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यूजीसी के विरोध में सड़क पर उतरें, अदालतों में जायें बहुजन : मुणगेकर

मैं बाबा साहब आंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले और पेरियार का एक अनुयायी होने के नाते कहना चाहता हूं कि इसके लिए सभी समाज/वर्ग के लोगों को पूरी तरह से वे जिस-जिस तरह से भी अपना विरोध कर सकते हैं, विरोध करें। डॉ. भालचंद्र मुणगेकर से नवल किशोर कुमार की बातचीत के संपादित अंश :

यूजीसी द्वारा जारी अधिसूचना के बाद आरक्षित वर्गों के हितों पर विपरीत असर पड़ेगा। यह एक बड़ा मुद्दा है जि लेकर आपने पहल किया है। यह पूरा मसला है क्या?

देखिए, भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए तीन प्रकार के आरक्षण हैं। पहला शिक्षा में, दूसरा रोजगार में और तीसरा राजनीति यानि लोकसभा और राज्यसभा में। ताकि उनका (दलितों/आदिवासियों का) राजनीति में यानी देश की निर्णायक प्रक्रिया में हिस्सेदारी हो। यह तीन प्रकार के रिजर्वेशन उनके लिए है। लोगों में इस बात की बहुत बड़ी गलतफहमी है कि संविधान लागू होने के बाद आरक्षण का प्रावधान केवल 10 वर्ष के लिए था। यह गलतफहमी इसलिए है कि रिजर्वेशन यानी तीन तरह के आरक्षण की जो बात मैंने की है, उनमें से सिर्फ राजनीतिक आरक्षण के लिए 10 वर्ष की समयसीमा तय की गई थी। प्रत्येक दस वर्ष के बाद इसे विस्तारित करना पड़ता है।  जैसे 2011 में किया गया था और अब  2021 में करेंगे।

राज्यसभा व योजना आयोग के पूर्व सदस्य डॉ. भालचंद्र मुणगेकर

इसका मतलब यह कि आरक्षण विवादित मुद्दा नहीं है। 2006 में जब यूपीए सरकार थी। उस समय मैं योजना आयोग का मेंबर था और अर्जुन सिंह साहब एचआरडी मिनिस्टर थे। उस समय उन्होंने यह निर्णय लिया कि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के बच्चों  को भी 27 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। तो यानी 49.7 प्रतिशत आरक्षण समाज के तीनों घटकों को मिले।

अभी जो आरक्षण अनुपालन में लाया जा रहा है उसमें उच्च शिक्षा के क्षेत्र में  विश्वविद्यालय को इकाई मानकर निर्धारित होता है। इसका मतलब यह है कि यदि सौ पद कहीं सृजित होंगे तो उसमें 15 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति के छात्र/छात्राओं के लिए, 7.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जनजाति के छात्र/छात्राओं के लिए और 27 प्रतिशत सीटें अन्य पिछड़ा वर्ग के छात्र/छात्राओं के लिए निर्धारित हैं। अभी हाल में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह फैसला दिया है कि अभी तक जो नियोजन विश्वविद्यालय को इकाई मानकर  होता था, उसके स्थान पर अब विभागीय तौर पर यानी प्रभाग इकाई के तौर पर नियोजन प्रक्रिया होनी चाहिए।

वास्तव में यह बहुत ही बुरा निर्णय है। यहां मैं बताना चाहता हूं कि मैं बंबई विश्वविद्यालय का कुलपति रहा और आरक्षण का जो मामला है उसे अच्छी तरह से मैंने सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से समझा और पढ़ा है। जब विश्वविद्यालय यानी विद्यापीठ इकाई मानी जाती है तो 100 सीटों में 15 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति के लिए, 7.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए और उसी तरह 27 प्नतिशत सीटें अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित होती हैं। इसका मतलब यह है कि सौ में से 15 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति के लोगों को आरक्षित करने के बाद तय है जिस विभाग में अनुसूचित जाति की पोजिशन नहीं है यानी प्रोफेसर की जगह नहीं होगी, तो रीडर की होगी, रीडर की नहीं होगी तो लेक्चरर की होगी। इस प्रकार कई नए पद सृजित हो जाते हैं। और पूर्व के विभाग में उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि यदि शिक्षा में उनके बने रहने का प्रावधान होगा तो ही वे रोजगार के योग्य रहेंगे। और यदि रोजगार के योग्य रहेंगे तो ही उनकी आर्थिक उन्नति हो पाएगी। यह सब मुद्दे हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली

अभी विभाग के आधार पर आरक्षण मिलने की स्थिति में यह होगा कि मान लो 100 जगह हैं और वो विभागीय स्तर पर बाँट दी जाती है, जो किसी भी विभाग में चार, पांच, छह या सात पद हैं तो उनको 15 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा तो उनका नंबर ही कहां आएगा? अभी देखिए, किसी विभाग में अगर पांच वैकेंसी हैं, तो 15 प्रतिशत आरक्षण के हिसाब से 0.75 प्रतिशत जगह होगी यानी एक पद से कम। छह पद होंगे तो 0.90 प्रतिशत जगह होगी। सात पद होंगे तो 1.05 प्रतिशत जगह होगी। इसका मतलब यह है कि अगर किसी विभाग में सात वैकेंसी होंगी तो किसी दलित को नौकरी मिलेगी। नौ होंगी तो किसी एक आदिवासी को नौकरी मिलेगी और पांच वैकेंसी होंगी तो अन्य पिछड़ा वर्ग को एक जगह मिलेगी। ध्यान देने की बात यह है कि कोई भी विभाग एक छोटी इकाई होती है और छोटी इकाई में इतनी जगह एक साथ नहीं होतीं। यानि एक भी दलित/आदिवासी और पिछड़े वर्ग की नियुक्ति नहीं हो सकेगी। इसका मतलब यह है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट का जो फैसला है उस फैसले से यूनिवर्सिटी और काॅलेज में जो आरक्षण रखा गया है, वो समाप्त हो जाएगा।

अभी जो निर्णय दिया गया है वो केंद्रीय विश्वविद्यालय के लिए है जो 41 विश्वविद्यालय हैं। एक बार वो निर्णय विश्वविद्यालयों के बजाय विभाग को इकाई मानने के इस फैसले को फिर प्रदेश स्तर पर लागू करने के लिए बाद काॅलेजों में इसे लागू करेंगे। इसका मतलब यह है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला लागू होने के बाद न काॅलेज में, न विश्वविद्यालय में, न केंद्रीय विश्वविद्यालय में आरक्षण रहेगा। केंद्र सरकार एक बार फिर आरक्षित वर्गों को वर्चस्ववाद के गहरे गड्ढे में धकेल देना चाहती है। संविधान के माध्यम से एक बड़ा कदम उठाया गया था, वह सब  खत्म हो जाएगा और उन्हें फिर से  गुलाम जैसा जीवन जीना पड़ेगा।

संविधाान प्रदत्त आरक्षण के अधिकार के खिलाफ जब कोई कोर्ट ऐसा फैसला देता है तो उसके खिलाफ आवाज नहीं उठती है। और काफी समय बाद जब आवाज उठती है, तो वह भी आप जैसे दो-चार लोग ही सामने आते हैं। इसकी क्या वजहें है?

देखिए, जब इस निर्णय के बारे में मैंने 10 दिन पहले पढ़ा तो मैं बहुत हैरत में पड़ा और तुरन्त मैंने मराठी में एक लेख लिखा और वो लेख मराठी में लोकमत(दैनिक समाचार पत्र) में प्रसिद्ध हुआ। कम से कम 200-300 लोगों ने उस पर प्रतिक्रिया दी। उनके फोन आए। मैसेज आए। उन्होंने पत्र लिखे। उसके बाद मैंने वह आर्टिकल इंडियन एक्सप्रेस में लिखा। और लोगों की उस पर प्रतिक्रिया मिली और उसके बाद शायद मैं दिल्ली में नहीं था, डूटा यानी दिल्ली टीचर्स एसोसिएशन ने एक बहुत बड़ा मोर्चा निकाला। अब मैंने एक पत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा है कि यह जो यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन है में यह जो आरक्षण का निर्णय करने वाले जो हैं, उनका निर्णय पास नहीं होना चाहिए। एचआरडी मिनिस्ट्री जो है यानी सरकार उसे इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए। और तब तक इस फैसले को लागू नहीं किया जाना चाहिए। इसके बाद मैंने उस पत्र के अतिरिक्त अलग से एक पत्र पूरा दिन लगाके लिखा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजा है। जिसमें 30 सांसदों जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे, तारिका नवरजे आदि के हस्ताक्षर हैं।

मैं यह चाहता हूं कि जिस तरह का इसका प्रतिकार, इसका विरोध राज्य सभा और लोक सभा में होना चाहिए था, वो नहीं हुआ। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि राज्यसभा और लोकसभा चल भी नहीं रही है। लेकिन, जब एक-दो दिन में दोनों सदनों के सत्र चलेंगे, तो लोग यह मामला जरूर उठाएंगे। लेकिन जिस तरह का माहौल पूरे देश में होना चाहिए, वो नहीं हुआ। यह किसी एक या दो प्रदेश या एक समुदाय का सवाल नहीं है। इसमें पूरे देश के 20 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 10 से 12 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 45 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग इससे प्रभावित होंगे। तो 75 प्रतिशत लोगों का यह सवाल है। तो मैं चाहता हूं कि दलित/आदिवासी और ओबीसी वर्ग को, इन समुदायों के स्टूडेंट, टीचरों और अन्य लोगों को  जो सामाजिक समरसता और कानून में विश्वास रखते हैं, सबको इसका प्रतिकार करना चाहिए। क्योंकि इसके लिए ज्यादा समय नहीं है। क्योंकि एक बार अगर यह लागू हो गया तो मुश्किल होगी। सरकार को भी इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। क्योंकि सामाजिक न्याय की प्रक्रिया इस कदम से पीछे हो जाएगी और बुरा नतीजा इन समाज के वंचित तबकोां दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को भुगतना पड़ेगा।

सवाल यह है कि केंद्र सरकार इसमें क्यों हस्तक्षेप नहीं करना चाह रही है? जबकि प्रधानमंत्री अपने आप को पिछड़े वर्ग का कहते हैं। गरीब कहते हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि शुरू में ही यह सरकार, केवल नाम के वास्ते बीजेपी की सरकार है। जैसे 1996 में और 1999 में वाजपेयी जी की सरकार थी, 2004 तक, उस तरह की सरकार यह नहीं है। यह सरकार पूरी तरह से आरएसएस के साथ में है। और उसकी इशारे पर चलने वाली सरकार है। हमेशा से ही आरएसएस (संघ) और भाजपा न कान्स्टूशन मानते हैं, न सामाजिक समरसता को मानते हैं, न पार्लियामेंट को मानते हैं, न डेमोक्रेसी को मानते हैं। उनकी तो एक ऐसी विचारधारा है कि समाज के सभी स्तर यानी राजनीति, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व समाज के 10-15 प्रतिशत जो वर्ग है, उसके हाथ में होनी चाहिए। इलाहाबाद के इतने बड़े फैसले पर विरोध शुरू हो रहा है और मोदी जी, केंद्र सरकार कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। यह बड़ा निर्णय है। इस पर यह चुप्पी क्यों? जैसे कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का जैसा वीपी सिंह की सरकार में निर्णय लिया और जब हलचल हुई थी, उसी तरह की हलचल होनी चाहिए।  सरकार उस तरह की सरकार नहीं है।  इसमें सरकार यानी एचआरडी मिनिस्ट्री को जब यूजीसी ने लिखा तो मंत्रालय ने यह मामला डिपार्टमेंट एडमिनिस्ट्रेशन और जो प्रधानमंऋी के दायरे में है ओर दूसरा कानून मंत्रालय को संदर्भ देते हुए भेजा। कानून मंत्रालय और डीएपी ने एचआरडी मिनिस्ट्री को सहमति या परमिशन दे दी। लेकिन मैं यह चाहता हूं कि प्रधानमंत्री पिछड़ा वर्ग से हैं। वे हमेशा लोगों को बताते हैं कि मैं पिछड़ा वर्ग से हूं। मैं गरीब घर से हूं। चाय बेचने वाला हूं। कांग्रेस ने ऐसा किया/वैसा किया। लेकिन उन्हें खुद यह समझना चाहिए कि उनके सरकार के कृत्य देश के बहुजनों को विकास की मुख्यधारा से निकालकर फिर से हाशिए पर खड़ा कर देगा। अच्छे दिन का मतलब अंबानी, अडानी, विजय माल्या, मेहुल चैकसी और नीरव मोदी जैसे लोगों के अच्छे दिन नहीं होते हैं। अच्छे दिन का मतलब है कि देश के जो गरीब लोग हैं, उपेक्षित लोग हैं, उसमें सभी वर्ग के लोग हैं। उसमें पिछड़ा वर्ग के लोग भी हैं, जनजातियों में भी गरीब लोग हैं उनका औसत कम-ज्यादा हो सकता है, उनका विकास हो। लेकिन जिस तरह का माहौल श्रीमान मोदी ने बनाया था शुरू में, मतलब सबके लिए अच्छे दिन और सबका विकास, वह कहीं नहीं दिख रहा है। एक तो यह मिसाल है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी का यह आरक्षण खत्म करें, जो पूर्णतया गलत है।

केंद्र अगर यह कदम नहीं उठाता है तो है तो दलित/आदिवासी और पिछड़ा वर्ग को क्या करना चाहिए?

दो बातें करनी चाहिए। एक तो सुप्रीम कोर्ट में ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपील करनी चाहिए। दूसरी बात यह कि जब पार्लियामेंट सेशन चलेगा तो दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के अलावा और भी जो मेंबर हैं उन सबको वहां हंगामा करना चाहिए। सरकार पर दबाव बनाया जाना चाहिए। और तीसरी बात यह है कि लोगों को रास्तों पर, सड़कों पर आने की भी आवश्यकता है। डेमोेक्रेसी में बिना हिंसा के भी विरोध जताया जा सकता है। हिंसा का समर्थन तो कोई भी नहीं करेगा। इसलिए हिंसा छोड़कर विरोध जताने के सभी रास्ते ढूँढकर लोगों को इसका प्रतिकार करना चाहिए। जब मैं योजना आयोग में था तब 2005 में राजीव गाँधी नेशनल फेलोशिप मैंने शुरू की। आदिवासी, दलित बच्चों को शिक्षा के लिए। इसका फायदा यह हुआ कि 2000 में 1300 जगह अनुसूचित जाति के स्टूडेंट्स के लिए, 700 अनुसूचित जनजाति के स्टूडेंट के लिए थीं। और 2005 से आज तक करीब 16 या 17 हजार एससी/एसटी के बच्चों ने पीएचडी और एमफिल आदि की की है। पीएचडी करने वा मतलब एक ही होता है कि वे टीचर बनने की दिशा में जाते हैं। अन्यथा वो एमबीए आदि करते हैं। उनकी अलग अहमियत होती है। लेकिन किसी भी समाज या घटक का कोई भी लड़का या लड़की पीएचडी या एमफिल करते हैं, उनका साफ नतीजा होता है कि उन्हें टीचिंग क्षेत्र में जाना है।

अब इस निर्णय को लाग करने के बाद यह होगा कि वे जाएंगे कहां? उनके लिए तो सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। उनको कोई रास्ता ही नहीं रहेगा उनके लिए। शिक्षा और रोजगार के सारे रास्ते बंद हो जाएंगे। मैं बाबा साहेब आंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले और पेरियार का एक अनुयायी होने के नाते कहना चाहता हूं कि इसके लिए सभी समाज/वर्ग के लोगों को पूरी तरह से वे जिस-जिस तरह से भी अपना विरोध कर सकते हैं, विरोध करें। विरोध करके सरकार पर यह दबाव बनाना चाहिए कि जब तक उच्चतम न्यायालय इस पर फैसला नहीं देता कम से कम तब तक इसे रोके रखा जाना चाहिए।

 

लिप्यांतरकार : प्रेम बरेलवी

(साक्षात्कार को पठनीय बनाने हेतु वाक्य विन्यास में किंचित संशोधन किये गये हैं)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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