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दलित राजसत्ता का सपना और मान्यवर कांशीराम   

आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद देश के दलितों को हाशिए से निकालकर राजनीति के केंद्र में स्थापित करने वाले कांशीराम की जीवन यात्रा प्रेरणादायक है। उनके लिए राजनीति एक बड़े सामाजिक परिवर्तन का जरिया था। जयंती के मौके पर याद कर रहे हैं डॉ. अलख निरंजन :

कांशीराम (15 मार्च 1934 – 9 अक्टूबर 2006) पर विशेष

आजादी के बाद पिछले 70 वर्षों में भारतीय राजनीति को विविध पड़ावों से गुजरना पड़ा है। इन पड़ावों के अलग-अलग पहलू और अलग-अलग नायक रहे हैं। इनमें अधिकांश नायकों की संख्या उनकी है जो या तो स्वतन्त्रता आन्दोलन की पैदाइश थे या स्वयं को स्वतन्त्रता आन्दोलन की विरासत से जोड़ते हैं। शुरुआती 1950 से 80 के दशक तक, भारतीय राजनीति के सितारे पं. जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह, इन्दिरा गांधी, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, जगजीवन राम सरीखे नेता स्वतन्त्रता आन्दोलन से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे। 80 के दशक के बाद में जिन नेताओं ने भारतीय राजनीति में कदम रखा, उनमें अधिकांश या तो कांग्रेस की राजनीतिक विरासत से थे या कांग्रेस विरोधी समाजवादी गुट राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के आन्दोलनों की पैदाइश थे। राजीव गांधी, सोनिया गांधी, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, चौधरी देवी लाल, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने इन्हीं दोनों विरासतों पर अपनी राजनीति का महल खड़ा किया

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम

इन सबसे अलग कांशीराम ऐसे नेता हुए जिन्होंने इन दोनों प्रचलित विरासतों से अलग एक नए तरह की राजनीतिक पारी शुरू की। ऐसा नहीं है कि कांशीराम जिस राजनीतिक धारा के प्रतिनिधि हैं, उसकी कोई अपनी विरासत नहीं थी। उसकी विरासत इन दोनों प्रचलित धाराओं से भी प्राचीन थी, लेकिन कांशीराम के उद्भव के समय वह लुप्तप्राय थी। इस धारा को कांशीराम ने खोजा तथा इसके मार्ग को गहरा और चौड़ा किया। यह धारा इतनी ताकतवर थी कि मार्ग पाते ही सुनामी में तब्दील हो गयी। फलतः न केवल राजनीतिमें उथल-पुथल मची, बल्कि साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में भी भूचाल आ गया और जिससे उत्तर भारत की सामाजिक-राजनीतिक तस्वीर बदल गयी।

राजनीति की नयी धारा विकसित करने वाले कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब प्रान्त के जिला रोपड़ में रमदसिया सिक्ख परिवार में हुआ था। इन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही प्राइमरी स्कूल से ली तथा मिडिल से स्नातक तक की शिक्षा रोपड़ से प्राप्त की। बी.एस-सी. पास करने के पश्चात् 1956 में सर्वे आफ इण्डियामें नौकरी मिली जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। तत्पश्चात् वे पूना में ई.आर.डी.एल. में अधिकारी नियुक्त हुए। पूना में नौकरी के दौरान ही उन्हें नौकरशाही की ब्राह्मणवादी सोच और उसके विरुद्ध लड़ने की दलित कर्मचारियों की उत्कट इच्छा का अनुभव हुआ। विभागीय वार्षिक अवकाश निर्धारण के समय ई.आर.डी.एल. के ब्राह्मण अधिकारियों ने बुद्ध जयन्ती और डॉ. अम्बेडकर जयन्ती के अवसर पर होने वाली छुट्टियों को निरस्त कर दिया तथा दीपावली की छुट्टियों को दो दिन बढ़ा दिया। इसका विरोध दलित कर्मचारी संगठन ने जोरदार ढंग से किया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए विभाग के ब्राह्मण अधिकारियों ने दलित कर्मचारियों के नेता दीनाभाना को निलम्बित कर दिया। यह संघर्ष काफी लम्बा चला। अन्ततः इस संघर्ष में अदालत से दलित कर्मचारियों ने लड़ाई जीत ली। इस घटना ने कांशीराम के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला और उनके जीवन का उद्देश्य ही बदल गया।

बसपा प्रमुख मायावती के साथ कांशीराम

दीनाभाना तथा डी.के. खापर्डे ही ने कांशीराम का परिचय बाबासाहब के साहित्य तथा संघर्ष से कराया। उन्होंने 1964 में बाबासाहब के विचारों तथा संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उनके सहयोगी डी.के. खापर्डे बताते हैं कि बाबासाहब की पुस्तक

एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ [1] पढ़ने के पश्चात कांशीराम विचलित हो गये थे। इस तथ्य को कांशीराम ने स्वयं भी एक भाषण में उद्घाटित किया था। कांशीराम ने न केवल बाबासाहब के सम्पूर्ण साहित्य का गहन अध्ययन-मनन किया, बल्कि जोती राव फूले, छत्रपति शाहूजी महाराज, पेरियार रामास्वामी नायकर आदि के साहित्य और संघर्षों का भी गहन अध्ययन किया। इन अध्ययनों और स्वयं संघर्ष में सम्मिलित होने के अनुभव से कांशीराम का व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा का निर्माण हुआ, जिसकी जड़ें तो भूत में थी लेकिन उससे भविष्य का भी निर्माण होने वाला था।

कांशीराम का जीवन त्याग और निष्ठा का उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्तिको अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया तथा इसकी प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। उनकी माँ बिशन कौर अपनी यादों के आधार पर बताती हैं कि पूना जाने के बाद उनका बेटा काफी बदल गया था, कभी घर पर आता तो गुमसुम बैठा रहता और खेतों में जाकर किताबें पढ़ता रहता था। अन्तिम बार जब पूना गया तो काफी समय तक खत नहीं आने पर वे परेशान हो उठीं। फुफुरे भाई को हाल पता करने भेजा गया। फुफुरे भाई ने जब कांशीराम से घर आने को कहा तो कांशीराम ने जवाब दिया- ‘‘घर वालों को बता देना अब मैं घर कभी नहीं आऊँगा। मुझे अपने दबे-कुचले लोगों के लिए इंसाफ की लड़ाई लड़नी है।’’ कांशीराम ने 24 पेज का खत भेज कर अपने इस निर्णय से घर वालों को अवगत भी कराया। पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया था कि मैं कभी शादी नहीं करूँगा, मैं कभी घर नहीं आऊँगा, मैं अपने लिए कभी कोई सम्पत्ति नहीं बनाऊँगा, मैं किसी भी सामाजिक समारोह जैसे विवाहोत्सव, मृत्युभोज आदि में सम्मिलित नहीं होऊँगा और मैं आगे से कोई नौकरी नहीं करूँगा। कांशीराम जीवन पर्यन्त अपने फैसले पर कायम रहे। वे अपने पिता की मृत्यु पर भी घर नहीं गये थे।

बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम की एक पेंटिंग

कांशीराम ने एक ऐसा मार्ग चुना था जिसके नेता भी वे स्वयं थे तथा कार्यकर्ता भी स्वयं। लेकिन सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति का लक्ष्य किसी एक व्यक्ति के त्याग और बलिदान से पूरा होने वाला नहीं था, इसलिए उन्होंने एक विस्तृत योजना तैयार की। इस योजना की पहली कड़ी थी विचारधारा का चुनाव तथा उसका निरन्तर परिष्कार। उन्होंने महात्मा फुले, पेरियार रामास्वामी नायकर, छत्रपति शाहूजी और डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा का गहन अध्ययन किया ही था। इसके साथ उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का भी गम्भीर अध्ययन किया। अन्ततः उन्होंने बहुजनवाद की थीसिस विकसित की। उन्होंने कहा कि लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली होने के बावजूद भारत में अल्पजन शासन सत्ता पर काबिज हैं। भारत के बहुजन गुलामों की तरह जीवन निर्वाह कर रहे हैं। कांशीराम ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को अल्पजन कहते हैं तथा उनके बहुजन में दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय शामिल हैं। उनके अनुसार जब तक बहुजन के हाथ में राजनीतिक सत्ता की चाबी नहीं आ जाती, तब तक बहुजनों की किसी भी समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।

कांशीराम राजसत्ता को मास्टर चाबीकहते थे जिससे सभी क्षेत्र के बन्द दरवाजे खोले जा सकते हैं। वे राजसत्ता को साध्य नहीं साधन मानते हैं, जिससे सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्तिके  साध्य को प्राप्त किया जा सके। कांशीराम के दर्शन की यह भाषा साधारण जनता को समझाने के लिए थी। वास्तव में वे लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में राज्यकी निर्णायक भूमिका तथा इसे यंत्र की तरह इस्तेमाल करने के सिद्धान्त से सहमत थे। वे राज्यपर बहुजन समाज का आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे। अपनी योजना की दूसरी कड़ी में उन्होंने कार्यकर्ताओं को तैयार किया। इसके लिए दलित और पिछड़े समुदाय के उस हिस्से को उन्होंने जागरूक करने का लक्ष्य बनाया जो बाबासाहब के आन्दोलन का फल चख रहा था अर्थात् पढ़ लिखकर सरकारी नौकरी कर रहा था। कांशीराम ने उनसे समाज को वापस करोका आह्वान किया। इस प्रकार कांशीराम को एक ऐसा कार्यकर्ता समूह मिल गया जिसके पास धन के साथ-साथ समझदारी भी थी। विचारधारा, कार्यकर्ता और नेता जैसे आवश्यक स्तम्भों के साथ कांशीराम संघर्ष की यात्रा पर निकल पड़े।

मुलायम सिंह यादव के साथ कांशीराम

संघर्ष के लिए आवश्यक अंगों को तैयार करने के पश्चात् कांशीराम ने संगठन का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण तथा संगठन निर्माण का कार्य साथ-साथ चला। इसी क्रम में बाबासाहब के परिनिर्वाण दिवस पर 06 दिसम्बर 1978 को कांशीराम ने बामसेफका गठन किया। बामसेफपूर्णरूप से गैर राजनीतिक और अनौपचारिक संस्था थी। इसका पंजीकरण भी नहीं कराया गया था। बामसेफ के गठन के तीन वर्ष बाद 06 दिसम्बर 1981 को कांशीराम ने डी.एस.-4 का गठन किया। इस संगठन का पूरा नाम दलित शोषित समाज संघर्ष समितिथा। यह संगठन राजनैतिक दल तो नहीं था, लेकिन इसकी गतिविधियाँ राजनीतिक दल जैसी ही थीं। इसी संगठन की ओर से धरना प्रदर्शन आदि कार्य किये जाते थे। इसी के बैनर तले चार विशाल रैलियाँ आयोजित की गयी थीं। 14 अप्रैल 1984 को बाबासाहब के जन्मदिन पर कांशीराम जी ने ‘बहुजन समाज पार्टी’ की स्थापना की। उद्देश्य स्पष्ट था- राजसत्ता की चाबी पर कब्जा करना।

बहुजन समाज पार्टी के साथ ही कांशीराम ने विशुद्ध रूप से राजनीति में कदम रखा। बसपा ने 1984 में ही संसदीय चुनाव लड़ा और सम्पूर्ण देश में उम्मीदवार खड़े किए। इस चुनाव में बसपा को 10 लाख से अधिक मत प्राप्त हुए। 1985 में बिजनौर उपचुनाव में मायावती को उतारा। इसके बाद फिर 1987 में हरिद्वार से मायावती ने चुनाव लड़ा। इस चुनाव में जनता दल के दलित नेता रामविलास पासवान भी चुनाव मैदान में थे। इस चुनाव में बसपा को 1,35,399 मत मिले तथा बिहार में रिकार्ड मतों से जीतने वाले रामविलास पासवान को केवल 34225 मतों पर संतोष करना पड़ा। 1984 में लोकसभा का सामान्य चुनाव, पंजाब का विधान सभा का चुनाव, बिजनौर और हरिद्वार का उपचुनाव लड़ने के क्रम में कांशीराम 1988 में इलाहाबाद उपचुनाव में स्वयं कूद पड़े। यह कोई साधारण चुनाव नहीं था। इसका प्रभाव 1989 में होने वाले आम चुनाव पर पड़ने वाला था। यह चुनाव राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। बोफोर्स मसले पर कांग्रेस छोड़कर विपक्ष के साथ आये विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के अनिल शास्त्री के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। कांशीराम ने कांग्रेस और संयुक्त विपक्ष के इस संघर्ष में अपना स्वतन्त्र दावा पेश किया ताकि वे स्वयं को तीसरी धारा के रूप में स्थापित कर सकें। इस उपचुनाव को पूरे देश में बेहद प्रचार मिला। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भी इस पर ध्यान दिया। वी.पी. सिंह 2,03,000 मत पाकर जीते। कांग्रेस के उम्मीदवार को 90 हजार वोट मिला तथा कांशीराम को 71586 वोट मिले। बसपा के लिए यह एक नैतिक विजय थी। इसी चुनाव के पश्चात कांशीराम संसदीय राजनीति में एक स्थायी तत्व के रूप में जम गये। साइकिल पर लगा हुआ हाथी के निशान  वाला नीला झण्डा उनके और उनके आन्दोलन का प्रतीक बन गया।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के साथ कांशीराम

कांशीराम ने चुनावों में दमदारी से हस्तक्षेप करने के साथ-साथ निरन्तर आन्दोलनों के माध्यम से भी अपनी विचारधारा का प्रचार जारी रखा। 15 अगस्त 1988 से 15 अगस्त 1989 के बीच कांशीराम ने पांच सूत्रीय सामाजिक रूपान्तरण आन्दोलन चलाया। ये पांच सूत्र थे- आत्मसम्मान के लिए संघर्ष, मुक्ति के लिए संघर्ष, समता के लिए संघर्ष, जाति उन्मूलन के लिए संघर्ष और भाईचारा बनाने के लिए संघर्ष। इसके लिए कांशीराम ने देश के पांच कोनों से साइकिल यात्रायें निकालीं। पहली यात्रा 17 सितम्बर 1988 को कन्याकुमारी से पेरियार के जन्मदिन पर, दूसरी यात्रा कोहिमा, तीसरी कारगिल, चौथी पुरी, और पांचवी पोरबन्दर से चली। ये सभी यात्रायें 27 मार्च 1989 को दिल्ली में पहुँचकर आपस जुड़ गयीं। इसी बीच, बसपा ने उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायतों और नगर निकायों के चुनाव में हिस्सा लिया एवं अच्छी सफलता प्राप्त की। योजनाबद्ध आन्दोलनों से उत्साहित बसपा ने 1989 में लोकसभा तथा विधान सभा का चुनाव लड़ा और तीन सांसदों और 15 विधायकों को उ0प्र0 और म0प्र0 में जिताने में सफलता प्राप्त किया। स्वयं कांशीराम ने राजीव गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ा। 6 दिसंबर 1990 को कांशीराम की 230 दिन लम्बी प्रचार यात्रा प्रारम्भ हुई तथा देश के कोने-कोने में घूमते हुए 15 मार्च 1991 को दिल्ली पहुँची। इस यात्रा के स्वागत में दिल्ली में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। 14 अप्रैल 1991 को इस यात्रा का समापन महू (मध्यप्रदेश) में एक विशाल रैली के साथ हुआ। इस प्रकार 1991 तक कांशीराम बहुजनों के बीच अपना पैर जमा चुके थे।

1991 में देश की राजनीतिक परिस्थिति एक नये दौर में प्रवेश कर रही थी। मण्डल आयोग की सिफारिशों का लागू होना, राम मन्दिर आन्दोलन और नई आर्थिक नीति के नए दौर में कांशीराम ने एक परिवक्व राजनीतिक नेता के तौर पर खुद को प्रस्तुत किया। 1992 में वे मुलायम सिंह यादव के सहयोग से इटावा से लोकसभा के लिए चुने गये। इटावा का यह चुनाव कई दृष्टियों से मील का पत्थर साबित हुआ। इसी के गर्भ में दलित-पिछड़ा गठजोड़ का बीज था जिसका प्रभाव भविष्य की भारतीय राजनीति पर पड़ना था। अन्ततः 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम का ऐतिहासिक गठजोड़ हुआ जिसने उत्तर भारत की सामाजिक-राजनीतिक तस्वीर बदल दी। 1993 में उ0प्र0 विधानसभा चुनाव में कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश कर चुनाव लड़ा तथा सपा-बसपा गठजोड़ ने 176 सीट जीत कर सरकार बना लिया। बसपा को 67 सीटें प्राप्त हुई थीं। यह सरकार लम्बी नहीं चल पायी तथा 03 जून 1995 को मायावती ने बसपा के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया। यह ऐतिहासिक दिन कांशीराम के सपनों के साकार होने का दिन है। जिस दिन मायावती ने शपथ लिया, उस दिन करोड़ों दलितों के आँखों में ख़ुशी के आंसू छलक रहे थे।

भारत के दलित उत्थान और अपने अधिकारों के लिए देशभर में चल रही उनकी तमाम लड़ाइयों में कांशीराम का अतुलनीय योगदान है। कांशीराम ने दलितों के लिए सपने देखने का अवसर पैदा किया, जिसकी ब्राह्मणवादी व्यवस्था में कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि दलित अपनी ताकत को पहचान गये। मगर कांशीराम का यह कार्य कोई आसान नहीं था। एक तरफ उन्होंने बड़े ही सूझ-बूझ तथा वैज्ञानिक दृष्टि से अपने आन्दोलन को नियोजित किया, तो दूसरी तरफ इसके लिए उन्होंने अपने व्यक्तिगत आवश्यकताओं और सेहत तक की परवाह नहीं की। उच्च सुगर समेत विभिन्न बीमारियों से जूझते हुए कांशीराम का 9 अक्टूबर 2006 को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। मगर जाने से पहले वे दलितों को न केवल राजसत्ता प्राप्त करने का सपना दिखा गए, बल्कि राजसत्ता पर कब्जा करने का फार्मूला भी दिया और उसे प्राप्त करके भी दिखाया।

संदर्भ :

[1] फारवर्ड प्रेस बुक्स से डॉ आम्बेकर की किताब ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘जाति का विनाश’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य है। अपनी अग्रिम प्रति बुक करवाने के लिए संपर्क करें।


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लेखक के बारे में

अलख निरंजन

अलख निरंजन दलित विमर्शकार हैं और नियमित तौर पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं। इनकी एक महत्वपूर्ण किताब ‘नई राह की खोज में : दलित चिन्तक’ पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित है।

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