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कौन हैं पारी कुपार लिंगो, जिनके लिए हो रहा यह भव्य आयोजन

पारी कुपार लिंगो गोंड आदिवासियों के जनक माने जाते हैं। इसका वर्णन नेताम वंश के राजाओं के किले में मिली मूर्तियां भी करती हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में इनके सम्मान में देव जतरा निकाला जाता है। इसकी तैयारी व इसके आयोजन के महत्व के बारे में बता रहे हैं तामेश्वर सिन्हा :

पारी कुपार लिंगो की स्मृति में प्रसिद्ध देव जतरा (यात्रा) 29 मार्च, 2018 से शुरू होगा। यह तीन दिवसीय आयोजन छत्तीसगढ़ के उत्तर बस्तर कांंकेर जिले के वल्लेकनार्र (बड़ी आबादी वाला गांव) सेमरगांव आमाबेडा में किया जाएगा। जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर इस गांव में होने वाले इस आयोजन को लेकर अभी से इलाके में चर्चा का बाजार गर्म है। इस आयोजन में कई राज्यों से बड़ी संख्या में आदिवासी भाग लेंगे। तैयारियां अंतिम चरण में हैं।

पारी कुपार लिंगो देव के प्रतीक को अपने कंधे पर उठाते लोग (पारी कुपार लिंगो देव जतरा, 2013)

क्या है पारी कुपार लिंगो से संबंधित परंपरा?

गोंड आदिवासी परंपरा में पारी कुपार लिंगो को प्रथम प्राकृतिक वैज्ञानिक माना जाता है। उन्हें संगीत के जनक के रूप में भी याद किया जाता है।

पारी कुपार लिंगो के इस जतरा में 33 आदिवासी समुदायों के लोगों को आंगा (अलग-अलग गांवों के देवता) पेन नेवता (आमंत्रण) के अनुसार आमंत्रित किया जाता है। इस आयोजन में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और मध्यप्रदेश आदि राज्यों से बड़ी संख्या में आदिवासी जुटते हैं, जिसमें  बड़ी संख्या में महिलाएं होती हैं। प्रकृति को समर्पित इस देव जतरा में 18 वाद्य यंत्रों के ताल में ऐन्दना डाका (पैर से पैर मिलाकर किया जाने वाला नृत्य) और गुरू लिंगो पेन का अद्भुत पेन कर्रसाड (मृत्यु के संस्कार के बाद किया जाने वाला सामुहिक नृत्य) आकर्षण का केन्द्र होता है।

पारी कुपार लिंगो देव जतरा के दौरान शामिल आदिवासी (पारी कुपार लिंगो देव जतरा, 2013)

जतरा के मौके पर जब लिंगो को उनके स्थान से उठाया जाता है तो कच्चे बांसों के झुंड को आपस में टकराया जाता है जिससे एक ख़ास प्रकार की ध्वनि निकलती है। इसे झाटी कहते हैं। मान्यता है कि देव को उठाने के लिए 5 लोगों का चयन देव खुद करते हैं। इसके लिए वे इनके शरीर में आते हैं। ऐसे लोगों में से एक व्यक्ति तीर-कमान, दूसरा तलवार, तीसरा गुड्डे (मोर पंख से बना हुआ एक प्रतीक) चौथा छत्तर लेकर सामने-सामने चलते हैं। यह दृश्य बड़ा मनमोहक होता है। वाद्य यंत्रों की सुरीली धुन से जंगल खिल उठता है।

इस जतरा में शामिल होने वाले लोग अपना राशन-पानी लेकर आते हैंजतरा क्षेत्र में पुलिस या हथियार से लैस या किसी भी प्रकार की वर्दी पहने व्यक्ति का आना प्रतिबंधित होता है। अगर कोई आना चाहे तो उसे सामान्य कपड़ों में आने की अनुमति दी जाती है। साथ ही वनांचल क्षेत्र व पारंपरिक रूढ़िवादी प्रथा को मूलस्वरूप में अक्षुण्य बनाये रखने हेतु आयोजन समिति के द्वारा जतरा में  प्लास्टिक से बनी पैकेज सामग्री, विदेशी मदिरा व अन्य प्राकृतिक प्रदूषक वस्तुओं के व्यापार व उपयोग पर जतरा स्थल में पूर्ण प्रतिबंधित किया गया है।

गोंडी नेताम राजवंश के दुर्ग की दीवार पर लगी प्रतिमा में सात देव और उनके माता जंगो (दायें नीचे) और पिता लिंगो (दायें उपर)

पहांदी पारी कुपार लिंगो कर्रसाड़ व देव जतरा प्रत्येक तीन वर्ष के बाद आयोजित किया जाता है। हालांकि आदिवासी बुजुर्ग बताते हैं 50 वर्ष पूर्व यह जतरा 12 साल में एक बार होता था। इसके पीछे मान्यता यह थी कि 12 साल बाद बांस के फूल खिलते थे, जो बारिश नहीं होने का प्रतीक था। लोग बरसात के लिए जतरा निकालते थे। बुजुर्ग यह भी मानते हैं कि जतरा की तिथि का निर्धारण आंगा पेन (स्थानीय देवताओं) की अनुमति से चन्द्रमा को देखकर किया जाता है। इसलिए तैयारी एक साल पहले ही शुरू हो जाती है।

आयोजकों के अनुसार पहले दिन यानी 29 मार्च को पेनक  पड़घाव  (देवता की स्थापना), पेन नेग (रस्म) कार्य और विनती की जाएगी। वहीं दूसरे दिन  30 मार्च को आंगापेनक  रस्म, पृथ्वी में सम्पूर्ण जैविक मंडल की समृद्धि व शांति हेतु देवताओं से प्रार्थना और लिंगो के 18 वाद्य यंत्रों के साथ दुर्लभ पेन कर्रसाड़ नृत्य आदि होंगे। जबकि अंतिम दिन यानी 31 मार्च को हजोर बुमकाल व गोत्र भाइयों द्वारा नवजात पेन बानाओं व पेन सिरहाओं की जांच, पेन प्रकरणों का निपटारा, प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा की जानकारी, टोण्डा-मण्डा-कुण्डा (जन्म, विवाह, मृत्यु), गड़-मंडा-जागा (गोत्र आदि) की पहचान व पेन व्यवस्था की जानकारी व समीक्षा की जायेगी। जलकुंड में पेन स्नान,सेवा, लिंगो पेन का राउड़ प्रवेश, आगंतुक पेन की विदाई की रस्म आदि संपन्न होंगे।

ज्ञातव्य है कि विभिन्न आदिम कर्मकांडों वाला यह सैंकडो वर्ष प्राचीन आयोजन क्षेत्र में आदिवासियों के सामाजिक-राजनैतिक मेलजोल का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम रहा है।

(इस लेख में उपयोग किये गये गोंडी भाषा के शब्दों का हिन्दी अनुवाद चंद्रलेखा कंगाली ने किया है।)


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लेखक के बारे में

तामेश्वर सिन्हा

तामेश्वर सिन्हा छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार हैं। इन्होंने आदिवासियों के संघर्ष को अपनी पत्रकारिता का केंद्र बनाया है और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रिपोर्टिंग करते हैं

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