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दलित या ब्राह्मण नहीं तो क्या ओबीसी थे कबीर?   

आलोचक कमलेश वर्मा ने अपनी किताब ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ में कबीर के व्यक्तित्व और साहित्य को ओबीसी-दृष्टि से देखा है। वे बताते हैं कि कबीर न ब्राह्मण थे, न ही अछूत। तो भी कबीर की जाति आखिर क्या थी? पढ़िए हरनाम सिंह वर्मा की समीक्षा :

कबीर का व्यक्तित्व और कृतित्व पाठकों के साथ आलोचकों को भी अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। एक कालजयी रचनाकार अपने भीतर व्याख्या की असीम संभावनाएं रखता है। कबीर जैसे कालजयी रचनाकार की आलोचकों ने अपने-अपने तरीके से देखने-समझने की कोशिश की है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। हमारे समय के एक सजग-सतर्क आलोचक कमलेश वर्मा ने अपनी किताब  ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ में कबीर के व्यक्तित्व और साहित्य को नए परिप्रेक्ष्य और दृष्टि से देखा है। स्वाभाविक था कि कबीर को नए सिरे से देखने-समझने की प्रक्रिया में वे उन दृष्टियों से टकराते भी हैं, जो अब तक प्रभावी रही हैं।

कबीर की एक पेंटिंग

कमलेश वर्मा  कबीर के संबंध में  हिंदी साहित्य की दो मुख्य  धाराओं से टकराते हैं उनके अन्तर्विरोधों को उजागर करते हैं। इसमें पहली धारा द्विज धारा  और दूसरी दलित धारा है। इन दोनों धाराओं द्वारा कबीर के संबंध में स्थापित नज़रिये को वे खुली चुनौती देते हैं और इस पैदा हुए भ्रम की धुंध को साफ करते हैं। इसके लिए वे आदर के हकदार हैं।  

ऐतिहासिक साक्ष्यों के  बगैर हिंदी साहित्य की द्विज धारा  के आलोचकों ने कबीर को तथाकथित ‘भक्ति  काल’ और सामाजिक मुक्ति के पैरोकार के  रूप में प्रस्तुत किया। दलित धारा के आलोचक -जैसे कि  डाक्टर धर्मवीर – उन्हें दलित बताते रहे हैं। इन दोनों साहित्यिक  गुटों से नितांत पृथक रूप से कमलेश वर्मा कबीर की सामाजिक पृष्ठभूमि और उनके वृहत लेखन को भिन्न दृष्टिकोण से ही नहीं प्रस्तुत करते हैं बल्कि द्विज और दलित धाराओं के कबीर के आलोचकों के सम्मुख तथ्यात्मक तरीके से तीसरा पक्ष  पेश करते हैं।

इस पुस्तक का शीर्षक ” जाति के प्रश्न  पर कबीर ” उपयुक्त भी है और अनुपयुक्त भी। अगर शीर्षक की शब्दावली को देखा जाय तो इस किताब को केवल जाति के प्रश्न  पर कबीर क्या कहते है उसी तक सीमित होना चाहिए था। लेकिन किताब इस दायरे से बाहर जाते हुए, यह भी विश्लेषित करती है कि  हिंदी साहित्य की द्विज और दलित धाराओं ने कबीर की जाति के संबंध में क्या-क्या स्थापित करने के पूर्वाग्रह ग्रसित प्रयास किये हैं और कबीर से क्या क्या  ढूंढ निकाला जो कबीर ने कभी कहा ही नहीं था। कमलेश वर्मा एक तटस्थ दृष्टि से इस संदर्भ में अपनी प्रस्थापना प्रस्तुत करते हैं कि जाति के प्रश्न पर कबीर (और रैदास) ने क्या स्थापित किया है?

कमलेश  वर्मा ने लीक से हट कर लिखी पुस्तक को  तीन खण्डों में विभाजित किया है। पहले खंड  का शीर्षक “दलित प्रश्न” है। जिसमे ‘कबीर दलित नहीं थे ‘, ‘नामवर जी के दलित कबीर ‘ , ‘गैर-दलित कबीर और डॉ. धर्मवीर, ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में ‘आयो घोष बड़ौ व्यापारी’ और ‘जाति जुलाहा मति कौ धीर’ : जातियों से जुड़ी कवितायें संकलित हैं। दूसरे  खंड का शीर्षक है “दलित-सन्दर्भ ” जिसमे तीन अध्याय हैं : ‘दलित विमर्श और जातिवादी वर्चस्व’, ‘दलित विमर्श का अतिवाद’ , और ‘रैदास : जातिवाद से मुक्ति के कवि’। परिशिष्ट नामक तीसरे खंड में जातियों से जुड़ी कबीर की कविताओं को तीन स्रोतों से लेकर वर्णानुक्रम से संकलित किया गया है। इन स्रोतों में श्यामसुन्दर दास द्वारा संकलित ‘कबीर ग्रंथावली’, हज़ारी प्रासाद दिवेदी  के संकलन ‘कबीर’ और डॉo युगेश्वर की दो खण्डों की ‘कबीर समग्र’ से लिया गया है।

पुस्तक का पहला अध्याय है, ‘कबीर दलित नहीं थे’। दलित विमर्श ने कबीर को दलित बनाया। और ऐसा करते समय दलित विमर्श के कई हस्ताक्षरों ने कबीर की पुरानी व्याख्यायों की अनेक महत्वपूर्ण मान्यताओं /स्थापनाओं – जैसे कि वह हिन्दू /मुस्लिम थे —को खारिज करते हुए  कबीर साहित्य की पुनर्व्याख्या की है। कबीर को दलित धर्म से जोड़ते हुए एक प्रेरणा-स्रोत के रूप में स्थापित किया है। हज़ारी प्रसाद दिवेदी कबीर को विधवा ब्राह्मणी का पुत्र और लालन-पालन जुलाहा परिवार में बताते हैं। प्रकारांतर से वह कबीर को मुसलमान नहीं मानते। वह यह भी कहते हैं कि जुलाहा जाति ने कबीर का पालन किया। ‘ऐसा जान पड़ता है’ कि उसने एकाध पुश्त पहले ही मुसलमान धर्म ग्रहण किया था। एक दूसरा तर्क है कि जुलाहा तब भी कोरी नाम से परिचित थे। यह एक अलग बात है कि औपनिवेशिक और देशी  मानवशास्त्रीय विश्लेषण/ साक्ष्य इसकी कोई पुष्टि नहीं करते। द्विवेदी जी फिर जुलाहा समाज को ‘नाथ’ मतावलम्बियों से जोड़ते हैं और धर्मान्तरण की भी बात करते हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को लगे हाथ ‘अस्पृश्य’ भी कहते हैं। द्विवेदी जी कबीर को हिन्दू बताने के लिए इस प्रकार के आधारहीन तर्क देते हैं। दूसरी ओर यह तथ्य भी हिंदी की द्विज धारा के ढेर सारे लेखकों में काफी लोकप्रिय है कि रामानंद ने कबीर को जुलाहा होने के कारण ही अपना शिष्य नहीं बनाया था। धर्मवीर द्वारा कबीर को दलित सिद्ध करना भी द्विज परम्परा की तरह साक्ष्यों पर आधारित नहीं है। धर्मवीर कबीर को अछूत भी बताते हैं और जन्म से जुलाहा भी। जुलाहा मुसलमान होता है  लेकिन वह दलित न हो कर पिछड़ों की गिनती में आता है,न कि दलितों की। यह बात अलग है कि दलित विमर्श में कबीर की रचनाओं को समग्र रूप से सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि वह मुसलमान और हिन्दू दोनों ही धर्मो की पोंगापंथी की जम कर आलोचना करते हैं।

‘कबीर दलित नहीं थे’ अध्याय में कमलेश वर्मा आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, पुरुषोत्तम अग्रवाल  और डाक्टर धर्मवीर की कबीर की पृष्ठभूमि संबंधी मान्यताओं के संबंध में निम्न निष्कर्ष निकालते हैं: ‘कबीर ना तो हिन्दू थे और ना ही दलित। वह जुलाहा थे जो कि एक मुसलमान  पिछड़ी जाति है ;अपनी सभी रचनाओं में कबीर स्वयं को जुलाहा ही कहते हैं और उनकी सभी रचनाएं पंडित /मुल्ला विरोधी हैं; कबीर की रचनाएं दलित विमर्श के लिए ही नहीं बल्कि पूरे वंचित वर्गों (जिसमे पिछड़ी जातियां और आदिवासी  समूह और अल्पसंख्यक भी सम्मिलित हैं) के लिए हैं। लेकिन उससे यह नहीं सिद्ध होता कि कबीर ‘दलित धर्म’ के जनक या नायक थे ! धर्मवीर जैसे लेखक कबीर को येन-केन प्रकारेण दलित बता कर असल में पिछड़ों के योगदान को हड़पने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। ऐसी कोशिश सवर्णो ( नामवर, द्विवेदी और पुरुषोत्तम अग्रवाल) और दूसरी ओर दलितों (धर्मवीर) दोनों द्वारा की गयी है। इस अध्याय के अंत में कमलेश वर्मा का एक सूत्र वाक्य है: ” हिंदी साहित्य के निर्माण में पिछड़ी जातियों की भूमिका पर काम करने  की ज़रुरत है “.और यह नेक काम कोई नामवर, पुरुषोत्तम अग्रवाल का चेला नहीं करने वाला। इसे पिछड़ों को ही करना होगा। मैं कमलेश वर्मा के कथन को थोड़ा विस्तृत करने का पक्षधर हूँ, कहना चाहता हूं, ‘पिछड़ों के योगदान को केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि समाज, अर्थतंत्र और राजतंत्र में भी स्वतंत्र और पूर्वाग्रह से अलग रूप में विश्लेषित करने की ज़रुरत है।

इस पुस्तक में कई स्थान पर कमलेश प्रगतिशील लेखक संघ जैसे संगठनों के कपटपूर्ण  व्यवहार पर टिप्पणी करते हैं। इस सन्दर्भ में मेरा स्पष्ट मानना है कि प्रलेस एक सवर्ण हितों का संगठन है और उसकी प्रगतिशीलता थोथी है और मेरा यह स्पष्ट मत है कि दलेस  (दलित लेखक संघ ) और पिलेस (पिछड़ा वर्ग लेखक संघ ) और अलेस (आदिवासी लेखक संघ ) का उगना ,फलना-फूलना उनकी सामूहिक और वर्गीय अस्मिता को बल देगा, और उनके प्रकाशन समूहों से सवर्णो द्वारा उनकी कृतियों को प्रकाशित करने में जो भेदभाव  करते हैं उससे निबटने में मदद मिलेगी।

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‘नामवर जी के दलित कबीर’ आलेख  दरअसल मात्र नामवर के कबीर पर ही केंद्रित नहीं है बल्कि उसमें  अन्य समालोचकों का जिक्र भी मौजूद हैं। इसमें दो मुख्य तर्क शामिल हैं, ‘कबीर ने ‘सामंती पुरोहिती’ दमन चक्र के खिलाफ आवाज़ उठाई और वह ‘दलित’ थे। वर्मा  इन दोनों से सम्बद्ध लेखकों की कलई बड़ी शालीनता से खोलते हैं। वह स्पष्ट करते हैं कि कबीर ने दलित जातियों/दलित समाज की तरफ से कुछ नहीं लिखा। लेकिन नामवर क्रमिक रूप से  कबीर के दुःख एवं प्रेम से शुरू हुए और कबीर के सच तक गए। वर्मा साफ़ कहते हैं कि यद्यपि जुलाहा पिछड़े समाज से सम्बद्ध हैं लेकिन नामवर ने कबीर के जुलाहे को दलित बनाया (पृष्ठ 32)। जैसा कि धुंध मिथ्यावर्णन में  आवश्यक रूप से होता है , यह जुलाहा से दलित बनना भी क्रमिक रूप से हुआ। कबीर जुलाहा थे ,इस लिए मुसलमान हो कर भी दलित हो गए। नामवर कबीर को शूद्र भी कहते हैं (पृष्ठ 32)। कमलेश वर्मा कहते हैं कि सच यह है कि कबीर क्रांतिकारी थे और झूठ यह है कि वे दलित थे (पृष्ठ 33)। इसी तर्ज पर सच यह है कि कबीर रहस्यवादी  थे और झूठ यह है कि वह विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे (पृष्ठ 33)। वर्मा कहते हैं कि दलित-विमर्श जब ‘सत्ता विमर्श’ में विचार करने लगता है तब परेशानी शुरू हो जाती है (पृष्ठ 33)। कबीर को अकेले डॉ धर्मवीर ने ही दलित नहीं ‘बनाया’, बल्कि कबीर को दलित बनाने में नामवर और द्विवेदी जी का बड़ा हाथ है; इसमें सवर्ण समालोचकों का एक पूरा का पूरा अमला  ही शामिल था (पृष्ठ 34)। मुक्तिबोध, मैनेजर पांडे और शिव कुमार मिश्र ने कबीर को सीधे-सीधे तो दलित नहीं बनाया लेकिन उनके लेखन की पूरी ध्वनि कबीर को दलित बनाने में सहयोग करती है (पृष्ठ 34)।वर्मा एक ऐतिहासिक तथ्य रेखांकित करते हुए कहते हैं कि कबीर पिछड़ी जाति के थे ;उनका काव्य फलक विशाल था और उनकी कविता का विश्लेषण न द्विज दृष्टि से संभव है,न ही दलित दृष्टि से(पृष्ठ 35)। इसके अतिरिक्त  कबीर का एक और ध्रुव सत्य यह है कि मुसलमानों ने कभी भी बड़ी संख्या में कबीर का अनुसरण नहीं किया (पृष्ठ 36)। इस सन्दर्भ में जो बात जग विख्यात सच है वह यह है कि कबीर के सर्वाधिक समर्थक पिछड़ी जातियों के लोग थे और वही बाद में कबीरपंथी बने और प्रचलित कबीर पंथ की रीढ़ रहे हैं।

कपड़ा बुनते कबीर की एक पेंटिंग

‘गैर-दलित कबीर और डॉ. धर्मवीर’ अध्याय में कमलेश वर्मा यह सिद्ध करते हैं कि  डॉ. धर्मवीर ने मुख्यतः दलित अवधारणा को पुष्ट करने के लिए कबीर का उपयोग किया (पृष्ठ 38); डॉ. धर्मवीर ने साहित्यिक मतों का निर्धारण भी कबीर के दलित होने के आधार पर किया ( पृष्ठ 38); डॉ. धर्मवीर प्रकारांतर से कबीर को हिन्दू-मुसलमान नहीं मानते और कबीर को ‘धर्म गुरु’ और उनके द्वारा प्रतिपादित मत को “दलित धर्म” कहते हैं ; उन्होंने कबीर को ‘दलित धर्म ‘ का प्रवर्तक भी कहा (पृष्ठ 38); डॉ. धर्मवीर ने दलितों में अलग ‘आश्रम व्यवस्था’ भी ढूंढ निकाली (पृष्ठ 38); डॉ. धर्मवीर के कबीर चिंतन का मूल आधार दलित विमर्श है। सवर्ण आलोचकों की परंपरा में कबीर को ‘नीच जाति’ का कहा गया था। डॉ. धर्मवीर ने धोखे से कबीर को सीधे-सीधे ‘दलित’बना दिया (पृष्ठ 39); कबीर पिछड़ी जाति (जुलाहा ) के थे। कबीर को पिछड़ी जाति का कहना रामचंद्र शुक्ल  और धर्मवीर के असत्य आख्यानों की पृष्ठभूमि में मात्र एक भूल सुधार ही है (पृष्ठ 39)। डॉ. धर्मवीर कबीर को हिन्दू पैदा होना बताते हैं जबकि वह मुसलमान पैदा हुए थे (पृष्ठ 40)। कबीर ने अपने नाम से किसी प्रकार के पंथ को चलाने को मना किया था लेकिन डॉ. धर्मवीर ने उन्हें ‘दलित धर्म’ का प्रवर्तक बना दिया(पृष्ठ 42)। कबीर का ज़बरदस्त सामाजिक पक्ष है लेकिन वह ‘सामंती-पुरोहिती दमन चक्र के खिलाफ’ नहीं है जैसा कि नामवर सिंह जैसे आलोचक कहते रहे हैं। डॉ. धर्मवीर जुलाहों को ‘अस्पृश्य’ बताते हैं जबकि असलियत यह है कि वह कभी भी अस्पृश्य नहीं थे, और इस्लाम में तो अस्पृश्यता की अवधारणा ही नहीं है (पृष्ठ 43)।

डॉ. धर्मवीर ने कबीर की कविता के कथ्य की उपेक्षा करके कबीरी विश्लेषण न करके धर्मवीरी विश्लेषण किया(पृष्ठ 45)। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर में निजी पक्ष सृजित किया, जबकि कबीर ने हमेशा सामाजिक ताना-बाना बुना(पृष्ठ 46)। कबीर की भाषा धर्म के विश्लेषण की भाषा नहीं है (पृष्ठ 47)। कबीर साफ़ साफ़  कहते हैं कि हिन्दू और इस्लाम दोनों ही व्यर्थ हैं (पृष्ठ 48)। डॉ. धर्मवीर तर्क देते हैं कि कबीर को समझने के लिए जुलाहा होना ज़रूरी है। डॉ. धर्मवीर के ही तर्क को मानते हुए उनसे पूछा जा सकता है कि बिना जुलाहा हुए वे खुद कबीर को कैसे समझ पाये? क्या इसीलिए उन्होंने कबीर की गलत और कबीर वाणी से अप्रमाणित  व्याख्या की? वर्मा के तर्क को उसकी अंतिम परिणति तक ले जा कर उनके के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने जानबूझकर कबीर को कुछ का कुछ और समझा ही नहीं बल्कि बताया भी। वर्मा कहते हैं कि कबीर को दलित मान कर जो आलोचनाएं लिखी गयी हैं उन्हें खारिज किया जाए। वर्मा इससे भी आगे जा कर कहते हैं कि डॉ. धर्मवीर जैसों का दलित विमर्श पिछड़ी जातियों के योगदान को हड़पने का  प्रयास है (पृष्ठ 50)। कबीर को मनुष्यता के कवि के रूप में पढ़ा जाना चाहिए (पृष्ठ 51)। वर्मा कहते हैं कि दलित विमर्श ने कबीर के लेखन पर और उनके दलित होने पर अधिक ध्यान दिया है (पृष्ठ 52)। वर्मा के मत में पिछड़ी जातियों को गर्व करना चाहिए कि कबीर ने मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने पर ज़ोर दिया(पृष्ठ 73)।

‘अकथ कहानी प्रेम की’ में ‘आयो घोष  बड़ौ व्यापारी’ अध्याय मुख्यतः यह आकलन प्रस्तुत करता है कि ‘कबीर की भक्ति का सामाजिक अर्थ’ पर शोध करने वाले  पुरुषोत्तम अग्रवाल ( अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय: नई दिल्ली, राजकमल, 2009) में सामाजिक पक्ष  पर किस प्रकार विचार करते हैं(पृष्ठ 54)। अग्रवाल की पुस्तक की भूमिका से ही स्पष्ट होता है कि वह यह मानते हैं कि कबीर का समुदाय जुलाहा था जो वर्तमान दशा के लिहाज़ से “हाशिये” पर है  किन्तु ‘इतिहास के लिहाज़ से हाशिये पर नहीं था'(पृष्ठ 55)। वर्मा कहते हैं कि कबीर की कविता के आकलन के प्रश्न पर रामचंद्र शुक्ल की आलोचना का आधार ‘कृषि संस्कृति’ है जब कि अग्रवाल की आलोचना का आधार ‘व्यापार संस्कृति ‘ है। इस व्यापार संस्कृति  के कथाकार प्रेमचंद , समालोचक रामचंद्र शुक्ल और सभी मार्क्सवादी आलोचक आलोचना करते हैं लेकिन अग्रवाल पूरे साहस के साथ ‘कृषि संस्कृति’ पर ‘व्यापार संस्कृति’ की विजय को सिद्ध करना चाहते हैं। वर्मा कहते हैं कि जुलाहा समाज हमेशा गरीब रहा है (पृष्ठ55)। वर्मा अग्रवाल की गलत मान्यता (व्यापारी और कारीगरों को एक ही वर्ग मानना ) को पकड़ते हैं। व्यापारी वर्ग अगर एक बुनकर कबीर को संत के रूप में मान्यता देता है ,तो इसमें भी व्यापारी वर्ग  का कोई लाभ अवश्य छिपा होगा। इस बिन्दू पर वर्मा कहते हैं कि व्यापारियों का संतों के संबंधों में भी लक्ष्य वहाँ भी अपना धंधा ही होता है (पृष्ठ55-56)। वर्मा कहते हैं कि अग्रवाल ने कबीर की कविता में व्यापार और व्यापारी की ऐतिहासिक प्रगतिशीलता और व्यापारी के आत्म-सम्मान कहाँ से ढूंढ निकाला यह आश्चर्यजनक है। सूरदास ने तो ‘आयो घोष बड़ौ व्यापरी’ में व्यापारी वर्ग पर व्यंग ही किया है। हाँ, इस आलोचना के बीच वर्मा अग्रवाल की कबीर की कविता के सामाजिक  अर्थ को दस्तकार जातियों से जोड़ने की कोशिश को अत्यंत प्रशंसनीय मानते हैं(पृष्ठ 57)। वाल्मीकि और तुलसीदास ने भी माना है कि बहुजन जातियां आगे बढ़ रही हैं (पृष्ठ 57) लेकिन यह एक सिद्ध ऐतिहासिक तथ्य है कि उनकी बेहतरी में ज़मीदारों और व्यापारियों का कोई योगदान नहीं रहा है और विक्टर पावलोव जैसे लोग पुराने बनिया-साहूकार वर्ग को तो कारीगरों का बड़ा शोषक घोषित करते हैं, जिसकी पुष्टि मैने जो शोध कार्य किया है उससे भी होती है। वर्मा एक बड़ी बात करते हैं कि  उद्योग धंधों के विकास के आलोक में जिन आधुनिकताओं की पहचान की जाती है उसकी पुरोधा कारीगर जातियां ही रही हैं और अग्रवाल जी दस्तकारों की क्रांतिकारी भूमिका को व्यापारियों की उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं(पृष्ठ 58)। चर्चित इतिहासकार बताते हैं कि मध्य-कालीन भारत में शिल्पी वर्ग सशक्त हो रहा था, क्योंकि वह कृषि पर पूर्णतया आश्रित नहीं था और इसी कारण से वह सामंतवाद और वर्णाश्रम व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठा सका। वर्मा कहते हैं कि अग्रवाल जी इसका सेहरा व्यापारियों के सिर बाँध देते हैं (58)। अग्रवाल जी व्यापारियों के न्याय-संगत व्यवहार को उनकी विशेषता बताते हैं  और उनके अनुसार निर्गुण कवियों ने इसे व्यापारियों से ग्रहण किया है (पृष्ठ 59)। चर्चित आर्थिक इतिहासकारों ने अपने अपने शोधों के आधार पर व्यापारियों और उद्योगपतियों को भारतीय समाज का सबसे अधिक भ्रष्ट और दोगला उपवर्ग पाया है जिसका एक मात्र उद्देश्य किसी भी प्रकार से मोटा मुनाफ़ा उठाना रहा है। यह अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे कि ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल भी अपने समय- समय पर अध्ययनों से सिद्ध करती रही हैं, लेकिन अग्रवाल का विश्लेषण यह घोषित करता हुआ प्रतीत होता है कि कबीर का काम मात्र कविता लिखना भर था। अग्रवाल के मत में उनकी संवेदना का श्रोत व्यापारी वर्ग था। ज़मीनी वास्तविकता यह थी कि कबीर की कविता दस्तकारों की संवेदना को व्यक्त करती है (पृष्ठ 60)। वर्मा कहते हैं कि अग्रवाल कबीर की कविता के सभी पुराने सामाजिक सन्दर्भों को प्रयासपूर्वक उपेक्षित करते हैं; वह दूसरे आलोचकों को व्यंग्यात्मक रूप से संबोधित करते हैं जो  विद्वता की शालीनता की दृष्टि से नितांत अनुचित है (पृष्ठ 61)। अग्रवाल कहीं-कहीं तुलसी और अन्य कवियों के गलत पाठ भी उद्धृत करते हैं (पृष्ठ62-63); इतना ही नहीं अग्रवाल कबीर की कविता का नया पाठ भी बना लेते हैं (पृष्ठ 63),और तुर्रा यह कि वह कबीर की कविताओं से वह कहलवा लेते हैं जिसे कबीर ने कहा ही नहीं ( पृष्ठ 66)।

उत्तरप्रदेश के बनारस में कबीर मठ में कबीर एवं उनके अनुयायियों की प्रतिमाएं

प्रकारांतर से अग्रवाल कहते लगते हैं कि हिंदी आलोचना में ‘लोअर कास्ट’ और ‘मिडिल कास्ट’ आ ही नहीं सकती (पृष्ठ 67)। रामानंद से कबीर के संबंध बिन्दू पर  अग्रवाल कबीर और रैदास जैसे ‘अन्त्यजों’ को पूजे जाने पर व्यंग किया है। रैदास ‘अन्त्यज’ थे लेकिन कबीर नहीं (पृष्ठ 68)। वर्मा अग्रवाल की कबीर संबंधी आलोचना  का यह निष्कर्ष निकालते हैं: कबीर जुलाहा थे; पिछड़ी जाति के थे; मुसलमान थे; दलित नहीं थे, अस्पृश्य नहीं थे (पृष्ठ 69)। कुल मिला कर अग्रवाल की पुस्तक के आधार पर सवर्णो ने जो पॉलिश अग्रवाल के आभा मंडल पर पोती थी,  वर्मा उसे बड़ी शालीनता से तार- तार कर देते हैं।

‘जाति जुलाहा मति कौ धीर: जातियों से जुड़ी कवितायें’ ही इस पुस्तक का वह सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें कमलेश वर्मा कबीर की कविताओं का तथ्यात्मक आधार पर आकलन करते हैं यद्यपि इस अध्याय में भी उन्होंने विभिन्न उप-बिन्दुओं पर विभिन्न समालोचकों को बड़ी विद्वता के साथ घेरा भी है। मेरी नज़र में यह इस पुस्तक का यह सबसे अधिक प्रभावी आलेख इसलिए है क्योंकि वह मुख्यतः समालोचक कमलेश  वर्मा के अभिमत को साक्ष्यों समेत विश्लेषित करता है। मैं इस अध्याय पर विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा। कमलेश वर्मा कहते हैं कि हिंदी के समालोचकों के आकलन से नहीं बल्कि कबीर की कविता की भाषा के आधार पर यह साफ़ है कि कबीर जातिवाद के विरोधी थे(पृष्ठ 71); समाज की जाति आधारित संरचना से जन्मी भाषा कबीर की कविता में दिखाई देती है; कबीर ने इसे नकारात्मक रूप से नहीं लिया है (पृष्ठ 71); आलोचकों ने यह माना है कि  कबीर ऊंची जातियों को गाली देते थे तथा कमज़ोर का पक्ष लेते थे ; कबीर की कविता में जाति का ज़िक्र एकदम उसी भाषा में आता है जैसी भाषा गांव में बोली जाती है (पृष्ठ 72); कबीर की कविता वस्तुतः जातिवाद के खिलाफ थी, किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं (पृष्ठ 72) ; जहां कहीं भी कबीर ने जाति विशेष का विरोध किया है वह सकारण है (पृष्ठ 73) और यह प्रवृति केवल कबीर तक ही सीमित नहीं रही हैं बल्कि दलित और पिछड़ी जातियों से आनेवाले अन्य कवियों ने भी अनेकशः किसी  हीन भाव के बिना अपनी जाति का जिक्र किया है (पृष्ठ 73).

निर्गुण कवि होने के बावजूद कबीर की कविताओं में राम और कृष्ण की कथाओं और पात्रों का ज़िक्र मिलता है ; कबीर हर जाति को निंदा का पात्र  नहीं बनाते बल्कि भक्ति संबंधी वार्ता का माध्यम बनाते हैं (पृष्ठ 74); भक्ति संबंधी वार्ता में कबीर विभिन्न जातियों के कर्म को भक्ति की उच्चता से जोड़ कर गौरवान्वित कर रहे हैं (पृष्ठ 74); उन्होंने कारण बताते हुए केवल ‘ब्राह्मण ‘ का विरोध किया है ; कुछ छंदों में बनिया की जम कर निंदा मिलती है मगर वहाँ भी बनिया को मन की उपमा दी गयी है (पृष्ठ 75); कबीर ने ‘पंडित’ और ‘काज़ी’  को अज्ञानी बताया है क्योंकि यह लोग ईश्वर को नहीं जानते हैं और सहारा हमेशा ईश्वर का लेते हैं (पृष्ठ 75). द्विवेदी की ‘अकारण दंड’ वाली अवधारणा का आधार कबीर की कविता में मौजूद नहीं है (पृष्ठ 76). नामवर सिंह ने कबीर के ‘सामंती-पुरोहिती दमन चक्र’ की बात की है लेकिन वर्मा निर्भीकता और दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि कबीर की कविता में सामंतों के बारे में कोई बात नहीं लिखी गयी है (पृष्ठ76). हाँ, कबीर ने ‘चूहड़ा ‘  और ‘खटिक’ के बारे में अच्छी बात नहीं कही है (पृष्ठ 77); कबीर ने वर्णाश्रम व्यवस्था का जम कर विरोध किया और वे उसकी मान्यताओं की जम कर खिल्ली उड़ाते हैं (पृष्ठ 77-78)। दलित विमर्श ने कबीर की कविताओं का उपयोग करते हुए यह सन्देश देना चाहा कि वह दलित होने के कारण अस्पृश्यता का दंश झेल रहे थे, इस लिए आक्रोश की भाषा में प्रतिवाद कर रहे थे। कमलेश वर्मा कहते हैं कि कबीर ने अपनी कविता में ‘अस्पृश्यता’ की कोई बात नहीं की है (पृष्ठ 78)। वह जातियों के जाति कर्म से बनी भाषा का मात्र उपयोग कर रहे थे (पृष्ठ 78)। कमलेश वर्मा ने इस अध्याय के आख़िरी दो पृष्ठों (79-80) में  कबीर की जाति संबंधी कविताओं के विश्लेषण के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकाले हैं: वर्णाश्रम विरोध; जाति-पाँति व कुल के बंधनों से मुक्त होने की पक्षधरता ; जाति -आधारित -लोक प्रचलित भाषा का प्रायः रूपकात्मक प्रयोग; जाति संबंधी कर्म का ज़िक्र करते हुए प्रायः भक्ति संबंधी बात कहने की प्रवृति; जातिवादी भेदभाव का ज़बरदस्त विरोध; दलित-जीवन या अस्पृश्यता को ले कर कोई कविता नहीं मिलती; दलित जातियों ,जैसे कि चमार, धोबी, खटिक, चूहड़ा, भंगी आदि का ज़िक्र उनके जाति कर्मो के साथ वैसे ही मिलता है जैसे अन्य जातियों के सन्दर्भ में; कबीर की कविता में दलित जातियों को ले कर कोई अलग दृष्टि दिखाई नहीं पड़ती; मनुष्यत्व  की भावना को आगे करके (रामचंद्र शुक्ल ) उन्होंने जाति और कुल की श्रेष्ठता को चुनौती ज़रूर दी है, मगर दलित जातियों की तरफ से कोई बात नहीं कही है; ब्राह्मण और बनिया जाति का नाम ले कर कारण बताते हुए कबीर ने उनका विरोध किया है (पृष्ठ 79-80)।

‘दलित विमर्श के अतिवाद’ दरअसल मूलचंद सोनकर  के आलेख ‘प्रगतिशील आंदोलन की विरासत और नामवर सिंह का दलित विरोधी चेहरा’ के संबंध में किया गया कमलेश वर्मा का पक्ष है। सोनकर के आलेख के संबंध में वर्मा ने  निम्न बिन्दू उठाये है :

गैर-दलित दलितों के संबंध में  नहीं लिख सकते और दलितों के संबंध में केवल जन्मना दलित ही लिख सकते हैं! दलित विमर्श के लेखकों ने इस प्रकार गैर-दलितों को न केवल अस्वीकृत किया है बल्कि उनका तिरस्कार भी किया है (पृष्ठ 90);ऐसा करते हुए उन्होंने प्रेमचंद जैसे लेखक तक  को भी नहीं बख्शा (91); सोनकर से इतर अन्य दलित इससे भी आगे जाते हुए कहते हैं कि जो वह कह रहे हैं वही सच है(पृष्ठ 93) !

  • दलित लेखकों के उपरोक्त व्यवहार के चलते वर्मा के मत में गैर-दलित लेखकों  को दलितों को बौद्धिक समर्थन देने से भी अलग होने का समय आ गया है (पृष्ठ 91).

.   मार्क्सवादी दृष्टिकोण से दलित साहित्य को नहीं कसा जा सकता : उसे तो मात्र आंबेडकरवादी दृष्टि से ही आंका जा सकता है (पृष्ठ 91).

  • उत्तर प्रदेश में चमार और पासी, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में  माला और मदिगा में खुली जातिगत और राजनैतिक दुश्मनी होते हुए और पंजाब , हिमाचल, उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश  में चूहड़ों / भंगी जाति को अन्य दलित जातियों द्वारा ‘अंत्यज्य’ मानने के बावजूद भी सूरजपाल चौहान की पुस्तक ‘धोखा’ तो यह भी घोषणा करती है कि धीरे -धीरे दलितों में जाति भेद की समस्या से छुटकारा मिल रहा है (पृष्ठ 92-93)!
  • दलित विमर्श यह भ्रम पैदा करता है कि उसके चिंतन में आदिवासी समाज भी शामिल है। वर्मा कहते हैं कि  गैर-दलित सहयोगियों को ले कर दलित सरकारें जब -जब सत्ता में आईं, उन्होंने 85 % आबादी को कुचलने के प्रावधान बनाये (पृष्ठ  93)
  •  दलित और स्त्री विमर्श  अलग-अलग विमर्श हैं, यद्यपि  स्त्री- विमर्श दलित और अन्य सभी विमर्शों में अवश्यमेव मौजूद हैं। मूलचंद सोनकर ने उम्मीद की है कि जल्दी ही दोनों विमर्शों का एक प्लैटफॉर्म होगा (पृष्ठ 94-94) ! यह 2018 तक तो नहीं हुआ है !
  •  सोनकर जी ने पिछड़ी जातियों को भी नहीं बख्शा ! उनके अनुसार पिछड़ी जातियों के साहित्यकार प्रेमचंद से आगे सोच ही नहीं पाते और पिछड़ों को यह अहसास भी नहीं है कि आज जो संवैधानिक आरक्षण का लाभ वह ले रहे हैं वह डॉ. आंबेडकर की देन है! यह सही है कि  संविधान निर्माण में डॉ. आंबेडकर ने विविधतापूर्ण और कठिनाइयों से भरपूर भूमिका सम्पादित की, लेकिन आरक्षण केवल आंबेडकर की ही देन नहीं है ! आरक्षण के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में अवश्य थे और वह संविधान लागू होने के साथ दलितों और आदिवासियों  को मिलने भी लगे लेकिन पिछड़ों के लिए आरक्षण की लड़ाई खुद पिछड़ों ने इंद्रा साहनी मुक़दमे (1992) में लड़ी और आरक्षण प्राप्त किया : उसे डॉ. आंबेडकर ने नहीं दिया था (पृष्ठ 95)!
  •  दलित- पिछड़ों की राजनैतिक यात्रा में ऐसा प्रायः हुआ है कि  राज कर रहे दलितों ने पिछड़ों का साथ ही नहीं छोड़ दिया बल्कि सवर्णो से मिल कर उन्हें राजनैतिक हाशिये में पंहुचा दिया ! मायावती  इसकी ज्वलंत उदाहरण रही हैं !
  •  वर्मा इस ध्रुव सत्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि अधिसंख्यक पिछड़ी जातियां ही  शालीनता और श्रम -पूर्वक भारत की सांस्कृतिक भूमि का निर्माण करती रही हैं लेकिन राजनैतिक रूप से  उनकी ही अधिसंख्यक जातियां देश की सबसे अधिक उपेक्षित जातियां हैं और सत्ता से दूर रखी गयी हैं (पृष्ठ 97)।

कमलेश वर्मा ने “रैदास : जाति-वाद  से मुक्ति के कवि”(पृष्ठ 99-103) अध्याय में यह निष्कर्ष निकाला है कि कबीर की तुलना में रैदास कुछ अलग प्रकार के भक्तिकाल के कवि हैं।  रैदास की कविता अपनी जाति पर गर्व करना सिखाती है ; वह हममें आत्म- विश्वास पैदा करती है कि सामाजिक रूप से हमारी जाति के बारे में खराब राय भले रखी जा रही हो, परन्तु अपने जन्म पर गौरव बनाये रखना चाहिए ; अपनी तरफ से यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारी जाति कहीं से कमतर है(पृष्ठ 99); रैदास की कविता सामाजिक विषमता को अच्छी तरह समझती है; उसमें जातिवादी भेद-भाव की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। रैदास समाज की प्रचलित भाषा में अपनी जाति और जन्म के बारे में कही गयी बातों को अपनी कविता का विषय बनाते हैं मगर सावधानी रखते हैं कि कहीं हीनभाव छू ना जाए; समाज चाहे कुछ भी कहे, रैदास को प्रभु पर भरोसा है कि उनकी सेवा से प्रभु प्रसन्न होंगे और उन्हें चिंता-मुक्त करेंगे(पृष्ठ 100)। वर्मा कहते हैं कि चमड़े के व्यापार के कारण चमार की जो सामाजिक उपेक्षा की जाती है, उसके विरुद्ध रूपक बांधते हुए रैदास  कहते हैं कि जहां देखो ‘चाम ही चाम है’. संसार को ‘राम-मय’ मानने वालों को रैदास मानों मना रहे हैं कि यह संसार ही ‘चाम-मय’ है। वह कबीर से पूछते हैं कि बताइए ‘चाम ‘ के बिना कोई हो सकता है ? रैदास की कविता हीनता बोध पर आत्मगौरव की विजय का प्रमाण है (पृष्ठ 101)। वर्मा के अनुसार आज का दलित- साहित्य अपनी पीड़ा को व्यक्त करके समाज के प्रति अपने आक्रोश को स्वर देता है तथा पाठकों से उम्मीद करता है कि वह उसका पक्ष लें। कई बार वह अपनी पीड़ा का मुआवजा मांगता हुआ प्रतीत होता है। वह अपने लिए विशेष स्थान की उम्मीद करता है कि पीड़ा के बदले उसे कुछ सुविधा मिलनी चाहिए। रैदास को न सुविधा चाहिए और ना ही किसी की सहानुभूति; उनका रास्ता साफ़ है: वे मानते ही नहीं हैं कि हम किसी से कमतर हैं; वे मानते ही नहीं हैं कि हममें कोई स्थाई कमी है; वे मानते ही नहीं है कि उनकी जाति को निम्न मानने का कोई कारण हो सकता है (पृष्ठ 101-102)। वर्मा कहते हैं कि हीनभाव को आत्मबल  से जीतने की भाषा रैदास की कविता में मौजूद है। ध्यान देने की बात यह है कि वह समाज को खरी-खोटी नहीं सुनाते ; वह अपना आत्मबल बढ़ाने और धैर्य न खोने में विश्वास रखते हैं (पृष्ठ 102)। रैदास की चिंता यही है कि जातियों की लड़ाई में मत पड़ो कि कौन ऊंचा है और कौन नीचे; आत्मबल पैदा करो कि तुम श्रेष्ठ हो और सामनेवाला भी श्रेष्ठ है; अपने को श्रेष्ठ मानने का आत्मबल और सामनेवाले को श्रेष्ठ मानने का धैर्य जातिवाद से मुक्ति का यही रास्ता है। वर्मा कहते हैं कि यही रैदास की कविता का समाजशास्त्र है (पृष्ठ 103)।

पुस्तक को पढ़ने के उपरान्त  कुछ स्पष्ट निष्कर्ष निकलते हैं :

 कमलेश वर्मा  बड़े साहसी लेखक हैं  क्योंकि वह हिंदी की द्विज और दलित साहित्यिक धाराओं के कबीर के लेखन संबंधी मुख्य अवस्थापनाओं पर बिना किसी अगर-मगर के सीधे-सीधे प्रहार करते हैं और पुस्तक का पाठक  कबीर पर तथाकथित मौलिक लेखन करने वाली बड़ी -बड़ी लेखक हस्तियों — नामवर सिंह, पुरुषोत्तम अग्रवाल, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , डॉ. धर्मवीर — के पूर्वाग्रहपूर्ण धुंध मिथ्यावर्णन को सहजता से धाराशायी करते हैं।

  •  दलित विमर्श भी असल में जाति वर्चस्व का ही विमर्श है। वह एक जाति समूह के वर्चस्व को वैचारिक दृष्टि से दूसरे जाति समूह के वर्चस्व  की और ले जाने का ही प्रयास है !
  • हिंदी साहित्य की द्विज और दलित दोनों ही धाराएं पिछड़ों  को हाशिये पर ले जाते हैं या उनके योगदान को स्वीकार ही नहीं करते। कबीर का द्विज और दलित विवेचन  दोनों ही इस प्रवृति का उदाहरण हैं।
  • पिछड़ों के व्यावसायिक योगदान को तो समाज, अर्थतंत्र और राजतंत्र ने शोषण का मुख्य ध्रुव बनाया ही हैं ; साथ साथ  उनके साहित्यिक योगदान को भी हाशिये पर रखा गया/या घोर उपेक्षा की गई। यह एक पीड़ादायक वास्तविकता है कि पिछड़े अब जाकर थोड़ा बहुत आगे बढे हैं : प्रलेस,  जलेस और दलेस ठप्पे के लेखन की तर्ज पर ‘पिछड़ा वर्ग लेखक संघ’ ‘पिलेस’ भी बन गया है। कई पिछड़ों ने प्रकाशन कर्म भी शुरू किया है जो इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिंदी साहित्य की द्विज धारा का सारा का सारा प्रकाशन इस प्रकार चलता रहा है जिसमे बड़े प्रकाशक केवल उन्हीं की रचनाएं प्रकाशित करते रहे हैं जिनकी सिफारिश द्विज तख्तधारियों ने की है और द्विज तख्तधारियों में यह सद्गुण हमेशा रहा है कि वह दलित , पिछड़ों , आदिवासियों  के लेखकों को घास ही नहीं डालते !
  • कमलेश वर्मा यह कहते हैं कि व्यापक समाज को  ध्यान में रख कर साहित्य रचने वाला हिंदी का कोई भी रचनाकार  पिछड़ी जातियों के समुदाय को छोड़ कर नहीं चल सका है। कबीर से ले कर प्रेमचंद तक के साहित्य में जाति के प्रसंग भरे पड़े हैं ,मगर हिंदी आलोचना में इन प्रसंगों  पर संतोषजनक विचार नहीं हुआ है। हिंदी आलोचना में अभी तक पिछड़ी जातियों को ध्यान में रख कर किसी दृष्टि का विकास भी नहीं हो पाया है। प्रकारांतर से वह यह इंगित करते हैं कि इससे  हिंदी साहित्य की स्वीकार्यता नहीं बढ़ी है।
  • इस संबंद्ध में दूसरी बड़ी अहम् बात जो वह कहते हैं वह यह है कि  मनुष्यता के तमाम दावों के बावजूद ‘वर्चस्व’ और पीड़ा की जाति आधारित संरचना से हिंदी आलोचना नहीं मुक्त हो सकी है। उनके अनुसार इसलिए यह ज़रूरी है कि भारत के निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका अदा करने वाली  पिछड़ी जातियों की साहित्यिक भूमिका को समझा जाए (भूमिका: पृष्ठ 4) और यह पुस्तक उस मुहिम की एक सार्थक पहल है जिसके केंद्र में कबीर हैं जिन्हे कुछ हिंदी के तख्तधारी आलोचक बिना किसी साक्ष्य के विधवा ब्राह्मणी के पुत्र और कुछ दलित सिद्ध करते रहे हैं। तुर्रा यह रहा है कि इन आलोचकों ने कभी कबीर की रचनाओं में इस प्रश्न का उत्तर नहीं ढूंढा ! कमलेश वर्मा पहले  ऐसे हिंदी आलोचक हैं जिन्होंने कबीर की रचनाओं के साक्ष्य के आधार पर उनके काव्य को एक पिछड़ी जाति (मुसलमान जुलाहा) के रूप में आंका है और उन्हें पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि कवि माना है।

 

किताब: जाति के प्रश्न पर कबीर

लेखक : कमलेश वर्मा

पृष्ठ : 166

मूल्य : 150 रुपए (किंडल), 165 रुपए (पेपर बैक), 400 रुपए (हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

किंडल :  http://www.amazon.in/dp/8193258479

 

इस पुस्तक का प्रथम संस्करण पेरियार प्रकाशन,पटना ने किया था, जिसका दूसरा संस्करण फारवर्ड प्रेस/दि मार्जिनलिइज़्ड ने अब पुन: प्रकाशित किया है .


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

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चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

हरनाम सिंह वर्मा

हरनाम सिंह वर्मा समाजविज्ञानी व योजनाकार हैं और देश के प्रतिष्ठित शोध, शैक्षणिक व योजना संस्थानों में काम कर चुके हैं। उन्होंने इंदिरा साहनी प्रकरण में उत्तरप्रदेश सरकार की मदद की थी। वे उत्तरप्रदेश क्रीमी लेयर कमेटी, उत्तरप्रदेश पर्सनटेज फिक्सेशन कमेटी, उत्तरप्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग, तत्कालीन योजना आयोग के ‘दसवीं पंचवर्षीय योजना में ओबीसी के सशक्तिकरण‘ पर कार्य समूह और योजना आयोग के आंकलन व पर्यवेक्षण प्राधिकरण के सदस्य रहे हैं। वे विश्व बैंक, यूनिसेफ और यूनेस्को की अनेक परियोजनाओं में परामर्शदाता रहे हैं। उन्होंने ओबीसी पर तीन पुस्तकों का लेखन/संपादन किया है

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