वपूर्ण सवाल है। सुनीता दुबे का विश्लेषण :

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इशारे-इशारे में संसद में सदस्या रेणुका चौधरी की हंसी की शूर्पनखा या ताड़का की हंसी से तुलना की। रेणुका चौधरी ने इस तुलना से खुद को अपमानित महसूस किया। इस प्रसंग में रेणुका चौधरी सहित हर भारतीय स्त्री को अपने से यह प्रश्न जरूर पूछना चाहिए कि वह सीता से अपनी तुलना करना पसंद करती हैं या शूर्पनखा और ताड़का से? मेरी राय यह है कि भारतीय स्त्री को सीता की जगह शूर्पनखा और ताड़का को अपनी आदर्श नायिका मानना चाहिए।

कांग्रेसी सांसद रेणुका चौधरी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

जरा सीता से शूर्पनखा और ताड़का की तुलना करें। सीता जन्म से अपने पिता के अधीन हैं, शादी के बाद अपने पति के। यही तो हिंदू शास्त्रों का आदेश है कि स्त्री को कभी भी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए। उसे पिता, पति या पुत्र की अधीनता में ही जीवन जीना चाहिए। सीता हिंदू शास्त्रों के इन आदेशों का पूरी तरह पालन करती हैं। जबकि शूर्पनखा और ताड़का आजाद स्त्रियां हैं। सभी मामलों में पुरूषों के बराबर। सीता किससे शादी करेंगीं यह उनके पिता जनक तय करते हैं। इस मामले में सीता की इच्छा-अनिच्छा की कोई भूमिका नहीं है। जबकि शूर्पनखा आजाद हैं कि जो व्यक्ति उन्हें पसंद आये उससे प्रेम का प्रस्ताव कर सकती हैं। इस संदर्भ में मैं भारतीय संविधान की भी याद दिलाना चाहती हूं। भारतीय संविधान हर वयस्क लड़की को इस बात की आजादी देता है कि वह किससे शादी करेगी या किससे संबंध बनायेगी, यह उसका निजी मामला है। अभी हाल में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी पुष्टि की है।

रामायण, रामचरित मानस और अन्य हिंदू ग्रंथों में शूर्पनखा का जो प्रसंग आता है, उसके अनुसार वह रावण की बहन हैं, लेकिन वह रावण या किसी के अधीन नहीं हैं, वह स्वतंत्र तरीके से जंगलों में भ्रमण करती हैं, वह पुरूषों जितनी बलशाली हैं। वह क्या करे और क्या न करे इसका निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। वह मनमाफिक जीवन जीती हैं।

इसी तरह ताड़का एक महान योद्धा हैं। वह एक महान योद्धा की पत्नी हैं, दोनों के बीच बराबर का संबंध है। ये स्त्रियां हमारी आज की उन स्त्रियों से भी जुड़ती हैं जो बंधनों को तोड़कर आगे बढ रही हैं। आज भी ऐसी स्त्रियों को समाज का एक बड़ा हिस्सा अच्छी स्त्रियां नहीं मानता है।

मैथिली पेँटिंग में रामायण में वर्णित महिला पात्रों का सामूहिक चित्रण

सीता और शूर्पनखा या ताड़का के चरित्र का यह अंतर केवल कुछ स्त्रियों के चरित्र का अंतर नहीं है, बल्कि दो संस्कृतियों के बीच का अंतर है। पहली संस्कृति इस देश के अनार्य-आदिवासी संस्कृति है जिसमें स्त्री-पुरूष दोनों समान हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से स्वतंत्र हैं। स्त्री पुरूष की दासी या गुलाम नहीं है। क्या खायेगी या पीयेगी, किससे प्रेम करेगी और किससे शादी करेगी यह उसका स्वतंत्र निर्णय है। आज भी आदिवासियों के एक बड़े हिस्से में यह परंपरा मौजूद है और भारत का संविधान भी यही कहता है। जबकि दूसरी परंपरा आर्य-मनुवादी परंपरा है जो स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है।

सीता आर्य-मनुवादी परंपरा की आदर्श पालनकर्ता है जबकि शूर्पनखा और ताड़का जैसी स्त्रियों अनार्यों की परंपरा की प्रतीक है, जिसमें स्त्री पूरी तरह आजाद और जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरूषों के समान है। जैसे आर्य-मनुवादी वर्चस्ववादी परंपरा को चुनौती देने वाले नायकों को राक्षस कह दिया गया, उसी तरह स्त्रियों को दासी या अनुचर मानने वाली आर्य परंपरा को चुनौती देने वाली स्त्रियों को राक्षसी कह दिया गया।

दुर्भाग्य यह है कि न केवल पुरूष समाज शूर्पनखा या ताड़का जैसी आजाद स्त्रियों को ‘राक्षसी’ मानता है, स्त्रियों का भी बहुलांश हिस्सा इन्हें ‘राक्षसी’ ही मानता है। जबकि पुरूष की दासता और अधीनता में अनुचर या व्यक्तित्वविहीन स्त्री की तरह जीने वाली सीता को आदर्श नायिका मानता है। मेरा दो टूक कहना है कि यदि भारतीय स्त्री सीता को अपना आदर्श मानती रहेगी तो कभी भी मुक्त स्त्री का जीवन नहीं जी सकती है, पराधीनता ही उसकी नियति होगी।

हमें सीता की जगह आजाद और मुक्त स्त्री की प्रतीक शूर्पनखा और ताड़का को अपनी आदर्श नायिकाएं बनाना चाहिए। रेणुका चौधरी से भी मेरा अनुरोध है कि वे शूर्पनखा या ताड़का कहे जाने पर अपमानित महसूस करने की जगह सम्मानित महसूस करे और खैर मनाए कि उनकी तुलना सीता से नहीं की गई। हां, प्रधानमंत्री की इस मानसिकता पर जरूर पूरे देश के विचार करना चाहिए कि वह मुक्त हंसी हंसने वाली औरतों को बर्दाश्त नहीं कर पाते। हम सभी स्त्रियों को शूर्पनखा और ताड़का की तरह ही ठहाका मार कर हंसना चाहिए, संसद में और संसद के बाहर भी।


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लेखक के बारे में

सुनीता दुबे

सुनीता दुबे रविवार पत्रिका में नियमित स्तंभकार रही हैं। साथ ही अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन कार्य करती हैं

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