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पत्रिकाओं को सूची से हटा कर, यूजीसी ने क्लर्कों को थमा दिया एक और उत्पीड़न का उपकरण

छात्र यूजीसी पर ‘सोच पर पहरेदारी’ का आरोप लगाते हैं जबकि एक शिक्षाशास्त्री का कहना है कि पत्रिकाएं नहीं, बल्कि प्रोफेसर को सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके पीएचडी छात्र प्रकाशन योग्य शोध करते हैं। रोहित जेम्स की रिपोर्ट

एक तरफ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा अनुमोदित सूची से 4,305 पत्रिकाओं को हटाने पर सब ओर कोहराम मचा है, वहीं मुख्यधारा की मीडिया नेटवर्क के रडार पर यह मुद्दा रौशनी की एक छोटी झलक के समान है। इसलिए, एक बार फिर, यूजीसी और शिक्षा-व्यवस्था चौपट करने में लगे अन्य लोगों से संघर्ष का कार्यभार फॉरवर्ड प्रेस जैसे छोटे मीडिया प्रतिष्ठानों पर आ गई है। हालांकि यूजीसी की सूची से हटाई गई पत्रिकाओं में फॉरवर्ड प्रेस भी शामिल है, फिर भी इस मुद्दे को उठाने का हमारा उद्देश्य केवल अपने तक सीमित नहीं है। देश का वर्तमान राजनीतिक तंत्र शिक्षा-व्यवस्था से प्रगतिशील सोच, सहिष्णुता और व्यापक लोगों के समावेश को रोकने में लगा है। यह तंत्र उन पत्रिकाओं की सूची बनाने में लगा है, जो यूजीसी के तथाकथित मानदंड को पूरा नहीं करते। यह उन छात्रों व शिक्षाविदों की आवाज़ों को चुप कराने में भी लगा है, जो ब्राह्मणवादी विचारधारा का वैकल्पिक सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं या ऐसी ही कुछ अन्य अवधारणाएं प्रस्तुत करते हैं, जो वर्तमान शासन को स्वीकार नहीं है और जो इन विचारों को दबाने की जल्दी में है। सूची से बाहर की गई पत्रिकाएं इन वैकल्पिक विचारों को जगह प्रदान करती थीं।……

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लेखक के बारे में

रोहित जेम्स

रोहित जेम्स दिल्ली में कार्यरत पत्रकार हैं

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