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लोक संगीत : स्त्री विमर्श को मिले जगह

साहित्यिक स्तर पर स्त्री विमर्श अब प्रमुख विमर्श के रूप में स्वीकृत हो चुका है। लोक संगीत और लोक साहित्य में अभी भी यह दूर की कौड़ी है। हालांकि लोक संगीत उन्हें इसकी इजाजत देता है परंतु उसे सामाजिक मान्यता नहीं के बराबर है। बता रही हैं कल्पना पटोवारी :

8 मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

(आसाम में जन्मीं कल्पना पटोवारी प्रख्यात लोक गायिका हैं। भोजपुरी के अलावा अन्य भाषाओं में उन्होंने गीत गाये हैं। 2013 में ‘द लीगेशी अाॅफ भिखारी ठाकुर’ के जरिए उन्होंने भोजपुरी लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत किया। कल्पना को इस वर्ष अस्ट्रेलिया में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के समारोह में आमंत्रित किया गया है)

इक्कीसवीं सदी में महिलाओं का विमर्श भले ही बौद्धिक जगत के लिए महत्वपूर्ण हो लेकिन लोक परंपराओं में अभी महिलाओं के विमर्श के लिए कोई जगह नहीं है। वहां अभी भी पुरूषवादी सोच काबिज है। आजादी के पहले भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों और गीतों में महिलाओं के विषयों को उठाया था। लेकिन उनके बाद कोई प्रयास नहीं किये गये हैं। इस कारण तमाम आधुनिकताओं के बावजूद लोक संगीत सामाजिक परिवर्तन के कारक नहीं बन पा रहे हैं। आसाम में कुछ उल्लेखनीय प्रयास भूपेन हजारिका ने किया। लेकिन वहां भी स्थिरता आ चुकी है।

असमिया लोक कथा तेजीमोला के मंचन की तस्वीर

उदाहरण के लिए आसाम में एक कहानी है। तेजीमोला की। यह कहानी एक दंतकथा है। लेकिन यह परियों क कहानी या फिर राजा-रानी की कहानी नहीं है। यह ऐसी कहानी है जिसे केवल बच्चियों को सुनाया जाता है। कहानी बच्चियों को डराती है।

इस कहानी में तेजीमोला एक लड़की है जिसके उपर उसकी सौतेली मां जुल्म करती है। एक दिन उसकी सौतेली मां उसे ढेकी (धान कूटने का एक पारंपरिक यंत्र, जिसे पैराें से चलाया जाता है) से पहले उसके दोनों हाथों को जख्मी करती है और फिर उसके सिर पर वार कर उसके प्राण ले लेती है। महिलाओं के नकारात्मक चित्रण वाली यह कहानी लोक संगीत के रूप में भी कही जाती है। गौर तलब है कि यह कहानी केवल बच्चियों को सुनायी जाती है ताकि वे डरें और पुरूषों के वर्चस्व के खिलाफ मुंह न खोल सकें।

इसके साथ ही आसाम में एक परंपरा है। वहां बच्चियों की माहवारी शुरू होने पर उत्सव मनाया जाता है। इसे ‘तुलोनी बिया’ कहा जाता है। यह शादी जैसी एक परंपरा है, जिसमें बच्ची को हल्दी लगाने आदि की परंपरा भी है। इस उत्सव के दौरान बच्चियों को कई मुश्किलों का सामना भी करना पड़ता है। वे चटाई पर सोती हैं। इतना ही नहीं उन्हें अपने पिता तक से छिपकर रहना पड़ता है। इस उत्सव में भी गीत गाये जाते हैं और गीतों में महिलाओं का पक्ष सामने आता है।

असमिया लोक पर्व बिहू के मौके पर नृत्य करती महिलायें

भोजपुरी लोक संगीत भी इससे इतर नहीं है। विवाह के दौरान होने वाले संस्कारों से संबंधित गीत। लेकिन यह सब पुरूष प्रधान समाज को स्वीकार्य है। वे महिलाओं द्वारा दी जाने वाली ‘गारी’ का भी विरोध नहीं करते। यह विरोधाभास नहीं है। पुरूष समाज सब कुछ अपने हिसाब से सुनना और समझना चाहता है, जिसकी अभिव्यक्ति लोक संगीत में होती है। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। महिलाओं का पक्ष। महिलायें अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। जैसे खेत में धान रोपती महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीत या फिर प्रसव पीड़ा में तड़प रही महिला के समक्ष गाये जाने वाले सोहर। यह सब महिलाओं के पक्ष को सामने रखते हैं। लेकिन इसे साहित्य के रूप में मान्यता नहीं दी गयी है।

भोजपुरी लोक गीत के रूपों में  श्रृंगार और प्रलाप का है। जब मैं श्रृंगार की बात कर रही हूं तो उसमें कई पहलू हैं। अब मेरी ही एलबम ‘गवनवा ले जा राजा जी’ को देखें। एक नवविवाहिता अपने पति से अनुरोध करती है कि वह उसे मायके से ले जाय। वह उसके साथ जीना चाहती है। हिन्दी साहित्य में यौन इच्छा की अभिव्यक्ति के तौर-तरीकों पर नजर दौड़ायें, भोजपुरी लोक संगीत आपको सबसे अधिक स्वतंत्रता प्रदान करने वाला और उदार साबित होगा। अब इसकी आलोचना के कई बिंदू हो सकते हैं। लेकिन आलोचना के क्रम में इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि भोजपुरी अंचल में महिलाओं को हक ही कितना दिया गया है। वे किस तरह अपनी बात समाज के सामने रख सकती हैं।

बिहार में लोक नृत्य की एक तस्वीर

एक प्रयास किया था भिखारी ठाकुर ने। उन्होंने बेटीबेचवा नाटक में एक ऐसी महिला को प्रस्तुत किया था जिसने आजादी के पहले यौन स्वतंत्रता और यौन अधिकार की बात कही। जाहिर तौर पर यह महज संजोग नहीं था। मसलन बेटीबेचवा नाटक को ही उदाहरण के रूप में लें। उस नाटक में नायिका अपने पिता से शिकायत करती है कि क्यों उसे एक बुढ़े के हाथों बेच दिया गया। गबरघिचोर की नायिका यौन स्वतंत्रता की बात करती है और अपने बच्चे पर अपना दावा ठोंकती है। वह तर्क देती है कि उसका बच्चा नाजायज नहीं है। ऐसी ही नारी स्वतंत्रता की झलक बिदेसिया में मिलती है। पलायन का दर्द झेलने वाली सुन्दरी उस समय भी पुरूष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है।

लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि भिखारी ठाकुर की रचनाओं के बाद लोक संगीत के क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी और सम्मान बढ़े, इसके लिए कितने प्रयास किये गये हैं। जवाब तलाशेंगे तो शायद एक भी नहीं। अधिकांश गीतों में जिस महिला से आपका सामना होगा, वह या तो पुत्र की कामना से प्रेरित होगी या फिर पलायन की शिकार। उसकी अपनी पीड़ा कहीं सामने नहीं आती।

बहरहाल बदलाव जरूरी है ताकि लोक संगीत में महिलायें अपनी पूरी आजादी के साथ जियें और लोक संगीत भी अपने अस्तित्व को बनाये रखने में कामयाब हो। यह समाज के लिए भी हितकारी होगा। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के नारे से ही बदलाव नहीं होगा। बेटियों को उनका वाजिब हक देना होगा। जाहिर तौर पर हक में सांस्कृतिक हक भी शामिल है।


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लेखक के बारे में

कल्पना पटोवारी

लेखिका कल्पना पटोवारी मूलत: आसाम की हैं और प्रख्यात लोक गायिका हैं। इन्होंने असमिया, बांग्ला, भोजपुरी, अंग्रेजी और तमिल सहित तीस से अधिक भाषाओं में बड़ी संख्या में गीतों को अपनी आवाज दी है।

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