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किन कारणों से पिछडे हैं ओबीसी?

मंडल आयोग की अनुशंसाएं लागू होने के 25 वर्षों के बाद भी ओबीसी के हिस्से में मात्र 12 प्रतिशत नौकरियां आई हैं। पहले तो 52 प्रतिशत को सिर्फ 27 प्रतिशत आरक्षण मिला और उसे भी व्यवहार में 12 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया। यह क्यों और कैेसे हुआ, बता रहे हैं श्रवण देवरे :

(मंडल युग राष्ट्रीय विचार परिषद व सत्यशोधक प्रबोधन महासभा,महाराष्ट्र के तत्वावधान में पुणे के आजम कैम्पस में मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू होने के रजत  समारोह के मौके पर मराठी लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता श्रवण देवरे के विस्तृतअध्यक्षीय संबोधन का संपादित अंश  हम प्रस्तुत कर रहे हैं। यह भाषण मुद्रित रूप में श्रोताओं को वितरित भी किया गया था। इसे स्वतंत्रता मिलने  से लेकर आपातकाल लागू होने तक, आपातकाल के बाद से लेकर मंडल कमीशन लागू होने  तक और मंडल कमीशन के बाद यानी तीन खंडों में हम प्रकाशित करेंगे। प्रस्तुत है पहला खंड)

14 अप्रैल 2016 को महाराष्ट्र के जलगांव के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय के सभागार में आंबेडकर जयंती के एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। मैं वक्ता के रूप में आमंत्रित था। उस समय तात्यासाहब महात्मा जोती राव फुले की 125वीं जयंती समारोह भी मनाया जा रहा था। भारतीय समाज के दोनों महानायकों को एक साथ याद करने का अवसर था। कार्यक्रम सवेरे होना था। इसलिए मुझे एक दिन पहले ही जाना पड़ा। पनाह ‘सत्यशोधक ओबीसी परिषद’ के जलगाँव जिला उपाध्यक्ष आयुष्मान राजेंद्र सपकाले जी ने दी। वह कई बार पूर्व में भी वे अनुरोध कर चुके थे। सुबह में उनके परिवार के साथ चर्चा हुई। उनका बेटा पढ़ाई अधूरी छोड़कर अपना पारंपरिक बाल काटने का जातिगत-व्यवसाय कर खुश लग रहा था। मैंने उससे पूछा कि तुमने अपनी पढ़ाई अधूरी क्यों छोड़ दी? जवाब मिला कि पिताजी के रिटायर होने के बाद घर कैसे चलता? इसके साथ ही उसने जवाब के रूप में ही एक और सवाल किया। पढ़ाई पूरी करने के बाद कहीं नौकरी मिलेगी?’ यह सुनकर मेरी बोलती ही बंद हो गई।

जोती राव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवंबर 1890)

एक ओर कम पढ़ा-लिखा ओबीसी देश के सर्वोच्च पद पर बैठकर देश पर ही नहीं, पूरी दुनिया में अपने प्रभाव का दावा कर रहा है और दूसरी ओर अनगिनत ओबीसी सिर्फ रोजी-रोटी के लिए अपने जातिगत-व्यवसाय की शरण ले रहे हैं। यह है मंडल आयोग के लागू होने की रजत वर्ष में ओबीसी की स्थिति।

तामिलनाडू के आरटीआई कार्यकर्ता मुरलीधरन जी ने केंद्र सरकार के लगभग सभी विभागों से जानकारी मांगी थी और वह जानकारी 27 दिसंबर 2015 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने पहले पन्ने पर छापी।[1] इस जानकारी के अनुसार मंडल आयोग की अनुशंसायें लागू होने के बाद के 25 वर्षों में ओबीसी के हिस्से में मात्र 12 प्रतिशत नौकरियां आई हैं। यानी जिस ओबीसी की जनसंख्या 52 प्रतिशत से भी अधिक है, उन्हें सिर्फ 27 प्रतिशत आरक्षण और उसमें से भी उसे सिर्फ 12 प्रतिशत ही प्राप्त होने देना साजिश ही तो है।

वैसे यह 12 प्रतिशत संख्या भी धोखाधड़ी है। मंडल कमीशन की पहली सिफारिश लागू होते ही देश की सभी सरकारों ने तुरंत एक काम हाथ में लिया। सरकारों ने नौकरियों में कुल ओबीसी की संख्या इकट्ठा करने का काम शुरू किया। जबकि 1993 से पहले ओबीसी के लोग जो नौकरी में आए थे उन्होंने अपनी मेरिट के आधार पर नौकरी हासिल की थी और उन्होंने किसी आरक्षण का लाभ नहीं लिया था। जाहिर तौर पर उस समय उन्हें ओबीसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं थी। केंद्र और सभी राज्यों के सरकारों ने ऐसे सभी ओबीसी कर्मचारियों को तुरंत जाति का प्रमाणपत्र दे दिया।

1983 में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को मंडल कमीशन की रिपोर्ट सौंपते बी. पी. मंडल

यह भी कम हास्यास्पद नहीं था। 1993 के बाद ओबीसी प्रमाणपत्र को प्राप्त करने के लिए लोगों को 10 से 50 हजार रूपये रिश्वत देनी पड़ रही थी, वह प्रमाणपत्र पूर्व से नियोजित ओबीसी कर्मचारियों को बिना किसी देरी के प्रदान ही नहीं किये गये बल्कि उनके घरों और दफ्तरों में भेजवा दिया गया। इतनी जल्दबाजी की वजह थी। सरकारें प्रशासन में ओबीसी का प्रतिशत अधिक दिखाना और ओबीसी का आरक्षण कम करना चाहती थी। इसलिए भले ही 12 प्रतिशत ओबीसी को मंडल आयोग की सिफारिशों का लाभ हुआ, ऐसा दावा कागज़ पर दिखाया जा रहा हो, पर वह सच नहीं है। अनेक विशेषज्ञों के मतानुसार पिछले 25 वर्षों में सिर्फ 4.5 प्रतिशत ओबीसी को ही मंडल आयोग की अनुशंसाओं का लाभ हुआ है, उसमें भी मराठा, जाट, पटेल जैसे झूठे ओबीसी बहुत हैं। उन्हें छोड़ दिया जाए तो माली किसान जातियों से लेकर तो बलुतेदार बढ़ई-नार्इं-धोबी और धनगर (चरवाहे)-पाथरवट-वडार (पत्थरतोड़) तक के ओबीसी को जो लाभ हुआ वह न के बराबर समझा जाना चाहिए; क्योंकि हजारों रुपये देकर जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने से लेकर कर्इं बाधाओं का सामना कर नॉन-क्रीमीलेयर प्रमाणपत्र प्राप्त करने तक हर पग पर षडयंत्र है। ओबीसी युवा इसी प्रकार के अनगिनत षड्यंत्रों के शिकार हुए हैं और इसीलिए वे आत्मा से बद्दुआ निकालते हुए कहते हैं कि पढ़ाई करने के बाद कहीं नौकरी मिलने वाली है?

1 जनवरी 1979 को भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने किया था मंडल कमीशन का गठन

एससी एवं एसटी वर्ग की जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण संविधान लागू होने के साथ ही प्राप्त होने से, उसे लागू करने के कानून कड़े होने और इस कानून अमल में लाने के लिए स्थापित किए गए आयोगों के अधिकार संपन्न होने के कारण सकारात्मक परिणाम आये। हालांकि तब भी वे साजिशों के शिकार हुए। उन्हें भी जितना लाभ मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका है। लेकिन उनके मुकाबले ओबीसी वर्ग षडयंत्र का अधिक शिकार हुआ है।

तालिका बंबई राज्य में जाति और साक्षरता (प्रतिशत)

क्र. सं.जाति सन 1901सन 1911सन 1921सन 1931
1मांग0.100.400.50 1.00
2महार0.300.901.602.90
3लोहार2.503.103.60 7.50
4माली1.201.703.904.80
5कुनबी2.503.104.607.60
6तेली1.502.303.605.20
7 ब्राह्मण-- 40.3055.30

स्त्रोत भारत की जनगणना

आइये अब इस साजिश को विस्तार से समझते हैं। विश्व में हर युगांतर के बाद विशिष्ट मानव-समूह की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह से बदलती रहती है और उसके कारण उसकी पहचान भी बदल जाती है। लेकिन मनुवादियों के वर्चस्व वाले भारत में यह बदलाव वंचित तबकों के सापेक्ष बहुत अधिक दृष्टिगोचर नहीं होता है। जबकि यूरोप में सामंतवाद के खिलाफ’ क्रांति हुई और गुलामी प्रथा खत्म हुई। गुलामी करने वाले वर्ग का नए शासक-शोषक वर्ग में विघटन होने पर इसे आमूलचुल परिवर्तन माना गया। फिर औद्योगिक क्रांति हुई और सामंती व्यवस्था के शोषित श्रमिक वर्ग का विघटन होकर संपूर्ण परिवर्तन हुआ। जिन देशों में साम्यवादी क्रांति हुई और वहां पूंजीवादी व्यवस्था का शोषित मजदूर वर्ग सत्ताधारी वर्ग बन गया, किंतु भारत के इतिहास में इतनी उथल-पुथल (एक बौद्ध क्रांति के सीमित प्रभाव को छोड़कर) दिखाई नहीं देती है।

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पिछले पांच हजार वर्षों में अपनी (वर्ण-जाति की) पहचान कोई भूलने को तैयार नहीं है। ब्राह्मण चाहे कितना ही भ्रष्ट और हीन हुआ हो तब भी वह एक पायदान भी नीचे उतरने के लिए तैयार नहीं है और शूद्र चाहे जितना पराक्रमी हो फिर भी उसे क्षत्रिय की श्रेणी प्राप्त नहीं हो सकती। शूद्र चाहे कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, उसे ब्राह्मण की श्रेणी में शामिल नहीं किया जा सकता है।

वर्णों का अंत करने वाली बौद्ध क्रांति के सर्वश्रेष्ठ समय में भी कोसल और मगध के राजा शिकायत करते दिखाई देते हैं, कि ब्राह्मण उन्हें शूद्र मानते हैं।[2] समय के साथ उत्पादन के साधन विकसित हुए और उत्पादन की पद्धतियां विकसित हुईं, किंतु उत्पादन-शक्ति और उत्पादन-संबंध वही रहे। बौद्ध क्रांति ने वर्ण-व्यवस्था नष्ट करने की क्रांति की, किंतु वर्ण-व्यवस्था के शूद्र वर्ण के मजदूर ही बाद में ‘श्रेणी’ के रूप में संगठित हुए और अगले पड़ाव पर यही श्रेणियां ‘बलुतेदार जातियां’ (भिन्न-भिन्न कुशलताओं के कारीगरों की जातियां) के रूप में उभर कर आई। अर्थात् बौद्ध धम्म उत्पादन शक्तियों का धम्म था और उत्पादन संबंधों का धर्म ब्राह्मणी रह जाने के कारण धम्म क्रांति सीमित रही। तब भी बौद्ध क्रांति के परिणामस्वरूप वर्ण-गुलामी से मुक्त हुए कारीगर-मजदूरों ने ‘श्रेणी’ में संगठित होकर सात गुना अधिक उत्पादन दिया, ऐसा हमें धर्मानंद कोसंबी बताते हैं।[3] तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में और सांस्कृतिक प्रबोधन के क्षेत्र में धम्मक्रांति ने जो छलांग लगाई वैसी छलांग यूरोप की औद्योगिक और साम्यवादी क्रांतियां भी नहीं लगा पाईं थीं। इन सभी क्रांतियों की प्रक्रिया में ओबीसी की हिस्सेदारी ज्यादा थी। आज के ओबीसी के पूर्वज रह चुके तत्कालीन कारीगरों की श्रेणियों ने अनगिनत विहारों को दिए गए दान आज भी बड़े-बड़े शिलालेखों में चमक रहे हैं।[4] बौद्ध क्रांति का एक बड़ा सैनिक रह चुका उपाली नार्इं आज के ओबीसी का प्रतिनिधि है। खुद सिद्धार्थ गौतम का शाक्य गण आज की माली जाति का पूर्वज है। ‘‘बारानी (वर्षा पर आश्रित) खेती करने वाले कुणबी, पशुपालन के साथ खेती करने वाले गड़रिया और बाग की खेती करने वाले माली’’, यह तीनों एक ही श्रमिक वर्ग (जाति) से आए हैं, यह हमें तात्यासाहब महात्मा जोती राव फुले बताकर गए हैं।[5] शाक्य और कोलीय गणों का झगड़ा नदी के पानी को लेकर था, तो शाक्य नदी के पानी से खेती सींचते थे, यह स्पष्ट है। आज भी शाक्य उपनाम धारण करने वाले अनेक माली परिवार उत्तर भारत में हैं।[6]

प्रत्येक युग में कुछ तात्कालिक परिवर्तन छोड़कर बहुत बड़े उथल-पुथल भरे बदलाव आए ही नहीं। ओबीसी समूह के विषय में ऐसा ही कहा जा सकता है। ओबीसी यह भारतीय संविधान द्वारा हाल ही में दी गई पहचान![7] स्थूल रूप से ओबीसी कैटेगरी की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है- ‘‘जिनका कृषि से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आजीविका  का संबंध हो और स्वयं के उत्पादन-साधन हो ऐसे ग्रामांचल के (स्पृश्य) श्रमिक वर्ण-जातियों का समूह याने ओबीसी प्रवर्ग है।’’ यह ओबीसी जातियों का प्रवर्ग एकरूप नहीं है, इसलिए यह संगठित नहीं होता, ऐसा काफी अध्ययनशील लोगों का खयाल है।[8] वैसे देखा जाए तो एससी, एसटी आदि कोई भी प्रवर्ग एकरूप नहीं है। उच्च जातियों का प्रवर्ग भी कहाँ एकरूप है? यह ब्राह्मण जाति भी कहाँ एकरूप है? किंतु इन भिन्न-भिन्न प्रवर्ग की जातियां अपने-अपने अंतर्गत हितसंबंधों के कारण एक-दूसरे के साथ संघर्षमय सह-अस्तित्व में हैं। उच्च जातियां सत्ता में होती हैं और उनके हित संबंध हमेशा ज्यादा खतरे में होते हैं, क्योंकि उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ होता है। इसलिए उच्च जातियों का प्रवर्ग अधिक मजबूत, संगठित और आक्रामक लगता है। लेकिन ओबीसी प्रवर्ग की बुनावट अलग ही कारण से मजबूत है। इसके दो कारण हैं, पहला प्राकृतिक आर्थिक हित-संबंधों की परस्परावलंबिता और दूसरा प्राकृतिक सांस्कृतिक एकता।

आरक्षण – बैकलॉग चार्ट

केन्द्रीय सरकार के 55 विभागों के वर्ग ए और वर्ग बी के पदों में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व (1.1.2013 की स्थिति में)

पदकुलओबीसीएससीएसटी
वर्ग ए 74,866 8,316 (11.11%) 10,434 (13.94%) 4,354 (5.82%)
वर्ग बी 1,88,776 20,069 (10.63%) 29,373 (15.56%) 12,073 (6.4%)

कृषि-केंद्रित आजीविका  के कारण उनके आर्थिक हितसंबंध एकदूसरे पर अवलंबित हैं। (1) बढ़ई-लुहार के बिना खेती के लिए हल नहीं मिलता और खेत में उपजने पर ही उसका मूल्य मिलता है और उपजीविका चलती है। ऐसी प्राकृतिक परस्परावलंबिता अन्य प्रवर्गों में नहीं है। (2) एससी और एसटी प्रवर्ग की बस्ती गाँव की सीमा से बाहर और पाटील-देशमुखों (क्षत्रिय ब्राह्मण या मुसलमान) की बस्ती गाँव के ऊँचे टीले (गढ़ी) पर या सुरक्षित हवेलियों में! गाँव की सीमा में सिर्फ ओबीसी जाति की गलियां एकदूसरे से सटकर सैंकड़ों सालों से घुलमिलकर सहजीवन जी रही है। बस्तियों (गलियों) की इस भौगोलिक निकटता के कारण उनके त्यौहार, उत्सव, सुख-दुःख के प्रसंग सैंकड़ों सालों से एकत्रित रूप से मनाए जा रहे हैं। खानदेश का उदाहरण ले तो कानबाई का उत्सव, रोट, भालदेव-बळीराजा और पित्तरपाट-श्राद्ध पक्ष आदि त्यौहार ओबीसी जाति के प्रवर्ग के सामूहिक त्यौहार हैं और वे प्रकृति से जुड़े होने के कारण ओबीसी जाति की सांस्कृतिक एकता सर्वाधिक पक्की है और इनकी सांस्कृतिक एकता से ही ब्राह्मणवादी छावनी डरती है। इस अंतश्चेतना में बस गए डर के कारण ब्राह्मण आज भी हर साल दशहरे के दिन बली राजा की प्रतीकात्मक हत्या करता है।[9] स्त्रोत: कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग की वार्षिक रिपोर्ट 2014-15

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यह ओबीसी प्रवर्ग हर युग में विद्रोही के रूप में जीता आया है। तात्यासाहब महात्मा जोती राव फुले जी के समय वह ‘शूद्र’ था और उन्होंने ‘सत्यशोधक’ बनकर ब्राह्मणी व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया। शिवाजी महाराज के समय उसने ‘शूर मावळा’ के रूप में तलवार हाथ में उठाई और ‘स्वराज्य’ की स्थापना कर विद्रोह किया। उससे पहले उसने ही ‘वारकरी’ बनकर मनु धर्म के विरुद्ध आध्यात्मिक क्रांति की। तंत्र, शाक्त, नाथ जैसे अनेक धर्म-पंथों की स्थापना कर उसने ब्राह्मणी धर्म को बार-बार चुनौती दी। बौद्ध क्रांति का सिपाही यही ओबीसी था। उस समय वह कारीगर के रूप में ‘श्रेणी’ नाम से संगठित हुआ और सात गुना ज्यादा ऊपरी उत्पादन कर बौद्ध क्रांति को मजबूत आर्थिक आधार इसी ओबीसी ने दिया।[10] यह ओबीसी सबसे पहले विद्यमान गौरवशाली सिंधु नाग और द्रविड़ संस्कृति का कर्मशील वारिस! कभी सिंधूजन, कभी द्रविड़, कभी नाग लोक तो कभी बलीजन ऐसी क्रांतिकारी पहचानवाला! इसी ओबीसी ने ही बली वंश के नेतृत्व में संगठित होकर भारत पर हुए विदेशी आर्य आक्रमणों को रोकने के लिए अनेक महायुद्ध किए।

विकासशील जाति-व्यवस्था में अस्पृश्यता की शुरूआत होने तक सभी मजदूर जातियां शूद्र और बलुतेदार यानी ओबीसी ही थीं। उन्नत हुए ओबीसी का ही राजा, सरदार या इनामदार बनता था और इनाम बर्खास्त होते ही उसका ह्रास फिर से शूद्र वर्ण (ओबीसी) में होता था।[11]

ऐसा यह शूर-वीर ओबीसी गौरवशाली परंपरा का सिपाही होकर भी आज एक ओर दुर्बल होकर मजबूर हो गया है।[12] और दूसरी ओर मोदी, लालूजी जैसे उसके प्रतिनिधि राजनीतिक सत्ता में अग्रसर हैं। ओबीसी का रजत-मंडल-कार्यान्वयन वर्ष में मूल्यांकन करना हो तो उपर्युक्त में से कौन-सा सत्य प्रमाण मानें? प्रगति हुई या अधोगति? क्या केवल मुट्ठीभर लोगों को सीमित राजसत्ता प्राप्ति से प्रगतिशीलता का आकलन हो सकता है?

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ओबीसी के रूप में उनकी ओबीसी कैटेगरी और उनके परिवार को क्या मिला, यह कष्टदायी प्रश्न है! देश स्वतंत्रता की दहलीज पर था तब दक्षिण के मद्रास प्रांत में स्वामी पेरियार के और उत्तर में त्यागमूर्ति चंदापुरी जी के नेतृत्व में ओबीसी आंदोलन शिखर पर पहुंच चुका था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी ने इन दोनों ओबीसी आंदोलनों को तोड़ने का काफी प्रयास किया। चंदापुरी जी को नेहरू जी ने दो बार और इंदिरा गांधी ने एक बार केंद्र में मंत्री पद देने का प्रयास किया, जिसे उन्होंने ठुकराया। छात्रावास की इमारत के निर्माण का बहाना बनाकर नेहरू जी ने पैसे देकर चंदापुरी जी को खरीदने का प्रयास किया; किंतु हर बार चंदापुरी जी का ओबीसी स्वाभिमान’ दृढतापूर्वक खड़ा रहा और ब्राह्मणी छावनी की ऐसी-तैसी कर दी। ‘साम, दाम, दंड, भेद’ इन तत्त्वों का इस्तेमाल किया गया। चंदापुरी जी को तो दो बार जान से मारने का प्रयास भी हुआ। आखिरकार डॉ. पंजाबराव देशमुख जी को केंद्र में मंत्री पद देकर उन्हें चंदापुरी जी से अलग किया और पंजाबराव जी का इस्तेमाल कर संपूर्ण देश के ओबीसी आंदोलन को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास नेहरू ने किया।

समाजवादी नेता आर. एल. चंदापुरी

स्वातंत्र्योत्तर समय में लोहिया ने चंदापुरी जी से गठबंधन करते ही नया युवा ओबीसी नेतृत्व देश के एजेंडा पर आ गया। चंदापुरी और पेरियार जी का देश के स्तर का आंदोलन, उनके बदलते लचीले पैंतरे और पेरियार स्कूल और चंदापुरी स्कूल में तैयार हुए ओबीसी नेता, इसके कारण बिहार, तमिलनाडू जैसे राज्यों में 1967 से ही ओबीसी मुख्यमंत्री होने की शुरूआत हो गई थी।[13] बनिया लोहिया ने 1959 में चंदापुरी जी से किया हुआ क्रांतिकारी  जाति का अंत करने वाला समझौता लिमये जैसे समाजवादी ब्राह्मणों ने नाकाम किया न होता[14] तो आज देश के चित्र में आमूलचुल परिवर्तन दिखाई दिया होता। समाजवादी ब्राह्मणों को आरएसएस-जनसंघ से गठबंधन करना प्राकृतिक लगा और ओबीसी चंदापुरी जी से अनुबंध युक्त दोस्ती करने में शर्म महसूस हुई, तो दोष जाति-व्यवस्था का ही कहलाएगा। बेचारे समाजवादियों को क्या दोष दें? और यह बेशर्मी उन्होंनेअपने इतिहास में बार-बार की है। उसके लिए उन्हें आज भी शर्म महसूस नहीं होती। इस बेशर्मी की पुनरावृत्ति उन्होंने तुरंत दस वर्षों के बाद पुनः की। 1977 में जनता पार्टी की सरकार मंडल लागू करने के कगार पर खड़ी थी और इन्हीं समाजवादियों ने फिर से खड़े होकर जनता पक्ष की सरकार गिरा दी।

1979 में मोरारजी देसाई सरकार गिराने के पीछे एकमात्र महत्त्वपूर्ण कारण था मंडल आयोग की रिपोर्ट! साथी एस.एम. जोशी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं- ‘‘पिछड़े वर्ग के संबंध में जनता पार्टी की सरकार ने ओबीसी नेताओं के आंदोलनों के बाद मंडल कमीशन गठित किया। पाँच सालों तक जनता पार्टी केंद्र में सत्ता में रहती तो मंडल आयोग की रिपोर्ट भी लागू हो गई होती।’’

आंबेडकर और पेरियार

केंद्र की जनता पक्ष की सरकार गिराने के लिए किस-किसने कैसे प्रयास किए इसका ब्यौरेवार वर्णन जोशी जी ने अपनी आत्मकथा में किया है। सभी संवैधानिक संस्था और व्यक्ति मोरारजी की सरकार गिराने के लिए जी जान से कोशिश कर रहे थे। खुद मोरारजी भी मजबूर थे। मानों सबकुछ तयशुदा! देश की पहली ओबीसी प्रभाव की केंद्र सरकार सिर्फ ढाई वर्षों में अपना मंडल आयोग लागू करने का ऐतिहासिक कार्य पूरा करने से पहले ही गिरा दी गई। उसके बाद गुजरात और बिहार के समान कई राज्यों में सरकारें सिर्फ ओबीसी आरक्षण के विरोध में गिरा दी गई। ये सरकारें संविधान के कलम 365 की आड़ लेकर, मनुस्मृति के श्लोक 4.22 का आधार लेकर गिराई गईं।[15] बाद में आई इंदिरा गांधी ने अपनी ओबीसी विरोधी नीति अधिक आक्रामक करते हुए कालेलकर आयोग की तरह ही मंडल आयोग को भी कचरे का डिब्बा दिखा दिया। किंतु ब्राह्मणी छावनी अधिक सतर्क हो गई थी। पिछले युद्ध की कामयाब रणनीति अगले जाति-युद्ध में चलेगी नहीं, इसका उन्हें अनुमान हो गया था। बदलती परिस्थिति में ओबीसी के रिपोर्ट और नेतृत्व को नजरअंदाज करना या दबाना संभव नहीं था। इसका आसान-सा कारण यह था, कि ओबीसी की बढ़ती जागृति के कारण नए युग का बलीराजा ब्राह्मणी छावनी के सामने कभी भी खड़ा हो सकता है, इसका विश्वास आरएसएस को हो गया था। चंदापुरी जी द्वारा बिहार में निकाला गया तीन लाख लोगों का मोर्चा देखकर ब्राह्मणी छावनी डर के मारे कांप गई थी। इस मोर्चा पर सीआरपीएफ के जवानों ने जो क्रूर हमला किया उसका नामकरण ‘दूसरा जालियाँवाला बाग कांड’ किया गया। जर्मन टीवी ने इस हमले का पूरा चित्रण किया है।[16] जगदेव प्रसाद कुशवाहा, ललई यादव जैसे क्रांतिकारी ओबीसी नेता काम कर रहे थे। तमिलनाडू में भी पेरियार के संगठन का सांस्कृतिक आंदोलन चल रहा था। चंदापुरी-स्कूल और पेरियार-स्कूल के ओबीसी नेताओं को प्रभावहीन करने के लिए आरएसएस ने नया दो सूत्री कार्यक्रम तैयार किया। पहला संघ-भाजपा में ही आक्रामक वैकल्पिक ओबीसी जाति के नेता निर्माण करना और दूसरा यह कि इन ओबीसी नेताओं को हिंदू लेबल लगाकर धार्मिक दंगों के काम में लगा देना! इंदिरा सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट अस्वीकार करते ही ओबीसी का आंदोलन पुनः तेज हुआ। इंदिरा जी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। ओबीसी आरक्षण के प्रश्न को नजरअंदाज करने के लिए उन्होंने महिलाओं को 33 प्रतिशत रिजर्वेशन की घोषणा की। इधर ब्राह्मणी छावनी का नेतृत्व करने वाले आरएसएस का दो-सूत्री कार्यक्रम जारी था, लेकिन ओबीसी के आंदोलन की तुलना में वह गतिमान नहीं हो रहा था। चंदापुरी जी ने तो ओबीसी रिजर्वेशन के लिए दूसरी आज़ादी के संघर्ष का आह्वान किया। तमिलनाडू में तो ओबीसी पक्ष की खुद के बलबूते मजबूत सरकार स्थापित हुई थी। ऐसी परिस्थिति में संघ-भाजपा के द्वि-सूत्री कार्यक्रम को अधिक गतिमान करने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री राजीव गांधी को ही मैदान में उतरना पड़ा। शाहबानो प्रकरण और बाबरी मस्जिद-राम मंदिर के दरवाजे खोलने का निर्णय, राजीव गांधी की यह दो कृतियाँ यानी आरएसएस के दो सूत्री कार्यक्रमों को गति देने का षड्यंत्र ही था।

संदर्भ :

[1] टाईम्स ऑफ इंडिया, 27 दिसंबर 2016, पृष्ठ संख्या 1

[2] सत्यशोधकमार्क्सवादी , दिसंबर -जनवरी, 1984-85, पृ.30

[3] शरद पाटील, जातिव्यवस्थाक सामंती सेवकत्व, खंड-२, पृ.92

[4] शरद पाटील, जातिव्यवस्थाक सामंती सेवकत्व, खंड-2, पृ.92

[5] महात्मा फुले समग्र वायय (मराठी), संपादक- धनंजय कीर, स.ग. मालशे, महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल, सुधारित तृतीय संस्करण, 1988, पृ.203

[6] पश्चिमोत्तर भारत में नैनपुरी, फर्रुखाबाद, ईटा ऐसे कर्इं गाँव हैं कि जहाँ शाक्य उपनाम लगाने वालों की संख्या हर गाँव में 30 से 60 प्रतिशत है और ये सभी शाक्य स्वयं को माली समझते हैं, ऐसी जानकारी सत्यशोधक गोलमेज परिषद के मान्यवर सदस्य गुरुनाम सिंग शाक्य ने हमें दी। अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल कहते हैं कि शाक्य गणों से लड़ने वाले कोलीय गणराज्य यह कुर्मी-कुणबियों के पूर्वसूरी हैं।

[7] भारतीय संविधान, अनुच्छेद 16 (4) और 341

[8] प्रा. विलास वाघ, प्रस्तावना, मराठा समाज का ओबीसीकरण और जाति-अंत की नीति, लेखक- प्रा. श्रावण देवरे, पृ.7

[9] महात्मा फुले समग्र वायय, संपादक- धनंजय कीर, स.ग. मालशे, महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल, सुधारित तृतीय संस्करण,1988, गुलामगिरी, अंग्रेजी प्रस्तावना, पाद टिप्पणी, पृ.76

[10] शरद पाटील, जातिव्यवस्थाक सामंती सेवकत्व, खंड-2, पृ.92

[11] सत्यशोधक मार्क्सवादी, दिसंबर-जनवरी, 1984-85, पृ.30-३1

[12] सामंती या अर्द्धसामंती व्यवस्था में आर्थिक मजबूरी का बदला फिर धार्मिक या वांशिक विद्रोह के द्वारा लिया जाता है, जिसका दुरुपयोग या सदुपयोग विद्रोह का नेतृत्व कौन कर रहा है इस पर तय होता है।

[13] सेकेंड फ्रीडम स्ट्रगल चंदापुरीज कॉल टू ओवरथ्रू ब्राह्मण रूल, मिशन प्रकाशन, मई 2003, पृष्ठ संख्या 100, 101 और 104

[14] वहीं

[15] डॉ.प्रदीप गोखले, विषमता का पुरस्कर्ता मनू, सुगावा प्रकाशन, पुणे, पृ.7

[16] सेकेंड फ्रीडम स्ट्रगल चंदापुरीज कॉल टू ओवरथ्रू ब्राह्मण रूल, मिशन प्रकाशन, मई 2003, पृष्ठ संख्या 29


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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