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लोहिया ने देखा था समावेशी, प्रगतिशील और आजाद भारत का सपना

भारत के भविष्य को संवारने के लिए राममनोहर लोहिया के पास एक ठोस खाका था। उनका सबसे बड़ा प्रयोजन जाति और पितृसत्ता-मुक्त भारत बनाना था। इस व्यापक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने आधुनिक और परंपरागत उपायों का बेहतर उपयोग करने का प्रयास किया ताकि लोग सामाजिक सशक्तीकरण और आथिक विकास के लिए गोलबंद हों

हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है – डॉ. राममनोहर लोहिया

एक इतिहासकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी के रूप  राममनोहर लोहिया के पास एक बहुआयामी परिप्रेक्ष्य था। उन्होंने अपने इस परिप्रेक्ष्य को समाज सुधार और राष्ट्र की उन्नति के संदर्भ में प्रस्तुत किया। जब हम समग्रता में विचार करते हैं, तो पाते हैं कि आजादी के बाद के भारत के भविष्य से जुडे़ व्यापक मुद्दों पर लोहिया की राजनीति ने  एक गहरा सरोकार प्रस्तुत किया पेश किया।  पश्चिम के पूंजीवाद के कड़े आलोचक, लोहिया अपने को ऐसा क्रांतिकारी मानते थे जिसने  मार्क्सवादी अंतर्दृष्टि और समाजवादी औजारों का इस्तेमाल सामाजिक समरसता और आत्मनिर्भरता के गांधीवादी नजरिये को प्राप्त करने के लिए किया। वे भारत की अखंडता के प्रति सजग और सतर्क थे लेकिन उन्होंने वैश्विक शांति और सहयोग की अपील भी की।  वह एक ऐसा आधुनिक भारत चाहते थे जो धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरपंथी सोच से दूर हो। हालांकि उन्होंने इस बात की भी आलोचना करने में  कोई हिचक नहीं दिखाई कि हमने पहले से ही अंग्रेजी भाषा के स्थापित दबदबे को स्वीकार कर लिया है।  इस स्थिति से बाहर आने के लिए और इसका  निदान करने के लिए लोहिया ने देशज भाषाओं के व्यापक रूप से प्रचार- प्रसार करने और अपनाने की हिमायत की। परंपरागत व्यवहार के सबसे बदत्तर रूप जाति व्यवस्था को खिलाफ लोहिया ने लोगों को गोलबंद किया। हालांकि उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि जाति आधारित श्रेणीक्रम को पालने-पोसने में ब्रिटिश प्रशासन का भी हाथ था। उनके विचारों की व्यापक दुनिया को यदि समग्रता में देखें तो लोहिया एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में सामने आते हैं जो सोचने के आधुनिक और परंपरागत दोनों तरीकों को तब तक एक साथ अपनाने के इच्छुक थे, जब तक वे सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय उत्थान में मदद करते हों।

राम मनोहर लोहिया

जाति और लैंगिक भेदभाव से मुक्त भविष्य

 1944 में लोहिया को सज़ा के दौरान लाहौर फोर्ट जेल में शारीरिक यातनाएं दी गईं। यहाँ  भी लोहिया का नजरिया दार्शनिक किस्म का था। उन्होंने उस दौर को एक संक्रमण काल की तरह मानते हुए यह महसूस किया कि चाहे कितनी ही परेशानियां आयें, देश के भविष्य के सोच और स्वप्न को लेकर किसी तरह के समझौते नहीं किये जाने चाहिए। भविष्य की दिशा को लेकर इसी नज़रिये के साथ वे अपने राजनीतिक कामकाज को आगे बढाते रहे (यादव 2009) समाज के उत्थान के बारे में अपने इस दृष्टिकोण के कारण लोहिया राजा राममोहन राय और महादेव गोविंद रानाडे जैसे उन समाज सुधारकों से एकदम अलग भूमिका में भी नज़र आये, जिन्होंने आधुनिक पश्चिमी विचारों रोशनी में अपनी प्राचीन परंपराओं की जांच-परख की थी।

राम मनोहर लोहिया कर्पूरी ठाकुर (के दाएं) और अन्य के साथ

  लोहिया हालांकि नास्तिक थे, लेकिन धर्म के खिलाफ नहीं थे (मेहरोत्रा- 1978)। उन्होंने धर्म और राजनीति के बीच समरसता पर जोर दिया। उनका मानना था कि “धर्म एक दीर्घकालिक राजनीति है और राजनीति एक अल्पकालिक धर्म।” वे यह मानते थे कि धर्म का दायित्व ज्यादा से ज्यादा अच्छाइयों को जन्म देना है, जबकि राजनीति को बुराइयों से लड़ने के लिए आगे आना चाहिए। वे भारत में धर्म की स्थिति से इसलिए नाखुश थे कि वह अब भी पंडितों और मुल्लाओं के हाथ में है जो निचले तबके के लोगों को अपने अधीन बनाये रखने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि बहुत से देशों में धार्मिक सुधार आंदोलन चले और उन्होंने धर्म की भूमिका को निजी दायरे तक सीमित कर दिया। लोहिया चाहते थे कि भारतीय जनमानस “भगवान राम या मोहम्मद साहब की आलोचना सुनने का धैर्य रखे”।  उनकी राय में,  आलोचना के मायने “रक्त बहाना या किताबों को जला देना” नहीं होना चाहिए। उन्होंने ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ की भूमिका में लिखा कि जो मीठी भावुकता धार्मिक विश्वासों को चिह्नित करती है, उसकी जगह धार्मिक सिद्धांतों और विश्वासों के उत्तेजना-रहित समीक्षा  को तरजीह दी जानी चाहिए ताकि इसका आकलन किया जा सके कि ये धार्मिक विश्वास और सिद्धांत बनाए रखने लायक हैं या नहीं। इसके नतीजे में यह बहस हो सकेगी कि धर्म के किन पहलुओं को त्यागना जरूरी है। राम, कृष्ण और शिव की कहानियां उन्हें आकर्षक लगती थीं,  लेकिन वे उन अंध-भक्तों की निंदा भी करते थे जो राम के  पत्नी को निष्कासित करने वाले , कृष्ण के चोरी करने वाले और शिव के अभक्ष भक्षण वाले रूपों को मानते हैं (मेहरोत्रा- 1978)। चित्रकार एमएफ हुसेन ने एक जगह ज़िक्र किया है कि कैसे लोहिया ने उन्हें “रामायण” और “महाभारत” पर पूरी आजादी के साथ चित्र बनाने के लिए कहा था क्योंकि वे कहानियाँ किसी समुदाय विशेष की आस्था से नहीं जुड़ी हैं (यादव 2010)। पारंपरिक विचारों से दूर लोहिया जाति व्यवस्था की असमानताओं पर गहरी नजर रखते थे।

लोगों को संबोधित करते लोहिया

लोहिया ने जाति व्यवस्था की गहरी जड़़ों,  प्रपंचों और समाज पर उसके दमनकारी प्रभावों को उस तरह खारिज (और अनदेखा) नहीं किया, जैसा उनके कई समकालीन करते थे। उनके लिए जाति के बारे में बात न करने का मतलब था भारत के एक प्रमुख और शक्तिशाली सामाजिक संगठन से मुंह मोड़ लेना। लोहिया ने कहा था, “कोई सिर्फ अपनी इच्छा से अपनी जाति को खत्म नहीं कर सकता है।” उन्होंने प्रगतिशील आंदोलनों के इस यकीन पर भी सवाल उठाया कि आर्थिक समानता ही सभी जातियों में समानता लायेगी। उनका कहना था कि ऊंची जातियां  देश के प्रमुख क्षेत्रों जैसे व्यवसाय, सेना, प्रशासनिक सेवा और राजनीति में 80 फीसद पदों पर कब्जा किये हुए हैं। लोहिया उन प्रचलित ऐतिहासिक विवरणों से भी सहमत नहीं थे जिनमें अंदरूनी झगड़ों और साजिशों को भारत में विदेशी साम्राज्य का ख़ास कारण बताया जाता था। उनका मानना था कि ” एकता का न होना प्रमुख वजह नहीं थी, बल्कि भारत पर हुए आक्रमणों और उनके आगे घुटने टेकने की वजह जाति ही रही है।”  

लोहिया अपने प्रशंसकों के बीच जिनमें महिलाएं और बच्चे भी हैं

आंबेडकर के उलट,  लोहिया जाति व्यवस्था की मजबूती और उनके कायम रहने के पीछे अंग्रेजों का हाथ मानते थे, इसलिए ब्रिटिश हुकूमत के साथ वे किसी तरह के सुलह-समझौते के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि विदेशी शासन भेदभाव को बढ़ाने की नीयत से  इस सच्चाई को झुठलाता रहा है कि जाति की पारंपरिक व्यवस्था ही ऊँच-नीच की मुख्य वजह है। लोहिया ने कहा, “जाति व्यवस्था के रहते हुए समानता की बात करना बेमानी है। वर्गविहीनता बिना जातिविहीनता के नामुमकिन है। बानिया देश के पेट पर राज करता है, बामन लोगों के दिमाग पर।” यहाँ जातिवाद पर लोहिया के विचारों का ज़िक्र भी ज़रूरी है। हिंदुत्व में जाति व्यवस्था की बुनियादी भूमिका को लेकर लोहिया की चुप्पी आश्चर्यजनक लगती है। इस मुद्दे पर उनके विचार आंबेडकर से उलट हैं और साफ़ नहीं हैं। वे गांधी की लाइन पर चलते दिखते हैं, जो यह मानते थे कि जाति व्यवस्था हिंदुत्व का महज़ एक भटकाव है। लोहिया आदिवासियों के सवाल पर भी आंबेडकर से अलहदा ढंग से सोचते थे।  आंबेडकर आदिवासियों को जंगली हालात में रहने वाले असभ्य लोग मानते थे, लेकिन लोहिया की निगाह में  वे जाति के खिलाफ धर्मयुद्ध के ज़रूरी भागीदार थे। लोहिया आंबेडकर पर यह आरोप लगाते थे कि उनके तर्क संकीर्णतावादी हैं। वे उनसे सिर्फ अनुसूचित जातियों का नहीं, बल्कि सभी भारतीयों का नेता बनने का आग्रह करते थे (लोहिया-1964:19,36-7)। हालांकि जाति के कुछ पहलुओं को लेकर लोहिया गांधी से सहमत थे,  लेकिन वे इस खतरे को भी पहचानते थे जाति के सवाल पर गाँधी का रवैया रूमानी है जो वर्णाश्रम व्यवस्था को आदर्श मानता है।

लोहिया आरक्षण व्यवस्था से भी संतुष्ट नहीं थे, जिसे निचली जातियों को अवसर देने के लिए बनाया गया था।। उनका मानना था कि  यह खासकर महिलाओं, हरिजनों, शूद्रों,  दबे-कुचले मुसलमानों, ईसाइयों और आदिवासियों के हालात सुधारने के मामले में बहुत कारगर साबित नहीं होगी। उनका ख़याल था कि हमारी कुल आबादी में 90 फीसद लोग इन्हीं वंचित तबकों के है इसलिए उन्हें शिक्षा में कम से कम 60 फीसद अवसर  (सर्जरी जैसे खास किस्म की योग्यता वाले पेशों को छोड़कर)) दिये जाने का आश्वासन मिलना चाहिए था। लोहिया का मानना था कि आरक्षण जैसी कानूनी सुरक्षा से अलग, जाति पर सामाजिक आक्रमण के लिए एकल मोर्चा—सिंगल बैरल—ही काफी नहीं है,  बल्कि इसके लिए ग्रामीण इलाकों में सभी के एक साथ खान-पान और अंतर-जातीय विवाहों जैसे रोटी-बेटी के रिश्तों को प्रोत्साहित करने के जमीनी स्तर पर आंदोलन चलाए जाएं जिनसे प्रेरणा मिले। लोहिया का मानना था कि हिंदुओं में एक दोहरा व्यक्तित्व होता है जिससे जाति व्यवस्था में खूबियाँ नज़र आती हैं। उनका यह तर्क कि जाति व्यवस्था विसंगतियों का गठ्ठर है, पहले-पहल यह विचार मार्क्सवादी इतिहासकार डी.डी. कोसंबी ने पेश किया था। कोसंबी का कहना था कि औसत हिंदू व्यक्ति उस अजगर की तरह है  जो तमाम विरोधाभासों को सुलझाए बिना ही हजम कर जाता है (पटनायक- 2009)। लोहिया समाज में जबरन लागू किये गए लैंगिक वर्गीकरणों और दमनकारी जाति व्यवस्था को एक के पीछे एक चलने वाली घटना के रूप में देखते थे।

27 मई 1964 को नस्लवाद के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए लोहिया को मिसिसिपी, अमेरिका में गिरफ्तार किया गया

अपने वक़्त के मर्दवादी दबदबों के उलट, लोहिया खुद को आधा स्त्री और आधा पुरुष के रूप में देखते थे। ‘मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म’ की भूमिका में उन्होंने कहा है कि लैंगिक असमानता ही हर अन्याय की जड़ में है। उन्होंने देखा था कि सामूहिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बेहद सीमित है– यहां तक कि रूस और अमेरिका जैसे देशों में भी, जो लैंगिक समानता हासिल करने का दावा करते हैं। लोहिया को पक्का यकीन था कि जाति और लैंगिक आधार पर भारत में जो अलगाव हुआ वही  मुख्य रूप से इसके पतन के लिए जिम्मेदार है। गरीबी के खिलाफ कोई युद्ध भी तब तक बेमानी है जब तक कि इन दो प्रमुख सामाजिक वर्गीकरणों के खिलाफ जागरूक होकर लगातार संघर्ष नहीं किया जाता। गांधीजी की ही तरह,  लोहिया चाहते थे कि महिलाएं भी राजनीतिक तौर पर सक्रिय हों और नागरिक अवज्ञा जैसे आन्दोलनों में भाग लें। लोहिया का ख़याल था कि जहां भी महिलाएं किसी नागरिक प्रतिरोध में ठीकठाक संख्या में खड़ी होंगी वहां गली-मोहल्ले के झगड़े या हिंसा के आसार बहुत कम हो जाएंगे। इस मायने में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले नागरिक प्रतिरोध की कहीं अधिक सच्ची प्रतिनिधि हैं।

    लोहिया ने हिंदू धर्म में महिलाओं को देवी के तौर पर पूजे जाने के खोखले प्रतीकों को भी बेनकाब किया। उनके मुताबिक,  देवी के रूप में महिलाओं की पूजा करना एकदम सतही बात है। वे चालू किस्म के  दोहरे सामाजिक मानदंडों का ज़िक्र करते थे, जहां पुरुषों को तो हर तरह की रियायत दी गई है जबकि महिलाओँ को पुरानी रुढ़ियों और सामाजिक बंधनों में जकड़कर रख दिया गया है। लोहिया की निगाह में ये सामाजिक बंधन और रुढ़ियां इस कदर गहरी हैं कि उन्होंने रोजमर्रा के जीवन के हर क्षेत्र में अपनी पैठ बना ली है। लोहिया लैंगिक और वैवाहिक विचारों को लेकर एक दिमाग़ी क्रांति के समर्थक थे। उनका ख्याल था कि जो यौन नैतिकताएं महिलाओं पर बंधन डालकर बनाई गई हैं वे अनिवार्य रूप से तमाम तरह की विकृतियां पैदा करेंगी, लेकिन यौनिकता के बारे में एक उदार, स्पष्ट और मुक्त नजरिया ही स्वस्थ परिवारिक और गतिशील समाज बनाएगा। उदाहरण के तौर पर, लोहिया स्वीडन की तारीफ़ करते थे जहां अस्पतालों के बाहर नोटिस बोर्ड में लिखा मिलता है- “यहाँ अविवाहित मांओं की विशेष देखभाल की जाती है।” लोहिया सामाजिक दायरे में महिलाओं के लिए “विशेषाधिकारपूर्ण व्यवहार” के  हिमायती थे। सामाजिक मंचों पर जाति और लैंगिक उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने का उनका जोश मार्क्सवाद और समाजवादी सिद्धांतों से निकली हुई राजनीतिक परिकल्पना का हिस्सा था।

भारत – केंद्रित समाजवाद

देश की आज़ादी के बाद पैदा हुई राजनीतिक जड़ता से हताश होकर लोहिया ने जमीनी स्तर पर एक समाजवादी क्रांति की परिकल्पना की जो मार्क्सवाद से प्रेरित थी, लेकिन उसका मकसद गांधीवाद था। उन्होंने समाजवादी विचारों का इस्तेमाल एक ऐसे आंदोलन को आगे बढाने के लिए किया जिसका उद्देश्य देश के भीतर और विभिन्न देशों के बीच पांच बड़ी असमानताएं दूर करना था। ये असमानताएं थी: लैंगिक असमानता, जाति असमानता, वर्ग असमानता, नस्ली असमानता और  देशों की आपसी असमानता (यादव- 2010)। लोहिया इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्याओं से प्रभावित थे क्योंकि किसी खास ऐतिहासिक कालखंड की विभिन्न भौतिक और सामाजिक कड़ियों और विरोधाभासों को जानने के लिए सबसे प्रमुख थीं। लोहिया के लिए कुदाल (रचनातमक कामकाज), जेल (जनता का सामूहिक संघर्ष) और वोट (विधायिका) –ये तीन चीजें क्रांतिकारी संघर्ष के लिए प्रतीकात्मक स्तंभ बनीं। 1952 में  पचमढ़ी के अपने भाषण में लोहिया ने देश की विशाल ग्रामीण आबादी और राष्ट्रीय विकास की रणनीति में फौरी ज़रूरतों के मद्देनज़र समाजवाद को भारत के लिए सबसे ज्यादा प्रासंगिक अर्थव्यवस्था के रूप में सामने रखा। उन्होंने कहा कि भारत में पूंजी और तकनीकी कौशल की कमी को देखते हुए यूरोप या रूस की रणनीतियां आयात करना ठीक नहीं है। उन्होंने श्रम-केंद्रित और सस्ती प्रौद्योगिकी पर फोकस करते हुए गांधीजी के चरखे और नेहरू के भारी उद्योगों के नज़रिये के बीच का रास्ता अपनाने की हिमायत की। साथ ही उन्होंने कृषि और औद्योगिक मूल्यों के बीच अधिक समानता की मांग की ताकि खेती  में लगे किसानों और ग्रामीण तबकों को नुकसान न पहुंचे। उन्होंने यह माना कि रेल या लोहा और इस्पात क्षेत्र जैसे भारी उद्योग केंद्र सरकार की देखरेख में चलने चाहिए, लेकिन वस्त्र जैसे छोटे और मंझोले उद्योगों का स्वामित्व और प्रबंधन जिलों और गांवों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। उन्हें ऐसी व्यवस्था से पैदा होने वाली चुनौतियों का एहसास था, लेकिन उनका मानना था कि इस तौर-तरीके के नतीजे में स्थानीय आर्थिक ताकतें मज़बूत होंगी और उनकी उत्पादन की क्षमता बढ़ेगी। उदार लोकतंत्र और समाजवादी आर्थिक विचारधारा, दोनों के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए लोहिया ने विकेन्द्रीकृत व्यवस्था की हिमायत की। उनके लिए समाजवादी आर्थिक ढांचा सबसे प्रमुख था  और शिक्षा पर उनके विचारों का उद्देश्य भी औद्योगिक और कृषि गतिविधियों को बढ़ाना था।

शिक्षा और भाषा का सवाल

लोहिया को उस दौर की शिक्षा व्यवस्था बिलकुल बंजर नज़र आयी जो “न तो किसी के दिमाग को प्रशिक्षित करती थी और न जीविकोपार्जन के लिए तैयार करती थी।” उन्हें लगा कि शिक्षा प्रणाली में “एक क्रांतिकारी और आमूलचूल फेरबदल ज़रूरी है ताकि वह महंगी न रहे  और उपयोगी हो सके।” आर्थिक संपन्नता हासिल करने के लिहाज से  लोहिया का मानना था कि “बच्चे की बुनियादी शिक्षा-दीक्षा का बड़ा तानाबाना किसी न किसी रूप में कृषि या औद्योगिक गतिविधियों के आसपास बुना जाना चाहिए।” इसमें बड़े पैमाने पर वैज्ञानिक, तकनीकी और औद्योगिक संस्थानों का राष्ट्रीय नेटवर्क बनाने का प्रस्ताव भी शामिल था और इसके लिए पॉलीटेक्निक और जनता के विश्वविद्यालय खोलने के सुझाव थे। उनके कुछ और सुझाव थे: स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम के तहत खेत या कारखाने में साल भर काम करने का अनुभव, एक स्वतंत्र खोज परिषदकी स्थापना जो बौद्धिक गतिविधियों को बढ़ावा दे, और एक स्कूल ऑफ़ सोशलिज्म की शुरुआत, जो खुद ही अपने आर्थिक संसाधन जुटाएगा। लोहिया छात्रों को ‘गौण विषयों’ की पढाई के लिए विदेश भेजने के खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि भारत की आर्थिक बुनियाद में कई तरह की खामियां हैं। भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधाओं में एक थी- निरक्षरता का बोलबाला इससे पार पाने के लिए लोहिया ने ‘साक्षरता सेना’ शुरू करने की बात की जिसके तहत पांच से सात लाख अनौपचारिक शिक्षकों की भर्ती किये जा सकते थे जो ग्रामीण आबादी की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। लोहिया के लिए साक्षरता परियोजना जितनी गंभीर थी,  उतना ही गंभीर भाषा का सवाल भी था  जिसमें साक्षरता हासिल की जानी थी।

उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ राम मनोहर लोहिया

गाँधी ने स्थानीय और देसी भाषा को अपनाने का आग्रह किया था जिससे लोहिया बहुत प्रभावित थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है जिसे भारत की आबादी का सिर्फ एक फीसद हिस्सा जानता है, लेकिन उसकी उन्नत स्थिति एक ताकतवर अभिजात वर्ग का ही निर्माण करेगी जो अपनी भाषाई विशिष्टता का इस्तेमाल अपने निहित हितों के लिए करेगा। उनके मुताबिक़, इस खामखयाली से बहुत नुकसान हुआ है कि अमूर्त और वैज्ञानिक विचारों को सिर्फ अंग्रेज़ी में ही व्यक्त किया जा सकता है। वे इसके उलट जापान और चीन का उदाहरण देते हुए कहते थे कि वहां उच्च तकनीकी और प्रोद्योगिकी की शब्दावली अपनी भाषाओँ में उपलब्ध है। लोहिया की चिंता व्यावहारिक भी थी- भारत को उन्नत बनाने के लिए लाखों इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित किये जाने की ज़रुरत थी, जिसे सिर्फ अंग्रेज़ी के ज़रिये करना लगभग नामुमकिन था। योगेंद्र यादव ने अपने लेख  क्या लोहिया संकीर्णतावादी और एकल-भाषी थे?”  में कहा है कि उनका नजरिया अंग्रेजी-विरोधी था, लेकिन वे उन भारतीय भाषाओं के खिलाफ नहीं थे जो हिंदी से जुडी हुई नहीं थीं। यह दुर्भाग्य है कि  उत्तर भारत के नेताओं ने लोहिया की अंग्रेजी हटाओ की मांग को हिंदी थोपे जाने से जोड़ दिया। इसके उलट, लोहिया चाहते थे कि अंग्रेजी की जगह क्षेत्रीय भाषाओं को तरजीह दी जाए और यह साफ़ किया जाए कि अंग्रेजी को अलग करने का मतलब सिर्फ हिंदी को रखना नहीं है। वे चाहते थे कि केंद्रीय प्रशासन के कामकाज में हिंदी में रखी जाए, लेकिन गैर-हिंदीभाषी क्षेत्रों की केंद्रीय राजपत्रित सेवाओं के लिए इसमें ढील दी जा सकती है। उत्तर और दक्षिण भारत के बीच भाषाई खाई को पाटने के लिए लोहिया ने नागरी लिपि में कुछ सामान्य सुधार करने बात भी कही ताकि हिंदी और दक्षिण भारत की भाषाएँ वर्तनीके लिहाज से एक-दूसरे के करीब आ सकें। लोहिया देश के भीतर क्षेत्रीय सहयोग की भावना पर जोर देते थे जिसमें  विश्व स्तर पर दूसरे देशों के साथ सहयोग की भावना भी व्यक्त होती थी।

लोहिया लोकतंत्र के सिद्धांत को राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर मानते थे। उन्होंने यूनिवर्सल एडल्ट फ्रेंचाइजी के आधार पर एक अंतर्राष्ट्रीय संसद और एक अंतर्राष्ट्रीय सरकार बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया था। उनके मुताबिक,  इस तरह की वैश्विक व्यवस्था हर राष्ट्र की सरकार की आय के एक हिस्से की हकदार होगी और उस आय का उपयोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति, प्रगति और गरीबी के खिलाफ वैश्विक संघर्ष के लिए किया जायेगा। विदेश नीति के मामलों में लोहिया भारत की क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय संप्रभुता को लेकर बहुत संवेदनशील थे। लोहिया ने अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर खुद स्टैंड लिया, अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) और सोवियत संघ दोनों को आड़े हाथ लेते हुए उन्होंने तीसरे मोर्चे की हिमायत की जो इन दोनों गुटों के घमंडी रवैये से पैदा हुए असर को विफल और बेअसर कर सकता था (लोहिया 1949)। लोहिया एक राष्ट्रीय व्यक्तित्व थे जो खुद किसी सांचे के सोच तक सीमित नहीं थे। वे देश के विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच समानता लाने, उसे हासिल करने को लेकर किसी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं थे। उनकी सक्रियता के केंद्र में जो कुछ भी था वह आम नागरिक का वैयक्तिक, सामाजिक और आर्थिक कल्याण ही था।

(अंग्रेजी से अनुवाद: कमल चंद्रवंशी, कॉपी एडिट- इमामुद्दीन)

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लेखक के बारे में

अश्मित राज

दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास से एमएम अश्मित राज ने कई जन आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई हैं जिनमें नर्मदा बचाओ आंदोलन भी है

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