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दलित दंपत्ति ने किया हाथ से मैला उठाने से इंकार, अदालत ने लगाया 25 हजार का जुर्माना

आज इक्कीसवीं सदी में जबकि हर कार्य के लिए यंत्रों व उपकरण मौजूद हैं। क्या यह अमानवीय नहीं है कि किसी को हाथ से मैला उठाने के लिए बाध्य किया जाय। दक्षिण भारत के राज्य तामिलनाडु में इस मामले में अदालती फैसले के बाद उठ रहे सवालों का विश्लेषण कर रहे हैं तेजपाल सिंह ‘तेज’ :

बीते 10 जनवरी 2018 को मद्रास हाईकोर्ट के जज टी. राजा ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान अजीब फैसला सुनाया। यह खबर दक्षिण के राज्यों में सुर्खी बनी। व्यापक स्तर पर इसका विरोध किया गया। लेकिन उत्तर भारत इस खबर से अंजान रहा। इस खबर ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या 21 वीं सदी में भी सभ्यता वहां नहीं पहुंची है, जहां  एक व्यक्ति हाथ से मैला उठाने से इंकार कर सके?

 

मद्रास हाईकोर्ट, चेन्नई

गौरतलब है कि एक दलित दंपत्ति ने बतौर मैनूअल स्कैवैन्जर्स (मैला ढोना) काम करने से मना किया तो मद्रास हाईकोर्ट ने उन पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगा दिया। दंपत्ति का कहना है कि कोर्ट ने हमारी एक भी दलील नहीं सुनी। हम आज भी हम दहशत की जिंदगी जी रहे हैं क्योंकि मैनूअल स्कैवैन्जर्स (मैला ढोना) काम करने से मना कर देने पर हमें जान से मारने की धमकियां मिल रही है। हमारे बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, क्योंकि हमारे पास बच्चों के शिक्षा-दीक्षा के लिए पर्याप्त धन नहीं हैं।

दलित दंपत्ति की याचिका पर सुनवाई के दौरान मद्रास हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि यदि किसी को स्वीपर/स्कैवेंजर को काम करने का काम दिया जाता है, उन्हें टॉयलेट भी साफ करना पड़ेगा। उनकी नियुक्ति स्वीपर/स्कैवेंजर के रूप में हुई है और उन्हें इसके लिए भुगतान किया जाता है। कोर्ट ने कहा कि जैसे किसी घरेलू नौकरानी को पूरे परिवार के कपड़े भी धोने होते हैं, जिसके लिए उन्हें पैसा दिया जाता है। ठीक उसी तरह स्वीपर यह शिकायत नहीं कर सकता कि उन्हें टॉयलेट साफ करने के लिए बाध्य किया जा रहा है। उसकी नियुक्ति ही मैला उठाने के लिए की गई है।’

तकनीकी रूप से बात करें तो कोर्ट के इस आदेश में जिस बात की अनदेखी की गई है वह है मैला उठाने के साधन की बात। स्वीपर/स्कैवेंजर का काम करने वाल्रे दंपत्ति ने मैला उठाने के लिए शायद मना नहीं किया। अपितु खुले हाथों से मैला उठाने के लिए मना किया। सवाल है कि आज के युग में जब हर काम करने के लिए नए-नए उपकरण काम में लाए जाने लगे हैं तो फिर मैला खुले हाथों से उठाने की बाध्यता क्यों?

विदेशों में शौचालय सफाई अन्य कार्यों के लिए किये जाते हैं अत्याधुनिक मशीनों का उपयोग

कोर्ट को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था। लेकिन कोर्ट ने याचिकाकर्ता दंपत्ति को ही 25 हजार रुपए का आर्थिक दंड दे दिया। कोर्ट के मुताबिक दंपत्ति ने उसका वक्त जाया किया है।

पूरा मामला कुछ इस प्रकार है कि अगस्त 2017 में एक वीडियो वायरल हुआ था। मद्रास के अन्ना यूनिवर्सिटी के एक कर्मचारी ने कहा था कि डीन चित्रा सेल्वी जबरन कर्मचारियों से बिना किसी सुरक्षा उपकरण के मैला उठाने का दबाव डालती हैं। इसके अलावा वह अपने घर के निजी काम (जिसमें अपने और पति के अंडरवेयर और घर के शौचालय शामिल थे) भी साफ करवाती थी। जनहित याचिका दायर करने वाली स्वीपर ने यह आरोप भी लगाया कि चित्रा अपने पति से उनका यौन शोषण भी कराती थीं। यह वीडियो भारती नाम की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बनाई थी, जिन्हें धमकी के बाद तमिलनाडु छोड़ना पड़ा। इसके अलावा उन पर पालर समुदाय के खिलाफ होने का आरोप भी लगाया गया, जिससे चित्रा ताल्लुक रखती हैं।

इस दंपति को कॉलेज में संविदा के आधार स्वीपर की नौकरी मिली थी। जब प्रिंसिपल ने अमानवीय कार्य के लिए बाध्य किया तब 15 अन्य सफाई कर्मचारियों के अलावा यह दंपति भी स्थानीय डिंडिगुल जिले के कलेक्टर के आफिस शिकायत करने गए थेलेकिन बाद में दंपत्ति को छोड़ अन्य कर्मियों ने शिकायत को वापस ले लिया गया। कर्मचारियों ने एक माफीनामा लिखा और वापस कॉलेज काम करने चले गए

बहरहाल किसी मनुष्य द्वारा त्याग किए गए मलमूत्र की साफ-सफाई के लिए व्यक्ति विशेष को नियुक्त करने की व्यवस्था सर्वथा अमानवीय है और इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए महात्मा गांधी समेत तमाम महापुरुषों ने समय-समय पर प्रयास किए। इसके बावजूद यह व्यवस्था न सिर्फ निजी बल्कि सरकारी प्रतिष्ठानों में भी बनी रही। अब जबकि पूरे देश में स्वच्छ भारत अभियान के जरिए साफ-सफाई पर जोर-शोर से चर्चा हो रही है तब जरूरी है कि इस अमानवीय पेशे के उन्मूलन के लिए गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए।

गौर तलब है कि मैला ढोना दुनिया में कहीं भी अमानवीय और छुआछूत की सबसे ज्यादा अपमानजनक जीवित पेशा है। भारत में इसे मानवीय गरिमा की बजाय सफाई के मुद्दे से जोड़कर देखा जाता है। जबकि संविधान हर नागरिक के सम्मान सुनिश्चित करता है। सामाजिक उत्पीड़न का का दंश झेलने के अलावा मैला ढोने वाले इस पेशे के साथ जुड़ी कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी सामना करते हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर श्री नारायणन की जनहित याचिका के मुताबिक अन्य बातों के साथ मिथेन और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी हानिकारक गैसों के संपर्क में आने से तत्काल मृत्यु और हृदय अधःपतन, मांसपेशियों और हड्डियों से जुड़े रोगों जैसे पुरानी ऑस्टियोआर्थराइटिस परिवर्तन और इंटरवेर्टब्रल डिस्क हर्नियेशन, संक्रमणों जैसे हेपेटाइटिस, लेप्टोस्पाइरोसिस और हेलीकोबैक्टर, त्वचा की समस्याओं, श्वसन तंत्र की समस्याओं और फेफड़े के काम करने के बदले हुए मानक पैरा-मीटर आदि जीवन से जुड़े खतरे शामिल हैं।


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लेखक के बारे में

तेजपाल सिंह तेज

लेखक तेजपाल सिंह तेज (जन्म 1949) की गजल, कविता, और विचार की कई किताबें प्रकाशित हैं- दृष्टिकोण, ट्रैफिक जाम है आदि ( गजल संग्रह), बेताल दृष्टि, पुश्तैनी पीड़ा आदि ( कविता संग्रह), रुन-झुन, चल मेरे घोड़े आदि ( बालगीत), कहाँ गई वो दिल्ली वाली ( शब्द चित्र) और अन्य। तेजपाल सिंह साप्ताहिक पत्र ग्रीन सत्ता के साहित्य संपादक और चर्चित पत्रिका अपेक्षा के उपसंपादक रहे हैं। स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों अधिकार दर्पण नामक त्रैमासिक का संपादन कर रहे हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार ( 1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से सम्मानित।

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