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क्या आपके बच्चे भारत की पहली शिक्षिका को जानते हैं?

सावित्री बाई फुले भारत की पहली शिक्षिका थीं। 1848 से लेकर 1852 के बीच केवल चार साल की अवधि में उन्होंने लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले थे। महिलाओं के जीवन में शिक्षा का प्रकाश फैलाने वाली सावित्री बाई फुले के परिनिर्वाण दिवस के मौके पर स्मरण कर रहे हैं मोहनदास नैमिशराय :

नई शताब्दी में बहुजन साहित्य और आंदोलन के चलते सकारात्मक रूप से कुछ नए विमर्श बुद्धिजीवी वर्ग के बीच से उभरे हैं, जिनमें सावित्री बाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) के जीवन संघर्ष पर विशेष कर चर्चा हुई है। यह समाज और देश हित में है। आज की पीढ़ी के लिए यह प्रेरणादायक है कि वह भारत की पहली महिला शिक्षिका के बारे में जाने, जिन्होंने 19वीं सदी के जातिवादी वर्चस्व वाले समाज में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।

3 जनवरी, 1831 को खन्दोजी नेवसे के घर सावित्री बाई का जन्म हुआ। उन दिनों  लड़कियों को पढ़ाने की परम्परा नहीं थी। समाज में अंधविश्वास और भेदभाव की भावना थी। कम उम्र में ही बच्चों का विवाह कर दिया जाता था। लगभग सात वर्ष की उम्र में सावित्री का विवाह जोती राव फुले के साथ हो गया। यह विवाह उनके जीवन में एक नए जीवन का सूत्रपात था। जैसे अंधेरे से उजाले में प्रवेश किया था सावित्री ने। क्योंकि उनका जीवन साथी एक आदर्श पुरूष था। जो महिलाओं की शिक्षा का समर्थक था। इस लिए जोती राव फुले ने विवाह की अपनी पहली रात से ही सावित्री जी को पढ़ाना शुरू कर दिया। उन्होंने उनके हाथों में किताब दी और समझाया कि शिक्षा के द्वारा वे न सिर्फ अपने जीवन का अंधेरा दूर कर सकती हैं बल्कि दूसरों को भी उजाले में ले जा सकती हैं।

सावित्री बाई फुले की स्मृति में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

हालांकि स्वयं शिक्षा लेते और सावित्री को पढ़ाते हुए उन्हें अनेक परेशानियों का सामना करना पडा। लेकिन उन्होंने हिम्मत नही हारी। जैसा कि हर अच्छे कार्य का दूरगामी प्रभाव होता है। जोती राव की मेहनत भी रंग लाई। पढ़ते-पढ़ते सावित्री बाई शिक्षक बन गईं। सावित्री बाई अब तक शिक्षा का महत्व समझ चुकी थीं। इसलिए अपने पति की मदद से उन्होंने लड़कियों को शिक्षित करने की चुनौती स्वीकार की। पुणे में तांतिया साहेब भिडे की हवेली में 1 जनवरी, 1848 को जोती राव ने स्कूल की शुरुआत की, जिसमे लड़कियों को पढ़ाने का जिम्मा सावित्री को दिया। जिसे उन्होंने ईमानदारी से निभाया और देश की पहली स्त्री शिक्षिका बनने का गौरव हासिल किया। सावित्री बाई ने केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही कार्य नही किया बल्कि स्त्री समाज में चेतना का अंकुर भी डाला। 1 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान सावित्री बाई फुले ने अपने जीवन साथी के सहयोग से लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोल कर प्रभावपूर्ण तरीके से सामाजिक क्रांति की। जिसकी उस समय जरूरत भी थी।

जोती राव फुले और सावित्री बाई फुले की एक पोंटिंग

1849 में सावित्रीबाई फुले ने पूना, सतारा तथा अहमदनगर में पाठशालाएं शुरु की। 1852 में उन्होंने महिला मंडल का गठन किया। जिसके तहत विधवाओं के सर मूंडने जैसी कुरीति के खिलाफ उन्होंने नाईयों से विधवाओं के बाल न काटने का अनुरोध करते हुए आंदोलन चलाया। जिसमें काफी बड़ी संख्या में नाइयों ने भाग लिया। समाज में जागृति आई। महिलाओं के भीतर यह भावना आई कि वे भी इंसान हैं और इंसानियत के नाते उन्हें उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करनेवालों के खिलाफ उन्हें लड़ना होगा। कहना न होगा कि वे एकजुट हुईं और संघर्षशील बनीं। इस तरह सावित्री बाई भारतीय महिला आंदोलन की अगुआ बनीं। उन्होंने बस्तियों में जाकर महिलाओं को समझाया। वे कहती थीं, आओ सखियों पढ़ाई करो। इस बीच वे कविता भी लिखने लगीं। उनकी एक कविता थी –

शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ

जागो, उठो खड़े हो जाओ

परम्परा की गुलामी को खत्म करने

भाइयों, शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ

स्कूल में पढ़ाते, कविता करते और समाज सुधार करते हुए उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा था। सनातनी लोग उनकी बेइज्जती भी किया करते थे। ऐसे समय जोती राव फुले उन्हें समझाते थे। इससे उन्हें आत्मविश्वास मिलता था। यही नहीं, सावित्री बाई ने अपने पति की सहमति से दत्तकपुत्र यशवंत राव को डॉक्टर भी बनाया और उसका अंतरजातीय विवाह भी कराया। अपने एक पत्र में 1877 में पड़ने वाले अकाल की भीषणता का मार्मिक शब्दों में वर्णन किया है। 1890 में जाेती राव फुले के निर्वाण होने के बाद भी वे हिम्मत कर समाज में कार्य करती रहीं। 1897 में महाराष्ट्र में भयंकर रूप से प्लेग फैला था। लेकिन सावित्री बाई बिना भय के प्लेग-पीडि़तों की मदद करती रहीं। उस दिन को सुखद कहे या दुखद जब सावित्री प्लेग का शिकार एक बच्चे को अस्पताल ले जाते हुए खुद प्लेग का शिकार हो गईं।  10 मार्च, 1897 को सेवा करते हुए उन्होंने अंतिम सांस ली।

सचमुच वह दिन इतिहास में बहुजनों के लिए गौरव का दिन था, जब माली समाज की कोई महिला देश की पहली शिक्षिका बनी। निश्चित ही सावित्री बाई ने एक ऐसा इतिहास रचा जो बहुजनों के लिए सुनहरा अध्याय है। उनके जीवन में वे आशा की किरण साबित हुईं। इस तरह अंधेरे से उजाले की ओर बहुजन समाज के लोग आए, विशेष रूप से महिलाएं, जिन्हें हिंदू समाज ने शिक्षा लेने से वंचित कर रखा था। हम सावित्री बाई को सादर नमन करते हैं।


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लेखक के बारे में

मोहनदास नैमिशराय

चर्चित दलित पत्रिका 'बयान’ के संपादक मोहनदास नैमिश्यराय की गिनती चोटी के दलित साहित्यकारों में होती है। उन्होंने कविता, कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त अनेक आलोचना पुस्तकें भी लिखी हैं।

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