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पंजाब में दलितों का जमीन के लिए संघर्ष और सामूहिक खेती का प्रयास

पंजाब विधान सभा ने पंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 पारित किया जिसके तहत खेती की सार्वजनिक जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है। 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन वास्तविक कब्जा एक इंच पर भी नहीं मिला। पंजाब के मालवा क्षेत्र में दलितों ने कुछ गांवों में इस जमीन पर अपना कब्जा कायम किया और इस पर सामूहिक खेती की शुरूआत की। इस पूरी परिघटना का विश्लेषण कर रहे हैं ईश मिश्र :

7 जनवरी 2018 को पंजाब के संगरूर में, जमीनी संघर्ष और खेती का मॉडल विषय पर एक अनूठे सेमिनार में शिरकत का अवसर मिला। न तो अकादमिक सेमिनार का ताम-झाम न विद्वानों की भरमार। वक्ता और श्रोता जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीयससी) के नेतृत्व में चल दलितों के भूमि आंदोलन से जुड़े किसान और युवा कार्यकर्त्ता एवं आंदोलन के समर्थक थे। यह आंदोलन पंजाब के मालवा क्षेत्र में चल रहा है। मंच संचालन लोंगवाल गांव की परमजीत कौर कर रही थी। उन्होंने सेमिनार की भूमिका में आंदोलन और साझा खेती के आर्थिक ही नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक फायदों का विवरण प्रस्तुत किया। खचाखच भरे सभागार में महिलाओं की संख्या उल्लेखनीय थी, पीछे था ज़ेडपीयससी का क्रांतिकारी लाल झंडा । आंदोलन में भी महिलाएं अगली कतार में रहती हैं। क्रांतिकारी गीतों के बाद सेमिनार की शुरुआत हुई। सबसे पहले कराचों गांव के दलित सामूहिक खेती को सबसे अच्छी साझा खेती के लिए पुरस्कृत किया गया। कृषि वैज्ञानिक डॉ. सतजीत सिंह अवाना ने साझा खेती की गुणवत्ता और फायदों पर प्रकाश डाला।

जनसभा को संबोधित करते जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीयससी) के पदाधिकारी

पंजाब में किसानों और मजदूरों के भूमि आंदोलनों का लंबा इतिहास है लेकिन पंजाब के मालवा क्षेत्र के लगभग 100 गांवों में जेडपीयससी के नेतृत्व में चल रहा भूमि आंदोलन अपने ढंग का अलग आंदोलन है। 1945-53 का लाल पार्टी के नेतृत्व में चला मुजारा आंदोलन जमींदारों की जमीन पर किसानों (मुज़ारा) के अधिकार का आंदोलन था, जिसे भारी दमन के बावजूद उल्लेखनीय सफलता मिली थी। मुजारा आंदोलन जमीन के न्यायपूर्ण वितरण की क्रांतिकारी मांग का आंदोलन था। जेडपीयससी के नेतृत्व में चल रहा आंदोलन पंचायती जमीन में दलितों के कानूनी अधिकार का जनांदोलन है। जिन गांवों में सरकारी और सामाजिक दमन झेलते हुए, निरंतर संघर्ष से यह कानूनी हक हासिल किया वहां दलितों ने साझा खेती के प्रयोग से दलित सामूहिकता की अनुकरणीय मिशाल कायम की है जो शासकवर्गों और उनके प्यांदों की आंख की किरकिरी बनी हुई है।

आज जेडपीयससी का संघर्ष दो मोर्चों पर चल रहा है। जिन गांवों में संघर्षों से जमीन हासिल करके साझा खेती की दलित सामूहिकता स्थापित किया है उसे बचाने का और बाकी गांवों में जमीन हासिल करने का। संगठन के महासचिव, युवा गुरमुख सिंह ने बताया कि वे लोग अब गैर-दलित गरीब किसानों और खेत मजदूरों को भी शामिल कर दलित सामूहिकता को विस्तार देकर उसे मजदूर-किसान सामूहिकता में तब्दील करने की दिशा में काम कर रहे हैं। गुरमुख अपनी पीएचडी की पढ़ाई बीच में मुल्तवी कर आंदोलन में शरीक हो गए तथा संगठन के सचिव मुकेश मलौध ठीक-ठाक नौकरी छोड़कर। मुकेश की पत्नी पीएचडी कर रही है। इस आंदोलन की खास बात यह कि यह आंदोलन छात्रों की पहल पर शुरू हुआ और नेतृत्व पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियों का है। यह आंदोलन जेयनयू के छात्रों के नारे, “लड़ो पढ़ने के लिए; पढ़ो समाज बदलने के लिए” को चरितार्थ करता है। यह आंदोलन शिक्षा के अवसर और सामाजिक चेतना के स्तर के जनवादीकरण के अंतर्संबंधों को चिन्हित तो करता ही है, सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की द्वंद्वात्मक एकता का भी मिशाल है।यह आंदोलन जमीन अधिकार के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा का भी आंदोलन है क्योंकि सामाजिक वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण आधार आर्थिक वर्चस्व है। इस अर्थ में यह आंदोलन ‘जयजयीम-लाल सलाम’ नारे की बेमिशाल राजनैतिक अभिव्यक्ति है।चार साल से जारी मालवा के दलितों की जमीन के कानूनी लड़ाई ‘मृदंग मीडिया की दृष्टि-सीमा से दूर तो है ही, अकाली और कांग्रेस आंदोलन को तोड़ने की तिकड़में कर रहे हैं, दलित हितों की पैरोकारी की सियासत वाली बहुजन समाज पार्टी भी आंदोलन के दमन पर मौन है। दो ही संगठन आंदोलन का खुला समर्थन कर रहे हैं, पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीएसयू) तथा नवजवान भारत सभा।

पिरामिडाकार श्रेणीबद्धता के अर्थों में पूंजीवाद और हिंदू-जाति व्यवस्था में यह समानता है कि इन ढांचों में इतनी परतें हैं कि सबसे निचलेपायदान वालों को छोड़कर हर श्रेणी, उप-श्रेणी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई श्रेणी, उप-श्रेणी मिल जाती है। इसीलिए लगता है कि जातिवाद(ब्राह्मणवाद) और पूंजीवाद  चाहे-अनचाहे; जाने-अनजाने एक दूसरे के सहयोगी बन जाते हैं। इसका ताजा, ज्वलंत उदाहरण पंजाब के मालवा क्षेत्र के दलित किसानों की जमीन के कानूनी अधिकारों की जारी लड़ाई के दमन में सरकार और ऊंची जाति के धनी किसानों का गठजोड़ है।

ग्रामीण, सामाजिक संरचना में जातीय वर्चस्व का आधार आर्थिक संसाधनों, मुख्यतः खेती की जमीन पर मिलकियत में गैरबरारी है। इसीलिए जमीन कि यह लड़ाई जातिवादी दमन तथा जातिवाद के विरुद्ध भी है, क्योंकि भारत में शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रहे हैं। जमींदार या बड़े किसान ज्यादातर ऊंची जातियों (प्रमुखतः जाट) के हैं, दलित ज्यादातर भूमिहीन। भूमि आंदोलनों के परिणामस्वरूप पंजाब विधानसभा नेपंजाब विलेज कॉमन लैंड रेगुलेसन ऐक्ट, 1961 पारित किया जिसके तहत खेती की सार्वजनिक जमीन में एक-तिहाई पर अनुसूचित जातियों के आरक्षण का प्रावधान है। आंदोलन से जुड़े पंजाबी कवि तथा नवजवान भारत सभा के कार्यकर्ता सुखविंदर सिंह पप्पी ने बताया कि कागजों पर 56,000 एकड़ जमीन दलितों को आबंटित थी, लेकिन जमीन पर एक इंच भी नहीं। पंचायती जमीन की सालाना नीलामी होती है। धनी किसान किसी डमी दलित के नाम से बोली लगाकर जमीन पर काबिज रहते रहे हैं।  दलित चेतना में उभार से दलित अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए।

आंदोलन का राजनैतिक अर्थशास्त्र

इन गांवों के किसानों में चेतना के अभाव इस कानूनी अधिकार के बारे में जानकारी ही नहीं थी। सामाजिक चेतना के स्तर का आलम यह था कि 1976 में खेड़ी गांव के भूमिहीन किसानों को आवासीय प्लॉट आबंटित किए गये। पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय के एक आदेशानुसार, आबंटन के 3 साल के अंदर अगर मकान न बने तो पंचायत जमीन वापस ले लेगी। लेकिन 4 साल पहले तक उन्हें इसकी सूचना ही नहीं थी।  खेड़ी के दलितों ने जेडपीयससी के नेतृत्व में अपनी जमीन को लाल झंडे से घेर कर वहीं डेरा डाल दिया है। धनी किसानों तथा पुलिस के उत्पीड़न तथा धमकियों की परवाह न कर वे अपनी जमीन पर डटे हैं। सामूहिक खेती से 2 कदम और आगे खेड़ा के दलित सामूहिक ने साझा रसोई की बेमिशाल मिशाल कायम की है। वे मिलजुलकर सामान लगाते हैं; मिलजुलकर भोजन बनाते-खाते हैं। धनी किसानों, पुलिस तथा प्रशासन के दमन-उत्पीड़नों को धता बताते हुए, आंधी-बारिस से लड़ते हुए वे अब अपनी जमीन से हटने के लिए तैयार नहीं हैं, कुछ भी हो जाये। संघर्षों से निकली सामाजिक चेतना की संवेदना भी क्रांतिकारी होती है। इस सामूहिकता में उन्होंने उन भूमिहीन दलित परिवारों को भी शामिल किया है, जिनका नाम आंबटन-सूची में नहीं है।

जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीयससी) की महिलाएं

धीरे-धीरे, जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ, दलितों, खासकर पढ़े-लिखे और पढ़ने-लिखने वाले युवाओं में जमीन और सामाजिक प्रतिष्ठा के अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी। कानून हर गांव की पंचायती जमीन में दलितों के लिए आरक्षित पंचायती जमीन पर धोखा-धड़ी तथा प्रशासन की मिलीभगत से ऊंची जातियों के धनी किसानों का नियंत्रण बना रहा। इस आंदोलन के इतिहास की शुरुआत 2008 में बरनाला जिले के बनरा गांव से हुई। बहाल सिंह ने क्रांतिकारी पेंदू मजदूर यूनियन के परचम तले गांव के 250 दलित परिवारों को लामबंद किया। आंदोलित लामबंदी ने ऐसा माहौल खड़ा कर दिया कि जाट जमींदारों तथा धनी किसानों के लिए कोई बिकाऊ, डमी दलित मिलना असंभव हो गया। आंदोलन से जनतांत्रिक सामूहिकता की अवधारणा और भावना उपजी। सामूहिक बोली से बनरा के दलितों ने गांव की 33% पंचायती जमीन (9 एकड़) का सामूहिक पट्टा करवाया। आत्मसम्मान तथा मानवीय प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह 9 एकड़ जमीन बनरा के दलितों के लिए संजीवनी साबित हुई। खाद्यान्न उत्पादन के लिए जमीन बहुत कम है, प्रति परिवार 10 बिस्सा। जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों में अलग-अलग खेती मुश्किल तथा निवेश आधारित होने के नाते मंहगी। इससे निजात पाने के लिए साझा खेती की समझ विकसित की गयी। सोची-समझी योजना के तहत उन्होंने धान-गेहूं की पारम्परिक फसल चक्र की बजाय सामूहिक जमीन पर चरी और बरसीम जैसी चारे की खेती का बारहमासी फसलचक्र अपनाया। 11 लोगों की निर्वाचित समिति उत्पादन तथा समुचित वितरण की देख-रेख करती है। मवेशियों के चारे के लिए गांव की महिलाओं को दूर दूर जाना पड़ता था या जमींदारों के खेतों में जहां उन्हें अपमानित होना पड़ता था। जमीन का यह संघर्ष जातीय वर्चस्व के विरुद्ध आर्थिक संघर्ष है। बनरा प्रयोग का प्रसार 5 साल से अधिक समय तक स्थिर रहा, लेकिन दलित सामूहिकता का विचार पूरे मालवा में फैल गया।

2014 में बनरा दलित सामूहिकता के प्रयोग से उत्साहित पंजाब स्टूडेंट्स यूनियन (पीएसयू) के छात्रों ने सरकारी दस्तावेजों की छान-बीन से तमाम गांवों में दलितों के लिए आरक्षित जमीनों की मालुमात कर गांव-गांव में दलित परिवारों की इस मुद्दे पर लामबंदी शुरू किया। पहला गांव शेखो चुना। छात्रों के नेतृत्व में, दलित लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप सामूहिक बोली से दलितों के लिए आरक्षित जमीन हासिल करने में सफल रहे। इन्होंने भी प्राप्त जमीन पर साझा खेती की प्रणाली को ठोस रूप दिया। शेखा सामूहिक ने भी पारंपरिक फसलचक्र से हट कर चारे की सामूहिक खेती शुरू की। आज मालवा के सैकड़ों गांवों में ज़ेडपीयससी के नेतृत्व में  आंदोलन चल रहे हैं।

इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी बालद कलां का आंदोलन है। यहां कुल शालमात जमीन का रकबा काफी है – 375 एकड़, जिसमें दलितों के लिए आरक्षित जमीन का रकबा 125 एकड़ है। पंचायती जमीन की नीलामी में पुलिस-प्रशासन तथा ऊंची जातियों की मिलीभगत से फर्जीवाड़े के विरुद्ध 24 मई 2016 को संगरूर जिले की भवानीगढ़ तहसील के बालद कलां के दलितों के सड़क-रोको आंदोलन पर पुलिस ने बर्बर लाठीचार्ज किया तथा आंदोलनकारियों के अनुसार  गोलीबारी भी। पुलिस बर्बरता की शिकार कई महिलाएं भी हैं। कॉलेज जा रही लड़कियों को भी पुरुष पुलिसियों ने घसीट-घसीट कर पीटा। 28 मई 2016 को जब जनहस्तक्षेप की टीम  संगरूर जिले के कुछ आंदोलित गांवों के दौरे पर उन महिलाओं से मिली तो पैरों पर 4 दिन पुरानी चोट के ताजे नीले घाव दिखाते हुए उनके चेहरे पर खौफ नहीं, आत्मविश्वास और संघर्ष के दृढ़ संकल्प के भाव थे। उन्होंने कहा, “पुलिस कुछ भी कर ले, जान चली जाये पर जमीन नहीं छोड़ेंगे।” उन्होंने और बाकियों ने भी बताया कि यह उनके लिए सिर्फ आर्थिक मुद्दा नहीं है बल्कि सामाजिक भी। धनी किसानों के खेतों से घास काटने के लिए अब उन्हें अपमान बर्दाश्त करने की बाध्यता नहीं है। तब से कई गांवों में सफलता प्राप्त कर साझा खेती को अंजाम दिया जा चुका है, 100 से अधिक गांवों में आंदोलन जारी है और दमन भी।

जून 2016 में पुलिस की मौजूदगी में धनी किसानों और उनके गुंडों ने झलूर गांव के दलितों की बस्ती पर हमला बोल दिया। आंदोलन में जख्मी 72 वर्षीय गुरदेव कौर शहीद हो गयीं। पुलिस ने कुछ जख्मियों को अस्पताल से गिफ्तारकर लिया और कुछ को अस्पताल से डरा-धमका कर भगा दिया। इनकी जमीन छीनने के लिए धनी किसान पुलिस-प्रशासन की मदद से फर्जीवाड़े की कोशिश में लगे हैं, लेकिन दलित भी जमीन पर आखिरी सांस तक कब्जा न छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपमान झेलते हुए बड़ी जातियों के किसानों के खेतों में बुआई-कटाई करने वाले इन दलितों के लिए अपनी जमीन का विचार ही किसी सपने सा है। शासन की पुरानी रणनीति है आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमें. लेकिन पंजाब के दलितों ने मुकदमों से डरना बंद कर दिया है। इस पूरे आंदोलन में पुलिस-प्रशासन की भूमिका दलित विरोधी रही है।

आंदोलन से हासिल जमीन पर साझा खेती और दलित सामूहिकता की मिसाल पूंजीवाद के मूलमंत्र व्यक्तिवाद की विचारधारा को चुनौती है। इसीलिए दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे शासक वर्ग के कारिंदे स्थानीय शासक वर्गों के साथ मिलकर आंदोलन को कुचलने में बेशर्मी से हर हतकंडे अपना रही है, चाहे अकाली-भाजपा सरकार हो या कांग्रेस की। कांग्रेस की मौजूदा सरकार मुद्दा ही खत्म करने के प्रयास में ‘औद्योगिक पार्क’ के लिए 12000 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की अधिसूचना कर दिया। गौरतलब है कि इसमें सबसे बड़ी साझा खेती के गांव बल्दगांव के इर्द-गिर्द के 12 गांवों की जमीनें हैं जिनमें साझा खेती की दलित सामूहिकता कायम की है। न रहे बांस न बजे बांसुरी। दलित ‘सामूहिकता’ की अवधारणा, जमीन पर साझी मिल्कियत, सामूहिक उत्पादन और उत्पाद के समान वितरण की व्यवस्था पूंजीवाद और निजीकरण के सिद्धांत के लिए खतरनाक है। बाद में पता चला कि 10 जनवरी को कांग्रेस के स्थानीय विधायक के साथ आंदोलन की धुरी बल्द कलां गांव में पुलिस संरक्षण में जमीन का सर्वे करने सरकारी अमला पहुंचा, जिसे ग्रामीणों ने भगा दिया।

ये एक अलग ढंग के जमीन आंदोलन हैं और यदि सरकार पंचायती जमीन के बंटवारे के कानून निष्ठा से लागू करती तो आंदोलन की जरूरत ही नहीं पड़ती। चार साल से जारी दलितों के इस भूमि आंदोलन और इसके समर्थन में लाखों की शिरकत वाली किसान पंचायत-महापंचायतों पर “मृदंग मीडिया” की नजर नहीं जाती।यह आंदोलन सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय या यूं कहें कि सामाजिक और आर्थिक क्रांति यानि वर्ण-संघर्ष और वर्ग-संगर्ष की द्वंद्वात्मक एकता की मिशाल है।पंजाब में किसान आंदोलनों का लंबा इतिहास है। लेकिन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ज़ेडपीयससी) के तत्वाधान में पंजाब के मालवा क्षेत्र बहुत से गांवों में चल रहा भूमि आंदोलन कई मायनों में पहले के आंदोलनों से अलग है। यह एक नये किस्म का आर्थिक अधिकारों का वर्ग संघर्ष है, सामाजिक प्रतिष्ठा का मुद्दा इसका अहम पहलू है।

  सम्मेलन का समापन क्रांतिकारी गीतों और आंदोलन को और क्रांतिकारी बनाने तथा साझा खेती के प्रयोग का प्रसार सीमांत और छोटे किसानों में करने के संकल्प के साथ हुआ। सभी वक्ताओं ने औद्योगिक पार्क के नाम पर आंदोलन की उपलब्धियों को नष्ट करने की मौजूदा सरकार की साजिश का संज्ञान लिया तथा इस साजिश को हर-हाल में नाकाम करने का प्रण किया। सरकारें और सारे शासक समूह की आंखों की किरकिरी क्यों बना हुआ है, पंजाब के दलितों का यह जमीनी दलित आंदोलन? सामाजिक संबंधों के निर्धारण में अर्थ की केंद्रीय भूमिका है। शासक वर्ग अभी तक सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों को अलग-थलग रखने में सफल रहा है, यह आंदोलन शासक वर्गों के इस मंसूबे के लिए गंभीर सैद्धांतिक और राजनैतिक चुनौती है। यह आंदोलन दलित चेतना के जनवादीकरण की मिशाल बन गया है। शिक्षा की सुलभता के इस्तेमाल से पढ़े-लिखे युवजनों की मार्फत दलितों में अधिकार की चेतना का संचार हुआ और संगठित संघर्ष का जज्बा। इसीलिए भगत सिंह और आंबेडकर दोनों ने मुक्ति के संघर्ष के लिए शिक्षा की अहमियत को रेखांकित किया है। इस आंदोलन के दो स्पष्ट संदेश हैं। पहला, आज की परिस्थिति में जब नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजी और सामाजिक प्रतिक्रियावाद का गठजोड़ मुल्क को तबाह तरने पर तुला है, आर्थिक मुक्ति और सामाजिक मुक्ति के संघर्ष एक दूसरे के पूरक हैं तथा सफलता के लिए दोनों संघर्षों का विलय जरूरी है। दूसरा, सेमिनार में सभी वक्ताओं ने साझा खेती की वैज्ञानिकता और लाभों को रेखांकित किया। लाभप्रद साझा खेती की मिशाल निजीकरण और व्यक्तिवाद पर आधारित नवउदारवादी पूंजीवाद के लिए खतरनाक है। जैसा कि भूमंडलीकरण के बाद से कृषि विरोधी नीतियों और निवेश आधारित खेती के चलते छोटी जोत के किसान खेती को अलाभप्रद पाकर पलायन कर रहे हैं। यह मिशाल उनके लिए संजीवनी साबित हो सकती है। यह बात खेती के कॉरपोरेटीकरण के साम्राज्यवादी मंसूबों के लिए खतरनाक है तथा सामूहिकता का प्रयोग पूंजीवाद की व्यक्तिवादी विचारधारा के लिए। इसीलिए शासक वर्गों के सभी तपके इसके विरुद्ध हैं, लेकिन जनता की ताकत  अंततः सत्ता की ताकत पर भारी पड़ती है, जंगे आजादी का जज्बा दमन की क्रूरता पर भारी पड़ता है।


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लेखक के बारे में

ईश मिश्रा

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में पूर्व असोसिएट प्रोफ़ेसर ईश मिश्रा सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं

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