h n

ईसाइयों के देश-प्रेम पर संदेह क्यों?

आये दिन आरएसएस के लोग भ्रम फैलाते हैं कि ईसाई भारत में केवल धर्म परिवर्तन करवाते हैं। जबकि उन्हें इस बात की जानकारी ही नहीं है कि ईसाईयों ने भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिकायें निभायी हैं जो बाईबिल में उल्लेखित वतनपरस्ती के महत्वपूर्ण सिद्धांत पर आधारित है :

जिस समय यह लेख लिखना प्रारंभ हुआ था, उसी समय एनडीटीवी पर यह खबर आयी कि मध्य प्रदेश के सतना जिले में ईसा के गीत गायकों (कैरोल सिंगर्स) पर बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हमला बोल दिया है। वहां की पुलिस ने पादरियों एवं सेमिनरियंस को हिरासत में ले लिया। यहां यह प्रश्न लाजिमी है कि ईसाई परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद को किस रूप में देखा जाना चाहिए? क्रिसमस उत्सव में ईसा की प्रशंसा में गाए जाने वाले गीत उत्सव का अविभाज्य हिस्सा होता है और क्रिसमस के समय ऐसा दृश्य पूरे देश में ईसा के जन्म उत्सव के अवसर पर देखा जाता है। उन्हें शांति का राजकुमार कहा जाता है। एक शांतिकामी समुदाय द्वारा विश्व में शांति का संदेश इन गायकों द्वारा प्रसारित किया जाना, क्या राष्ट्रविरोधी गतिविधि है?

ओडिसा के मुनिगुडा इलाके में एक चर्च के उपर भगवा झंडा फहराता आरएसएस समर्थक (दिसंबर 2014, फाइल फोटो)

राजनीतिक विद्वानों, राजनीतिज्ञों और विचारकों द्वारा राष्ट्रवाद की व्याख्या की गई है। हमारे पास राष्ट्रवाद की अनेक पाश्चात्य व्याख्याएं हैं। हमारे देश की बदली हुई राजनीतिक वास्तविकता में  एक विशिष्ट धार्मिक दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रवाद को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है और यह नए सिरे से सार्वजनिक विमर्श का विषय बन  रहा है। मैं स्वतंत्र भारत के कुछ निर्माताओं के वृहद् लेखन के आधार पर इसे (राष्ट्रवाद को) स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूं। हमें यह भी देखना चाहिए कि आरएसएस के संस्थापक के.बी. हेडगेवार, के उत्तराधिकारी गुरु गोलवलकर ने अपनी दो पुस्तकों, ‘बंच ऑफ थॉट्स’ औरवी, ऑर आवर नेशनहुड डिफाईन्ड’ में राष्ट्रवाद को किस प्रकार परिभाषित किया है।

भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत स्थापित इंडियन काउंसिल फॉर फिलोसोफिकल रिसर्च (आईसीपीआर) का मत है किगोलवलकर के राष्ट्रवाद संबंधित विचारों को गलत समझा गया है और ऐसा विरोधियों द्वारा उन्हें बदनाम करने के लिए किया गया है।” (पीटीआई की रिपोर्ट 9 जुलाई, 2017 पर आधारित इंडियन एक्सप्रेस का उद्धरण) लेकिन वर्तमान शासन व्यवस्था के राष्ट्रवाद की व्याख्या के संदर्भ में हम उनके विचारों को यहां सार रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे कोई भी यह समझ सकता है कि उनके विचार क्या थे। यदि उनके राष्ट्र के सिद्धांत को सार रूप में प्रस्तुत करें तो उनका कहना है कि लोकतंत्र हिंदू मूल्यों के लिए अनभिज्ञ है और हिंदू सर्वोच्चता में अन्य हर कोई दोयम दर्जे का नागरिक होगा।

दूसरी तरफ राष्ट्रवाद एवं भारत की अवधारणा के संदर्भ में राष्ट्रीय आंदोलन के तीन प्रकाश स्तंभों -महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। जो हर किसी को, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों को लगातार भरोसा दिलाते रहे। बढ़ते हुए सांप्रदायिक तनावों से खतरों के संदर्भ में अपने चिरपरिचित अंदाज में राष्ट्रवाद पर गांधी जी ने अक्सर अपने विचार प्रकट किया। उनका कहना है किमेरा राष्ट्रवाद प्रखर होते हुए भी है, अलग-थलग नहीं  है, वह किसी राष्ट्र या व्यक्ति को चोट पहुंचाने वाला के लिए नहीं है।” (यंग इंडिया, 26 मार्च 1931)। जब प्रथम विश्व युद्ध  के बाद के काल में युरोप में नवराष्ट्रवाद का एक बदतर चेहरा अपना सिर उठा रहा था, तो उपस ऊपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए गांधी जी ने भारतीय राष्ट्रवाद की नई व्याख्या प्रस्तुत की:

यह राष्ट्रवाद नहीं है,यह अभिशाप है। संकीर्णता, स्वार्थपरकता, पृथक्तावाद इस आधुनिक राष्ट्रवाद के विनाशकारी लक्षण हैं जो  एक अभिशाप हैहर कोई दूसरे की कीमत पर फायदा  उठाना चाहता है, दूसरे को नष्ट करके ऊपर उठना चाहता है। भारतीय राष्ट्रवाद ने अलग रास्ता चुना है। इसे  विशाल मानवता के हित और सेवा के लिए स्वंय को संगठित करना है और अपनी पूर्ण आत्माभिव्यक्ति पानी है।” (यंग इंडिया 18.6.1925) गांधी जी के लिए भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ें उसकी शांति एवं अहिंसा की विरासत से  जुड़ी हुई हैं। उन्होंने लिखा, ”वर्तमान समय में राष्ट्रीय पंथ अहिंसा है, ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोग हिंसा की तरफ ढकेले जा रहे हैं। कम से कम विचारों एवं शब्दों में।”(यंग इंडिया, 22 अगस्त 1929)

चर्चों पर हमले के विरोध में 2015 में नयी दिल्ली में विरोध मार्च निकालते ईसाई धर्मावलम्बी

भारत के प्रमुख संविधान निर्माता के रूप में डॉ. बी. आर. आंबेडकर के कथनों ने भारतीय राष्ट्रवाद की गंभीर व्याख्या दी है। अप्रैल 1938 में बॉम्बे विधानसभा में बहस के दौरान निम्नलिखित उद्गार व्यक्त किए, ”हमारा सम्मिलित लक्ष्य है कि हम सभी भारतीय हैं यह भावना निर्मित की जाए। मैं पसंद नहीं करता जैसा कि लोग कहा करते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और उसके बाद हिंदू या मुस्लिम हैं। मैं इन बातों से संतुष्ट नहीं हूं …. मैं नहीं चाहता कि हमारी भारतीयता की निष्ठा रंज मात्र भी किसी अन्य तुलनात्मक निष्ठा से प्रभावित हो। भले ही उस निष्ठा का उदय हमारे धर्म, या हमारी संस्कृति या हमारी भाषा से हुआ हो। मैं चाहता हूं कि सभी भारतीय पहले भारतीय बने, बाद में भारतीय ही रहे और अन्य कुछ भी नहीं सिवाय भारतीय… (आंबेडकर: अवेकनिंग इंडियाज सोशल कॉन्साइंस द्वारा नरेंद्र जाधव (कोणार्क)

भारत की ब्रिटिश सरकार में डॉ. आंबेडकर लेबर पार्टी के सदस्य थे। जनवरी, 1943 को ऑल इंडिया रेडियो से एक उद्घोषणा में उन्होंने कहा, ”भारतीय श्रमिक युद्ध को जीतने के लिए प्रतिबद्ध क्यों है।’’ वह आगे बोले, ”… यदि राष्ट्रवाद का अर्थ विगत प्राचीन की पूजा करना है और हर उस चीज को खारिज करना है, जो अपनी उत्पत्ति एवं रंग में स्थानीय नहीं है तब राष्ट्रवाद  को श्रमिक एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते।” (वही)

कुछ ऐसे ही विचार पंडित जवाहर लाल नेहरू की पुस्तकडिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में परिलक्षित होते हैं, ”विगत् (भूतकाल) के साथ अंध भक्ति बुरी है और  उसका तिरस्कार है भी बुरा है, क्योंकि उसके  बिना किसी भी भविष्य की नींव नहीं डाली जा सकती। वर्तमान और भविष्य दोनों ही विगत् से ही स्वत: उत्पन्न होते हैं, इनके ऊपर उसकी छाप लगी होती है और इसे भूलने का अर्थ बिना नींव का होना तथा राष्ट्रीय विकास की जड़ों को काट देना है। लोगों को प्रभावित करने वाली यह सर्वाधिक शक्तिशाली ताकत की उपेक्षा है। राष्ट्रवाद अवश्य ही विगत की उपलब्धियों के संस्मरण, परंपराओं और अनुभवों का समूह है एवं राष्ट्रवाद आज विगत के किसी भी समय से ज्यादा मजबूत है।

ऐसा माना जाता है कि भारत में ईसाई धर्म उतना ही पुराना है जितना कि यह धर्म खुद। यह हमारी तट सीमाओं तक किसी शासक की विजय यात्रा के साथ नहीं आया है और यहां तक कि इस्लाम भी युद्ध के सहारे भारत में नहीं आया था। ये दोनों ही धर्म मालाबार तट पर आएईसाई धर्म 52 ईस्वी में और इस्लाम सातवीं शताब्दी में। जैसा डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘उस प्रत्येक चीज का बहिष्कार करना जो मौलिक रूप से स्थानीय नहीं है”, का आज खतरनाक फैलाव हो चुका है विशेष रूप से तब जब आस्था एवं विश्वास के चयन का व्यक्तिगत प्रश्न आता है। यदि यही तर्क विस्तृत कर विज्ञान एवं तकनीक के साथ जोड़ दें तो संभवत: हम सभी लोग पाषाण काल में जीवित रहते!

राष्ट्रवाद भारत के ईसाइयों में बीज रूप में ही पड़ा हुआ है। राष्ट्रवाद एवं भारतीय ईसाइयों को एक परिप्रेक्ष्य में देखने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि देश में कोई भी मोनोलिथिक चर्च (अखंड चर्च) नहीं है। भारतीय ईसाई अनेक संप्रदायों में बिखरे हुए हैं और उनका पुरातन इतिहास भी विविधता से भरा है। मुख्य ईसाई संप्रदाय संख्या के हिसाब से कैथोलिक (सबसे अधिक) हैं, ओर्थोडोक्स (शायद दूसरे नंबर पर और सबसे पुराना संप्रदाय है), प्रोटेस्टेंट्स, ईवेन जेलिकल और पेंटेकोस्टल समूह और अनेक असंगठित समूह में यह फैला है। यह माना जाता है कि पहली शताब्दी में ही सेंट थामस ईसाई चुके हैं। भारत में ईसाइयों का पहला प्रभावकारी स्वरूप कैथोलिक देश पुर्तगाल से 1498 . में पुर्तगालियों के आने से हुआ और ब्रिटिश, मूलत: एंग्लीकन या प्रोटेस्टेंट, का प्रभाव ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन 1757 से हुआ। उपर्युक्त सभी समूह स्वतंत्र हैं, परंतु अधिकांश लोगों के द्वारा एक आस्था रखने वाले समूह के रूप में देखे जाते हैं। जब कभी भारतीय ईसाइयों की तरफ देखा जाए तो इन वास्तविकताओं को समझना चाहिए।

राष्ट्र निर्माण के संस्थानों सिविल सेवाओं, सैन्य सेवाओं, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, मीडिया, खेलकूद या मनोरंजन, उद्योग में ईसाइयों के योगदान को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। कुछ उग्र समूहों को छोड़कर ईसाइयों के अंदर कभी भी हिंसक समूह उत्पन्न नहीं हुए। ईसा मसीह के सच्चे अनुयायी मानवतावादी उपदेशों के नियमों के प्रति वचनबद्ध और शांतिकामी रहे हैं। कट्टरपंथी दक्षिणपंथी समूह ने धर्मांतरण के लिए भ्रम का मायाजाल खड़ा किया। मानवतावादी दृष्टिकोण से ईसाई समाज के द्वारा किए गए कार्य को धर्मांतरण की प्रेरणा देने वाला कहा गया। बल पूर्वक बढ़ाचढ़ाकर लगाए जाने वाले आरोप खारिज हो जाते हैं यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस समुदाय की आबादी देखी जाए। ईसाई समाज की आबादी लगभग स्थिर रही है यदि लगाए गए आरोप के अनुसार बल- पूर्वक धर्मांतरण हुआ होता तो इस समुदाय की आबादी विस्फोटक हो गई होती। घृणा फैलाने वालों के ऐजेंडे द्वारा इस समाज के द्वारा किए गए उचित कार्य की प्रशंसा नहीं की जा सकती और इनके राष्ट्रवाद के ऊपर मनगढ़ंत आरोप लगाए जाते हैं।

निर्मल हृदय में नन रोगी का इलाज करते हुए। कोलकाता में निर्मल हृदय की स्थापना रोगियों की सेवा के लिए मदर टेरेसा ने किया था

एक समुदाय के रूप में ईसाइयों ने अपने पूर्वजों के जीवन मूल्यों के प्रति स्वयं को एकीकृत रखा है। विवाह, समारोह, भोजन एवं शालीन आदतें इत्यादि अनेक रिवाज भारतीय जड़ों से जुड़े हैं, जो हिंदू परंपराओं से अलग हैं। हम में से अनेक ने अपनी शिक्षा का प्रारंभ चावल के दानों और ताड़ के पत्तों पर, ”हरि श्री गणपतये नम:” लिखकर किया है। जब मजबूत ईसाई आस्था रखने वाले परिवारों के बच्चे रंगमंच पर नाटक प्रस्तुत करते थे तबरंगपूजाऔर निरपवाद रूप सेगणेश स्तुतिभी होती थी।

नवराष्ट्रवाद के नाम पर तथाकथित हिंदू तत्वों के उदय के पूर्व तक कम से कम ईसाई समाज कोई खतरा नहीं महसूस करता था। यह समाज सहिष्णु एवं सबको साथ लेकर चलने वाले हिंदू अनुयायियों से खतरा महसूस नहीं करता था। यहां तक कि अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों पर खतरा होते हुए भी उन इलाकों के ईसाइयों ने राष्ट्र और राष्ट्रवाद के प्रति बेहिचक निष्ठा को नहीं छोड़ा।

विद्रोह के दो ऐसे उदाहरण मूल भारतीय ईसाइयों के पुर्तगाली नायकत्व के विरुद्ध देखे गए। पहला दृष्टांत कूनान क्रॉस ओथ या कूनन कुरिश सत्यम के रूप में जाना जाता है जिसे केरल के सेंट थॉमस क्रिश्चियन समुदाय के द्वारा लिया गया था। इस शपथ के अनुसार 3 जनवरी, 1653 को संकल्प लिया गया था जब प्राचीन केरल के ईसाइयों ने गिरिजाघर एवं पंथ निरपेक्ष जीवन को लेकर पुर्तगाली दमन के सामने समर्पण नहीं किया। स्थानीय ईसाई 54 वर्ष के लिए पुर्तगाली दबाव में आए जो अधिकांश स्थानीय ईसाइयों के लिए अस्वीकार्य था और अंतत: यह शपथ ली गई। राष्ट्रवादी मालंगकारा सिरियन ईसाइयों ने इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता पुन: स्थापित की, अनेक चर्च इतिहासकारों ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा है। दूसरा उदाहरण वर्ष 1787 में स्थानीय ईसाइयों द्वारा पिन्टो विद्रोह, गोवा के रूप में जाना जाता है जब मुट्ठी भर गोवा के कैथोलिक पादरियों ने पुर्तगाली श्रेष्ठता पर सवाल खड़े करने का प्रयत्न किया। इस विद्रोह को कुचल दिया गया। भारत के ईसाइयों के लिए जीवन- यापन संबंधी नियम बाइबल के सिद्धांतों एवं आध्यात्मिक कारणों पर टिका रहा है जो राष्ट्रीय आपदाओं के समय राष्ट्र की सेवा में समर्पित रहा है और अपने शासक वर्ग के प्रति निष्ठावान रहा है। ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को दुश्मनों से भी प्रेम करने का निर्देश दिया था और यदि तुम्हारे एक गाल पर झापड़ देता है तो अपना दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो। तुम्हारा शरीर भगवान का मंदिर है जिसमें उसकी आत्मनिर्भरता भावना बसती है। इन बातों को बाइबिल की कुछ पंक्तियां स्पष्ट कर सकती हैं। ईसा मसीह के जीवनकाल की ही एक घटना है जब उन्हें टोल या कर चुकाने के लिए कहा गया। उन्होंने अपने एक शिष्य को कर अदा करने के लिए कहा, (मैथ्यु 22:21) ”सिजर को समर्पित करो जो उसका है, परमेश्वर को समर्पित करो जो परमेश्वर का है।” (उस समय का शासक अगस्टस सिजर था) ईसा मसीह के सबसे बड़े अनुयायी सेंट पॉल के अनुसार, ”प्रत्येक आत्मा को उच्च शक्ति प्राप्त करने का अधिकार है। परमेश्वर के सिवाय कोई शक्ति नहीं; जो शक्ति है वह परमेश्वर के नियम के अधीन है। इसलिए, जो भी इस शक्ति का विरोध करता है, वो परमेश्वर के नियम का विरोध करता है; जो विरोध करता है वह स्वयं ही फैसला (जजमेंट) प्राप्त करेगा। (रोमन 13-1 2) इस प्रकार कोई भी ईसाई कर अदायगी से नहीं भागेगा या राष्ट्र के प्रति निष्ठा नहीं खो सकता है।

ताड़ के पत्तों से बना क्रास दिखाती एक ईसाई महिला

परमेश्वर का आशीर्वाद, बुद्धि प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से चर्चों में प्रार्थना की जाती है और भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रीगण और देश के संचालन से जुड़े जिम्मेवार शासकगण के प्रति जिम्मेवार बनाया जाता है। नियमित रूप से ऐसे कार्य और अन्य किस समुदाय में किया जाता है। ईसाई विश्वास करते हैं कि उनका चरित्र पवित्र आत्मा द्वारा निर्मित है कि स्वयं प्रयास द्वारा।प्रेम, आनंद, शांति, सहनशीलता, भद्रता, अच्छाई, विश्वास, नम्रता और आत्मनियंत्रणको सेंट पॉलफ्रूट्स ऑफ स्पीरिट’ (गेलेटियन्स 5:22 23) इत्यादि में विस्तार से बताते हैं। इस प्रकार ईसाइयों में विश्वास का अर्थ इन मूल्यों से समझा जाना चाहिए। गांधी जी ने अनेक बार इन मूल्यों का उल्लेख किया जो सार्वभौमिक हैं। यदि ईसाई समुदाय जाति, पंथ, धर्म, भाषा इत्यादि को का अंतर किए बिना मानवता की सेवा में लग जाता है तो इसका कारण ईसा मसीह द्वारा दिये हुए मानवता के संदेश को अपनाना है। इस समुदाय द्वारा की जा रही स्वास्थ्य सेवाओं की तुलना किसी से नहीं की  जा सकती। उनका समर्पण और रुग्ण के प्रति देखभाल आस्था से जुड़ी हुई है। उदाहरण के तौर पर मदर टेरेसा के द्वारा निर्धनतम, परित्यक्त और सर्वाधिक दबेकुचले लोगों के प्रति अर्पित सेवा को पुरी दुनिया में देखा गया है। देश में संचालित कुछ सर्वाधिक श्रेष्ठ शिक्षण संस्थान इस समुदाय की देन है।

दुर्भाग्यवश भारतीय ईसाइयों के राष्ट्रवाद पर आक्षेप लगाया जा रहा है। सत्ता पक्ष के उपद्रवी तत्वों द्वारा घृणा और पूर्वाग्रह का भाव फैलाया जा रहा है और इस समुदाय द्वारा किए जाने वाले मानवतावादी कार्यों को धर्मांतरण या बल पूर्वक धर्मांतरण का एजेंडा बताया जाता है। समुदाय के भीतर कुछ कलंकी लोग हो सकते हैं, परंतु पूरे ईसाई समुदाय को संदेह की नजर से देखना गलत है जैसा कुछ उपद्रवी तत्व अपने राष्ट्रवाद की परिभाषा द्वारा कर रहे हैं। इस समुदाय के विरुद्ध किया जाने वाला कार्य, संविधान की आत्मा, और इसमें प्रदत्त मौलिक अधिकारों की गारंटी के विरुद्ध हैं।

घृणा को एजेंडा संघ ( आरएसएस) के द्वितीय संघ प्रमुख ने तैयार किया, जिन्होंने अपनी लेखनी में मात्र हिंदू को विशेषाधिकार संपन्न समुदाय कहा है। उन्होंने लिखा है, ”देश के भीतर वैरभार रखने वाले तत्व बाहर के आक्रमणकारियों से भी ज्यादा बड़ा खतरा राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हैं।उन्होंने तीन प्रमुख आंतरिक खतरे गिनवाए हैं जैसे मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट। गुरुजी (गोलवलकर) के दार्शनिक वंशजों व्यवहार के प्रति आश्चर्य नहीं होना चाहिए,जिनका  वर्तमान समय के शासकों  साथ गहरा तालमेल  है और इस खतरनाक धारणा को कायम रखते हुए हाल में ही घटित सतना की घटना हुई। दुर्भाग्यपूर्ण परिपाटी यह है कि प्रताडि़त लोग ही आरोपित होते हैं और कि आक्रमणकारी। इस मामले में भी 16 दिसम्बर, 2017 को प्रेस में छपी घटना पर विश्वास करें तो बजरंग दल के सदस्यों ने ईसा के भजन गाये जाने वालों पर बल पूर्वक धर्मांतरण का आरोप लगाते हुए आक्रमण किया, परंतु पुलिस ने पादरियों एवं सेमिनरियंस को हिरासत में ले लिया! बाद में दोनों समूहों पर आरोप लगाए गए।

अब कैसे शांतिकामी और ईसाई रितरिवाजों के प्रति समर्पित समुदाय इन असंवैधानिक मानवाधिकार हननकारियों के प्रति प्रतिक्रिया दें। ये लोग संख्या में कम हैं और अपनी आस्था के चलते हिंसा में जवाब नहीं दे सकते। डॉ. स्टेन्स और उनके बच्चे निर्ममता पूर्वक जिंदा जला दिये गए और श्रीमती स्टेंस ने हिंसा करने वाले लोगों को क्षमा कर दिया। ऐसा दुर्लभ ही होता है जब किसी नन की घृणा के कारण हत्या करने वाला हत्यारा अपराध के बाद पछतावा करे और जेल से छुटने के बाद नन के मातापिता से क्षमा याचना करे। उसकी कब्र पर अपराधी को क्षमा करने की बात खुदी हो! देश के अलोकतांत्रिक दृष्टि से बंधे लोगों द्वारा प्रेम और क्षमा की अवधारणा व्यवहार में बरती जाने वाली वास्तविकता नहीं है।

धर्म और राजनीति का मिश्रण एक खतरनाक मिश्रण होता है चाहे यह मिश्रण कितना ही नरम या गरम हो। भारतीय राजनीति का दु:खद पक्ष है कि धर्म, जाति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति परिवर्तित होकर वोट बैंक की राजनीति, असहिष्णुता और कट्टरपंथ का रूप ले चुकी हैं। यह दु:खद है कि जो धार्मिक सहिष्णुता एवं विश्व बंधुत्व की शपथ लेते हैं, सोशल मीडिया में उनका भद्दा मजाक उड़ाया जाता है और उन्हें विकृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है। दुर्भाग्य हैं, आज राष्ट्रीय स्तर पर गांधी जी की भांति सर्वमान्य आवाज नहीं हैं, जो संतुलित और विचार युक्त हो। गांधी जी ने कहा था, ”धर्म राजनीति की परीक्षा नहीं है, वरन् व्यक्ति और परमेश्वर के मध्य का व्यक्तिगत विषय है। राष्ट्रीयता के संदर्भ में वे पहले भारतीय हैं और अंतत: भारतीय हैं, चाहे वे किसी धर्म के संवाहक हों।” (हरिजन, 29-6-1947) भारतीय ईसाइयों ने इस अवधारणा को स्वीकार किया हैं।

ईसाई समाज और अन्य अल्पसंख्यक समाज चाहता है कि ऐसा ही भरोसा दिलाने वाला बयान कोई नेता आगे बढ़कर दे जिससे आसन्न भय से मुक्त हो सके: हिंदुस्तान उन सबका है जो यहां पैदा हुए और बड़े हुए हैं एवं किसी अन्य देश की तरफ नहीं देखते हैं…. स्वतंत्र भारत में हिंदू राज नहीं होगा, किसी भी बहुसंख्यक धर्म पर आधारित नहीं होगा …. धर्म व्यक्तिगत विषय है, जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होगा। (हरिजन 9 अगस्त, 1942)

लेख में दिए गए विचार व्यक्तिगत है और किसी ईसाई संगठन से संबद्ध नहीं है।

 

(यह लेख दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका समयांतर के जनवरी अंक में प्रकाशित है)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

टी. के. थॉमस

टी. के. थॉमस ईसाई अनुयायी एवं प्रखर गांधीवादी हैं जो कि एक विद्वान, लेखक, स्तंभकार और उद्घोषक रहे हैं। वर्तमान में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर फाउंडेशन के चेयरमैन हैं

संबंधित आलेख

यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...
कैसे और क्यों दलित बिठाने लगे हैं गणेश की प्रतिमा?
जाटव समाज में भी कुछ लोग मानसिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, कैडराइज नहीं हैं। उनको आरएसएस के वॉलंटियर्स बहुत आसानी से अपनी गिरफ़्त...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...