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बाबू जगजीवन राम : जिन्हें नहीं रोक पाया द्विजों का मनुवाद

बाबू जगजीवन राम का पूरा जीवन देश हित और वंचितों के हितों के लिए संघर्ष करते बीता था। अछूत कही जाने वाली जाति में पैदा होने का दंश झेलते हुए, वे देश के उप प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे। उनके व्यक्तित्व और विचारों पर रोशनी डाल रहे हैं मोहनदास नैमिशराय :

बाबू जगजीवन राम (5 अप्रैल 1908 – 6 जुलाई 1986) आंबेडकर के समकालीन थे। आंबेडकर की तरह ही उन्होंने भी अपनी प्रतिभा और मेहनत  के बल पर राष्ट्रीय औऱ अंतरराष्ट्रीय स्तर अपना स्थान बनाया। जगजीवन राम के बारे में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा था कि, ‘शोषित और उत्पीड़ित दलित समाज के आंसू ही नहीं थे, बल्कि उनका आक्रोश और उनकी आशा भी थे। सर्वोपरि वे राष्ट्र के पौरूष थे’। जगजीवन राम को देश बाबू जी या बाबू जगजीवन राम के नाम से पुकारता और सम्मान देता रहा है। स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्र निर्माता और वंचितों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले एक योद्धा थे। वे भारत के उप-प्रधानमंत्री भी बने। उनका जन्म 5 अप्रैल 1908 को बिहार के चंदवा नामक गांव में एक दलित(चर्मकार)[1] परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम वासन्ती देवी और पिता का नाम संत शोभी राम था। वे आठ भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। 6 वर्ष की उम्र में ही पिता का साया उनसे छीन गया था। 8 वर्ष की उम्र में ही विवाह हो गया।

पूर्व उप प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम

कोई भी कल्पना कर सकता है कि बिहार के एक गांव में दलित परिवार में जन्मे एक बच्चे को जीवन की कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा। किन बीहड़ रास्तों से गुजरते हुए उसने अपने जीवन का रास्ता बनाया होगा। किन-किन सामाजिक अपमानों औरआर्थिक कठिनाईयों का सामना करते हुए उसने जीवन की उंचाईयों को छुआ होगा। जिस व्यक्ति को इस देश का रक्षा मंत्री होने के बाद भी उच्च जातियों द्वारा अपमान का सामना करना पड़ा हो, उसकी जिंदगी किन सामाजिक अपमानों से होकर गुजरी होगी, इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता हैं। हम सभी जानते हैं कि 24 जनवरी 1978 को उन्होंने रक्षा मंत्री के रूप में वाराणसी में जब संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण किया तो, ब्राह्मणों ने कहा कि एक ‘अछूत’ के छूने से मूर्ति अपवित्र हो गई है। उन ब्राह्मणों ने मूर्ति को गंगा जल से धोकर पवित्र किया। इस घटना ने उन्हें व्यथित कर दिया था। इस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि, ‘मै मानता हूं कि जो व्यक्ति यह समझता है कि किसी के छू देने से पत्थर की मूर्ति अपवित्र हो जाती है, उसका दिमाग भी पत्थर जैसा है’।

ऐसे ही पत्थर जैसे दिमाग रखने वाले अधिकांश लोगों के बीच ही पिताविहीन एक 8 वर्षीय दलित बालक को अपने लिए जगह बनानी थी। इन पत्थरों से टकराते हुए उन्होंने अपने लिए काफी उंची जगह बनाई। भारत के प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी ने ठीक ही कहा था कि, ‘वे आधुनिक भारत के पहली पीढी के स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेताओं में एक थे और बाद में आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक बने’।

उप प्रधानमंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम मद्रास में दलित किशोरी को स्वास्थ्यवर्द्धक पेय देते हुए (चित्र साभार – एक्सप्रेस, 1979)

गांव की प्राइमरी स्कूल में उन्होंने 1914 में प्रवेश लिया। उसके बाद आरा के मिडिल स्कूल से पढाई की। 1922 में आरा टाउन स्कूल में प्रवेश लिया।  जैसा कि होता ही रहा है, दलित समाज के इस विद्यार्थी को भी विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा। गैर-दलित छात्रों ने  घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका। उनके लिए अलग घड़ेे का इंतजाम किया गया। यह दीगर बात कि उनकी विद्रोही चेतना ने इसे स्वीकार नहीं किया। सामाजिक बदलाव की चेतना उनके भीतर जन्म लेने लगी। 1925 में आरा छात्र सम्मेलन में उन्होंने हिस्सेदारी की और सम्मेलन को संबोधित किया। उनके भाषण का उपस्थित लोगों पर गहरा असर पड़ा। इन लोगों में मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे। मालवीय ने उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढने के लिए आमंत्रित किया। 1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तदुपरांत काशी हिंदू विश्वविद्यालय,वाराणसी में प्रवेश लिया। लेकिन अछूत होने से कहां मुक्ति मिलने वाली थी। मेस में बर्तन धोने वाले ने उनका बर्तन धोने से इंकार कर दिया। नाई ने बाल काटने से इंकार कर दिया। इस कारण हिंदू विश्वविद्यालय का छात्रावास छोड़ना पड़ा। उन्हें अस्सीघाट में एक केवट के यहां शरण लेनी पड़ी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से आईएसएसी (इंटरमीडियट ऑफ साइंस) की परीक्षा पास की। बाद में उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित विद्यासागर कॉलेज में प्रवेश लिया। इसके बाद वे सक्रिय तौर पर सार्वजनिक जीवन के लिए समर्पित हो गए।

दिल्ली में बाबू जगजीवन राम की प्रतिमा

वहां उन्होंने कामगारों और खेतिहर मजदूरों की एक रैली निकाली। यहीं उनका सुभाषचन्द्र बोस और बिधान चन्द्र राय जैसै लोगों के साथ संपर्क हुआ। उनके सार्वजनिक जीवन में एक बड़ा परिवर्तन उस समय आया, जब वे 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में शामिल हुए। वहीं उनका जवाहरलाल नेहरू से घनिष्ठ संपर्क कायम हुआ। गांधी के साथ जाति और अछूत समस्या पर पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। जाति के संदर्भ में उनका कहना था कि, ‘जाति ने हिंदुस्तान का जितना नुकसान किया है, वह सभी प्रकार के नुकसानों से ज्यादा है। वे देश की गुलामी का कारण भी जाति प्रथा को मानते थे।’ समता और सम्मान को वे सबसे ज्यादा महत्व देते थे और मानते थे कि भारतीय समाज में इसी चीज का सबसे अधिक अभाव है। उनका कहना था कि ‘भारतीय समाज में समता और सम्मान सभी नागरिकों के लिए एक आकाश कुसुम है। विषमता की सीढियां हैं,ऊपर से नीचे, उसके नीचे और नीचाई काअंत नहीं, इसको बदलना है।’ जाति विषमता के संदर्भ में वे बार-बार कबीर के इस दोहे को उद्धृत करते थे-

तू कत बाभन, हम कत सूद, हम कत लोहू तुम कत दूध।

जो तू बाभन-बभनी जाया, आन-बाट काहे नहीं आया ।

पराधीनता से जगजीवन राम घृणा करते थे। वे बार-बार पराधीनता के संदर्भ मे रैदास की इस दोहे को याद करते थे-

पराधीन को दीन नहीं, पराधीन बेदीन।

रविदास पराधीन को सबही समझे हीन।।

1934 में कलकत्ता में अखिल भारतीय रविदास सम्मेलन का उन्होंने आयोजन किया। इस क्रम में उड़ीसा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर और उत्तर प्रदेश के बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों के मंदिर प्रवेश आंदोलन आरंभ किया। 1935 में कानपुर के अछूत प्रतिनिधि नेताओं का दलित वर्ग एकता सम्मेलन का आयोजन हुआ। जगजीवन राम जी इसके अध्यक्ष चुने गए।

सोवियत संघ के नेवी चीफ एस जी गोर्सकोव के साथ तत्कालीन रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम (चित्र साभार – पीटीआई)

वे पहली बार 1936 में बिहार विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हुए। 1937 में  पूर्व मध्य शाहाबाद ग्रामीण क्षेत्र से  बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। उनका निर्वाचन निर्विरोध हुआ था। इस दौरान भी वे स्वतंत्रता आंदोलन में निरंतर सक्रिय रहे। इसी व्यक्तिगत सत्याग्रह[2] में हिस्सेदारी करते हुए 10 दिसंबर 1940 को गिरफ्तार हुए। 10 अक्टूबर 1941 तक जेल में रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की। बिहार में इस आंदोलन की अगुवाई की। वे 19 अगस्त 1942 को फिर गिरफ्तार किए गए।  बाद में 1946 में वे संविधान सभा के सदस्य चुने गए। 1946 में केंद्र में नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में उन्होंने श्रम विभाग की जिम्मेदारी संभाली।

देश में संविधान लागू होने के बाद 1952 में सासाराम संसदीय क्षेत्र से प्रथम लोकसभा के सदस्य चुने गए। 1952 से 1956 के बीच परिवहन और रेल मंत्री रहे। उनके रेलमंत्री के कार्यकाल में पहली बार अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण का आदेश जारी कराया।  निरंतर वे केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे। 1967-70 तक खाद्य,कृषि और सिंचाई मंत्री के रूप में हरित क्रांति का नारा दिया और देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया।

1969 से 1971 तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। रक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध में देश का नेतृत्व किया। वहीं 1977 में आपातकाल के विरोध में कांग्रेस से अलग हो गए। प्रजातांत्रिक कांग्रेस का गठन किया। उन्होंने जनता पार्टी के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। जनता पार्टी सरकार में भी वे रक्षा मंत्री बने। बाद में

24 जनवरी 1979 को देश के उप प्रधानमंत्री बने। 1946 से लेकर 1986 निरतंर 40 वर्षों तक सासाराम संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर उन्होंने विश्व कीर्तिमान बनाया। 6 जुलाई 1986 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में उनका देहांत हुआ। तीन दिनों तक देशव्यापी शोक मनाया गया।

संदर्भ :

[1] http://socialjustice.nic.in/writereaddata/UploadFile/Scan-0003.jpg

[2] 1940 के दशक में कांग्रेस ने सत्याग्रह आंदोलन चलाया था। इसमें अलग-अलग समयों पर अलग-अलग नेताओं को व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह करना था। इसमें कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं से लेकर प्रांतीय नेताओं तक सभी को शामिल होना था। प्रांतीय नेताओं की बारी आने पर शाहाबाद जिला में जगजीवन राम ने व्यक्तिगत सत्याग्रह किया और 10 दिसंबर 1940 को आरा में गिरफ्तार किये गये।


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लेखक के बारे में

मोहनदास नैमिशराय

चर्चित दलित पत्रिका 'बयान’ के संपादक मोहनदास नैमिश्यराय की गिनती चोटी के दलित साहित्यकारों में होती है। उन्होंने कविता, कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त अनेक आलोचना पुस्तकें भी लिखी हैं।

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