h n

पारी कुपार लिंगो पेन जतरा में लगा ‘हिंदू नहीं, हम गोंड हैं’ का नारा

गोंड परंपरा के पेन पारी कुपार लिंगो की स्मृति में निकाला गया पेन जतरा कई मायनों में खास रहा। एक तरफ इस आयोजन से गोंड युवाओं को अपनी संस्कृति को समझने का मौका मिला तो दूसरी ओर दलित और ओबीसी के लोग भी शामिल हुए। इसके अलावा आदिवासी इलाकों में ब्राह्मण-संस्कृति और हिंदुत्ववाद के प्रसार  का विरोध भी किया गया। तामेश्वर सिन्हा की रिपोर्ट :

गोंड कोयतुरों [1]  के लिए सांस्कृतिक अस्मिता का सवाल महत्वपूर्ण होता जा रहा है। वे आरएसएस द्वारा अादिवासी परंपराओं के हिन्दूकरण की कोशिशाें से आक्रोशित हैं। इस आक्रोश की अभिव्यक्ति बीते 29-31 मार्च को गोंड आदिवासी परंपरा में कला, संस्कृति और सामाजिक चेतना के प्रतीक पारी कुपार लिंगो [2] की स्मृति में तीन दिवसीय पेन[3] गोंड जतरा[4]में सामने आयी। यह जतरा चार वर्षों के अंतराल पर निकाला जाता है। इस बार के आयोजन में बहुजन एकता भी देखने को मिली। बड़ी संख्या में दलित और पिछड़े वर्ग के लोग भी शामिल हुए। पारी कुपार लिंगो को गोंड समुदाय के 750 गोत्रों का जनक माना जाता है।

पारी कुपार लिंगो के प्रतीक को अपने कंधे पर उठाते लोग (पारी कुपार लिंगो पेन जतरा, 2013)

मुख्य आयोजन छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के उप तहसील आमाबेड़ा के सेमरगांव में संपन्न हुआ। इसमें कांकेर के भाजपाई सांसद विक्रम उसेंडी, विधायक भोजराज नाग, भाजपा के पूर्व सांसद सोहन पोटाई, कोंडागांव के विधायक मोहन मरकाम, भानुप्रतापपुर के विधायक मनोज मंडावी सहित अनेक नेता भी शरीक हुए। इनके अलावा तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक एवं ओड़िशा आदि राज्यों से आये  अनुसूचित जनजातियों व पिछडा वर्ग के लोग शामिल रहे।

यह भी पढें : कौन हैं पारी कुपार लिंगो, जिनके लिए हो रहा यह भव्य आयोजन

आयोजन के पहले दिन पेन ठाना[5] से जतरा स्थल तक निकाला गया। सबसे पहले पारी कुपार लिंगो के प्रतीक की मोर के पंख व अन्य सामग्रियों से साज-सज्जा स्थानीय आदिवासियों द्वारा की गई । वहीं दूसरे दिन सुबह लिंगो देव को गायता द्वारा नहलाया गया। इसके बाद लिंगो जतरा में पधारे समस्त मेहमान देवों का स्वागत किया गया। स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि इस आयोजन में उनके सभी लोक देवता प्रत्यक्ष रूप से शामिल होते हैं और इस क्रम में वे गायता लोगों के शरीर में आते हैं। दूसरे दिन की रात कर्रसाड नृत्य आकर्षण का केंद्र बना, जो सुबह तक चलता रहा। स्थानीय आदिवासी मानते हैं कि इस मौके पर होने वाले नृत्य में उनके सभी देवी-देवता भी नृत्य करते हैं। तीसरे और अंतिम दिन विश्व के सभी जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधे के संरक्षण के लिए प्रार्थना की गयी। इसके बाद देव जतरा में पधारे सभी देवताओं को विदायी दी गई।

पारी कुपार लिंगो पेन जतरा के दौरान शामिल आदिवासी (पारी कुपार लिंगो देव जतरा, 2013)

आयोजन में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस संबंध में आयोजन समिति के सदस्य मन्नू गोटा ने बताया कि हम हर जतरा में अपना सेवा देते हैं। हमलोग खाना-पीना और सुरक्षा से लेकर अनुशासन तक की व्यवस्थायें सम्भालते हैं। इसके लिए हमारे नौजवान साथी सक्रिय रहते हैं। उन्होंने कहा कि हम इस जतरा का बहुत बेसब्री से इंतजार करते हैं। यह हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़ा है। यह हमें बताता है कि हमारी परंपरा सबसे प्राचीन व सबसे समृद्ध है। हम सभी युवा इस जतरा में अपने आदिवासी देव् संस्कृति-सभ्यता के बारे में जानते हैं और गौरवान्वित होते हैं। वहीं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से आये मनीष धुर्वे ने बताया कि वे पिछले तीन वर्षों से इस जतरा का इंतजार कर रहे थे। उनके मुताबिक वे जतरा में पहली बार शामिल हुए और यह एक अद्‍भुत अनुभव रहा। उन्होंने कहा कि अब इस जतरा में आधुनिक चीजें शामिल हो रही हैं, लेकिन हम सभी अपनी परंपरा और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए सजग रहेंगे। धमतरी जिले से आए हरीश शोरी ने बताया कि वे भी पहली बार आये। इस मौके पर उन्हें अपने महान आदिवासी संस्कृति को देखने का अवसर मिला।

पारी कुपार लिंगो पेन जतरा का दृश्य। यह तस्वीर 2013 में हुए आयोजन की है। इस बार आयोजकों द्वारा पर जतरा के दौरान फोटोग्राफी पर रोक लगाई गयी थी

आयोजन के दौरान इस बार फोटोग्राफी अथवा वीडियोग्राफी पर रोक लगायी गयी थी। लिंगो पेन जतरा प्रबंधन समिति के सुद्दु पाटवी ने इस संबंध में बताया कि जतरा में पहले भी फ़ोटोग्राफी नहीं होती थी। लेकिन जैसे-जैसे विदेशी व बाहरी लोग आए, तस्वीरें ली जाने लगीं। बाद में हमने यह पाया कि बाहरी लोग हमारे जतरा के नृत्य का गलत उपयोग करते हैं। वे हमारी आदिवासी संस्कृति और सभ्यता काे बेचते हैं। कई बार तो हमारे पारंपरिक नृत्य को गलत तरीके से इंटरनेट पर डाले जाने की सूचना मिली। इसीलिए हमने फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी प्रतिबंधित किया था।

ओबीसी और दलित भी मानते हैं लिंगो काे अपना पुरखा

दलित समुदाय के सत्यार्थ करायत ने बताया कि वे दूसरी बार पेन जतरा में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने कहा कि वे पारी कुपार लिंगो को अपना पुरखा मानते हैं। पेन व्यवस्था को उनका दलित समाज भी मानता है। उनके मुताबिक पहले उन्हें इस बारे में नहीं बताया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि जिस प्रकार आदिवासियों में गोत्र होते हैं, वैसे ही हमारे समाज में भी गोत्र होते  है। उन्होंने कहा कि उनका गोत्र नाग है। गोंडी मान्यता के अनुसार इस गोत्र के लोगों की जिम्मेवारी सराई (साल) के पेड़ों की रक्षा करने की होती है। वहीं ओबीसी वर्ग के उगेश सिन्हा ने बताया कि पारी कुपार लिंगो की परंपरा से ओबीसी का गहरा संबंध रहा है। मसलन पेन जतरा तबतक शुरू नहीं होती है जबतक कि ओबीसी वर्ग के कलार जाति के लोगों के यहां बनी हुई शराब चढ़ायी नहीं जाती है। माना जाता है कि जबतक पारी कुपार लिंगो को शराब नहीं चढ़ायी जाती है, तबतक वे अपने स्थान से उठते नहीं हैं। उगेश ने बताया कि गायता[6]कई गांवों में ओबीसी वर्ग से रहते है।[7]

पारी कुपार लिंगो पेन जतरा में शामिल लेखक तामेश्वर सिन्हा

राजनेताओं का लगा रहा तांता, आरएसएस पर सवाल

आयोजन में शामिल होने वालों में कांकेर के भाजपाई सांसद विक्रम उसेंडी, विधायक भोजराज नाग, भाजपा के पूर्व सांसद सोहन पोटाई, कोंडागांव के विधायक मोहन मरकाम, भानुप्रतापपुर के विधायक मनोज मंडावी, स्थानीय जिला पंचायत अध्यक्ष देव चंद मतलाम, कांकेर जिला पंचायत अध्यक्ष सुभद्रा सलाम आदि थे। फारवर्ड प्रेस के साथ बातचीत में सांसद विक्रम उसेंडी ने कहा कि वे बचपन से इस जतरा में शामिल होते रहे हैं। यह आदिवासी संस्कृति के अत्यंत ही प्राचीन होने का प्रमाण है। हालांकि आदिवासियों के हिन्दुकरण के सवाल को उन्होंने राजनीतिक सवाल करार देकर टाल दिया। उन्होंने कहा कि यह देव जतरा हम आदिवासियों का अपना धार्मिक आयोजन है और इसे राजनीति के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। वहीं कांकेर जिला पंचायत अध्यक्ष सुभद्रा सलाम ने कहा कि कुपारलिंगो देव मेरे माइये [8] के मुख्य देव हैं। मैं बचपन से ही इसमें शामिल होती रही हूँ।

फारवर्ड प्रेस के साथ बातचीत में भाजपा के पूर्व सांसद रहे और आदिवासी समाज प्रमुख सोहन पोटाई ने अपने पाटी के के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ  (आरएसएस) पर आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक साजिश करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि आरएसएस द्वारा आदिवासियों के पुरखा को मूर्ति पूजा से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि राजिम कुंभ[9] में स्थानीय कांकेर जिले के अंतागढ़ ब्लाक के विधायक भोजराज नाग द्वारा आदिवासी देवताओं के प्रतीक ‘डांग, आंगा और डोली’[10]को लेकर जाते हैं। जबकि हमारे पुरखों और देवों का हिंन्दू धर्म से कोई संबंध ही नहीं है। उन्होंने आरोप लगाया कि नाग अपने राजनीतिक लाभ के लिए गोंड समुदाय की पेन व्यवस्था को संक्रमित कर रहे हैं। इससे पेन मंडा[11] अपवित्र होगी। उन्होंने कहा कि आदिवासी प्राकृतिक पूजक हैं। कुपारलिंगो का यह जतरा प्राकृतिक संरक्षण संवर्धन से जुड़ा है।

(इस लेख में गोंड परंपरा व शब्दों के हिंदी अनुवाद में गोंड संस्कृति व भाषा की विशेषज्ञ चंद्रलेखा कंगाली ने सहयोग किया है)

संदर्भ :

[1] सबसे प्राचीन आदिवासी

[2] गोंड संस्कृति में पारी कुपार लिंगो को सबसे पहला पुरखा माना जाता है। इन्हें सात गोत्रों का जनक भी कहा जाता है।

[3] गोंड आदिवासियों के पुरखे। इन्हें देव भी कहा जाता है।

[4] महाराष्ट्र के गोंड समुदाय के लोग यात्रा कहते हैं। वहीं इसे गोंड पुरखों व देवों का मिलन उत्सव भी माना जाता है।

[5] ठाना – पारी कुपार लिंगो का निवास स्थल

[6] छत्तीसगढ़ के गोंड परंपरा में धार्मिक कार्य करने वाले व्यक्ति को गायता कहते हैं। गोंड संस्कृति व भाषा की विशेषज्ञ चंद्रलेखा कंगाली के मुताबिक महाराष्ट्र के गाेंड समुदाय को लोग अपनी गोंडी भाषा में गायता को भूमक और मराठी में भगत कहते हैं। वहीं बिहार में भगैत परंपरा भी है।

[7] पारी कुपार लिंगो व गोंड परंपरा से दलितों व ओबीसी वर्ग की जातियों के सांस्कृतिक संबंध के बारे में गोंड भाषा व संस्कृति के अध्येता संजय जोठे बताते हैं कि गोंड परंपरा में गाय को याद कहते हैं और गाय पालने वाले को ही यादव कहा गया है। आज यह ओबीसी वर्ग में सबसे बड़ी जाति है। उन्होंने कहा कि आचार्य डॉ. मोती रावण कंगाली ने अपने शोधों के जरिए यह बताया है कि गोंड समाज के कई गोत्रों का संबंध ओबीसी की कई जातियों से है। यह संबंध पारंपरिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक है। यह बताता है कि श्रमशील जातियों में पहले गहरे संबंध थे, जिन्हें साजिश के तहत दूसरे परंपरा से जोड़ दिया। आज जब इस बारे में इतिहास को देखें तो यह बात सामने आती है कि सभी बहुजनों में अन्योन्याश्रय संबंध था।

[8] मायका/मां का घर

[9] हर साल छत्तीसगढ़ के राजिम ब्लॉक में महानदी के संगम में कथित कुंभ होता है। आरएसएस द्वारा

पिछले एक दशक में देश के कई हिस्सों में इसी तरह के तथाकथित कुंभ का आयोजन शुरू किया गया है। मसलन बिहार की राजधानी पटना में गंगा नदी के किनारे सिमरिया घाट पर कुंभ का आयोजन किया जा रहा है।

[10] गोंड आदिवासियों के लोक देवताओं को डोली में बिठाकर झांकी निकाली जाती है।

[11] मंडा – एक मंडप जिसके नीचे पारी कुपार लिंगो का प्रतीक रखा जाता है। इस मंडप में 16 खंभे होते हैं।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

तामेश्वर सिन्हा

तामेश्वर सिन्हा छत्तीसगढ़ के स्वतंत्र पत्रकार हैं। इन्होंने आदिवासियों के संघर्ष को अपनी पत्रकारिता का केंद्र बनाया है और वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रिपोर्टिंग करते हैं

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
महाराष्ट्र में आदिवासी महिलाओं ने कहा– रावण हमारे पुरखा, उनकी प्रतिमाएं जलाना बंद हो
उषाकिरण आत्राम के मुताबिक, रावण जो कि हमारे पुरखा हैं, उन्हें हिंसक बताया जाता है और एक तरह से हमारी संस्कृति को दूषित किया...