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अंधविश्वास के हवन में किसकी आहूति दे रहे द्विज?

यदि देश के सैनिक सीमा पर न लड़ें तो क्या देश सुरक्षित रह सकता है? यदि पेड़ न हों तो पर्यावरण की रक्षा कैसे होगी? ये सवाल जटिल नहीं है। सारा देश इनका जवाब जानता है। लेकिन द्विज यज्ञों के आयोजन से देश को अंधविश्वास के हवन में झोंकने पर आमादा क्यों हैं। सुभाष गाताडे की रिपोर्ट :

बीते 18 मार्च से दिल्ली के लालकिला के बाहर मजमा लगा है। इस मजमा को राष्ट्र रक्षा यज्ञ की संज्ञा दी गयी है। इस कथित यज्ञ में 2100 ब्राह्म्ण पुरोहित भारत की रक्षा के लिए हवन कर रहे हैं। स्वयं केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इस यज्ञ में अपनी सहभागिता प्रदर्शित की है। वहीं दूसरी ओर दिल्ली से बमुश्किल सत्तर किलोमीटर दूर मेरठ के भैंसाली मैदान में नौ दिवसीय कथित महायज्ञ जारी है, जहां वैदिक मंत्रोच्चारों के बीच वहां बने 108 हवन कुंडों में आहुति दी जा रही है, जहां लगभग 350 ब्राहमण इस रस्म को अंजाम दे रहे हैं। इस दौरान 500 क्विंटल आम की लकड़ी का हवन किया जा रहा है। इसके अलावा इस आयोजन में घी के कितने कनस्तर खाली होंगे इसका अनुमान फिलवक्त़ लगाया भी नहीं जा सकता। सवाल यह है कि इस तरह के आयोजनों से द्विज क्या हित साधना चाह रहे हैं।

दिल्ली के लालकिले के बाहर चल रहे कथित राष्ट्र रक्षा यज्ञ की तस्वीर

दिलचस्प है कि अपने आप में यह कोई धार्मिक आयोजन नहीं है। मसलन मेरठ में होने वाले यज्ञ के बारे में ऐलान किया गया है कि इसका मकसद प्रदूषण को कम करना है और जिसके लिए वेदों और अन्य धर्मशास्त्रों का हवाला दिया जा रहा है। कोई पूछ सकता है कि इन दिनों स्कूली किताबों में – पर्यावरण अध्ययन – भी यही बताया जाता है कि किस तरह लकड़ी जलाना प्रदूषण को बढ़ावा देना है, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड की गाइडलाइन्स के तहत भी इसे रेखांकित किया गया है, और कुछ माह पहले जब दिल्ली की हवा खराब हो रही थी तो राज्य सरकार द्वारा जो एडवायजरी जारी की गयी थी उसमें लोगों को आवाहन किया गया था कि वे ‘‘पत्ते, कोयला, फसलों के अवशेष और लकड़ी न जलाएं।’

दरअसल आयोजक संस्था/श्री अचुतानन्द महायज्ञ समिति/के नुमाइन्दे इसके लिए धर्मशास्त्राीय प्रमाणों का हवाला देते मिलेंगे। उनके एक प्रतिनिधि ने दावा किया कि ‘यज्ञ से प्रदूषण समाप्त होता है और वातावरण शुद्ध होता है। आम की लकड़ी जलने से तथा गाय के दूध से बने घी को उस पर डालने से प्रदूषण कम होता है।’’ बहरहाल, वह इस मामले में स्पष्ट थे कि उनकी बातें महज दावा ही हैं और ‘‘चूंकि इस पर अनुसंधान नहीं हुआ है इसलिए इसके लिए कोई सबूत उनके पास नहीं है।’’

आयोजकों के दूसरे प्रतिनिधि मीडिया से बात करते वक्त़ आत्मविश्वास से लबरेज दिखे। उन्होंने यह भी दावा किया कि ‘‘आम की लकड़ी जलने से हवा शुद्ध होती ही है। उन्होंने किसी वैज्ञानिक रिपोर्ट के हवाले से बताया कि हमारे देश की ओजोन परत को सबसे कम नुकसान हुआ है क्योंकि यहां अक्सर यज्ञों का आयोजन होता है।’ बहरहाल, प्रमाणों के बिना धुंआधार बोलते हुए, उनका आत्मविश्वास देख कर गोया प्रधानमंत्राी मोदी के उस वक्तव्य की याद ताज़ा हो गयी थी, जो उन्होंने अम्बानी अस्पताल के उदघाटन के वक्त़ दिया था। अपना पदभार संभालने के चन्द माह बाद हुए इस आयोजन में उन्होंने ‘‘विज्ञान को मिथकशास्त्रा से जोड़ा था, गणेश और कर्ण की निर्मिति के पीछे ‘‘प्लास्टिक सर्जरी’’ और ‘‘जेनेटिक विज्ञान’’ की कामयाबी का हवाला दिया था।

अगर मेरठ में यज्ञ से प्रदूषण को मुक्त कराने के दावे किए जा रहे हैं तो उधर राजधानी दिल्ली में आयोजित राष्ट्र रक्षा महायज्ञ‘’ यज्ञ अधिक विशाल, अधिक संसाधनों से संचालित है जहां केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार की अगले चुनावों में वापसी पर फोकस रहेगा। इसमें राष्टपति सें प्रधानमंत्राी तथा सत्ताधारी पार्टी से जुड़े अग्रणी नेता भी हाजिरी लगाएंगे।

लालकिला परिसर में इसकी शुरूआत हो चुकी है जो 18 मार्च से 25 मार्च तक चलेगा। इसके लिए 108 हवन कुंड का निर्माण किया गया है। खास बात कि हवन कुंड के निर्माण में सभी प्रमुख धामों, तीर्थ स्थलों के साथ ही देश की सीमाओं से संग्रहित जल व मिंट्टी का उपयोग किया जा रहा है। ख़बरों के मुताबिक देश के अलग अलग हिस्सों से 2,100 पुरोहित – जो सभी ब्राहमण जाति के होंगे – और 51,000 सहयोगी इसमें शामिल होंगे। यूं तो इसका आगाज़ 14 फरवरी को ही हुआ था जब गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ‘‘जल मिटटी रथ यात्रा’’ को दिल्ली में हरी झंडी दिखाई दी, जिसका मकसद था जगन्नाथ पुरी पहुंच कर वहां का पानी तथा गीली मिटटी लाना, जिसका इस्तेमाल राष्ट रक्षा महायज्ञ के कुंडों के निर्माण के लिए होनेवाला था। महायज्ञ का सेट बाॅलीवुड के एक मशहूर सेट डिजाइनर ने तैयार किया है।

बीते 14 फरवरी 2018 में दिल्ली के इंडिया गेट पर राष्ट्र रक्षा यज्ञ को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह

अगर हम लकड़ी जला कर कथित तौर पर प्रदूषण घटाने पर केन्द्रित मेरठ के यज्ञ की ओर लौटें, तो प्रदूषण नियंत्रांण बोर्ड के स्थानीय/इलाकाई अधिकारी इस मसले से अवगत हैं, वह इस बात पर भी जोर देते हैं कि ‘‘ऐसे आयोजन से हवा अधिक प्रदूषित होगी इसके बारे में कोई दोराय नहीं अलबत्ता उन्होंने ‘इसके बारे में जांच करने की संभावनासे भी इन्कार किया क्योंकि उनका कहना था कि ‘‘उसके लिए कोई नीति नहीं बनी है।’’

फिलवक्त़ जब हम घी डाल कर सैकड़ों क्विंटल लकडी जलाने के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने और इतने भव्य आयोजन के लिए आयी लागत के बारे में सोच रहे हैं और प्रदूषण नियंत्राण के लिए बनी नीतियों के दिखावटी स्वरूप को लेकर चिंतित हो रहे है, हम कई अन्य प्रश्नों से भी रूबरू होते हैं।

सबसे अहम मसला है कि यह दावा कि आम की लकड़ी जलाने से प्रदूषण कम होता है, दरअसल किसी प्रयोगशाला ने प्रमाणित नहीं किया है, इसे धर्मग्रंथों के हवाले से/जैसा कि वेदों में कहा गया है आदि/पुष्ट माना जा रहा है। जाहिर है यह तरीका सन्देह की संभावना को ही समाप्त कर देता है, जो एक तरह से ज्ञान की पहली सीढ़ी मानी जाती है। इससे कार्य कारण सम्बन्ध की बात भी बेकार हो जाती है। हम देख सकते हैं कि केन्द्र में सत्ताधारी हुकुमरानों की तरफ से इसी सिलसिले को आगे बढ़ाया जा रहा है।

इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि इस कार्यक्रम को मीडिया में काफी कवरेज मिलेगा, हम लोगों के मन मस्तिष्क पर उसके नकारात्मक प्रभाव का – खासकर बच्चों एवं किशोरियों/किशोरों पर – अन्दाज़ा ही लगा सकते हैं। स्कूली छात्रा जिन्हें पर्यावरण अध्ययन की किताब में बताया जाता होगा कि लकड़ी जलाने से प्रदूषण होता है, उन्हें इस बात का सामंजस्य बिठाने में मुश्किल आएगी कि किस तरह धर्मग्रंथ पाठयपुस्तकों की बात को ‘खारिज’ कर रहे हैं। कुछ छात्रों को यह भी लग सकता है कि उनके पाठयपुस्तकों ने उन्हें इस ‘‘पवित्रा सत्य’’ के बारे में क्यों नहीं बताया?

हम देख सकते हैं कि भारत जैसे मुल्क में, जहां अंधश्रद्धा का जबरदस्त बोलबाला है और तर्कशीलों को गोलियां खानी पड़ रही हैं क्योंकि वह लोगों को वैज्ञानिक चिन्तन के रास्ते पर – जो संविधान की आत्मा है – चलने की सलाह दे रहे हैं, यह मेगा इवेण्ट जिसमे छदम विज्ञान परोसा जाएगा, वह तर्कशीलता, कौतुहल के विकास को बाधित करेगा। एक ऐसे वातावरण में जहां संदेह करने को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है, जहां चीजों पर अंतिम राय देने का काम सरकारों ने अपने हाथ में लिया है/कि धर्मग्रंथों को देखो, उन्हें पहले से ही पता रहा है/एक ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन निश्चित तौर पर खतरनाक है।

स्थिति की गंभीरता का अन्दाज़ा बेहतर लगाया जा सकता है अगर हम अपने समाज को देखें जहां लोग धर्म के नाम पर अपनी कन्याओं को मंदिरों को अर्पण करते हैं जहां वह यौन गुलाम के तौर पर जिन्दगी जीने के लिए आज भी अभिशप्त है/देवदासी प्रथा जहां आम लोग – मुख्यतः कथित निम्न जातियों से जुड़े हुए – वह उन पत्तलों पर लोट लगाते हैं जिन्हें ब्राहमण जाति के लोगों ने भोजन करके फेंका है ताकि उनके चर्मरोग ठीक हो सकें /मादे स्नान/(जहां एक तांत्रिक को आईसीयू में बुला कर जादूटोना कर इलाज करवाने से डाॅक्टर को गुरेज नहीं है)  आदि।

हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी से ऐसे सैकड़ो उदाहरण गिना सकते हैं जो इस बात की आवश्यकता रेखांकित करते हैं कि भारत में वैज्ञानिक चिन्तन को जड़मूल करने की कितनी आवश्यकता है। दूसरे, यह बात भी कम विचलित करनेवाली नहीं है कि एक विशिष्ट/बहुसंख्यक/धर्म से जुड़ी एक प्राचीन रस्म को – जो मुख्यत: समाज के उपरी तबके और उंचे वर्ण के लोगों तक सीमित रही है – उसे एक बहुधर्मीय, बहुसांस्कृतिक समाज में एक नयी वैधता और प्रतिष्ठा प्रदान की जा रही है और यह दावा किया जा रहा है कि यह एक ‘सेक्युलर मकसद’ को पूरा करती है। ज्ञान रहे कि यज्ञ एक ऐसी रस्म है जिसका ताल्लुक हिन्दू धर्म से रहा है जहां अग्नि के सामने बैठ कर मंत्रोच्चार किया जाता है और घी तथा अन्य पदार्थों को अग्नि में अर्पित किया जाता है। यज्ञ का हिन्दुओं के जीवन में – फिर चाहे शादी ब्याह हो, मंदिरों के आयोजन हों या सामुदायिक उत्सव हों – काफी स्थान प्राचीन समयों से रहता आया है।

उत्तरप्रदेश के मेरठ के भैंसाली मैदान में पर्यावरण की रक्षा के लिए जलाये जा रही हैं लकड़ियां

अब अगर संस्था के लोग अपनी इस धार्मिक मान्यता के हिसाब से उसे निजी समारोह तक सीमित रखते तो आपत्ति की कोई बात नहीं थी, मगर आप जब उसे सार्वजनिक कर रहे हैं और उसके बहाने बन्ददिमागी को वैधता प्रदान कर रहे हैं, मिथकशास्त्रा को विज्ञान का दर्जा दे रहे हैं तो उस पर एक सेक्युलर मुल्क में आपत्ति उठना लाजिमी है।

तीसरी बात, जैसा कि स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन को अंजाम देने में धर्मग्रंथों के हिसाब से ब्राहमणों को ही – जो वर्णव्यवस्था के सोपानक्रम में सबसे उपर हैं – पात्रा समझा जाता है, अब क्या ऐसे आयोजनों से शुद्धता और प्रदूषण पर टिकी जाति व्यवस्था तथा उससे जुड़े भेदभावों को नयी मजबूती नहीं मिलती । हम इस बात को भूल नहीं सकते कि विगत साठ वर्षों से अधिक समय से जबसे संविधान लागू हुआ है, ऐसे धार्मिक आयोजनों को ब्राहमण ही अंजाम देते आए हैं, भले ही कई सरकारों ने पुरोहित बनने के कोर्स शुरू किए हों, जहां किसी भी जाति का व्यक्ति प्रवेश पा सकता हो, मगर ऐसी तमाम कोशिशें प्रतीकात्मक ही रही हैं। बदलते घटनाक्रमों पर बारीकी से नज़र रखनेवाला कोई भी व्यक्ति बता सकता है कि नियमों और कानूनों के उपर आस्था को वरीयता मिलने का यह सिलसिला यहीं तक सीमित नहीं है।

कुछ माह पहले ही पुणे के लोग आश्चर्यचकित थे जब उन्होंने महाराष्ट के उच्च शिक्षा विभाग के एक परिपत्रा/सेक्युलर को देखा जिसने पुणे की मशहूर सावित्राीबाई फुले विद्यापीठ और उससे आनुषंगिक संगठनों को यह निर्देष दिया था कि उनके छात्रा गणेशों के पर्यावरण अनुकूल विसर्जन् की मुहिमों से जुड़ने से दूर रहें क्योंकि उससे लोगों की ‘धार्मिक भावनाएं’’ आहत होती हैं। पुणे विश्वविद्यालय में पहुंचे इस परिपत्रा से इतना हंगाम हुआ कि राज्य सरकार को इस मामले में अपना आपत्ति दर्ज करानी पड़ी तथा खुद शिक्षा मंत्राी ने जांच के आदेश दिए।

अधिक पड़ताल करने पर यह तथ्य उजागर हुआ कि एक विवादास्पद संगठन हिन्दू जनजाग्रति समिति – जो अपनी सहोदर ‘‘सनातन संस्था’’ के साथ मिल कर अलग वजहों से विगत दस सालों से अधिक वक्त़ से सूर्खियों में रहता आया है, जहां उसके कार्यकर्ताओं की कथित तौर पर हिंसक घटनाओं में संलिप्तता की ख़बरें आयी हैं – ने शिक्षा विभाग को लिखा था और इन ‘नकली पर्यावरणवादियों’ निशाना बनाया था और उनके ‘उथले पर्यावरणीय सरोकारों’ की भत्र्सना की थी। सार्वजनिक जलाशयों में मूर्तियों के विसर्जन को लेकर उनके विरोध तथा उन्हें क्रत्रिम जलाशयों/टैंकों में विसर्जित करने की मुहिम को उन्होंने ‘‘हिन्दू परम्पराओं का उल्लंघन’ बताया था।  और विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने भी उनकी बातों पर गौर किए बिना कि किस तरह मूर्तियों के विसर्जन से पानी में धातुओं की मात्रा बढ़ती है और घुले हुए आक्सिजन की मात्रा कम हो जाती है और जिसके चलते जलाशयों के मरने की नौबत आती है, झटसे आदेश निकाला। उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए था कि आम दिनों में किस तरह पानी में धातु की मात्रा न्यूनतम होती है और त्यौहारों के दिनों में जब मूर्तियां विसर्जित की जाती हैं, अचानक बढ़ती है, और किस तरह लोगों द्वाारा पानी में फूल, प्लास्टिक, राख आदि डालने से भी उसका प्रदूषण का स्तर बढ़ता है। इन तमाम बातों पर ध्यान दिए बिना उन्होंने उच्च शिक्षा विभाग के आदेश को सर आंखों पर लिया और इतनाही नहीं अपनी तरफ से उसमें यह भी जोड़ा कि जो छात्रा ग्रीन गणेश या हरित गणेश की मुहिम में लगे हैं, उन पर निगरानी रखी जाए।

यह विडम्बनापूर्ण था कि डा नरेन्द्र दाभोलकर, जो महाराष्ट अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के संस्थापक सदस्य थे तथा उनकी हत्या पुणे में ही की गयी थी, वह पर्यावरण अनुकूल गणेश विसर्जन की मुहिम में अग्रणी भूमिका में थे।

क्या इस बात पर सहसा यकीन किया जा सकता है कि शिक्षा विभाग के अधिकारी या पुणे विश्वविद्यालय के जानेमाने अकादमिशियन मूर्तियों के विसर्जन से पैदा प्रदूषण की परिघटना से वाकीफ नहीं होंगे ?

हकीकत यही है कि जब आस्था आप के चिन्तन पर हावी होने लगती है तो आप आसानी से संदेह को त्याग कर – जिसे ज्ञान की पहली सीढी कहा गया है – धर्मग्रंथों की वरीयता के सामने सजदा करते जाते हैं, आप किसी भी बात पर यकीन करने लगते हैं। इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनायजेशन के पूर्व प्रमुख माधवन नायर ने कुछ समय पहले एक सिद्धांत पेश किया था कि वेदों के कुछ श्लोकों मे चंद्रमा पर पानी होने की बात स्पष्ट होती है। या किस तरह केन्द्रीय विज्ञान और टेक्नोलोजी मंत्राी हर्ष वर्द्धन ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के ताज़ा अधिवेशन में यह कह कर सभी को चैंका दिया कि हाल में गुजरे महान काॅस्माॅलाजिस्ट प्रोफेसर स्टीफन हाॅकिंग्ज ने कहा था कि हाॅकिंग्ज ने कही लिखा है कि वेदों में आइंस्टीन से बेहतर समीकरण उपलब्ध हैं, बाद में जब उन्हें अपनी ज्ञान के स्त्रोत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस सवाल को ही टाल दिया था।

जाहिर तौर पर चीजें इसी अन्दाज़ में चलती रहीं तो वह दिन दूर नहीं है जब भारत के शिक्षा संस्थानों के परिसर भी पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जैसे संस्थानों में तब्दील हो जाएंगे। अग्रणी पाकिस्तानी भौतिकीविद एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने एक आलेख में बताते हैं कि किस तरह इन दिनों वहां के प्रीमियर शिक्षा संस्थानों में भी जिन्न और काला जादू के इर्दगिर्द कार्यशालाएं आयोजित होती है और स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में पैरानार्मल ज्ञान – अर्थात भूत प्रेत आदि चर्चाओं को लेकर – वक्ता आमंत्रित किए जाते हैं और वैज्ञानिक चिन्तन को खारिज करने का सिलसिला वहां के अग्रणी विश्वविद्यालयों में बहुत चर्चित हो रहा है।


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लेखक के बारे में

सुभाष गताडे

सुभाष गताडे वामपंथी कार्यकर्ता, विमर्शकार और अनुवादक हैं। जाति और आंबेडकर उनके विमर्श के महत्वपूर्ण विषयों में शामिल हैं। उन्होंने काशी हिंन्दू विश्वविद्यालय से एम.टेक. की डिग्री  प्राप्त की। ये हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और मराठी में लिखते हैं। ‘बीसवीं शताब्दी में डॉ. आंबेडकर का सवाल’, ‘पहाड़ से उंचा आदमी: दशरथ मांझी’,  दीनदयाल उपाध्या : भाजपा के गांधी (हिंंदी), गाड्स चिल्ड्रेन : हिंदुत्वा टेरर इन इंडिया, दी सैफर्न कंडीशन : पालिटिक्स ऑफ रिप्रेशन एण्ड एक्सक्लूजन इन नियोलिबरल इंडिया ( अंग्रेजी ), अम्बेडकर विरूद्ध राष्टीय स्वयंसेवक संघ (मराठी) में प्रकाशित इनकी महत्वपूर्ण किताबें हैं। ये निमयित तौर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं। 1990 से 1999 तक इन्होंने ‘लोकदस्ता’ पत्रिका संपादन किया है

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