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बहुजनों को केंद्र में रख ही लिखा जा सकता है, भारत का सच्चा इतिहास

अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी रॉयटर्स के इस खुलासे के बाद कि भारत सरकार एक बार फिर इतिहास का पुनर्लेखन करवाने जा रही है। सवाल यह उठता है कि इसके पीछे उसकी मंशा क्या है?  इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा की प्रतिक्रिया :

(अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार भारत सरकार ने इतिहास के पुनर्लेखन के लिए 12 सदस्यीय समिति का गठन किया है। इस समिति ने अपना काम शुरू कर दिया है। यह काम काफ़ी गुपचुप तरीके से हुआ है और भारतीय मीडिया भी इस पर लगभग चुप्पी साधे हुए है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी रॉयटर्स ने इस पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की है। एजेंसी के मुताबिक समिति को दो लक्ष्य दिए गए हैं- पहला, पुरातात्विक खोजों और डीएनए का उपयोग करके यह साबित करना कि हिंदू भारत के मूल निवासी हैं और दूसरा यह कि हिंदू शास्त्र मिथक नहीं इतिहास हैं।)

संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने इस तथ्य की पुष्टि की। उन्होंने रॉयटर्स बातचीत में कहा कि वे संसद में समिति की अंतिम रिपोर्ट पेश करेंगे, और स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में इसे शामिल कराने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सहमत करने को लेकर प्रयास करेंगे। समिति के अध्यक्ष के.एन दीक्षित ने रायटर्स को बताया, “मुझे एक रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है जो सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर से लिखने में मदद करे।” संस्कृति मंत्री का कहना है  कि “गौरवशाली अतीत की सर्वोच्चता साबित करने के लिए” पिछले तीन सालों में उनके मंत्रालय ने देश भर में सैकड़ों कार्यशालाएं और सेमिनार आयोजित किए हैं।उन्होंने रॉयटर्स को बताया कि वे यह स्थापित करना चाहते हैं कि हिन्दू शास्त्र तथ्यात्मक हैं। उन्होंने कहा “मैं रामायण की पूजा करता हूं और मुझे लगता है कि यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो लोग सोचते हैं कि यह कल्पना है, वे लोग बिल्कुल गलत हैं।” रायटर्स ने इतिहास समिति के 12 सदस्यों से मुलाकात की जिसमें  9 सदस्यों ने बताया कि प्राचीन भारतीय शास्त्रों के साथ पुरातात्विक और अन्य साक्ष्यों के मिलान में उन्हें कामयाबी मिली है और भारतीय सभ्यता ज्ञात समय से ज्यादा पुरानी है। समीति के एक सदस्य जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर संतोष कुमार शुक्ला ने रायटर्स को बताया कि भारत की हिंदू संस्कृति लाखों साल पुरानी है।

केंद्रीय कला व संस्कृति मंत्री महेश शर्मा

इतिहास के पुनर्लेखन के संदर्भ में दो प्रश्न विचारणीय है पहला यह कि भारतीय इतिहास को नए सिरे से लिखे जाने की कोई जरूरत है? दूसरा प्रश्न यह है कि यदि इतिहास फिर से लिखा जाता है तो उसके केंद्र में कौन सी दृष्टि होनी चाहिए?  बहुजन समाज को केंद्र में रखकर बहुजन दृष्टि से सोचने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात से इंकार नही कर सकता कि भारतीय इतिहास नए सिरे से लिखा जाना चाहिए, क्योंकि भारतीय इतिहास के लेखन में द्विज दृष्टि प्रभावी रही है। अब तक शूद्र-अतिशू्द्रों और महिलाओं को केंद्र में रख इतिहास नहीं लिखा गया है अर्थात बहुजन दृष्टि से इतिहास नहीं लिखा गया है। यदि बहुजन और बहुजन दृष्टि को केंद्र में रखकर इतिहास लिखा जाएगा तो पूरे इतिहास का क्या स्वरूप होगा? इतिहास के पुनर्लेखन के संदर्भ में यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। प्रस्तुत है इस पूरे संदर्भ में सुभाष चन्द्र कुशवाहा की टिप्पणी

अब तक का इतिहास मिथकों को दैवीय स्वरूप प्रदान कर, वृहद भारत के बहुजन समाज पर एकछत्र शासन करने वालों के लिए इतिहास महज राजे-रजवाड़ों की वंशावलियों, उनकी वीरता का बखान और संस्कृति के नाम द्विज संस्कृति के पक्षपोषण का औजार मात्र रहा है।  सदियों से भारतीय ज्ञान-मीमांसा, इन्हीं धूरियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। सर्जरी चिकित्सा में फिसड्डी रहने वालों के लिए गणेश जैसा मिथकीय चरित्र, एक शेखी बघारने का हथियार रहा है। यह अकारण नहीं कि यहां की धरती, बाहरी दुनिया के लिए अनजान रही। यहां के इतिहास को जानने के लिए, इतिहास की समझ रखने वाले विदेशी यात्रियों के लिए यह जमीन चुनौतीपूर्ण रही।  उन्होंने चुनौती को स्वीकारा। वे यहां आये। इस धरती पर भ्रमण किए। अपनी समझ और सीमाओं के अंदर जो लिख सकते थे, लिखे। यहां का कोई दूसरे देशों की ओर रुख नहीं किया और न अन्य समाजों का इतिहास तलाशने का काम यहां के तीर्थयात्रियों ने किया। बहुजन तो पठन-पाठन से दूर थे ही, उनके संघर्ष और वाचिक गाथाएं, गंवारों के कृत्य से ज्यादा मंडित न की जा सकीं । दूसरी ओर इतिहास में बहुजन की पहलकदमी को नकारने वालों ने, बहुजनों के सामने अपने हितों की हिफाजत के लिए इतिहास को गल्प में बदला। गल्प से सृजित चाणक्य, कौटिल्य और विष्णु गुप्त के अंतरसंबंध आज तक स्पष्ट न हो सके।  अंग्रेजों के आने के बाद, पहली बार यहां के सत्ता-समाज, कृषि और संस्कृति को लिपिबद्ध करने के प्रयास हुए। अंग्रजों ने ही गजेटियर प्रकाशन की नींव रखी जो आज भी तमाम शोध कार्यों का आधार बनी हुई है। अभिलेखों को संरक्षित रखने का काम भी अंग्रेजों ने ही किया। उन्होंने ही तमाम लोक संस्कृतियों, गाथाओं और लोक नायकों को सहेजने का कार्य किया। जिन धार्मिक किताबों के सहारे आज यहां की द्विज संस्कृति, जन इतिहास को गल्प तक ले जाने पर आमदा हैै, उन किताबों की तमाम दुर्लभ पाण्डुलिपियों को खोजने और उन्हें विभिन्न पुस्तकालयों तक पहुंचाने का कार्य भी अंग्रेजों ने ही किया।

प्रख्यात चित्रकार एम. एफ. हुसैन (17 सितंबर 1915 – 9 जून 2011) के द्वारा इतिहास लेखन के थीम पर बनायी गई एक पेंटिंग

इसलिए हम चाहें अंग्रेजों पर जो भी दोषारोपण करें, इतिहास को औपनिवेशिक मानसिकता से लिखा बताएं, तब भी इतिहास को अभिलेखीय साक्ष्यों पर आधारित करने का प्रयास उन्होंने ही किया । हम तो शब्दभेदी बाण चलाते रहे। तलवार और घुड़सवारों से परास्त होते रहे। इसलिए जो लोग आजादी के बाद लिखे गये इतिहास को अस्पृश्य समझ कर, अपने मनमाफिक इतिहास की रचना को उद्धत दिख रहे हैं, दरअसल वे इतिहास का पुनर्लेखन नहीं कर रहे, इतिहास को विकृत कर, अपने द्विज वर्चस्वादी एजेंडे की स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं। संभव है इस कार्य में उन्हें कुछ सफलता भी मिल जाये मगर आंख पर पट्टी बांध कर या दिमाग को गिरवी रख कर लिखा गया इतिहास, लिखने वालों की देर तक हिफाजत नहीं कर सकता। रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज साबित करने की कोशिश, हिंदू संस्कृति को लाखों वर्ष पुरानी घोषित करना या वेदों को हर प्रकार के ज्ञान का भंडार साबित करना अथवा अकबर और राणा प्रताप के बीच के सत्ता संघर्ष को हिन्दू-मुस्लिम संर्घष बना देना, इतिहास का पुनर्लेखन नहीं, कबायली लेखन है।

भारतीय समाज में श्रमण परंपरा पर आधारित एक चित्र

 इतिहास के तमाम शोधकार्यों को आगे बढ़ाने के लिए अभिलेखीय साक्ष्यों की जरूरत होती है। उन अभिलेखों को या साक्ष्यों को परखने की जरूरत होती है । जब बिना किसी पुरातात्विक साक्ष्य या अभिलेखीय प्रमाण के इतिहास लेखन को बढ़ावा दिया जायेगा तो इतिहास को विकृत होने से रोका नहीं जा सकता।

आज जरूरत यह है कि इतिहास के उपलब्ध प्रमाणिक अभिलेखों को बचाया जाये। आस्था के बजाय तर्कशीलता से काम लिया जाये। अभिलेखों का पुनर्मूल्यांकन बुरा नहीं होता बल्कि शोध के नये दरवाजे खोलता है। इतिहास में विमर्शों को स्वच्छता से स्थान देता है। बुरा तब होता है जब इतिहास लेखन करने वाला, इतिहास निर्माण के अनुकूल अभिलेखों का निर्माण कर लेता है। यानी की वह ‘टूल्स’ के रूप में इतिहास का लेखन करता है।  इतिहास लेखन में वर्ग संघर्षों और भारतीय परिप्रेक्ष्य में बहुजनों के संघर्षों को समझने, उसे केंद्रीय स्थान देने की जरूरत है । भारत बहुजन नजरिये को भी प्रमुखता से स्थान दिया जाना चाहिए। उसे हेय और अस्पृश्य नहीं समझना चाहिए । इस दिशा में कुछ काम हुए हैं। अभी और किए जाने की जरूरत है। शायद इससे समाज के समता का रास्ता निकल सके। इस आशंका के कारण ही कुछ सामंती शक्तियों ने बहुजन इतिहास को दबाने के लिए इतिहास को बदलने का काम तेज किया है।  वे इतिहास को अपनी भावनानुकूल तोड़ना-मरोड़ना चाहती हैं। भावना कभी इतिहास नहीं बनता। केवल भास होता है। ऐसे में इतिहास लेखन या पुनर्लेखन का काम अकादमियों और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के द्वारा होना चाहिए । इन अकादमियों में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए । कमजोर समाज की उपेक्षा, इतिहास को पक्षपाती बनायेगा। भारत जैसे बहुजातीय समाज में मुसलमानों, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को शामिल किए बिना इतिहास का पुनर्लेखन संभव नहीं है। इतिहास का पुनर्लेखन, बहुजन की सत्ता में ही संभव है। इसलिए बहुजन को सत्ता से बाहर कर इतिहास लेखन, एक विकृत लेखन को जन्म देगा।


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लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र कुशवाहा

सुभाष चन्द्र कुशवाहा एक इतिहासकार और साहित्यकार के रूप में हिंदी भाषा भाषी समाज में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’, ‘अवध का किसान विद्रोह : 1920 से 1922’, ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’, ‘भील विद्रोह’, ‘टंट्या भील : द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर’ और ‘चौरी-चौरा पर औपनिवेशिक न्याय’ आदि शामिल हैं। वे अपनी किताबों में परंपरागत इतिहास दृष्टियों के बरक्स एक नयी इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।

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