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जानें बहुजनों की हत्या और अपमानित करने वाले राम को  

ब्राह्मणवाद ने अनार्यों पर आर्यों और बहुजनों पर द्विजों के वर्चस्व की स्थापना के लिए रामायण का मिथक गढ़ा। इस मिथक का उद्देश्य इतिहास के विकृत प्रस्तुति के माध्यम से आर्यों और द्विजों की श्रेष्ठता की स्थापना करना है। रामायण और उसके पात्रों का विश्लेषण कर रहे हैं, ईश मिश्र :

पुराणों के इतिहासीकरण के निहितार्थ   

(भारतीय इतिहास, विशेषकर प्राचीन इतिहास को दुबारा लिखने के लिए भारत सरकार ने एक 12 सदस्यीय कमेटी बनाई है। प्राचीन भारत का इतिहास नए सिरे से लिखवाने के पीछे मंशा क्या है। इस विषय पर हम एक श्रृंखला के रूप में कई लेख पूर्व में प्रकाशित कर चुके हैं। इस कड़ी में हम दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक ईश मिश्र का का दूसरा लेख प्रकाशित कर रहे हैं।)

ब्राह्मणवाद या वर्णाश्रमवाद के विचारकों ने वर्णाश्रम व्यवस्था की अमानवीय विसंगतियों को छिपाने के लिए इतिहास को मिथकों और दैवीयता से आच्छादित कर पेश किया। पुराण इतिहास का मिथकीकरण है, इसलिए पुराण से इतिहास समझने के लिए उसका अमिथकीकरण करना पड़ेगा, यानि उसके दैवीयता के आवरण को चीरकर उसमें छिपे यथार्थ को उजागर करना पड़ेगा। इनका कालखंड निर्धारण भी मिथकीय है, देश-काल के परे।

रामायण का त्रेता युग

जैसा कि ऊपर बताया गया है कि ब्राह्मणवादी इतिहासबोध का कालखंड विभाजन भी मिथकीय है। इंसानों की खरीद-फरोख्त (दास व्यापार) की खुली बाजार वाला सतयुग कब और कैसे रामायण के त्रेता युग में बदला? विश्वामित्र दोनों युगों में हैं। क्या हरिश्चंद्र-विश्वामित्र कहानी दोनों युगों की संक्रमणकालीन है? कहानी तो सुविदित है। राजा हरिश्चंद्र सपने में साधू के छद्मभेष में विश्वामित्र को राज-पाट दक्षिणा दे चुकने के बाद, जागृत अवस्था में दक्षिणा के लिए खुद और बीवी को दास बाजार में बेच देते हैं? दक्षिणा के महत्व को रेखांकित करने वाली इस कहानी के निहितार्थ में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है। रामायण के त्रेता युग के परशुराम द्वापर के महाभारत काल में भी पाए जाते हैं। क्या रामायण और महाभारत के रक्तपातों के बीच महज 50-100 साल का फर्क है या ‘मातृहंता’ परशुराम की आयु हजारों साल थी?

अपने गुरू वशिष्ठ के कहने पर ध्यान में लीन शंबूक का सिर कलम करता राम

ऋग्वैदिक साहित्य में रामायण के दो चरित्र ही मिलते हैं, विश्वामित्र और वशिष्ठ। सप्त-सिंधु (सिंधु, पंजाब की पांच नदियों और सरस्वती नदी का इलाका)  में रहने वाले ऋग्वैदिक आर्य जनों (कबीलों) में बंटे थे[1]। विश्वामित्र भरत कबीले के मुखिया (राजा) दिबोदास के पुरोहित थे। कबीलों में पुरोहित का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि उसके बहुत समय बाद के बुद्धकाल के भी बाद लिखे गए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रधानमंत्री, मुख्य सेनापति तथा युवराज के अलावा राज्य के चौथे सर्वाधिक (48,000 पण) वेतनभोगियों में चौथा पद मुख्य पुरोहित का है[2]। दिबोदास के बाद उसके पुत्र ने विश्वामित्र की जगह वशिष्ठ को पुरोहित नियुक्त कर दिया। विश्वामित्र ने कुपित होकर 10 कुटुंबों के मुखियों (राजाओं) को लेकर सुदास के कबीले पर हमला कर दिया, जिसमें सुदास विजयी हुआ तथा समझौते में वशिष्ठ और विश्वामित्र दोनों ही भरत जन के पुरोहित बन गए। ऋग्वेद के 7वें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इस युद्ध से यह पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। दसराज्ञ ‘युद्ध’ नाम से वर्णित यह युद्ध पंजाब में परुष्णि (रावी) नदी के पास हुआ था[3]। कहने का मतलब रामायण या तो ऋग्वैदिक काल के पहले का ग्रंथ है या उसके बाद का। पहले का नहीं हो सकता क्योंकि उसके पहले सिंधु घाटी की नगरीय हड़प्पन सभ्यता के लोगों को लिपि ज्ञान था, जिसका पाठ अभी तक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। वैसे भी हमारे ऋग्वैदिक पशुपालक पूर्वज नगरीय सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते थे। इंद्र का दूसरा नाम था पुरंदर – नगर विध्वंसक। वे आज की अय़ोध्या से अपरिचित थे, क्योंकि उनकी दुनिया सप्तसिंधु तक सीमित थी। पुरातात्विक तथा साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर ज्यादातर इतिहासकार वैदिक काल को 3000-1000 ईसा पूर्व का दौर मानते हैं। सरस्वती के सूखने के बाद उनके वंशज पूर्व की तरफ बढ़े और बुद्ध के समय तक गंगा घाटी और उसके भी पूर्व फैलते गए।

2017 में दशहरा के दौरान यूपी सरकार ने हेलीकॉप्टर में कराया था राम, लक्ष्मण और सीता को हेलीकॉप्टर की सवारी, बताया था पुष्पक विमान

 

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सुविदित है कि ऋग्वैदिक आर्य प्रकृति पूजक थे। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का कोई जिक्र नहीं मिलता, विष्णु ही नहीं थे तो अवतार की बात का सवाल ही नहीं उठता। राम ही नहीं तो रामायण कहां से आता, विचार तो वस्तु का ही अमूर्तीकरण होता है। शासन शिल्प पर कालजयी ग्रंथ अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य का काल चौथी-तीसरी शताब्दी ईसापूर्व है। वे बहुत सुव्यवस्थित तथा अनुशासित लेखक थे। अर्थशास्त्र में किसी भी विषय अपनी राय देने के पहले उस समय तक की अन्य चिंतनधाराओं के विचारों का वर्णन करने के बाद लिखते हैं, “नेस्ति कौटिल्य”, यानि यह बात कौटिल्य की नहीं है। फिर उन विचारों के विश्लेषण के साथ अपनी राय देते हैं और लिखते हैं, “इति कौटिल्य”, यानि यह कौटिल्य के विचार हैं। अर्थशास्त्र में न तो रामायण या महाभारत का कोई जिक्र नहीं है, न ही उनके किसी पात्र का।

पश्चिम बंगाल में रामनवमी के दौरान आरएसएस कार्यकर्ताओं ने मचाया उत्पात

कौटिल्य वर्णाश्रम धर्म (व्यवस्था) के पक्के समर्थक थे तथा शासक के राजधर्म में प्रजा का ‘रक्षण-पालन’ तथा ‘योग-क्षेम’ सुनिश्चित करने के साथ धर्म यानि वर्णाश्रम धर्म का पालन सुनिश्चित करना भी शामिल है। लेकिन उपासना के देवताओं में वैदिक देवताओं, प्राकृतिक शक्तियों, का ही जिक्र मिलता है, श्रृष्टि के रचयिता, पालक तथा संहारक के रूप में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का नहीं। कहने का मतलब, त्रिमूर्ति की कल्पना ही कौटिल्य काल के बाद की है। त्रेता युग की ‘ऐतिहासिक’ प्राचीनता तथा उसमें ऋषि-मुनियों के यज्ञ आदि कर्मकांडों में बाधा डालने वाले राक्षसों के संहार के लिए, विष्णु के अवतार का दुराग्रह, नए-नए बने ‘प्राचीन’ मंदिर के साइनबोर्ड सा ही हास्यास्पद लगता है।

बुद्ध के पहले वैदिक तथा उत्तर वैदिक साहित्य में राज्य का कोई सिद्धांत नहीं मिलता। राज्य की उत्पत्ति और शक्ति तथा भूमिका का पहला (सामाजिक संविदा) सिद्धांत बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय में मिलता है। उससे पहले उससे पहले ऐत्रेय ब्राह्मण में देवताओं के बीच शक्तिशाली असुरों के विरुद्ध युद्ध के लिए इंद्र को राजा चुनने का विवरण मिलता है[4]। राज्य का सिद्धांत इसलिए नहीं मिलता क्योंकि यह कुटुंब की व्यवस्था से एक खास भूखंड पर प्रशासनिक के रूप में राज्य की संस्था की स्थापना का लंबा संक्रमण काल था। बुद्ध के समय तक महाजनपदों और काशी, कोशल, मगध राजतंत्रों तथा गंगा के उत्तर के क्षेत्र में उत्तरवैदिक गणतंत्रों की स्थापना के बाद राज्य एक संस्था के रूप में पैर जमा चुकी थी। वस्तु से ही विचार का जन्म होता है। यह बात बताने का मकसद महज इतना है कि जब राजतंत्र ही नहीं थे तो किसी राजवंश में कोई भगवान कैसे अवतार ले सकता है?

हाल ही में रामनवमी के मौके पर बिहार के भागलपुर में आरएसएस कार्यकर्ताओं ने जमकर हिंसा की। इस मामले में केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के पुत्र शाश्वत अर्जित चौबे को मुख्य अभियुक्त बनाया गया है।

जैसा कि अब तक बुद्धिजीवियों के एक बड़े तबके में सर्वमान्य संकल्पना बन चुकी है कि सुर-असुर संग्राम की पौराणिक कहानियां आर्य-अनार्य संघर्ष का ही मिथकीकरण है। वर्णाश्रमी (ब्राह्मणवादी) वैचारिक वर्चस्व और कर्मकांडों को पहली सशक्त चुनौती बुद्ध से मिली। बुद्ध का शिक्षण मिशन आमजन में एक नई चेतना भर रहा था जिससे ब्राह्मणवाद के अस्तित्व पर खतरा मंड़राने लगा। सम्राट अशोक के राजनैतिक संरक्षण और आर्थिक मदद से बौद्ध शिक्षा का त्वरित प्रसार हुआ तथा वैचारिक प्रतिस्पर्धा में बौद्ध ज्ञान और वाद-विवाद-संवाद जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली मुख्यधारा बन गयी। अंतिम बौद्ध मौर्य सम्राट की हत्या कर उनके ब्राह्मण सेनापति, पुष्यमित्र शुंग ने बौद्ध शिक्षकों, संस्थानों के विरुद्ध हिंसक अभियान चलाया। बौद्ध संस्थानों और साहित्य को इस कदर नष्ट किया कि राहुल सांकृत्यायन बहुत से संकलन खच्चरों पर लादकर लाना पड़ा। बौद्ध विरोधी हिंसक अभियान के बाद ब्राह्मणवादी वर्चस्व की वैधता के लिए महाभारत, रामायण तथा मनुस्मृति की रचना दूसरी सदी ईसापूर्व और दूसरी ईसवी सदी के बीच हुई। इसके विस्तार में जाने की न तो गुंजाइश है न जरूरत, मकसद महज यह इंगित करना है कि ब्राह्मणवाद ने वैचारिक वर्चस्व के लिए ज्ञान-विज्ञान की बौद्ध परंपराओं को नष्ट कर, शिक्षा पर एकाधिकार स्थापित कर पौराणिक कथाओं को ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठापित किया। जरूरत पुराणों के अमिथकीकरण से इतिहास समझने की है, जबकि  आरएसएस इतिहास के पुनर्मिथकीकरण के माध्यम से समाज को पौराणिकता के ब्राह्मणवादी कुएं में ढकेलने को कटिबद्ध दिखता है।

रामायण को अनुकरणीय इतिहास मानने के निहितार्थ

यहां रामायण की विषय वस्तु की व्यापक समीक्षा की न जरूरत है, न गुंजाइश। रामायण की घटना को किसी अज्ञात अतिप्रचीन काल की ऐतिहासिक मान लेने के निहितार्थ क्या हैं? हर रचना सोद्देश्य होती है। रामायण का उद्देश्य क्या है? यह नैतिकता और सामाजिक आचार-विचार के क्या आदर्श मानक पेश करता है? सुविदित है कि रामायण के नायक, मर्यादा पुरुष, राम का चरित्र सद्गुण का अनुकरणीय पर्याय बनाकर पेश किया जाता है। यह चरित्र किन आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है ? आइये, उसकी एक झलक देखते हैं।

  • राम के पुरुषार्थ का पहला दृष्टांत है सीता को भारोत्तोलन प्रतियोगिता में पुरस्कार के रूप में जीतना। रामायण एक ऐसी संस्कृति को महिमामंडित करता है, जिसमें स्त्री की स्थिति पुरस्कार की मूल्यवान वस्तु हो। यह एक मर्दवादी (पितृसत्तात्मक) प्रवृत्ति है।
  • राम के पिता दशरथ ने अपनी तीसरी शादी के लिए कैकेयी को भविष्य में किसी भी वरदान का ब्लैंक चेक दे दिया था, जिसके बदले राम खुशी-खुशी वनवास चल देते हैं, पिता की कमनिगाही पर सवाल किए बिना। सोचना  मानव-प्रजाति की विशिष्ट प्रवृत्ति है, जो मनुष्य को पशुकुल से अलग करती है। लेकिन रामायण का संदेश एक निरंकुश पितृसत्तात्मक समाज की हिमायत है जिसमें परिवार के मुखिया की बात ही कानून है। बाप की आज्ञा में चाहे कितने भी सामाजिक अहित छिपे हों, आदर्श बेटा वह है जो सोचे-समझे बिना आज्ञा का पालन करे। इसका एक अधोगामी निहितार्थ इस प्राकृतिक नियम का निषेध है कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, तभी इतिहास पाषाणयुग से साइबर युग तक पहुंच सका।
  • सूर्पनखा एक ऐसी संस्कृति की प्रतिनिधि है जहां स्त्रियां भारोत्तोलन प्रतियोगिता में पुरस्कार की वस्तु की बजाय स्वतंत्र इंसान है और प्रणय निवेदन कर सकती है। राम ऐसी संस्कृति के प्रतिनिधि हैं जिसमें स्त्री का प्रणय निवेदन इतना बड़ा नैतिक अपराध है कि उसका नाक-कान काट लिया जाता है। आरएसएस और भाजपा नेताओं के स्त्रीविरोधी वक्तव्य और कृत्य इसी प्रवृत्ति के द्योतक हैं।
राम के कहने पर शूर्पणखा का नाक काटता लक्ष्मण
  • यहां छल-कपट से बालि तथा रावण की हत्या से स्वार्थपूर्ति में छल-कपट को नैतिक मानक की तरह स्थापित किया गया है।
  • यदि रामायण को किसी अज्ञात, अति प्राचीन काल का इतिहास मान लें तो मानना पड़ेगा कि वह समाज घनघोर मनुवादी, सामंती संस्कृति का समाज था जिसमें स्त्री की आजादी या शिक्षा समाज के लिए घातक मानी जाती थी। राम लंका पर विजय पताका फहराने के बाद सीता से कहते हैं कि यह युद्ध उन्होंने एक स्त्री के लिए नहीं, रघुकुल की नाक के लिए लड़ा। पूरे विवरण में जाने की जरूरत नहीं है, अग्निपरीक्षा और गर्भवती सीता को घर से निकालने की कहानी सभी को मालुम है। इसका निहितार्थ यह है कि पराये पुरुष की संगति में बलात् समय बिताने वाली स्त्री अपवित्र ही बनी रहती है, आग पर चलकर पवित्रता का सबूत देने के बावजूद। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ऐसे ही आदर्शों के चलते हमारे समाज में शर्मसार बलात्कारी नहीं बलात्कृत को किया जाता है, अपराधी का नाम नहीं छिपाया जाता, पीड़िता का छिपाया जाता है। यह आदर्श मर्दवादी पूर्वाग्रहों को ही मजबूत करता है।
  • यदि इसे ऐतिहासिक समाज मान लें तो यह अमानवीय हद तक मर्दवादी, वर्णाश्रमी, मनुवादी या एक शब्द में ब्राह्मणवादी, सामंती संस्कृति का समाज था, जिसमें न महज स्त्रियों के शिक्षा के प्रयास सबसे भयानक अपराध थे बल्कि शूद्रों के भी। शंबूक की कहानी सबको पता है, जन्मना शूद्र हो तपस्या से ज्ञानार्जन करना चाहते थे। मर्यादा पुरुषोत्तम राजा को शूद्र का ज्ञानार्जन का प्रयास इतना खतरनाक लगा कि हनुमान या लक्ष्मण को उनकी हत्या करने भेजने की बजाय स्वयं उनका सर कलम करने निकल पड़े। इस हत्या को इतना पुनीत माना गया कि देवताओं ने फूलों की वर्षा की।  शूद्रों-अतिशूद्रों यानी बहुजन समाज को इससे क्या संदेश मिलता है ?

इस प्रकार हम पाते हैं कि ब्राह्मणवादी वर्चस्व के प्रमुख आधार रहे हैं: जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण तथा इतिहास का पौराणिक मिथकीकरण। इतिहास ने दोनों का भंडाफोड़ कर दिया है और बहुजनों ने मिथकों वैकल्पिक व्याख्या करना शुरू कर दिया है। संघ समर्थित केंद्र सरकार द्वारा इतिहास के पुनर्मिथकीकरण का प्रयास, चरमराते ब्राह्मणवाद की बौखलाहट की परिचायक है तथा  बुझने के पहले दीये की लपट सी।

[1] राहुल सांकृत्त्यायन, वोल्गा से गंगा, किताब महल, 1974.

[2] अर्थशास्त्र

[3] राहुल सांकृत्यायन उपरोक्त

[4] आर,एस. शर्मा आस्पेक्ट ऑफ ऑडियाज एण्ड इंस्टीट्यूशन इन एनशियन्ट इंडिया. मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1959, पृ. 63-76


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लेखक के बारे में

ईश मिश्रा

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में पूर्व असोसिएट प्रोफ़ेसर ईश मिश्रा सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहते हैं

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