h n

2021 में हो जातिगत जनगणना : जस्टिस वी. ईश्वरैय्या

देश में ‘ओबीसी काे ताज, ऊंची जातियों का राज’ कायम है। ओबीसी को उसका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा है। 2011 में कराई गई जातिगत जनगणना की रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं हो पाई। ओबीसी के नाम पर केवल राजनीति की जा रही है। इसके पीछे साजिश की कई परतें हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस वी. ईश्वरैय्या से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश :

आपने कहा है कि 2021 में जो जनगणना हो। यह मांग क्यों? जबकि 2011 में जो जनगणना हुई थी उसकी रिपोर्ट अभी तक जारी नहीं की गई है।

सबसे पहले तो यह कि जातिगत जनगणना क्यों होनी चाहिए। भारत बहुत प्राचीन देश है। भारत में कई जाति, समुदाय और धर्म हैं। उदाहरण के लिए यहां अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग, ईसाई, और मुसलमान आदि भी हैं। पिछड़ा वर्ग में कई जातियां हैं। यह बात समझने की है कि यहां रूलिंग क्लास और वर्किंग क्लास अलग हैं। वर्किंग क्लास वह है जो अपने पारंपरिक पेशा करता है। जैसे धोबी, हजाम, यादव, कुशवाहा, मछुआरा समाज के लोग हैं। इनमें गैरअधिसूचित जातियों के लोग भी है। इनकी कई प्रकार की समस्यायें हैं। जीवन के लिए पारंपरिक पेशा पर आश्रित इस तरह की जातियों के लोगों के लिए शिक्षा का महत्व केवल इतना ही रहा कि वह उनके पेशे में काम आये। समुचित शिक्षा नहीं होने के कारण वे आगे नहीं बढ़ सके। उन्हें रोजगार नहीं मिल सका। शिक्षा नहीं मिलने के कारण आर्थिक हिस्सेदारी तो नहीं ही मिली, राजनीतिक हिस्सेदारी भी नहीं मिली। वे पिछड़ते चले गए।

ब्रिटिश सरकार रूलिंग क्लास के इस प्रवृत्ति से वाकिफ थी। वर्किंग क्लास में असंतोष बढ़ रहा था। ब्रिटिश सरकार पिछड़ा वर्ग के समर्थन में आयी। इसके लिए उसने जातिगत जनगणना कराया। यह 1931 तक कराया गया। बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर यह समझते थे कि अंग्रेजों ने यदि भारत को आजाद किया तो सत्ता का लाभ केवल रूलिंग क्लास को मिलेगा। वर्किंग क्लास को कोई लाभ नहीं मिलेगा। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता का मतलब तभी है जब इसमें वंचित वर्गों की भागीदारी हो। वे आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भागीदारी चाहते थे।

उन्होंने एक प्रस्ताव रखा। आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी मिले। जितने मुसलमान हैं, उन्हें उस अनुपात में हिस्सेदारी मिले। ईसाईयों को भी उनकी आबादी के अनुसार हिस्सेदारी मिले। ब्राह्मणों को भी उनकी आबादी से अधिक नहीं मिले। वंचित तबकों को उनकी आबादी के आधार पर सत्ता से लेकर उत्पादन के संसाधनों में हिस्सेदारी मिले। तभी भारत का भला होगा। लेकिन उनके प्रस्ताव को माना नहीं गया। पूना पैक्ट में उन्हें समझौते के लिए मजबूर किया गया। इससे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण मिलने का मार्ग तो प्रशस्त हुआ। लेकिन पिछड़ा वर्ग के लिए कोई राह नहीं निकली।

तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को मंडल कमीशन की रिपोर्ट सौंपते बी. पी. मंडल

इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्ग को परिभाषित किया था?

इस बारे में आगे चर्चा करूंगा। 1950 में जो संविधान बना, उसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दे दिया गया। लेकिन जो अछूत नहीं थे, आदिवासी नहीं थे लेकिन सामाजिक रूप से पिछड़े थे, उनके लिए आर्टिकल 340 में प्रावधान किया गया। प्रावधान यह किया गया कि ऐसी जातियों और समुदायों की पहचान करायी जाय। साथ ही उन्हें समुचित भागीदारी मिले, इसके लिए अनुशंसायें हों। इस कारण तत्कालीन सरकार ने काका कालेलकर कमीशन बनाया। पिछड़ों की पहचान की जिम्मेवारी एक ब्राह्मण को दी गयी। कालेलकर खुद ब्राह्मण थे। उन्होंने खुद ही सरकार को अपनी रिपोर्ट दी और यह पत्र भी लिखा कि कमीशन की अनुशंसाओं को लागू नहीं किया जाय। बाद में 1979 में मोरारजी देसाई सरकार द्वारा मंडल कमीशन बनाया गया। बी.पी. मंडल ने आयोग की रिपोर्ट दो साल के अंदर  सरकार को दे दिया। लेकिन उसके आलोक में कोई कार्रवाई नहीं की गई। 1990 में जब वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग लागू ने लागू करने की घोषणा की तो दो बातें हुईं। 54 फीसदी बैकवर्ड क्लास के लोग जिनके लिए मंडल कमीशन लागू किया जा रहा था, वे सोये हुए थे। 15 फीसदी वाले ऊंची जातियों के लोग जगे हुए थे। उन लोगों ने विरोध किया। 54 फीसदी आबादी वाले पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्ष्ण केवल सरकारी नौकरियों में दी गयी। जबकि मंडल कमीशन ने पिछड़े वर्ग के विकास के लिए अनेक अनुशंसायें की थी। उन्हें लागू ही नहीं किया गया। अनुशंसा यह थी कि आबादी के हिसाब से पिछड़े वर्ग को हिस्सेदारी हर क्षेत्र में मिले। कार्यपालिका और विधायिका में भी।

 

आप यह कह रहे हैं कि मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को पूर्णतः लागू नहीं किया गया?

हाँ जी! कुछ नहीं किया गया। पूर्णत: अभी कहां लागू हुआ। वे मंडल कमीशन की एक अनुशंसा को लागू करना चाहते थे। उस समय कहा गया कि आबादी के आधार पर आरक्षण तो तब दिया जाना चाहिए जब इतने लोग पढ़े-लिखे हों। अभी तो 27 फीसदी लोग ही योग्य मिल जाएं। पिछड़ा वर्ग के लोग योग्य न बन जायें, इसलिए उन्हें शिक्षा में आरक्षण का अधिकार नहीं दिया गया। बाद में 2006 में संविधान संशोधन किया गया और उच्च शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण दिया गया। इसके लिए जब 2006 में अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री थे तब आर्टिकल 164 में जोड़ा गया। इससे पहले शिक्षा में पिछड़ों को कोई आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था।

आप भी नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज के चेयरमैन रहे। आपने कभी मंडल कमीशन के उन अनुशंसाओं को लागू करने की अनुशंसा की जिन्हें लागू नहीं किया गया?

मैंने अपनी अनुशंसायें भारत सरकार को दी। मेरे संज्ञान में भारत सरकार का एक अनुरोध लाया गया जो 2000 से ही लंबित था। वह था ओबीसी में उपवर्गीकरण। एक बात समझने की है कि रूलिंग क्लास की नजर पिछड़े वर्ग को मिलने वाले 27 फीसदी पर रही है। 1993 में जब पहली बार नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज बनाया गया तभी से इस बार पर जोर दिया गया कि ओबीसी का उपवर्गीकरण हो। तर्क यह दिया गया कि पिछड़ों को मिलने वाला आरक्षण उन लोगों को मिले जो इसके सबसे अधिक हकदार हैं। यानी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से अधिक पिछड़े हों। तो मैंने कहा कि जब तक जाति जनगणना के जरिए ओबीसी की वास्तविक जानकारी सामने न जाए तब तक वैज्ञानिक आधार पर ओबीसी का उपवर्गीकरण नहीं किया जा सकता है। मुझसे पहले कमीशन के अध्यक्ष रहे एम.एन. राव ने भी यही बात कही थी। मैंने इस बात से भी भारत सरकार को अवगत कराया था कि कमीशन को संवैधानिक अधिकार मिले ताकि वह पिछड़े वर्गों को मिलने वाले आरक्षण व योजनाओं आदि का अनुश्रवण कर सके और लागू करवा सके।

कमीशन अपना काम नहीं कर सका। क्या इसके पीछे कारण संवैधानिक अधिकार नहीं होना रहा?

मैंने पहले ही कहा कि कमीशन के पास संवैधानिक अधिकार था ही नहीं। न ही आरक्षण संबंधी कानून को क्रियान्वित कराने का अधिकार था। काम था तो केवल जातियों को ओबीसी में जोड़ना। महत्वपूर्ण यह कि 1993 से लेकर 2008 तक एक भी जाति को ओबीसी की सूची से बाहर नहीं किया गया। केवल राजनीतिक लाभ के लिए ओबीसी की सूची को लंबा किया गया। हर राज्य सरकार अपने राजनीतिक लाभ के लिए किसी खास जाति को ओबीसी की सूची में शामिल करती है और फिर केंद्रीय आयोग के पास अनुरोध भेज देती है कि उसे केंद्रीय सूची में शामिल किया जाय। कई बार दबाव भी बनाया जाता था।

वर्ष 1993 के बाद देश में ओबीसी की पॉलिटिक्स हुई है। कई राज्यों में ओबीसी से आने वाले लोग सत्ता में आए। फिर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी स्वयं को ओबीसी घोषित करते हैं। ऐसे में भी यदि मंडल कमीशन की सभी अनुशंसाओं को लागू नहीं किया गया है, तब इसके क्या कारण हैं?

वजह बहुत साफ है। ओबीसी की कोई आवाज नहीं है। एकता नहीं है। ओबीसी के लोगों को ही समझ में नहीं आता है कि सामाजिक न्याय का मतलब क्या है। फारवर्ड क्लास यानी ऊंची जातियों के लोग जो आरक्षण के विरोधी हैं, वे दुष्प्रचार करते हैं कि आरक्षण जाति के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर हो, इसके झांसे में फंसे दिखते हैं। ऊंची जातियों के लोग आज डिस्क्रिमिनेशन की बात करते हैं जब उनके बच्चों को नौकरी नहीं मिलती। लेकिन वे ओबीसी के बारे में नहीं सोचते कि किस कदर यह वर्ग वंचित रहा है। संविधान में भी लिखा है। सामाजिक न्याय मौलिक अधिकार है। लेकिन हमारे बच्चों को इस बारे में पढ़ाया ही नहीं गया है। सोशल जस्टिस के बारे में उन्हें जानकारी ही नहीं दी गयी। वकीलों और जजों को भी सोशल जस्टिस का मतलब समझ में नहीं आता। सरकार भी ओबीसी को सोशल जस्टिस का मतलब नहीं बताना चाहती है। वह उन्हें कभी पोषाहार योजना तो कभी कुछ और के नाम पर भिखारी बनाकर रखना चाहती है।

यदि ओबीसी के लोगों को सोशल जस्टिस के बारे में बताया जाता तो वे जागरूक होते और उन्हें अधिकार मिला होता। राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ती। शिक्षा में हिस्सेदारी बढ़ती। सामाजिक उत्थान होता। सामाजिक न्याय मिलता।

आपने अभी हाल में कहा कि बाहर से आने वाले ओबीसी वर्ग के लोगों को दिल्ली में आरक्षण का अधिकार मिलना चाहिए।

हाँ, दिल्ली पूरे देश की राजधानी है। अन्य राज्यों से ओबीसी के लोग आते हैं तो उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। शिक्षा में भी और नौकरियों में भी। लेकिन वहां एक शर्त रख दी गयी है। शर्त है कि 1993 के पहले आये लोगों को ही आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। एससी और एसटी के लिए कोइ्र शर्त नहीं है। मैं सरकार से यह मांग करता हूं कि वह एक समय तय कर दे। जैसे दस साल या पन्द्रह साल तक दिल्ली में रहने वाले ओबीसी के लोगों को आरक्षण मिलेगा।

 

(लिप्यांतर : प्रेम बरेलवी)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

पुष्यमित्र शुंग की राह पर मोदी, लेकिन उन्हें रोकेगा कौन?
सच यह है कि दक्षिणपंथी राजनीति में विचारधारा केवल आरएसएस और भाजपा के पास ही है, और उसे कोई चुनौती विचारहीनता से ग्रस्त बहुजन...
महाराष्ट्र : वंचित बहुजन आघाड़ी ने खोल दिया तीसरा मोर्चा
आघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर ने अपनी ओर से सात उम्मीदवारों की सूची 27 मार्च को जारी कर दी। यह पूछने पर कि वंचित...
‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा में मेरी भागीदारी की वजह’
यद्यपि कांग्रेस और आंबेडकर के बीच कई मुद्दों पर असहमतियां थीं, मगर इसके बावजूद कांग्रेस ने आंबेडकर को यह मौका दिया कि देश के...
इलेक्टोरल बॉन्ड : मनुवाद के पोषक पूंजीवाद का घृणित चेहरा 
पिछले नौ सालों में जो महंगाई बढ़ी है, वह आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह चंदे के कारण की गई लूट का ही दुष्परिणाम है।...
कौन हैं 60 लाख से अधिक वे बच्चे, जिन्हें शून्य खाद्य श्रेणी में रखा गया है? 
प्रयागराज के पाली ग्रामसभा में लोनिया समुदाय की एक स्त्री तपती दोपहरी में भैंसा से माटी ढो रही है। उसका सात-आठ माह का भूखा...