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उच्च शिक्षा में आरक्षण : एक कदम आगे, तीन कदम पीछे

केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापक संवर्ग में भर्ती में 'सभी स्तरों के अध्यापकों के लिए विभाग/विषय को इकाई के रूप में मानने' के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के आदेश, विश्वविद्यालयों की प्रवेश परीक्षाओं में ऊँचा कट-ऑफ और चुनिंदा संस्थानों को स्वायत्तता देने का निर्णय दिया जाना तीनों ही प्रतिगामी कदम हैं। हैनी बाबू एम.टी. का विश्लेषण

अगर केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थाएं (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006, उच्च शैक्षणिक संस्थानों को अधिक समावेशी बनाने की दिशा में एक प्रगतिशील कदम था, तो हाल में लिए गए तीन निर्णयों से समावेशी शिक्षा की जडों पर जबरदस्त प्रहार हुआ है, जिससे सामाजिक दृष्टि से वंचित वर्गों के सदस्यों के लिए  विश्वविद्यालयों में अध्यापक या विद्यार्थी के रूप में प्रवेश पाना अत्यंत कठिन हो जाएगा। ये तीन कदम, भर्ती के लिए आरक्षण रोस्टर, एमफिल व पीएचडी कार्यक्रमों में प्रवेश की प्रक्रिया और सरकार की आरक्षण नीति से संबंधित हैं।

नई दिल्ली में जेएनयू के छात्रों ने यूजीसी के मुख्य द्वार पर पर्चा चस्पा जताया विरोध

वर्तमान में कई विश्वविद्यालयों में यूजीसी के दिनांक 5 मार्च, 2018 के आदेश का विरोध हो रहा है। यह आदेश अध्यापक संवर्ग के पदों के लिए आरक्षण के संबंध में है। इस आदेश में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से कहा गया है कि वे ‘‘सभी स्तरों के अध्यापकों के मामले में विभाग/विषय को इकाई मानते हुए आरक्षण रोस्टर तैयार करें‘‘। यह आदेश, यूजीसी के सन् 2006 के परिपत्र के ठीक उलट है। सन् 2006 के परिपत्र (जिसे आरक्षण नीति के कड़ाईपूर्वक क्रियान्वयन संबंधी दिषानिर्देश कहा जाता है), में निर्देशित था कि  ‘‘जहां कई महाविद्यालय, एक ही विश्वविद्यालय के अंतर्गत संचालित हैं, पदों का समूहन अधिदेशात्मक है, यदि वे पद अंतर्विश्वविद्यालयी अथवा अन्तरमहाविद्यालयी स्तरों पर अन्तरणीय हैं। विभागवार उन संवर्गों के सृजन के आधार पर आरक्षण से बचने के लिए कृत्रिम रूप से पदों की संख्या को न्यून करना निषिद्ध है‘‘।

रोस्टर तैयार करने के इन दोनों तरीकों के बीच मूल अंतर इस प्रकार हैः अगर विश्वविद्यालय/महाविद्यालय को इकाई माना जाता है तो एक ही श्रेणी के सभी अध्यापकों को एक साथ रखा जाकर, 200 बिंदुओं का रोस्टर बनाया जाता है, जिससे सभी श्रेणियों के लिए निर्धारित आरक्षण उपलब्ध हो सके – अर्थात ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत, एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत। परंतु अगर विभाग/विषय को इकाई के रूप में लिया जाता है, तो 200 बिंदुओं का रोस्टर उन्हीं विभागों पर लागू होगा, जिनमें 14 अथवा उससे अधिक शिक्षक हैं। जिन विभागाें या विषयों में इससे कम संख्या में शिक्षक हैं, उनमें 13 बिंदुओं का रोस्टर लागू होगा। सरसरी निगाह से देखने पर भी यह पता चलता है कि इस ढंग से रोस्टर बनाने से एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित पदों की संख्या आधे से भी कम हो जाएगी। इसके अतिरिक्त, ऐसे विभागों, जहां किसी श्रेणी का एक ही पद है (जैसा कि कई विभागों में प्राध्यापक कैडर के मामले में है), वहां कोई आरक्षण प्रदान नहीं किया जाएगा।

जेएनयू शिक्षक संघों के सदस्यों ने छात्रों की संख्या काफी कम करने संबंधी यूजीसी के आदेश के खिलाफ मार्च निकाला

नई व्यवस्था से किस तरह आरक्षित पदों की संख्या में कमी आएगी, यह हाल के दो उदाहरणों से स्पष्ट है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक ने 8 अप्रैल, 2018 को अध्यापक संवर्ग में भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला। इस विज्ञापन में 52 पदों मे से 51 को अनारक्षित घोषित किया गया है। एकमात्र आरक्षित पद ओबीसी के लिए है। यह विडंबना ही है कि जनजातीय विश्वविद्यालय में आदिवासियों के लिए एक भी पद आरक्षित नहीं है। यह कितना बड़ा परिवर्तन है, यह इससे स्पष्ट है कि इसी विश्वविद्यालय ने 27 अक्टूबर, 2017 को – अर्थात यूजीसी का विवादास्पद आदेश जारी होने के पूर्व – 37 रिक्त पदों के लिए जो विज्ञापन जारी किया था, उसमें 15 आरक्षित और 22 अनारक्षित पद थे। अर्थात यूजीसी के आदेश के पूर्व, कुल विज्ञापित पदों में से 40 प्रतिशत आरक्षित थे। नए रोस्टर के अनुपालन में जारी किए गए विज्ञापन में दो प्रतिशत से भी कम पद आरक्षित हैं। तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय द्वारा जारी भर्ती विज्ञापन से इस अंतर को और स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है क्योंकि इस विश्वविद्यालय ने यूजीसी के आदेश के पूर्व और उसके बाद, समान संख्या में पद विज्ञापित किए हैं। नीचे दी गई तालिका से यह अंतर स्पष्ट हो जाएगा। पहला विज्ञापन 22 दिसंबर, 2017 को जारी किया गया गया था और दूसरा 11 अप्रैल, 2018 को।    

तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय द्वारा जारी दो विज्ञापनों की तुलना

पदश्रेणी22.12.1711.4.18
 सहायक प्राध्यापकअना.918
एससी20
एसटी40
ओबीसी62
दिव्यांगजन22
 सह-प्राध्यापकअना.2030
एससी00
एसटी00
 प्राध्यापकअना.913
एससी00
एसटी00
कुल पद 6665
आरक्षित पदों की संख्या 28 (42%)4

(6%)

जैसा कि हम देख सकते हैं, आरक्षित पदों का प्रतिशत 42 से घटकर 6 रह गया है। सहायक प्राध्यापकों के मामले में अनारक्षित पदों की संख्या दोगुनी हो गई है और अन्य सभी आरक्षित श्रेणियों (दिव्यांगजनों को छोड़कर) के लिए आरक्षित पदों की संख्या में दस से भी अधिक की कमी आई है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि हाल के विज्ञापन के अनुसार, सहायक प्राध्यापक के स्तर पर 81 प्रतिशत पद (22 में से 18) अनारक्षित हैं। (दिव्यांगजन श्रेणी अप्रभावित है क्योंकि उसकी रोस्टर प्रणाली में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है)। इसी तरह, प्राध्यापक और सह-प्राध्यापक स्तर पर नए विज्ञापन में एक भी पद आरक्षित नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि यूजीसी, सन् 2016 में इस निष्कर्ष पर क्यों पहुंची थी कि विभागवार या विषयवार रोस्टरों से आरक्षित पदों की संख्या में कृत्रिम रूप से कमी आएगी। यह सही है कि 13 बिंदुओं का रोस्टर अगर अपने पूरे चक्र पूर्ण कर ले, जिनकी संख्या 10 है, तो अपेक्षित प्रतिशत में आरक्षण हो जाएगा। परंतु इसे हासिल करने में कम से कम दस पीढ़ियां लगेंगी।

यूजीसी ने अपनी नीति में परिवर्तन, इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के आधार पर किया है जिसने ‘अन्तरणनीयता‘ को मुख्य मापदंड मानते हुए यह कहा है कि हर विषय/विभाग को अलग कैडर माना जाना चाहिए। यह न तो शैक्षणिक दृष्टि से उचित है और ना ही प्रशासनिक दृष्टि से। शैक्षणिक दृष्टि से इसलिए क्योंकि स्नातकोत्तर स्तर पर विषय इतने विशेषीकृत होते हैं कि एक ही विभाग/विषय में भी प्राध्यापकों का अंतरण नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत, कई बार, अलग-अलग विभागों में प्राध्यापकों की अदला-बदली करना संभव हो सकता है क्योंकि एक से अधिक विभागों में किसी विशेष विशेषज्ञता प्राप्त शिक्षक की आवष्यकता हो सकती है। प्रशासनिक दृष्टि से यह निर्णय इसलिए गलत है क्योंकि पदों की मंजूरी विषयवार नहीं दी जाती है। यूजीसी केवल किसी महाविद्यालय के लिए कुल पदों की स्वीकृति देता है और यह महाविद्यालय के प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है कि वह विभिन्न कारकों – जिनमें विद्यार्थियों की संख्या शामिल है – के आधार पर इन पदों को विभागों में बांट दे। विभिन्न विषयों के लिए स्वीकृत पदों के मामले में काफी लचीलापन रहता है और अक्सर किसी सेमेस्टर या शैक्षणिक वर्ष की आवश्यकतानुसार, किसी पद को एक विभाग से दूसरे विभाग में स्थानांतरित कर दिया जाता है। अगर विषयवार रोस्टर बनाए जाएंगे तब महाविद्यालय अपनी इस स्वंतत्रता का प्रयोग कैसे कर सकेंगे, यह स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा, महाविद्यालयों में प्रशासनिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिए एकल वरिष्ठता सूची बनाई जाती है जिसमें एक श्रेणी के सभी अध्यापक शामिल रहते हैं। अतः कैडर का निर्धारण करने के लिए पद (सहायक, सह इत्यादि) अधिक बेहतर व प्रासंगिक मापदंड है ना कि विशेषज्ञता, क्योंकि किसी भी शिक्षक का वेतनमान और सेवा शर्तें उसके पद और वरिष्ठता पर निर्भर करती हैं ना कि उसकी विशेषज्ञता के विषय पर। सच यह है कि यह पहली बार नहीं है कि यूजीसी, सामाजिक दृष्टि से कमजोर वर्गों के हित में लिए गए अपने निर्णय से पीछे हटी हो।

एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम के दौरान आरएसएस सुप्रीमो मोहन भागवत के साथ मौजूदा पूर्व एवं वर्तमान केंद्रीय मानव संसाधन विकास स्मृति ईरानी व प्रकाश जावेडकर(क्रमश:) तथा अन्य

मई 2016 में जारी एक अधिसूचना, जो ‘एमफिल/पीएचडी उपाधि प्रदान करने हेतु न्यूनतम मानदंड और प्रक्रिया के संबंध‘ में थी, में यह कहा गया था कि इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश दो चरणों में दिया जाएगा, जिसमें प्रवेश परीक्षा और साक्षात्कार सम्मिलित होगा। प्रवेश परीक्षा केवल अर्हक परीक्षा होगी (जिसमें 50 प्रतिशत अर्हता अंक होंगें)। इस अधिसूचना के पश्चात, न्यायालयों में कई प्रकरण दायर किए गए और इसका जमकर विरोध हुआ, विशेषकर जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में इसके क्रियान्वयन को लेकर, क्योकि इस विश्वविद्यालय ने एससी, एसटी व ओबीसी को परंपरागत रूप से दी जाने वाली अंकों की छूट देने से इंकार कर दिया। सन् 2016 की अधिसूचना, यूजीसी की 1989 की अधिसूचना से एकदम अलग थी, जिसमें यह कहा गया था किः

‘8 कुछ विश्वविद्यालयों में कतिपय पाठ्यक्रमों में प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा आयोजित की जाती है। कुछ मामलों में इस प्रवेश परीक्षा का दुरूपयोग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को बाहर रखने के लिए किया जाता है…प्रवेश परीक्षा अर्हकारी परीक्षा नहीं है। अर्हकारी परीक्षा वह परीक्षा है जिसे उम्मीदवार ने पहले ही विधिवत रूप से उत्तीर्ण कर लिया होता है। प्रवेश परीक्षा का उद्धेश्य मात्र यह है कि उम्मीदवारों को परस्पर गुणानुक्रम के आधार पर  क्रमबद्ध किया जा सके, विशेषकर इसलिए क्योंकि उम्मीदवार विभिन्न पृष्ठभूमियों और संकायों से आते हैं और वे राज्य के अलग-अलग हिस्सों या देश के अलग-अलग हिस्सों में पढ़े होते हैं जहां मूल्यांकन के अलग-अलग मानक होते हैं।‘‘

बल्कि 1989 का आदेश तो न्यूनतम अर्हता के लिए ऊँचे कट-आॅफ के निर्धारण को भी गलत ठहराता हैः

‘‘ 2(ई) इस जमीनी यथार्थ के प्रकाश में कि कई पाठ्यक्रमों और संकायों/विभागों, विशेषकर ऐसे पाठ्यक्रमों, संकायों और विभागों, जो करियर में आगे बढ़ने के लिए और सामाजिक स्थिति की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, में अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रवेशीकृत विद्यार्थियों की संख्या, आरक्षित सीटों से कम होती है और अनुसूचित जाति व जनजाति के उम्मीदवारों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम होती है। अतः उनके मामले में ऐसे न्यूनतम अर्हकारी अंक या कट-आॅफ निर्धारित करना, जो कि संबंधित अर्हकारी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए निर्धारित अंकों से अधिक हों, अनौचित्यपूर्ण होगा। इस तरह के मानदंड, सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के मामले में उचित हो सकते हैं क्योंकि इस श्रेणी के उम्मीदवार बड़ी संख्या में उपलब्ध रहते हैं। अनुसूचित जाति और जनजातियों के मामलों में इस तरह का कदम अनुचित होगा।‘‘

क्या हमारे विश्वविद्यालयों का ‘जमीनी यथार्थ‘ इस हद तक परिवर्तित हो गया है कि एमफिल और पीएचडी पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए बड़ी संख्या में आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार उपलब्ध हो गए हैं। जेएनयू में हाल में संपन्न प्रवेश प्रक्रिया से ऐसा नहीं लगता। कल्याण मंत्रालय के पूर्व सचिव व मानव संसाधन मंत्रालय के पूर्व सलाहकार पीएस कृष्णन द्वारा लिखे गए एक पत्र के अनुसार, केवल 1.3 प्रतिशत एससी (निर्धारित 15 प्रतिशत के विरूद्ध), 0.6 प्रतिशत एसटी (निर्धारित 7.5 प्रतिशत के विरूद्ध) व 8.2 प्रतिशत ओबीसी (निर्धारित 27 प्रतिशत के विरूद्ध) उम्मीदवारों को प्रवेश दिया गया।

इस सिलसिले में तीसरा कदम, जिसके शायद सबसे दूरगामी परिणाम होंगे, वह है चुनिंदा संस्थाओं को क्रमिक रूप से स्वायत्ता प्रदान करने का निर्णय। इससे विद्यार्थियों की भर्ती और शैक्षणिक पदों पर नियुक्तियां दोनेों प्रभावित हाेंगी। हम सब यह जानते हैं कि ‘स्वायत्ता‘ चाहे कितना ही आकर्षक शब्द क्याें न लगे किंतु शैक्षणिक दुनिया में इसका अर्थ केवल यह होता है कि शैक्षणिक संस्थाओं को यह अधिकार दे दिया जाए कि वे अपने लिए आर्थिक संसाधन स्वयं जुटाएं और इसके बदले, शासकीय नियमाें जैसे भर्ती और प्रवेश में आरक्षण, का पालन करने की अनिवार्यता से मुक्ति पा लें। आर्थिक संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी संबंधित शैक्षणिक संस्थाओं को देने का एक परिणाम यह भी होता है कि वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की पहुंच से दूर हो जाती हैं। जिन विश्वविद्यालयों को स्वायत्ता प्रदान की गई है वे अपने यहां नए शैक्षणिक कार्यक्रम प्रारंभ करने के लिए स्वतंत्र होंगे और इनमें उन्हें आरक्षण नियमों का पालन करने की बाध्यता नहीं होगी। इस तरह के स्व-वित्त पोषित शैक्षणिक कार्यक्रमों के प्रारंभ होने से विद्यार्थियों और अध्यापकों की एक नई श्रेणी उभरेगी और पारंपरिक विश्वविद्यालयों से अध्ययन कर निकलने वाले विद्यार्थियों को, जो सार्वजनिक धन से अध्ययन करेंगे, द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया जाएगा।

यूजीसी व सरकार द्वारा उठाए गए इन तीन कदमों से शिक्षा पर वर्चस्वशाली जातियों और समुदायों का एकाधिकार स्थापित होगा। अगर हम सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध हैं तो इन तीनों निर्णयों को तुरंत वापिस लिया जाना चाहिए।

 


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लेखक के बारे में

हैनी बाबू एम.टी.

हैनी बाबू एम.टी. दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विषय के एसोसिएट प्रोफेसर तथा एकेडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के सचिव हैं

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