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स्वच्छता और शिक्षा का संदेश देने वाले संत गाडगे

संत गाडगे जी का जीवन संदेश कहता है कि यदि प्रयास किये जायें तो जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन हो सकता है। अभाव के बावजूद संत गाडगे ने स्वच्छता और शिक्षा को लेकर उल्लेखनीय प्रयास किया था। आज जो राजनीति में बढ़-चढ़ कर स्वास्थ्य और स्वच्छता की बात कर रहे हैं उन्हें कम से कम सन्त गाडगे जी के बारे में जानना चाहिये। जयंती पर स्मरण कर रहे मोहनदास नैमिशराय :

 गाडगे जयंती 23 फरवरी

भारत में सन्त गाडगे (23 फरवरी 1876 -20 दिसंबर 1956) ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने समाज को स्वच्छता का संदेश दिया। उनके इस सन्देश ने आम आदमी के भीतर चेतना के अंकुरों को जन्म दिया। आपका स्वास्थ्य अगर ठीक है तो आप बहुत कुछ कर सकते हैं। समाज के स्वास्थ्य के बारे में भी सोच सकते हैं। उन्हें आगे क्या करना है, इस बारे में भी बता सकते हैं। इससे उनके जीवन की परिस्थितियों में बदलाव आ सकता है। वे भविष्य की रूपरेखा बना सकते हैं। कहना न होगा कि जीवन के हर क्षेत्र में परिवर्तन हो सकता है। आज जो राजनीति में बढ़-चढ़ कर स्वास्थ्य और स्वच्छता की बात कर रहे हैं उन्हें कम से कम सन्त गाडगे जी के बारे में जानना चाहिये।

वे वास्तव में श्रमजीवी साधु थे। सवर्ण समाज के सन्तों से कहीं आगे जाकर उन्होंने बहुजन समाज के लिए पथ का निर्माण किया।  गाडगे जी बहुत बड़े कुल में पैदा नही हुए थे। लेकिन शुरू से ही वे समाज के बारे में सोचते थे। सदियों से आ रही कुरीतियों में बदलाव चाहते थे और उन्हें मुक्त कराना चाहते थे जो सदियों से हाशिये पर अपना जीवन बसर कर रहे थे। उस दौर में उन्हें यह बताने वाला कोई न था कि उन्हें क्या करना है? लोक शिक्षक गाडगे बाबा के पास पुस्तक ज्ञान न था, लेकिन उनके भीतर जो ज्ञान था उससे चेतना का संचार होता था।

वर्ष 1954 में महाराष्ट्र के पंढरपुर में एक सभा को संबोधित करते संत गाडगे जी

तत्कालीन समाज की पीड़ा को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा भी था और भोगा भी। उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, जो मेहनतकश था। कहना न होगा कि वे भूमि पुत्र थे। महाराष्ट्र प्रांत के अमरावती जिले के शेड गांव में 23 जनवरी, 1876 में वे पैदा हुए थे। उनकी माता का नाम सख बाई और पिता का नामझींनग राजी था। उनके बचपन का नाम देवीदास देबुजी था।

 गाडगे जी के साथ बचपन मे हादसा हुआ। उनके पिता का देहांत हो गया। मजबूर होकर उन्हें अपने मामा के घर जाना पड़ा। गरीब परिवार और दुखद स्थितियों से गुजरने का जैसे उन्हें अभ्यास होने लगा था। अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो गए थे वे। कम उम्र में वैचारिक परिपक्वता उनके भीतर से उभरने लगी थी।

संत गाडगे की स्मृति में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

वे हमेशा अपने साथ मिट्टी का मटका रखते थे। इसी में वे खाना खाते और पानी पीते थे। महाराष्ट्र में मटके के टुकड़े को गाडगा कहते हैं। इसी कारण समाज मे वे गाडगे के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

 गाडगे जी बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर (14 अप्रैल 1891-6 दिसंबर 1956) के समकालीन थे। उम्र में करीब 15 साल बड़े। समाज उन दिनों जाति भेद से ग्रस्त था। लोग एक दूसरे को जाति से ही पहचानते थे। व्यक्ति के गुण को अनदेखा किया जाता था। उन्हें यह देख और महसूस कर बहुत बुरा लगता था। इसलिए इन सबके खिलाफ उन्होंने प्रचार करना शुरू कर दिया। आरम्भ में लोगों ने उनकी और ध्यान नही दिया, लेकिन समाज को बदलने की उनकी लगातार कोशिशें रंग लाई। लोगों का ध्यान उनकी ओर होता गया। यहां तक कि ब्राह्मण समाज के कुछ समझदार लोगों ने भी सामाजिक बदलाव के उनके कार्यक्रम को स्वीकार किया। क्योंकि गाडगे जी ब्राह्मण के नही ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे। उन्होंने उन सभी लोगों के खिलाफ समता, स्वतंत्रता और बन्धुता के लिये आवाज उठाई जो रुकावट बन रहे थे, जो समाज को रामराज्य की ओर ले जाना चाहते थे। जिनके लिए न तो दलित का कोई अर्थ था और न महिलाओं के सम्मान का। उस तरह के ब्राह्मणवाद और सामन्तवाद को उखाड़ने के लिए उन्होंने कमर कसी।

डॉ. आंबेडकर के साथ संत गाडगे जी व अन्य

बाबा साहब भी उन दिनों देश भर में दलितों, पिछड़ों और महिलाओ के सम्मान की सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। तब तक गाडगे जी बाबा साहब के विचारों से भली-भांति परिचित हो गए थे। विशेष रूप से बाबा साहब के उस शिक्षा दर्शन को वे समझ गए थे कि शिक्षा के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। इसलिए गाडगे जी ने अपने अनुयायियों को इस तरफ ध्यान देने के लिए कहा और उन्हें समझाया भी। इस तरह बहुजन समाज की बस्तियों में स्कूलों की बात ने जोर पकड़ा। हालांकि जोती राव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890) और सावित्री बाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) पहले से ही बहुजन समाज के लड़के तथा लड़कियों के लिए स्कूल शुरू कर चुके थे। लेकिन सनातनी लोग अभी भी इन सब के खिलाफ थे। उनमें असामाजिक तत्वों की संख्या ज्यादा थी। वे नहीं चाहते थे कि बहुजन समाज के बच्चे पढे लिखें।। उनके लिए मनुस्मृति में जो लिख दिया गया था वही पत्थर की लकीर बन गई थी। क्योंकि सदियों से सवर्ण ऐसा ही सुनते आ रहे थे। उनका विश्वास अंधविश्वास में बदल गया था। दुखद आश्चर्य की बात तो यह भी थी कि बहुजन समाज के अधिकांश लोग भी ऐसा ही सोचते थे। समाज के बीच जागृति लाने के लिए गाडगे जी ने भजन कहने और सुनाने का माध्यम अपनाया। जो उस समय के लोगों के लिए ठीक भी था। उनके पास न तो किताबें थीं, न कॉपी और न कलम। सुबह शाम जब भी समय होता गाडगे जी उन्हें इक्ट्ठा कर अपनी बात कहते। लोग भी ध्यान से उनकी बात सुनते।

बिहार की राजधानी पटना के न्यू कैपिटल धोबी घाट पर स्थापित संत बाबा गाडगे की आदमकद प्रतिमा

गाडगे जी जो कहते थे वह करते भी थे। वे अनुशासन प्रिय थे। एक बार एक सामूहिक भोज का आयोजन हुआ। भोजन खाने के लिये पंगत में महार जाति के लोग भी बैठ गए। उन्हें देखकर सवर्णों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। उसी पंगत में गाडगे जी भी बैठे थे। उन्हें बहुत बुरा लगा। वे तुरंत पंगत से यह कहते हुए उठ गए कि अगर इन लोगो को आप अपने साथ भोजन नही खिला सकते तो मैं आपके साथ भोजन करने को तैयार नही हूँ। लेकिन जाति अभिमान रखने वाले कहां मानने को तैयार थे। इसके बाद गाडगे जी ने भी भोजन नहीं किया। क्योंकि उनके लिए दलितों का सम्मान पहले था।

संत गाडगे जी की पेंटिंग

उनके इस निर्णय का बहुत प्रभाव पड़ा। उनका कहना था कि समाज मे समता का होना बहुत जरुरी है। व्यक्ति तो समाज का ही अंग है। इस तरह समाज से छुआछूत को मिटाने के लिए उन्होंने दूर-दूर तक जाकर प्रयास किये। उनका नाम एक अच्छे काम के साथ लोगों तक पहुंचा। जहां भी वे जाते उनके अनुयायी खबर मिलते ही आ जाते। हर जाति और हर वर्ग के लोगों को वे सहज भाव से समझाते।

 गाडगे जी हालांकि स्वयं पढे़-लिखें नही थे लेकिन उन्होंने शिक्षा के महत्व को जाना था। जबसे उनका सम्पर्क डॉ. आंबेडकर से हुआ था, वे गम्भीरता से दलितों की शिक्षा के बारे में सोचने लगे थे। डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित पीपुल्स एडुकेशन सोसाइटी को भी उन्होने आर्थिक सहयोग दिया था। 6 दिसम्बर, 1956 को जब बाबा साहेब का परिनिर्वाण हुआ तो गाडगे जी को बहुत दुख हुआ था और वे उसे सहन न कर पाए थे। 20 दिसम्बर, 1956 को ही उनका भी निधन हो गया। महाराष्ट्र सरकार ने 1983 में सन्त गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना किया। बाद में 20 दिसम्बर, 1998 को भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया।


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लेखक के बारे में

मोहनदास नैमिशराय

चर्चित दलित पत्रिका 'बयान’ के संपादक मोहनदास नैमिश्यराय की गिनती चोटी के दलित साहित्यकारों में होती है। उन्होंने कविता, कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त अनेक आलोचना पुस्तकें भी लिखी हैं।

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