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फुले, पेरियार और आंबेडकर : बहुजन-श्रमण परंपरा में महिला सशक्तिकरण

महिलाओं के संबंध में भारत में दो परंपराएं रही हैं। पहली वैदिक या सनातनी परंपरा। इसे आजकल मनुवादी-ब्राह्मणवादी परंपरा के नाम से जाना जाता है। दूसरी परंपरा बहुजन-श्रमण परंपरा है

8 मार्च : अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

(8 मार्च को अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पूरे विश्व में मनाया जाता है। महिलाओं के अधिकारों को लेकर हुए पहले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन से इसकी औपचारिक शुरूआत 1909 में अमेरिकी शहर न्यूयार्क में की गयी। जबकि भारत का बहुजन समुदाय सावित्री बाई फुले के जन्म दिन 3 जनवरी को सर्व शिक्षा दिवस के रूप में मनाता है। दोनों ही दिवस महत्वपूर्ण हैं। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस हमें महिलाओं के संघर्षों के वैश्विक साझेपन की याद दिलाता है। जबकि सावित्री बाई फुले ने भारत में पहली बार 1 जनवरी, 1848 को लडकियों के लिए स्कूल की शुरूआत की थी। उनके जन्मदिन के बहाने हम महिला सशक्तिकरण के विशिष्ट भारतीय पहलुओं पर नजर डालते हैं। सुनीता दुबे का यह लेख स्त्री सशक्तिकरण की बहुजन-श्रमण परंपरा को रेखांकित करता है- संपादक)

महाराष्ट्र के फुलेवाड़ा में जोती राव फुले-सावित्री बाई फुले के आवास को संग्रहालय बना दिया गया है। संग्रहालय में प्रदर्शित एक पेंटिंग में फुले दंपत्ति लड़कियों को पढ़ा रहे हैं। (एफपी ऑन द रोड – 2017)

महिलाओं के संबंध में भारत में दो परंपराएं रही हैं। पहली वैदिक या सनातनी परंपरा। इसे आजकल मनुवादी-ब्राह्मणवादी परंपरा के नाम से जाना जाता है। दूसरी परंपरा बहुजन-श्रमण परंपरा है। आधुनिक युग में इस दूसरी परंपरा के प्रतिनिधि जोती राव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890), पेरियार इरोड वेंकट रामासामी(17 सितंबर 1879 – 24 दिसंबर 1973) और डॉ. भीमराव आंबेडकर(14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर 1956)  हैं। जहां पहली परंपरा किसी भी परिस्थिति में स्त्री को स्वतंत्रता और समानता देने को तैयार नहीं है। वहीं दूसरी परंपरा स्त्री को जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता और समानता की हिमायती है। मनुवादी परंपरा के सभी ग्रंथ और महाकाव्य और इनके रचयिता एक स्वर में घोषणा करते हैं कि स्त्री को आजीवन पुरूष की अधीनता और मातहती में रहना चाहिए। स्त्री आजादी से वंचित है और स्वतंत्रता के लिए अपात्र है।  

     पिता रक्षित कौमारे भर्ता रक्षित यौवने।

     रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।

(जब स्त्री कुमारिका होती है, पिता उसकी रक्षा करते हैं, युवावस्था में पति और वृद्धा अवस्था स्त्री की रक्षा पुत्र करता है, तात्पर्य यह है कि आयु के किसी भी पड़ाव पर स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है)

महाराष्ट्र के फुलेवाड़ा में सावित्री बाई फुले की आकृतियों से सजा एक तोरण द्वार (एफपी ऑन द रोड – 2017)

रामचरित मानस के रचनाकार तुलसीदास साफ घोषणा करते हैं कि स्वतंत्र होकर स्त्री विगड़ जाती है- ‘जिमि स्वतंत्र होई, विगरई नारी’। धर्मशास्त्रों का हुक्मनामा रहा है कि पिता ने यदि अयोग्य या अक्षम पुरूष से विवाह कर दिया हो, तो स्त्री को उसे देवता मानकर सेवा करनी होगी। महाभारत में कहा गया है, ‘ पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, घिनौना, अमीर या गरीब हो, लेकिन स्त्री की दृष्टि से वह उत्तम भूषण होता है। मनुस्मृति के मुताबिक, ‘पति चरित्रहीन, लंपट, निर्गुणी क्यों न हो साध्वी स्त्री देवता की तरह उसकी सेवा करे’। वाल्मीकि रामायमण भी इसका समर्थ करता है। ऐसा नहीं है कि यह केवल शास्त्रों या महाकाव्यों के कथन मात्र हैं। हिंदू समाज का बहुलांश इन विचारों को संस्कार के रूप में प्राप्त करता है। उसकी नजर में स्त्री दोयम दर्जे की चीज है और पुरूष  की अधीनता में जीना ही उसका कर्तव्य है। इसी संस्कार के चलते आज के आधुनिक कहे जाने वाले युग में 6 करोड़ 30 लाख लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी गई और 2 करोड़ 10 लाख ऐसी लड़कियों ने जन्म लिया, जिन्हें जन्म देना उनके माता-पिता नहीं चाहते थे।

इस के संदर्भ में इस मनुवादी परंपरा के बिल्कुल उलट बहुजन-श्रमण परंपरा है। आधुनिक युग में इसके पहले मुखर प्रवक्ता जोतीराव फुले हैं, उन्होंने स्त्री संबंधी ब्राह्मणवादी परंपरा को खुली चुनौती दी। स्त्री को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार संपन्न माना। उन्होंने अपनी जीवन-संगिनी सावित्री बाई फुले(3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897)  को जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी का हक दिया। अपनी जीवन-संगिनी के साथ मिलकर महिलाओं को सभी प्रकार की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष किया। 1 जनवरी 1848 को लड़कियों के लिए जो स्कूल शुरू किया, वह स्कूल नहीं महिलाओं की मुक्ति का दरवाजा था। जोती राव फुले का कहना था कि, ‘स्त्री शिक्षा के द्वार पुरूषों ने इसलिए बंद कर रखे थे कि वह मानवी अधिकारों को समझ न पायें। जैसी स्वतंत्रता पुरूष लेता है, वैसी स्वतंत्रता स्त्री ले तो? अगर अपनी काम वासनाएं पूरी करने के लिए पुरूष दो-दो, तीन-तीन स्त्रियों से विवाह करता है और उन विवाहों के लिए धर्मशास्त्र का आधार लेता है, यदि स्त्रियां भी ऐसे अधिकारों की मांग करने लगें और कहने लगें कि हमें भी दो-दो, तीन-तीन पति करने की सहूलियत मिलनी चाहिए, तब हम सब पुरूषों को कैसा लगेगा? फुले साफ शब्दों में घोषणा करते हैं, ‘स्त्री और पुरूष दोनों सारे मानवी अधिकारों को पाने के पात्र हैं। फिर पुरूषों के लिए अलग नियम और स्त्रियों के लिए अलग नियम, क्या यह पक्षपात नहीं है?’

जोती राव फुले ने स्त्री समानता पर आधारित नई विवाह पद्धति बनाई। जिसे उन्होंने ‘सत्यशोधक विवाह संस्कार’ नाम दिया। स्त्री की असमानता को पोषित करने वाली ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति को पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने विवाह पद्धति से वे सभी मंत्र निकाल दिए जो पुरूष प्रधान संस्कृति के समर्थक थे। उन्होंने मराठी में ऐसे मंत्र तैयार किए जो स्त्री पुरूष-समानता पर आधारित हों। इस विवाह पद्धति से ब्राह्मण को पूरी तरह से बाहर कर दिया गया। इस विवाह में स्त्रियां पुरूष को शपथ दिलाती हैं, ‘स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को नहीं है। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे’ स्त्री मुक्ति की ऐसी कोई लड़ाई नहीं है जिसे जोती राव फुले ने अपने समय में न लड़ी हो।  

फुले की स्त्री दृष्टि को पेरियार ने एक नई उंचाई दी। उन्होंने 1929 में ‘आत्मभिमान विवाह’ (सेल्फ-रिस्पेक्ट मैरिज या एसआरएम) की शुरूआत की। उनके अनुसार विवाह दो व्यक्तियों के बीच एक ऐसा समझौता है, जिसमें जाति, वर्ग या धर्म के लिए कोई जगह नहीं है, जिसमें किसी पुरोहित की कोई आवश्कता नहीं है, न अभिवावकों की सहमहति की। इसमें विवाह सदा के लिए बंधन न होकर दो समकक्ष व्यक्तियों के बीच समझौता है, जिसमें दोनों में से कोई भी पक्ष जब चाहे समाप्त कर सकता है। विवाह स्वर्ग में ईश्वर द्वारा नहीं वरन धरती पर दो व्यक्तियों द्वारा परस्पर समझौते से निर्धारित होते हैं। आत्मभिमान विवाह के मूल में है,लैंगिक समानता और निर्णय स्वंय लेने का अधिकार। वे स्त्री-पुरूष संबंधों की नींव प्रेम और बराबरी मानते थे। उनका कहना था कि, ‘स्त्रियों को सतीत्व एवं पवित्रता के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। उनसे इसकी अपेक्षा तब की जा सकती है जब पुरूष उसे अपना विशुद्ध प्रेम प्रदान करें और उसे अपना सच्चा साथी समझे। स्त्रियों के लिए एक नियम और पुरूषों के लिए दूसरा नियम पूर्णतः निंदनीय है और यह नियम समानता के सिद्धांत के सामने टिकता नहीं है।‘ पेरियार महिलाओं का आह्वान करते हैं कि वे अपनी मुक्ति के लिए पुरूषों की ओर न ताकें। वे कहते हैं, ‘पुरूषों द्वारा स्त्रियों को स्वतंत्रता प्रदान करने की बात एक छलावा है। अपनी स्वतंत्रता के लिए स्त्रियों को स्वयं आगे आना होगा।‘ उन्हें आगे बढ़कर अपनी स्वतंत्रता की मांग करनी चाहिए। अपने जीवन-साथी का उन्हें स्वयं चुनाव करना चाहिए।‘

फुले और पेरियार के स्त्री संबंधी विचारों को कानूनी बनाने की कोशिश आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल में किया। उन्होंने इस बिल में यह प्रस्ताव किया कि किसी भी बालिग लड़का-लड़की को अपना जीवनसाथी चुनने का पूर्ण अधिकार है, इसमें जाति-पांति या धर्म की कोई भूमिका नहीं होगी, न ही माता-पिता किसी बालिग लड़के या लड़की को अपना मनचाहा जीवन-साथी चुनने से रोक सकते हैं। इस बिल में आंबेडकर ने हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार भी प्रदान किया था। साथ ही महिलाओं को संपत्ति में भी अधिकार का प्रावधान था।

अपनी पत्नी के साथ डॉ. भीम राव आंबेडकर

आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत हिंदू कोड बिल का तीखा विरोध मनुवादी मानसिकता के लोगों ने किया। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य इसके खिलाफ हो गये। इस बिल को विरोध करने वालों में तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और उप प्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल भी शामिल थे। हिंदुत्ववादी संगठनों के लोग सड़को पर उतर आये। कहा जाने लगा कि इस बिल के पास हो जाने से हिंदू संस्कृति का विनाश हो जायेगा और पारिवारिक व्यवस्था नष्ट हो जायेगी। आखिरकार बिल आधा-अधूरा ही पास हो पाया।

आंबेडकर जाति व्यवस्था और स्त्री की पराधीनता को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। उन्होंने कहा कि जाति यदि हिदू धर्म का प्राण है तो सजातीय विवाह जाति का प्राण है। यदि बालिग लड़का-लड़की अपनी इच्छानुसार किसी भी जाति में शादी करने लगे तो जाति-व्यवस्था एक दिन भी टिक नहीं पायेगी। उनका स्पष्ट कहना था कि स्त्रियों की स्वतंत्रता और समानता को ब्राह्मणवादियों ने जाति व्यवस्था बनाये रखने के लिए खारिज किया। आंबेडकर ने अपनी किताब, ‘हिंदू नारी उत्थान और पतन’ में तथ्य देकर इस बात को प्रमाणित किया कि मनुवादी परंपरा स्त्रियों को पुरूष की दासी बनाकर रखने में विश्वास करती है, जबकि बहुजन-श्रमण परंपरा स्त्रियों को पुरूष के बराबर का दर्जा देती है। उन्होंन तथ्यों और तर्कों के साथ इस किताब में यह साबित किया है कि गौतम बुद्ध स्त्री और पुरूष को समान दर्जा देते थे और बौद्ध धम्म में स्त्रियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त है। प्रमाण स्वरूप उन्होंने थेरीगाथों को उद्धृत किया।

8 मार्च के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है।  इस दिन हमें दुनिया भर की महिलाओं के संघर्षों को  जरूर याद करना चाहिए, लेकिन इससे ज्यादा यह जरूरी है कि हम बहुजन-श्रमण परंपरा और उसके नायकों को याद करें जो पूरी तरह महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के संघर्षों के साथ खड़े हैं। अपनी देशज प्रगतिशील परंपरा के साथ खड़े होकर ही भारतीय महिलाएं वह शक्ति और उर्जा प्राप्त कर सकती है, जिससे वह अपने लिए सच्ची स्वतंत्रता और समानता हासिल कर सकें।


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लेखक के बारे में

सुनीता दुबे

सुनीता दुबे रविवार पत्रिका में नियमित स्तंभकार रही हैं। साथ ही अन्य पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन कार्य करती हैं

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