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कैसे करें दलित, आदिवासी और ओबीसी अपने मिथकों का रचनात्मक इस्तेमाल?

वर्तमान में मिथकों को लेकर राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष कई दृश्य प्रस्तुत कर रहा है। एक तरफ आरएसएस हिन्दू मिथकों के सहारे द्विजों के वर्चस्व में वृद्धि करने का प्रयास कर रहा है। वहीं बहुजनों में भी अपने मिथकों के प्रति चेतना बढ़ी है। मूल सवाल यह है कि वर्तमान में मिथकों का रचनात्मक इस्तेमाल बहुजनों द्वारा कैसे किया जा सकता है? बता रहे हैं प्रेमकुमार मणि :

संवाद मिथकों के औचित्य पर


[अप्रैल का महीना बहुजन दृष्टिकोण से बहुत खास है। इस महीने दो बहुजन नायकों जोती राव फुले (11 अप्रैल) और आंबेडकर (14 अप्रैल) की जयंती है।  फारवर्ड प्रेस पिछले दो वर्षों से अप्रैल महीने को ‘फुले-आंबेडकर महीना’ के रूप में मनाता रहा है। इस वर्ष भी हमने ‘फुले-आंबेडकर महीना’ मनाने का निर्णय लिया। इस महीने में हमने इन दोनों नायकों के व्यक्तित्व, कृतित्व और विचारों पर विभिन्न लेखों के साथ विशेष तौर मिथकों के प्रति इन नायकों के नजरिये पर केंद्रित करने का निर्णय लिया है। इस क्रम में हम संबंधित विषयों पर लेख प्रकाशित करेंगे। इसकी शुरूआत हम प्रख्यात चिंतक व साहित्यकार प्रेमकुमार मणि के लेख से कर रहे हैं। प्रस्तुत लेख में उन्होंने मिथकों के औचित्य पर विचार किया है – संपादक ]

जोती राव फुले और डॉ. आंबेडकर

कुछ साल पूर्व महिषासुर प्रसंग को एक लेख के माध्यम से जब मैंने उठाया था, तब कुछ मित्रों का कहना हुआ था कि इन पौराणिक प्रसंगों को रेखांकित अथवा महिमामंडित कर मैं एक सामाजिक विभ्रम विकसित कर रहा हूँ। उनका कहना था, कुल मिला कर इससे सामाजिक प्रतिगामिता को बल मिलने का खतरा है। इस पवित्र चिंता में जो लोग शामिल थे, उनका मैं सम्मान करता रहा हूँ। निश्चय ही उनकी सोच में कोई चालाकी या कुंठा नहीं थी। उनका दोष बस यह था कि उन्होंने इस विषयक पारम्परिक सोच को बिना किसी विमर्श के चुपचाप रख दिया था। उन्हें आशंका थी कि इन प्रसंगों पर जोर देने से प्रतिगामी सामाजिक शक्तियां खुश होंगी कि उन्हें इसके प्रतिकार के बहाने पौराणिकता को विमर्श के केंद्र में लाने का अवसर मिल जायेगा। लेकिन यह हुआ नहीं। ‘महिषासुर’ लेख लिखे जाने के एक दशक बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के एक समूह ने इसके पोस्टर जारी किये और महिषासुर दिवस का आयोजन कर एक सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत की। फिर तो लगभग पूरे देश में इसे लेकर एक वैचारिक सरगर्मी दिखी; कई दफा तो उफान भी प्रदर्शित हुए, और फरवरी 2016 में बात संसद तक तक पहुंची, जहां इसे लेकर दक्षिणपंथी घराने की एक देवीनुमा मंत्री ने आपा खो दिया। सामाजिक प्रतिगामी शक्तियां, जैसा कि मेरे काबिल मित्रों को आशंका थी, खुश नहीं हुईं, विचलित हुईं। अंततः बेनकाब हुईं। मुझे यह महसूस हुआ निशाना सही जगह पर लगा था। मिथकों के मायाजाल को, हम उसकी समान्तर व्याख्या से अंशतः ही सही ध्वस्त करने में  सफल हुए थे। दुर्गा का पूजनीय मिथ विखंडित हो, बहुतों के लिए विवादित हो चुका था। इस कथा को लेकर समान्तर विमर्श आरम्भ हो चुके थे। कमोवेश, हम यही करना चाहते थे। पूजा को विमर्श में तब्दील करना हमारा ध्येय था। इतिहास और पौराणिकता को निरंतर विमर्श के दायरे में होना चाहिए। इससे उनका परिमार्जन होता रहता है। इसके अभाव में वे मर सकती हैं और अधिक खतरनाक हो सकती हैं।

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मिथ क्या हैं? और मौजूदा समय में हमें उन्हें किस प्रकार देखना-समझना चाहिए। क्या यह संभव है कि हम इसे नज़र अंदाज़ कर दें? क्या ऐसा करना समाज के लिए संभव हो सकेगा? और यदि नहीं तो हमें इस प्रसंग में क्या और कैसे कुछ करना चाहिए?

अंग्रेजी का मिथ हिंदी में परिवर्तित होकर मिथक हो गया है। इसका श्रेय संभवतः हजारी प्रसाद द्विवेदी को है। यह रूप हिंदी में अपना लिया गया है। लेकिन इसके समान्तर इसके लिए पौराणिकता शब्द का भी खूब इस्तेमाल होता है। पौराणिक कथाएं वे हैं जिनके कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं,या हैं भी तो बहुत कमजोर। इनकी निर्मिति तथ्यों से कम, भावना से अधिक होती है। इसीलिए लोगों की अपेक्षा होती है कि इन्हे तर्कातीत समझा जाय। ये कथाएं मानव-मन की विलक्षण कल्पनाशीलता प्रदर्शित करती हैं और हमें अंतहीन अतीत से जोड़ कर रखना चाहती हैं। पिछड़े और आदिवासी समाजों में इन कथाओं की कुछ और ही रंगत होती है। इतिहास और मिथक यहां गड्ड-मड्ड हुए रहते हैं। बाज़ दफा तो इन समाजों ने समकाल के इतिहास को भी पौराणिकता में बदलने की कोशिश की। जैसे बिरसा, गांधी या भगत सिंह को किंवदंती बना कर उन्हें दैवीय रूप देने की भरसक कोशिश की गयी। यहीं से पौराणिकता का सृजन होने लगता है। जिन समाजों का रिश्ता प्राचीन सभ्यताओं से है, जैसे कि हमारे भारतीय समाज से, वहां की पौराणिकता भी उतनी ही प्राचीन और इसलिए जटिल है। इनके अध्ययन हमें हैरान करते हैं। डब्लू. जे. विल्किन्स की किताब ‘हिन्दू माइथोलॉजी’ हमें फुर्सत निकालकर पढ़नी ही चाहिए।

समुद्र मंथन पर आधारित एक पेंटिंग

मेरा मत है मिथकों को नकारने से काम नहीं चलेगा। इन कथाओं के माध्यम से समाज के वर्चस्व- प्राप्त तबके ने पूरे समाज पर प्रभाव बनाए रखने की संभव कोशिश की है। इसलिए जब कभी भी हम सांस्कृतिक प्रतिरोध की बात करते हैं तो इन कथाओं  की पुनर्व्याख्या की भी बात उठती है। उदाहरण के लिए हम पौराणिक कथा समुद्र मंथन की बात करें तो हम देखेंगें कि इसमें देव और दानव कौन हैं। इन्हे मौजूदा समाज में भी हम तलाश सकते हैं। उत्पादनकर्ता-मेहनतक़श दानव या असुर हैं, जो चुनौती भरे कार्य आज भी सम्पादित कर रहे हैं। वे धधकती भट्टियों और उबलते लोहे का सामना करते हैं, उन पर काबू पाते हैं और तय सांचों में ढाल देते हैं । पौराणिक जमाने में वे वासुकि नाग का फुफकारता मुख भाग पकड़े हुए थे। देव पूंछ  पकड़े हुए थे। आज कलम पकड़े हुए हैं। समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को देव हड़प लेते हैं और असुरों को जहर के अलावे कुछ नहीं मिलता। यह कथा शोषणचक्र की आदिम कथा को हमारे सामने प्रकट करती है। देव और असुर मौजूदा जमाने में पूंजीपति और मजदूर हैं।

कुछ वैसी ही कथा गणेश की है। गणेश को गणपति भी कहा जाता है। आज का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री  गणेश आधा जानवर (हाथी) है, आधा आदमी। इसी से मिलता-जुलता एक यूनानी देवता है चिरोन। इसका  आधा शरीर मनुष्य का है, आधा घोड़े का। मैकियावेली ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रिंस’ में राजकुमार को चिरोन से प्रेरणा लेने की सलाह दी है। (पृष्ठ 99 , पेंग्विन पेपर बैकसंस्करण) मैकियावेली की मान्यता थी कि राजकुमार जब राजा बनेगा तब उसे दो स्तरों पर काम करना पड़ेगा। पहला स्तर तो कानून का होगा, जो सभ्यजनों के लिए होगा। लेकिन दुष्टजनों के लिए केवल कानून से काम नहीं चल सकता। उनसे पशुबल से अर्थात पशुता के जैसे -कानून को ताक पर रख कर – लड़ना होगा। इसलिए राजकुमार को पूर्ण मनुष्य बनने की नसीहत नहीं दी जा सकती। उसमें पशुता की प्रचुर मात्रा (पचास प्रतिशत) होनी ही चाहिए। इसके बिना राजसत्ता नहीं चल सकती। इस तरह भारतीय गणेश और यूनानी चिरोन में साम्य है। दोनों में आधा हिस्सा पशु का है। गणेश की पशुता की इस व्याख्या पर कुछ लोग आनंदित होने के बजाय चिढ सकते हैं। लेकिन मैं तो गणपति का मिथ गढ़ने वाले समाज की प्रशंसा करना चाहूंगा, जिसने इतने प्रतीकात्मक ढंग से इस देवता को गढ़ा।

कहते हैं वैज्ञानिक आइंस्टाइन और कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर एक बार मिले थे। उनके बीच मिथकों पर बात हुई। आइंस्टाइन ने कवि से भारतीय मिथकों के बारे में जानकारी ली। तुरंत बाद वह कवि को बतलाने लगे कि यदि ऐसा है तब भारतीय समाज रचना और वहां की सोच को ऐसा होना चाहिए। कवि को आश्चर्य हो रहा था। लेकिन आइंस्टाइन ने बतलाया कि आपने जिन मिथकों की बात की वह ऐसा समाज ही रच सकता है। उन दोनों दिग्गजों  की वार्ता का यह किस्सा हमारे एक शिक्षक ने सुनाया था। पूरा ब्यौरा हमने नहीं देखा है। लेकिन अनुमान करता हूं, यह दिलचस्प होगा।

हिन्दू या भारतीय पौराणिकता मोटे तौर पर दो हिस्सों में विभाजित किये जा सकते हैं। कुछ कथाएं तो ऐतिहासिकता का दावा नहीं करतीं, लेकिन कुछ करती हैं। जैसे देव-दानवों की कथाएं ऐतिहासिकता का दावा नहीं करतीं, लेकिन राम-कृष्ण की करती हैं। कुछ मामलों में  वे ‘साक्ष्य’ भी देती हैं। कुल लोग रामेश्वर सेतु, रामजन्मभूमि या कृष्णजन्मभूमि जैसे कुछ तथाकथित साक्ष्यों का दावा तो करते ही हैं। ऐसे में इन्हें पूरी तरह नकारना उचित नहीं होगा। यूरोप ने रेनेसां और प्रबोधन काल में माइथोलॉजी के पूरे ढांचे को अपनी बौद्धिकता से बलपूर्वक नकार दिया था। बीसवीं सदी में लेवी स्ट्रॉस जैसे कतिपय विद्वानों ने नकारने की इस प्रवृति की आलोचना की। उन्नीसवीं सदी के मशहूर भौतिकवादी दार्शनिक-चिंतक कार्ल मार्क्स स्वयं मिथक कथाओं से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने खुद को एक पौराणिक पात्र ‘प्रोमेथ्युस’ के रूप में रखना पसंद किया, जिसने स्वर्ग से आग चुरा कर पृथ्वी पर लाने की कोशिश की थी। 

राम के मिथक पर आधारित एक पेंटिंग। इस पेंटिंग में अपने गुरू वशिष्ठ के कहने पर ध्यानरत शंबूक की हत्या करता राम

आज भारत का बहुजन मेहनतक़श तबका जब अपनी पौराणिकता की खोज करता है, तब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक आवश्यक सांस्कृतिक कार्य में लगा है। उसके इतिहास का कुछ पता नहीं है। उनके नायकों के नाम धाम नष्ट कर दिए गए हैं। वे लोकगीतों और दंतकथाओं में विरूपित अंदाज़ में विद्यमान हैं। जोती राव फुले ने इन्ही पुराकथाओं में से बलिराजा को ढूंढ़ निकाला था। ब्राह्मणवादी व्याख्या से विकृत किये गए रूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बलिराजा की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आंबेडकर ने अपनी किताब ‘शूद्र कौन थे’ में सिंधु घाटी की सभ्यता से सुदास को निकाला और पौराणिक कथाओं के घटाटोप में शूद्रों के इतिहास के सूत्र ढूंढ़ निकाले। बहुजन जनता शम्बूक, सीता, हनुमान और एकलव्य के नए अर्थ ढूंढ़ रही है। उसे इस बात पर रंज होने का अधिकार है कि इस लोकतान्त्रिक जमाने में भी खेल के शीर्ष पुरस्कार का नाम अर्जुन के नाम पर क्यों है, एकलव्य के नाम पर क्यों नहीं? अर्जुन और एकलव्य की कथा एक ही महाकाव्य में है और यह भी वहीं है कि एकलव्य के साथ छल हुआ था। उसका अंगूठा काट लिया गया था, अन्यथा वह अर्जुन से बड़ा धनुर्धर था। इन कथाओं की नयी व्याख्या को हम भला कैसे विराम दे सकते हैं।

लेकिन इन सबका अभिप्राय यह भी नहीं है कि पौराणिकता में हम डूब जाएं। मिथकों का रचनात्मक इस्तेमाल कोई चेतना संपन्न समाज ही कर सकता है। इसका कितना और कैसे इस्तेमाल हो, यह हमें तय करना होगा। मिथकों का बेजा इस्तेमाल खतरनाक परिणाम भी दे सकता है। यह अकारण नहीं है कि भारतीय समाज के मुख्य धारा के लोग विज्ञान और तकनीक का विकास करने के बजाय समाज के कमजोर तबकों पर सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के ख्याल से राम जन्मभूमि जैसे मामलों में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। प्रश्न यह है कि रामकथा का वर्चस्ववादी-ब्राह्मणवादी पाठ ही क्यों स्वीकार किया जाय। उसके जनतांत्रिक समन्वित पुनर्पाठ की कोई सूरत क्यों न तय की जाय।


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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