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मदारी पासी : जिनके निशान नहीं मिटा सके इतिहासकार

अवध में किसानों के विद्रोह के अगुआ रहे मदारी पासी ने ऊंची जाति के जमींदारों और उन्हें संरक्षण देने वाले अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। उनके नेतृत्व में हुए इस विद्रोह के बारे में अंग्रेजी अखबारों में जिक्र मिलता है, लेकिन भारत के द्विजों ने उनके संघर्ष, साहस और योगदानों को दर्ज करना भी मुनासिब नहीं समझा। बता रहे हैं सुभाष चन्द्र कुशवाहा :

एका आंदोलन और मदारी पासी : हरदोई का किसान विद्रोह

अवध किसान आंदोलन के नायकों में मदारी पासी निराले और हाशिये के समाज के विरले नायक हैं। गरीब किसानों की बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति के लिए उन्होंने संगठित और विद्रोही आंदोलन चलाया था। जब दक्षिणी अवध प्रांत का उग्र किसान आंदोलन सरकार और जमींदारों के क्रूर दमन के कारण 1921 के मध्य में दबा दिया गया था तथा असहयोग आंदोलनकारियों द्वारा निगल लिया गया था, ठीक उसी समय, मदारी पासी का ‘एका आंदोलन’ हरदोई जिले के उत्तरी और अवध के पश्चिमी जिलों में 1921 के अंत में और 1922 के प्रारम्भ में प्रकाश में आया।

मदारी पासी की कोई भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के मोहनखेड़ा में उनकी स्मृति में चबूतरा का निर्माण किया गया है

 

ब्रिटिश अखबार ‘द ग्लासगो हेराल्ड’, मार्च 10, 1922 और ‘द डेली मेल’, मार्च 10, 1922 ने यह समाचार छापा-

‘‘एका’’ का विकास हरदोई का एका आंदोलन निःसंदेह खतरनाक है लेकिन एक पल के लिए यह उतना चिंताजनक नहीं माना जा सकता । इसके अपील की नवीनता, अशिक्षित जनता की कल्पना है । मदारी पासी उसके नेताओं में से एक है जो चार आना प्रति की दर से टिकट बेच रहा है। माना यह जा रहा है कि यह धारक (टिकट धारक) को स्वराज मिलने पर भूमि का अधिकार प्रदान करेगा। इस आंदोलन को करने के लिए कुछ ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक स्वरूप प्रदान किया गया है और व्यवहार में गंगा जल लेकर एकता कायम रखने का संकल्प लिया गया है। कई उदाहरण देखे गए हैं जब लोगों ने एका के शपथ को लेने से इन्कार किया लेकिन उन्हें शपथ लेने के लिए मजबूर किया गया । कुछ गांवों में एका वालों ने पंचायतों का गठन कर लिया है और एक गांव में, जहां राजनैतिक वातावरण एक हद तक उत्तेजित है, उन्होंने अपना कमिशनर, डिप्टी कमिश्नर, पुलिस अधीक्षक और शहर कोतवाल का गठन कर लिया है। असहयोग आंदोलनकारियों के भी कुछ हद तक इस नये आंदोलन के विकास पर चिंतित होने की सूचना है जो उनके नियंत्रण से बाहर हो रहा है । जमींदार आशंकित हैं कि नये ‘एका वालो’ं का उद्देश्य उन्हें उनकी रियासत से बेदखल करना है। वे सोच रहे हैं कि यह आंदोलन निश्चय ही क्रांति और अराजकता की ओर बढ़ रहा है। विश्वास किया जा रहा है कि जिले में जो एक हजार से ज्यादा गैर लाइसेंसी हथियार हैं वे अगर  एका वालों के कब्जे में आ गये तो गंभीर परिणाम हो सकते हैं।’’

द ग्लासगो हेराल्ड, मार्च 10, 1922 और द डेली मेल, मार्च 10, 1922

 

यह भी पढ़ें : अवध के किसान विद्रोह का बहुजन पुनर्पाठ

‘द स्काॅट्समैन’ ने शनिवार, 11 मार्च 1922 को दो समाचार प्रकाशित किए थे। उन समाचारों के अनुसार, मदारी पासी शुरू में गांव की चौकीदारी करने का खानदानी काम करते थे। अखबार के अनुसार वह पूर्व अपराधी थे।

ब्रिटिश सरकार मदारी पासी से जितना भयभीत थी उतना किसी अन्य किसान नेता से नहीं । यही कारण है कि बाबा रामचन्द्र का नाम किसी भी ब्रिटिश अखबार  में  देखने को नहीं मिलता जबकि मदारी पासी पर अनेक अखबारों में गंभीरता से समाचार मिलते हैं।  लंदन का एक अखबार लिखता है कि ‘यह आंदोलन हरदोई, बाराबंकी, सीतापुर और शाहजहांपुर में फैला था। इस आंदोलन के तेवर को देख प्रशासन में डर समा चुका था कि जल्द यह पूरे संयुक्त प्रांत में फैल जायेगा। जमींदारों का साफ कहना था कि वे इस संगठन के आतंकी गतिविधियों से डरे हुए हैं। एका आंदोलन का मुख्य हथियार सामाजिक बहिष्कार था। जमींदारों और टैनेन्ट्स के बीच संबंध खराब करने के अलावा इस आंदोलन के आंदोलनकारी, सरकार के विरुद्ध घृणास्पद भाषण दे रहे थे और उनमें से ज्यादा अविवेकी खुलेआम हिंसा की वकालत कर रहे थे।[1] ‘द स्काॅट्समैन’ (शनिवार, 11 मार्च 1922) के अनुसार एक वर्ष पूर्व के अवध किसान विद्रोह की तुलना में एका आंदोलन ज्यादा गंभीर था।

लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा की पुस्तक ‘अवध का किसान विद्रोह(1920-1922)’ में है मदारी पासी के बारे में विस्तृत जानकारी

एका आंदोलन की क्रांतिकारी शुरुआत 28 दिसम्बर, 1921 को मलेहरा गांव से ही हुई । गांव के जिलेदार के घर को किसानों ने घेर लिया । यह घेराव अवैध कर वसूली को लेकर था । घेराव में 500 के आसपास किसानों ने भाग लिया था। इस घेराव को स्टेट की सेना ने कुचल दिया ।

एका आंदोलन ने जल्द ही क्रांतिकारी रूप अख्तियार कर लिया। किसानों के क्रांतिकारी तेवर देख भू-स्वामियों की हिफाजत के लिए एक बार फिर शहरी कांग्रेसी सक्रिय हुए । 14 फरवरी को किशन लाल नेेहरू अतरौली गये और गांधीवादी तरीके से किसानों और जमींदारों में एका स्थापित करने का प्रयास किया । उन्होंने किसान आंदोलन में जमींदारों को शामिल करने का प्रयास किया जिससे विरोध कम हो सके। कांग्रेसियों के इस प्रयास को मदारी पासी ने सफल नहीं होने दिया । उसने असहयोगियों की राय मानने से मना कर दिया । वह जानता था कि असहयोग आंदोलनकारियों के संबंध जमींदारों से थे । दरअसल किसान इस स्थिति में आ चुके थे कि अपने आंदोलन का नेतृत्व खुद कर सकें।[2]

मदारी पासी, (चित्रकार शशिधर झा, 2018)

एका आंदोलन में कोई भी नाई सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट तक की सेवा करने को तैयार न था। यहां भी किसानों ने समानान्तर सत्ता गठन करना शुरू किया । उन्होंने अपने अधिकारी स्वयं नियुक्त कर लिए । कांग्रेसियों ने एका आंदोलन को रोकने का हर प्रयास किया मगर तेजी से फैलते एका आंदोलन को रोकने में विफल रहे । हरदोई काॅन्सट्यूशनल लीग, जो जमींदारों और वकीलों का एक संगठन था, ने 22 फरवरी 1922 को एका आंदोलन से उत्पन्न स्थिति पर विचार किया था। इन लोगों ने एका आंदोलन की उत्पत्ति को बुरे आचरण और गैर जिम्मेदार लोगों का कृत्य बताया था।[3] इससे यह सिद्ध होता है कि मदारी पासी द्वारा शुरू किया गया एका आंदोलन इतना प्रभावी था कि जमींदारों का वहां वश नहीं चलता था। हरदोई के जमींदार एक बार फिर 25 फरवरी, 1921 को संडीला में इकट्ठा हुए । उन्होंने बुरे आचरण वालों अर्थात एका वालों से सुरक्षा देने की मांग सरकार से की । उन्होंने स्वयं की सुरक्षा के लिए सिविल गार्ड बनाने का निर्णय लिया।[4]

मदारी पासी के जीवन के बारे में

मदारी पासी, पुत्र श्री मोहन पासी, ग्राम-मोहनखेड़ा, मजरा-इटौंजा, तहसील- सण्डीला, जनपद-हरदोई के रहने वाले थे ।  अनुमान किया जाता है कि मदारी पासी का जन्म 1860 के आसपास हुआ था।[5] मदारी पासी की मृत्यु लगभग 70 वर्ष की आयु में 1930 के आस-पास हुई थी।[6] सुमित सरकार ने भी उल्लेख किया है कि जून 1922 में मदारी पासी गिरफ्तार हो गये थे।[7] इस तथ्यों की पुष्टि किसी भी अन्य श्रोत से नहीं होती है । ब्रिटिश रिकाॅर्ड और तत्कालीन अखबारों की रिपोर्ट यही बताती है कि वे कभी गिरफ्तार नहीं हुए । अगर वह गिरफ्तार हुए होते और उन पर मुकदमा चला होता तो उसका रिकाॅर्ड उपलब्ध होता। मदारी पासी के एका आंदोलन में अहीर, गड़ेरिया, तेली, पासी, चमार, काछी, आरख और गद्दी जैसी उपेक्षित जातियां भाग ले रही थीं।[8]

एका आंदोलन एवं मदारी पासी के दो सहयोगियों-सोहराब और इशरबदी का भी नाम आता है  लेकिन इनके बारे में बहुत जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती ।[9] मदारी पासी के एका आंदोलन से हरदोई के प्रसिद्ध क्रांतिकारी शिव वर्मा के जुड़े होने का उल्लेख शिव वर्मा की किताब ‘मौत के इंतजार में’ शहीद स्मारक प्रकाशन, पुराना किला, लखनऊ, के पीछे के मुख्य पृष्ठ पर किया गया है । शिव वर्मा भगत सिंह से जुड़े हुए थे । जैसा कि अंतिम दिनों में मदारी पासी के भगत सिंह के पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियशन में शामिल होने का संदर्भ मिलता है तो वह शिव वर्मा के सहयोग से संभव हुआ था।

(कॉपी एडिटर : नवल)

संदर्भ :

[1] वेस्टर्न टाइम्स, मार्च 09, 1922

[2] द पायनियर, मार्च 10, 1922; कपिल कुमार, पीजेंट इन रिवोल्ट, वही, पृष्ठ 200

[3] द लीडर, मार्च 04, 1922

[4] द पायनियर मार्च 11, 1922

[5] रामप्रकाश सरोज, वही, 23, 25, 74य नन्द किशोर सिद्धार्थ, वही, पृष्ठ 24, 25

[6] रामप्रकाश सरोज, वही, पृष्ठ 62, 64, 66, 67 और 69

[7] सुमीत सरकार, वही, पृष्ठ 193

[8] रामप्रकाश सरोज, वही, पृष्ठ 59, 60, और 61

[9] सेलेक्टेड सबाल्टर्न स्टडीज, रंजीत गुहा एण्ड गायत्री चक्रवर्ती स्पीवक, पृष्ठ 280, न्यूयार्क आक्सफोर्ड, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1988


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लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र कुशवाहा

सुभाष चन्द्र कुशवाहा एक इतिहासकार और साहित्यकार के रूप में हिंदी भाषा भाषी समाज में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’, ‘अवध का किसान विद्रोह : 1920 से 1922’, ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’, ‘भील विद्रोह’, ‘टंट्या भील : द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर’ और ‘चौरी-चौरा पर औपनिवेशिक न्याय’ आदि शामिल हैं। वे अपनी किताबों में परंपरागत इतिहास दृष्टियों के बरक्स एक नयी इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।

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