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 गरीबों के लिए न्याय का पर्याय था दलित पैंथर

1972 में शुरू हुआ दलित पैंथर्स आंदोलन महाराष्ट्र में दलितों के असंतोष और आक्रोश की सबसे मुखर अभिव्यक्ति थी। इस संगठन के बैनर तले दलितों ने सीधे जातिगत अत्याचार का प्रतिकार किया। दलित पैंथर्स के संस्थापकों में से एक जे.वी. पवार से ‘द वायर’ के लिए सिद्धार्थ भाटिया के  साक्षात्कार का हिन्दी अनुवाद

दलित पैंथर के स्थापकों में से एक जेवी पवार से संवाद

 1970 के दशक में नई राजनीतिक और सामाजिक शक्तियां अति आक्रामकता के साथ सामने आई थीं। इन शक्तियों ने पूरे देश के सताये हुए दलितों को अपनी ओर खींचा। इसी समय के आसपास बॉम्बे के युवा दलितों में एक नई चेतना उभर रही थी। इसी नई चेतना की परिणति थी दलित पैंथर्स जो 1960 के दशक में अमेरिका में उभरे प्रसिद्ध ब्लैक पैंथर पार्टी से गहरे स्तर पर प्रभावित थी। यह नया संगठन ऊंची जातियों और राज्य द्वारा होने वाले उत्पीड़न का मुकाबला परंपरागत तरीकों से करने से संतुष्ट नहीं था।

“दलित पैंथरस : एन एथोरीटेटिव हिस्ट्री” व लेखक जे. वी. पवार

बहुत जल्दी ही दलित पैंथर प्रसिद्ध हो गया। इसकी प्रसिद्धि का कारण अन्याय का सामना करने और दलितों पर अत्याचार के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करने के इसके तरीके में निहित था। इसकी कुछ कार्यनीतियां काफी हद तक अलोकतांत्रिक हो जाती थीं और यह संगठन 1974 में बीडीडी चौल (बॉम्बे का एक इलाका) में हुए दंगे से नजदीकी तौर पर जुड़ा था।

अपने गठन के मात्र 5 वर्ष बाद 1977 में यह  संगठन विसर्जित हो गया। इसके विसर्जन के मूल में अंदरूनी संघर्ष और अपने शुरुआती आदर्शवाद से किनारा करना था। इस आंदोलन के  परिदृश्य से ओझल होने के बावजूद, उसकी प्रतिष्ठा धूमिल नहीं हुई, बल्कि बढ़ी। इसके कुछ शुरुआती अगुआ नेताओं को काफी प्रतिष्ठा मिली और ये नेता अपने क्षेत्र में अच्छी तरह से जाने जाते थे।

अपनी हाल में अंग्रेजी में अनूदित पुस्तक दलित पैंथर्स :एन ऑथोरिटेटिव हिस्ट्री’ में जे.वी. पवार इस संगठन के शुरुआती दिनों को याद करते हैं कि अन्याय से लड़ने के सपने को ग्रहण कैसे लगा। पवार इस संगठन के संस्थापकों में से एक थे।

पवार इस समय भारतीय रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े हैं। इस पार्टी के नेता प्रकाश आंबेडकर  हैं। वे देश के वरिष्ठ दलित नेताओं में गिने जाते हैं। जे.वी. पवार ने द वायर  से अपनी किताब, दलित पैंथर्स और आज की दलित राजनीति पर बातचीत की।

दलित पैंथर्स के जन्म की कहानी क्या है?

सातवें दशक में महाराष्ट्र में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती  जा रही थीं।  ये अत्याचार अमानवीय थे। एक छोटे से गांव ब्राह्मणगांव की एक घटना है। यहाँ दो दलित महिलाओं को नंगाकर सड़क पर घुमाया गया। हममें से कुछ लोग मुख्यमंत्री वी.पी. नाईक के पास प्रतिनिधिमंडल लेकर गए और पूरे गांव को दंडित करने की मांग की।

मुख्यमंत्री ने सुझाव दिया कि हम लोग (दलित लोग) उस गांव में जायें और जांच-पड़ताल करें। इस जांच-पड़ताल से निकले निष्कर्षों को वे लागू करते। पुलिस पहले से ही अपनी ओर से जांच कर रही थी। हमने मुख्यमंत्री का प्रस्ताव मानने से  इंकार कर दिया। कोई  भी, विशेष तौर पर उच्च जातियां हमसे बात नहीं करती। हमने कहा कि हम कोई तथ्य नहीं प्राप्त कर पायेंगे।

इस स्थिति में हमारे पास कोई उपाय नहीं था। हमने तय किया कि हम दलितों को सरकार को चेतावनी देनी चाहिए। एक ज्ञापन तैयार किया गया, जिसमें कहा गया कि अपराधी को जरूर सजा मिलनी चाहिए। इस ज्ञापन की एक पंक्ति में यह कहा गया था कि, ‘यदि अपराधी को सजा नहीं दी जायेगी, तो हम कानून हाथ में ले लेंगे’। बहुत सारे अन्य दलितों ने इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि ऐसा कहना अलोकतांत्रिक है और बाबा साहब आंबेडकर ने कहा था कि हमें हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए।

दलित पैंथर्स के प्रमुख नेताओं में एक नामदेव ढसाल (बीच में)

मैं और मेरे घनिष्ठ मित्र नामदेव ढसाल एक दिन जब कमाथीपुरा में टहल रहे थे, तो हम दोनों ने तय किया कि कुछ अलग किए जाने  की जरूरत है और हमने एक संगठन बनाने का निर्णय लिया। इस प्रक्रिया में दलित पैंथर का जन्म हुआ। उस समय हम लोग कमाथीपुरा में रहते थे।

तो क्या इसी तरह दलित पैंथर का जन्म हुआ?

हां, ढसाल मेरे करीब ही रहते थे और हम लोग प्रतिदिन मिलते थे।  मैंने कहा कि हमें एक ऐसा संगठन तैयार करना चाहिए, जो भूमिगत तौर पर काम करे। ढसाल ने कहा कि इसकी कोई  जरूरत नहीं है। हमने ब्लैक पैंथर्स के बारे में सुन रखा था, टाइम पत्रिका में इसके बारे में पढ़ा था। हालांकि उस समय तक करीब-करीब वह संगठन खत्म हो चुका था, लेकिन उसकी प्रतिष्ठा कायम थी। हमने अपने को दलित पैंथर्स कहने का निर्णय लिया, यहां तक कि हमने ब्लैक पैंथर का लोगो भी अपना लिया। हमने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी किया कि हम इस संगठन की स्थापना कर रहे हैं और यह संगठन जैसे को तैसा में विश्वास करता है। यह विज्ञप्ति सभी अखबारों को भेजी गई। किसी ने भी इस ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया, यहां तक पुलिस ने भी नहीं।

क्या आपने कोई योजना बनाई थी?

मैं बैंक में नौकरी करता था। मैं बहुत बेचैन था, कुछ ऐसा करना चाहता था जिसका नतीजा दिखे। अमिताभ बच्चन हमारे नायक थे। वे आक्रोश से भरे  हुए थे। हमने पुणे और थाणे में अपना ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। ये दोनों जगह बॉम्बे से नजदीक थी। एक बार, जब हमने एक गांव में अत्याचार के बारे में सुना तो हमने वहां जाने का निर्णय लिया। हमने शहर के झोपड़पट्टी सहित सभी दलित क्षेत्रों में इसकी सूचना दे दी। हमारे साथ जो भी इस गांव में जाना चाहते थे उनको एक सवारी गाड़ी (ट्रेन) पकड़ने के लिए एक विशेष स्टेशन पर आना था। यह ट्रेन उस क्षेत्र में सुबह पहुँचती थी।

हम उम्मीद कर रहे थे कि कुछ ही लोग पहुंचेंगे, लेकिन 500 से अधिक लोग पहुंच गये। हमें याद है कि उस समय मोबाइल की सुविधा नहीं थी और बेसिक फोन से फोन करना भी कठिन था। हम सभी ने ट्रेन पकड़ी। जहां तक मुझे याद है, मेरे और कुछ अन्य लोगों के अलावा अन्य सभी लोग बिना टिकट थे, जैसा कि आजकल भी पैसेंजर ट्रेनों में होता है।

यह सब कुछ स्वतः स्फूर्त था?

हां पूरी तरह से। हमारे पास कोई संगठन नहीं था। हम उस गांव में जाते थे जहां से अत्याचार की सूचना मिलती थी और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उच्च जातियों के लोग अत्याचार न करें, हम दबाव की रणनीति अपनाते थे। उदाहरण के लिए हम गांव में जाते थे और गांव के सरपंच का पता लगाते थे। यह सरपंच प्रायः उच्च जाति का और कांग्रेसी होता था। उन दिनों कांग्रेस हर जगह मौजूद थी। लोगों का जो हुजूम हमारे साथ ट्रेन में गया वह एक छोटी पहाड़ी पर जमा हो गया। उनके हाथ में धातु की बनी वस्तुएं होतीं, यहां तक की कुछ लोगों के हाथ में चाकू भी था। हम लोग गांव के मुखिया से कहते थे कि आप या आपके गांव के लोगों ने यह अत्याचार किया है। जो कुछ भी हुआ था, उसे बंद कर दीजिए। उदाहरण के लिए उसने (या किसी अन्य ने) हमारे दलित भाइयों की जमीन हथिया ली होगी या जिस कुएं से दलित पानी पीते हैं उसमें मानव मल डाल दिया होगा। जो लोग वहां खड़े हैं वे लोग मेरे एक इशारे पर गांव पर हमला बोल देंगे। कुछ दूरी पर खड़े लड़कों के हाथों में जो वस्तुएं थीं उन्हें वे दिन के प्रकाश में चमकाते जो काफी नाटकीय लगता।  

दिनांक 29 अप्रील 1975 को मुंबई में गांधी जी की एक किताब सार्वजनिक तौर पर जलाने पर जे. वी. पवार को गिरफ्तार करती पुलिस

हमारे हाथ में स्टांप पेपर होता, जिस पर गांव का मुखिया जल्दी से अपने अपराधों का कबूलनामा लिखता जिसमें यह लिखा होता कि वह जमीन या फसल लौटा देगा।

लेकिन यह तो लोकतांत्रिक नहीं था!

कभी कोई हिंसा नहीं हुई। किसी को भी मारा पीटा नहीं गया, किसी की भी हत्या नहीं हुई। एक बार हमने गांव के मुखिया से दलितों के कुएं से पानी पीने को कहा। जैसै ही वह ऐसा करने को तैयार हुआ, हमने उसे रोक दिया क्योंकि उसे सबक सिखा दिया गया था। हमने वे हस्ताक्षरित दस्तावेज किसी को नहीं दिये। जब यह कबूलनामा लिखा जा रहा होता, हम एक स्थानीय पुलिसवाले को वहाँ खड़ा होने के लिए कहते। पर हम वे सारे दस्तावेज अपने साथ लेकर आए। आज भी इनमें से कुछ मेरे पास हैं।  

इन चीजों ने आप लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाने में मदद की होगी?

बहुत ही कम समय में लोग दलित पैंथर्स से अच्छी तरह परिचित हो गए थे। महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स नाम गरीबों के लिए न्याय का पर्याय और उन लोगों के लिए चेतावनी बन गया था, जो दलितों पर अन्याय करते थे। पैंथर्स की शाखाएं भारत के अन्य हिस्सों में खुलीं। मुझे जे.वी. पवार, दलित पैंथर, बॉम्बे के नाम-पते पर पत्र प्राप्त होते थे।

सरकार ने हमारी गतिविधियों पर ध्यान दिया। हमें ट्रेनों में, रेलवे प्लेटफार्मों पर, यहां तक कि घर छोड़ने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया जाता था। पुलिस हम जैसे नेताओं को गिरफ्तार करती और अन्य लोगों को छोड़ देती थी। राजा ढाले जैसे अन्य दलित नेता जल्दी ही हमारे साथ जुड़ गए। हमारा तेजी से विस्तार होने लगा।

यह वही समय था, जब आपकी उपस्थिति बॉम्बे में महसूस होन लगी थी।

हां, यह 1974 के शुरू के दिनों की बात है। बॉम्बे में एक उप-चुनाव था। इस चुनाव क्षेत्र में ऐसे क्षेत्र थे जिसमें दलित प्रभावी स्थिति में थे, जैसे कि वर्ली और नैगाम। पैंथर्स ने आह्वान किया कि दलितों को अत्याचारों के खिलाफ प्रतिरोध जताने के लिए उन चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए। कांग्रेस जिसने रिपबल्किन पार्टी से गठबंधन किया था, इस आह्वान से अवाक रह गई।

बीडीडी चाल में 5 जनवरी को हुई बैठक में हमने लोगों को संबोधित किया था और इस बैठक के बाद हम लोगों में से कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया। मैं बचकर निकल गया और भूमिगत हो गया, लेकिन कुछ ही दिनों बाद मुझे पकड़  लिया गया।

लेकिन जिस दिन सार्वजनिक सभा हुई उसी दिन से दंगे शुरू हो गए। शिवसेना जो उन दिनों, ‘नाईक की सेना’ के रूप में जानी जाती थी, इन दंगों में शामिल हो गई। बीडीडी चाल में बहुत सारे पुलिसवाले रहते थे। इन पुलिसवालों के बेटे पुलिस की वर्दी पहनकर कर्फ्यू के दौरान आते और हिंसा में शामिल होते।

“दलित पैंथरस : एन एथोरीटेटिव हिस्ट्री”, लेखक जे. वी. पवार, मराठी से अंग्रेजी अनुवाद रक्षित सोनावने, फारवर्ड प्रेस बुक्स, दिल्ली, 248 पृष्ठ, मूल्य – 500 रुपए

उन दिनों हम लोग यानी दलित पैंथर्स संख्या में बहुत कम थे, लेकिन कुछ कारणों से मीडिया हमारा नाम  हर दंगे में दलितों की प्रतिक्रिया के साथ जोड़ देती थी। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने पर, हर जगह हमारा नाम होता।

छिटपुट रूप में हिंसा तीन महीनों तक जारी रही। दलित पैंथर्स पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया। अब और अधिक लोग हमसे जुड़ना  चाहते थे।

इसके बाद तो आपको एक मजबूत संगठन बन जाना चाहिए था, लेकिन यह हुआ नहीं।

दलित पैंथर्स के हम पांच नेता थे और भूमिगत रहने के दौरान हमने एक कोड विकसित किया था जिसमें हम पांच पांडवों के नामों का इस्तेमाल करते थे। मैं भीम था। सबकी अपनी-अपनी एक खास भूमिका थी।

राजा ढाले आंबेडकरवादी थे। मैं भी आंबेडकरवादी था, लेकिन ढसाल मार्क्सवादी के रूप में जाने जाते थे। इसका मतलब यह नहीं था कि उन्होंने मार्क्स को पढ़ा था। उनकी पढाई स्कूल में ही छूट गई थी, लेकिन वे वामपंथी विचारधारा के समर्थक थे। एक सार्वजनिक सभा में उन्होंने कहा था,मैं एक जन्मजात कम्युनिस्ट हूँ  जो बात उन्होंने नहीं कही, वह यह थी कि यह बाबा साहब आंबेडकर का उद्धरण था जिन्होंने यही बात कही थी और जिसका निहितार्थ यह था कि उन्हें वामपंथ में शामिल होने की जरूरत नहीं थी, वह वामपंथी विचारधारा को समझते थे।

मीडिया ढसाल को एक वामपंथी के रूप में प्रस्तुत करती थी। आप जानते हैं कि मीडिया उस समय वामपंथियों और उनके समर्थकों से भरी हुई थी। वे सभी लाल रंग में रंगे हुए थे।  उन्होंने उन्हें एक महान कम्युनिस्ट नायक के रूप में प्रस्तुत किया। बाद में ढसाल ने गायक अमर शेख की बेटी से शादी की जो वास्तव में एक कम्युनिस्ट थे। इन सभी बातों ने आम दलितों के बीच इस विश्वास को बढावा दिया कि वह वास्तव में कम्युनिस्ट हैं और श्रीपाद डांगे के नेतृत्व में उस समय कम्युनिस्टों का कांग्रेस से नजदीकी रिश्ता था। कांग्रेस हमारी दुश्मन थी।

इसी समय कांग्रेस के भीतर के कुछ महत्त्वपूर्ण वामपंथी ढसाल को पटाने लगे। वे उनको डिनर और ड्रिंक पर आमंत्रित करते। आप कल्पना कर सकते हैं कि जिस आदमी को आसानी से पेट भर भोजन नहीं मिल सकता था (उस समय उनके पास कोई नौकरी नहीं थी), उन्हें पांच सितारा होटलों में दावत दी जा रही थी।

इससे पार्टी के लोगों में भ्रम फैला। हमारे समर्थकों के मन में यह प्रश्न उठने लगा कि हम किस चीज के लिए संघर्ष कर रहे हैं और क्या हम अपने सिद्धांतों से दूर हट रहे हैं। ढसाल हमसे किनारा करने लगे।

ढसाल आपके मित्र थे।

हां वे मेरे बहुत घनिष्ठ मित्र थे। किसी को भी पढ़ने से पहले मैं उनकी कविता पढ़ता था। वे विश्वस्तरीय कवि थे। आप कल्पना कर सकते हैं कि जो व्यक्ति कक्षा नौ से आगे न पढ़ा हो, जिसका पालन-पोषण रेडलाइट एरिया में हुआ हो, जिसके तौर–तरीके अपरिष्कृत हों, लेकिन वह इतनी महान कविता लिखता हो। निश्चित तौर पर साहित्यिक समुदाय ने उन्हें काफी प्रोत्साहन दिया। इस समूह के बीच में बहुत सारे वामपंथी लोग थे। यह कोई टिप्पणी या आलोचना नहीं है- केवल एक सीधा-सादा बयान है। हम अपने अलग-अलग रास्तों पर गए, लेकिन उनकी मौत के समय तक मैं उनको अपना मित्र मानता रहा। उनका नाम हमेशा महान कवियों में गिना जायेगा।

दलित पैंथर्स को इसने कैसे प्रभावित किया?

इसके अलावा बहुत सारी अन्य चीजें भी घटित हुईं।  बहुत सारे दलित जो दलित पैंथर्स में पदाधिकारी बन गए थे, खास करके छोटे गांवों और कस्बों में, उन्होंने अपनी हैसियत का दुरुपयोग किया। उन्होंने सौदेबाजी शुरू कर दी, जमीनों की लेन-देन में शामिल हो गए, प्रशासन के साथ मिलकर काम करने लगे। उन्होंने अपने उत्तरादायित्वों का त्याग कर दिया।

मार्च 1977 में हमने घोषित किया कि दलित पैंथर्स अपने अंत की ओर बढ गया है। हमने इसे भंग कर दिया। और इस तरह इसका अंत हो गया।

उसके बाद दलित राजनीति में बहुत सारे परिवर्तन आये हैं। आज यह दिशाहीन दिखता है और भिन्न-भिन्न पार्टियां दलितों की आवाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती हैं। ऐसा क्यों है?

दलितों के साथ समस्या यह है कि हर कोई नेता होना चाहता है। ज्यों ही कोई लोकप्रिय हो जाता है, वह अपना संगठन खड़ा करना चाहता है। कोई एकता नहीं है। अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए ये किसी से भी गठबंधन कर लेंगे। वे राजनीति को जीविकोपार्जन के साधन के रूप में देखते हैं। इस तरीके से आप एक उद्देश्य के लिए संघर्ष नहीं कर सकते।

 

(अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद-जयगोविन्द, कॉपी एडिटिंग : अशोक)

 

(मूल रूप से अंग्रेजी में  यह साक्षात्कार ‘द वायर’ में 19 मार्च 2018 को प्रकाशित किया हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद साक्षात्कारकर्ता की अनुमति से प्रकाशित किया गया है।)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ भाटिया

मुंबई के रहने वाले सिद्धार्थ भाटिया 'द वायर' के संस्थापक संपादक हैं

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